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नज़्म
आग़ोश-ए-वालिदा में पाला था हम को जिस ने
इक पैकर-ए-अदब में ढाला था हम को जिस ने
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
नज़्म
मैं ने ख़्वाबों के समन-रंग शबिस्तानों में
लोरियाँ दे के ग़म-ए-दिल को सुलाना चाहा
नरेश कुमार शाद
नज़्म
मैं औरत हूँ तख़्लीक़-ए-जहाँ का इक सबब भी हूँ
मैं बिल्कुल बे-तलब हूँ और ज़माने की तलब भी हूँ
ज़ेबुन्निसा ज़ेबी
नज़्म
कोई मुख़्लिस मुझे तुझ सा न मिला तेरे बाद
याद आती है बहुत तेरी वफ़ा तेरे बाद