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नज़्म
क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क़ौम मज़हब से है मज़हब जो नहीं तुम भी नहीं
जज़्ब-ए-बाहम जो नहीं महफ़िल-ए-अंजुम भी नहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
देख मिरी जाँ कह गए बाहू कौन दिलों की जाने 'हू'
बस्ती बस्ती सहरा सहरा लाखों करें दिवाने 'हू'
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
आह लेकिन कौन जाने कौन समझे जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
अन-गिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उन के
साहिर लुधियानवी
नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
देखता है तू फ़क़त साहिल से रज़्म-ए-ख़ैर-ओ-शर
कौन तूफ़ाँ के तमांचे खा रहा है मैं कि तू
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
साकिनान-ए-अर्श-ए-आज़म की तमन्नाओं का ख़ूँ
इस की बर्बादी पे आज आमादा है वो कारसाज़