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नज़्म
हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की आज उगती है कल कटती है
जीवन वो महँगी मदिरा है जो क़तरा क़तरा बटती है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज
साहिर लुधियानवी
नज़्म
हम कि ठहरे अजनबी इतनी मुदारातों के बा'द
फिर बनेंगे आश्ना कितनी मुलाक़ातों के बा'द