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नज़्म
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
गर तो है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मैं हूँ ऐसा पात हवा में पेड़ से जो टूटे और सोचे
धरती मेरी गोर है या घर ये नीला आकाश जो सर पर
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
सुला लेगी हमें ख़ाक-ए-वतन आग़ोश में अपनी
न फ़िक्र-ए-गोर है हम को न मुहताज-ए-कफ़न हम हैं
आनंद नारायण मुल्ला
नज़्म
जाती हूँ, घबराते क्यूँ हो? क्या अँधियारी घोर नहीं?
दो दिल राज़ी के बारे में क़ाज़ी का कुछ ज़ोर नहीं