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नज़्म
मिरे पहलू-ब-पहलू जब वो चलती थी गुलिस्ताँ में
फ़राज़-ए-आसमाँ पर कहकशाँ हसरत से तकती थी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
नाम भी उस ने बच्चे का मेरे ही नाम पे रक्खा था
फिर कहीं उस से बिछड़ न जाऊँ ऐसे मुझ को तकती थी
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
परे से तकती हर इक नज़र उस नगर की राहों से बे-ख़बर है
हिनाई-अंगुश्त का इशारा लजाई-आँखों की मुस्कुराहट
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
घायल नज़रें उस दुश्मन की ऐसे मुझ को तकती थीं
जैसे अनहोनी कोई देखी उन कमज़ोर निगाहों ने
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
अब भी तकती हैं मिरी राह वो काफ़िर आँखें
अब भी दुज़्दीदा नज़र जानिब-ए-दर है कि नहीं