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नज़्म
इस देस में हुए हैं हज़ारों मलक-सरिश्त
मशहूर जिन के दम से है दुनिया में नाम-ए-हिंद
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अभी इम्काँ के ज़ुल्मत-ख़ाने से उभरी ही थी दुनिया
मज़ाक़-ए-ज़िंदगी पोशीदा था पहना-ए-आलम से
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तितली का नाज़-ए-रक़्स ग़ज़ाला का हुस्न-ए-रम
मोती की आब गुल की महक माह-ए-नौ का ख़म
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मलक झूला झुलाते थे ग़ज़ल-ख़्वाँ हूर होती थी
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
और चले हैं पूरे मलक की फ़िक्र करने
बल्कि सारी इंसानियत का ग़म पाल रखा है आप ने तो
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
बहिश्त-ओ-ख़ुल्द की अबस तुझे है अर्श जुस्तुजू
मलक-सरिश्त है यहाँ हर एक मर्द-ए-ख़ूब-रू
अर्श मलसियानी
नज़्म
सोहबत-ए-हूर-ओ-मलक ऐ 'अश्क' ख़ुश आए न क्यों
मिलते-जुलते थे फ़रिश्तों से ख़िसाल-ए-'आरज़ू'
मासूम शर्क़ी
नज़्म
क़ौम-ए-आवारा इनाँ-ताब है फिर सू-ए-हिजाज़
ले उड़ा बुलबुल-ए-बे-पर को मज़ाक़-ए-परवाज़
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में
उस के मल्बूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है