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नज़्म
कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज
साहिर लुधियानवी
नज़्म
जिस पर नाज़ है हम को इतना झुकी है अक्सर वही जबीं
कभी कोई सिफ़्ला है आक़ा कभी कोई अब्ला फ़र्ज़ीं
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी
फ़ज़ाएँ गूँजती हैं अब भी उन वहशी तरानों से
अख़्तर शीरानी
नज़्म
ताज़ीर-ए-सियासत है न ग़ैरों की ख़ता है
वो ज़ुल्म जो हम ने दिल-ए-वहशी पे किया है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
कि वहशत का ये जंगल बाहें फैलाए बुलाता है
मिरा शौक़-ए-नज़र थक कर ज़मीन पर बैठ जाता है
क़मर अब्बास क़मर
नज़्म
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ