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नज़्म
सब हँसी रोक के कहती हैं निकालो इस को
इक परिंदा किसी इक पेड़ की टहनी पे चहकता है कहीं
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
कोई फ़ल्सफ़ा कोई पाइंदा अक़दार नहीं, मेआर नहीं है
इस पर अहल-ए-दानिश विद्वान, फ़लसफ़ी
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
मुझे तुम बंद कर दो तीरगी में या सलाख़ों में
परिंदा सोच का लेकिन ये ठहरा हो नहीं सकता