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नज़्म
आह सद-अफ़्सोस है फिर आम रुख़्सत हो गया
जिस को खाता था मैं सुब्ह-ओ-शाम रुख़्सत हो गया
शाहीन इक़बाल असर
नज़्म
हया रोके थी अब तक कुछ न उन के रू-ब-रू निकली
बहुत छेड़ा दिल-ए-मुज़्तर को तब ये गुफ़्तुगू निकली
मंझू बेगम लखनवी
नज़्म
वहाँ काम ज़्यादा था लेकिन सब अफ़सर
उसे देख कर मुस्कुराते और इज़्ज़त से हर बात करते
हारिस ख़लीक़
नज़्म
बाज़ार से वापसी पर गली में दाख़िल होते ही
मुझे ख़ौफ़ के साथ कुछ अजीब सा एहसास हुआ
फ़िरोज़ नातिक़ ख़ुसरो
नज़्म
घूस दलाली का सब पैसा डाल बिदेसी बैंकों में
रिश्वत-ख़ोर अफ़सर और नेता कब तक ख़ैर मनाएँगे
सदा अम्बालवी
नज़्म
मादर-ए-हिन्द को जन्नत का नमूना कर दूँ
घर करे दिल में जो 'अफ़सर' वो सदा बन जाऊँ