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नज़्म
रेस्तोराँ में सजे हुए हैं कैसे कैसे चेहरे
क़ब्रों के कत्बों पर जैसे मसले मसले सहरे
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
गलियों की शमएँ बुझ गईं और शहर सूना हो गया
बिजली का खम्बा थाम कर बाँका सिपाही सो गया
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
तन-ए-नाज़ुक पे उस के पैरहन है सब्ज़ और धानी
कहीं पर लाजवर्दी सुरमई और नुक़रई ज़ेवर