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नज़्म
जहाँ इक ताएर-ए-सिदरा किसी दिन चहचहाया था
उन्हीं शाख़ों पे मुझ को इख़्तियार-ए-आशियाँ दे दे
मोहम्मद सादिक़ ज़िया
नज़्म
उस से आगे भी हैं रूहें उड़ती फिरती बे-शुमार
ताएर-ए-सिदरा का जिस जा आशियाँ पाता हूँ मैं