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नज़्म
परे है चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम से मंज़िल मुसलमाँ की
सितारे जिस की गर्द-ए-राह हों वो कारवाँ तो है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ढूँडी है यूँही शौक़ ने आसाइश-ए-मंज़िल
रुख़्सार के ख़म में कभी काकुल की शिकन में
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
हर मंज़िल में अब साथ तिरे ये जितना डेरा-डांडा है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ये दस्तूर-ए-ज़बाँ-बंदी है कैसा तेरी महफ़िल में
यहाँ तो बात करने को तरसती है ज़बाँ मेरी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मैं वो नग़्मा हूँ जिसे प्यार की महफ़िल न मिली
वो मुसाफ़िर हूँ जिसे कोई भी मंज़िल न मिली
साहिर लुधियानवी
नज़्म
ख़ुफ़्ता-ख़ाक-ए-पय सिपर में है शरार अपना तो क्या
आरज़ी महमिल है ये मुश्त-ए-ग़ुबार अपना तो क्या
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मंज़िल-ए-इ'ल्म के हम लोग मुसाफ़िर हैं मगर
रास्ता हम को दिखाते हैं हमारे उस्ताद