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नज़्म
कुंदन-रस खेतों में तेरी गोद बसाने वाले
ख़ून पसीना हल हंसिया से दूर करेंगे काल रे साथी
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
तेरी चाहत में यूँही मिटते चले जाते हैं
आतिश-ए-इश्क़ से खुलता हुआ कुंदन सा बदन
विनोद कुमार त्रिपाठी बशर
नज़्म
पर अफ़्सोस जब देर तक बारिश न हो तो पीली पड़ जाती हूँ
मगर धूप पहले मुझे सोना और फिर कुंदन बना देती है