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नज़्म
अभी तो फ़ाक़ा-कश इंसान से आँखें मिलाना है
अभी झुलसे हुए चेहरों पे अश्क-ए-ख़ूँ बहाना है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
इन अनासिर को मोहब्बत से मिलाना होगा
किश्वर-ए-हिन्द का इंसान बनाना होगा
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
नज़्म
किसी का नाम लिक्खा है मिरी सारी बयाज़ों पर
मैं हिम्मत कर रहा हूँ यानी अब उस को मिटाना है
जौन एलिया
नज़्म
किताब-ए-मिल्लत-ए-बैज़ा की फिर शीराज़ा-बंदी है
ये शाख़-ए-हाशमी करने को है फिर बर्ग-ओ-बर पैदा