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नज़्म
जकड़ रहा है मुझे फिर से रोज़-ओ-शब का हिसार
अभी तो सरहद-ए-इदराक पर खड़ा हूँ मैं
तन्हा तिम्मापुरी
नज़्म
ज़िंदगी इक धूप है और तू मिरी छाँव है माँ
कुल्फ़तों की शब में शम' है तो बस तेरी दु'आ