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नज़्म
मैं अक्सर देखने जाता था उस को जिस की माँ मरती
और अपने दिल में कहता था ये कैसा शख़्स? है अब भी
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
नज़्म
नहीं मालूम 'ज़रयून' अब तुम्हारी उम्र क्या होगी
वो किन ख़्वाबों से जाने आश्ना ना-आश्ना होगी
जौन एलिया
नज़्म
अंधेरा हर तरफ़ छाया हुआ है
अंधेरा ही अज़ल है और अंधेरा ही अबद की जोत है शायद