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नज़्म
वो हँसती हो तो शायद तुम न रह पाते हो हालों में
गढ़ा नन्हा सा पड़ जाता हो शायद उस के गालों में
जौन एलिया
नज़्म
क्या सख़्त मकाँ बनवाता है ख़म तेरे तन का है पोला
तू ऊँचे कोट उठाता है वाँ गोर गढ़े ने मुँह खोला
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
है लहद इस क़ुव्वत-ए-आशुफ़्ता की शीराज़ा-बंद
डालती है गर्दन-ए-गर्दूं में जो अपनी कमंद
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
या ख़ुदा ये मिरी गर्दान-ए-शब-ओ-रोज़-ओ-सहर
ये मिरी उम्र का बे-मंज़िल ओ आराम सफ़र
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इधर-उधर से यहाँ वहाँ से अजब कहानी गढ़ी गई थी
समझ में आई न इस लिए भी के दरमियाँ से पढ़ी गई थी