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नज़्म
वो चश्म-ए-पाक हैं क्यूँ ज़ीनत-ए-बर-गुस्तवाँ देखे
नज़र आती है जिस को मर्द-ए-ग़ाज़ी की जिगर-ताबी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ये किस तरह याद आ रही हो ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो
कि जैसे सच-मुच निगाह के सामने खड़ी मुस्कुरा रही हो