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नज़्म
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
आओ मिल कर इंक़लाब-ए-ताज़ा-तर पैदा करें
दहर पर इस तरह छा जाएँ कि सब देखा करें
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
छाई है जो अब तक धरती पर उस रात से लड़ते आए हैं
दुनिया से अभी तक मिट न सका पर राज इजारा-दारी का
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
कि जिन के नामा-ए-आमाल में इन बद-दुआओं के सिवा कुछ भी नहीं
उन के कहे पर आज तक बादल नहीं बरसे
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
नज़्म
दिलों को अब भी चमकाती है शम-ए-आरज़ू तेरी
लब-ए-तहरीर पर अब तक है शीरीं गुफ़्तुगू तेरी
मयकश अकबराबादी
नज़्म
और वही दर्द-ए-शिकस्ता-पा जो शायद ग़ैर-रस्मी पर
उस दिल के अब तक ज़िंदा रह जाने का तन-ए-तन्हा सबब है
मोईन निज़ामी
नज़्म
कि भेदों-भरी रौशनी का निशाँ हैं?
कभी ताक़-ए-जाँ पर सँभाले थे तुम ने मआनी जो गुम हो गए थे
आरिफ़ा शहज़ाद
नज़्म
कहाँ तक ऐ दिल-ए-नादाँ क़याम ऐसे गुलिस्ताँ में
जहाँ बहता हो ख़ून-ए-गर्म-ए-इंसाँ शाह-राहों पर