Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

एक चुप सौ दुख

आदम शीर

एक चुप सौ दुख

आदम शीर

MORE BYआदम शीर

    (ये अफ़साना साइमा शाह की नज़्र है जिनसे मुकालमा इस अफ़साने का मुहर्रिक बना।)

    एक वक़्त आता है जब कुछ भी ठीक-ठीक याद नहीं रहता अगरचे कुछ कुछ हमेशा याद रहता है और वो वक़्त मुझे हमेशा याद रहा जब उसने मुझसे कलाम किया था।

    ये एक तपते दिन की तपिश भरी शाम थी और मैं उस क़हवा-ख़ाने में था जहाँ लफ़्ज़-साज़ इकट्ठे होते हैं और ख़्वाब देखते हैं, ख़्वाब जो पेट के तनूर में राख होते हैं, ख़्वाब जो अ’ज़ाब होते हैं, ख़्वाब जो नजात होते हैं, ख़्वाब जो ख़याल होते हैं, ख़याल जो ख़्वाब होते हैं, ख़्वाब और ख़याल और ख़्वाब... कुछ परवाने ख़्वाब और ख़याल का वबाल झेलते हुए भी ख़्वाब देखते रहते हैं, उनकी ता’ज़ीम लाज़िम है और उन पर फटकार भी लाज़िम है जो ख़्वाब-ख़्वाब अलाप कर औरों के ख़्वाब सराब कर देते हैं। ख़्वाब-फ़रोशों की मौजूदगी से पैदा हुई नुहूसत दूर करने के लिए मैं बाहर को बढ़ा कि सिगरेट के दो-चार कश ले सकूँ, जैसे ही दरवाज़ा खोला तो क्या देखा कि दहलीज़ पर एक बच्चा पड़ा है।

    पहली नज़र में गंदगी भरी गठड़ी मा’लूम दी मगर वो एक बच्चा था जिसका चेहरा गर्द-ए-ज़माना ने कुछ यूँ सियाह कर दिया था कि सियाही की तह ’अलैहिदा जमी नज़र आती थी और मुझे यक़ीन है कि उसका चेहरा अच्छे से साबुन से धोया जाता और उस पर लोशन लगाया जाता तो चमक-चमक जाता और उसके बदन के ऊपरी हिस्से पर जो कपड़ा था वो यक़ीनन कभी क़मीस थी और शलवार के नाम पर भी उसने कुछ लीरे बांध रखे थे। मैं दहलीज़ से परे खड़ा उसे चंद लम्हे देखता रहा, सिगरेट सुलगाया और देखता रहा।

    क़हवा-ख़ाने के अंदर रोशनी थी और बाहर अँधेरा था और मैं इस अँधेरे में सोच रहा था कि क्या करूँ? उसे हिलाया, नहीं हिला, फिर हिलाया, नहीं हिला, तीसरी बार ज़रा ज़ोर से हिलाया तो उसके मुँह से आवाज़ निकली मगर उसने जो कहा था वो मैं सुन नहीं सका था। मुझे समझ नहीं रही थी कि ये सात-आठ साल का बच्चा यहाँ कर क्या रहा है? दहलीज़ से दो फ़ुट के फ़ासले पर एक और थड़ी है, भला उस पर सो जाए आराम से, यूँ दरवाज़ा बार-बार खुलने से नींद ख़राब होती होगी। यही सोच कर मैंने उसे उठा कर थड़ी पर लिटा दिया और उसका काग़ज़ चुनने वाला थैला भी उसके पास रख दिया और ख़ुद दस फुट के फ़ासले पर खड़े हो कर, मुँह दूसरी जानिब कर के, एक और सिगरेट सुलगा लिया जिसका ज़ाइक़ा कुछ मौसम और कुछ मिज़ाज की गर्मी से बदल चुका था।

    मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि उस वक़्त मेरे ज़हन में क्या था और मुझे क्या महसूस हो रहा था। ये ज़रूर याद है कि जब मैंने दूसरा सिगरेट आधा पी कर बेज़ारी से सड़क पर फेंका और वापिस मुड़ा तो देखा कि वो दुबारा दहलीज़ पर पड़ा है। उसे उठा कर बिठाया और पूछा कि तबी’अत ठीक है? हाँ... ठीक बताई गई अगरचे ठीक नहीं थी। मैंने कुछ सोच कर जेब से पैसे निकाले और सौ रुपये का नोट उसकी जेब में डाल दिया और नोट डालने से पहले मैंने उसकी जेब टटोली भी थी कि कहीं फटी तो नहीं। अब मेरे ख़याल में उसे कुछ खाने पीने चले जाना चाहिए था और कहा भी मगर वो दुबारा लेट गया तो मैंने पूछा कि अब घर क्यों नहीं जाते?

    “अम्माँ आएगी ते जावांगा”

    “अच्छा... तो एक तरफ़ हो कर सो जाओ, वहाँ उस थड़ी पर... दरवाज़ा बार-बार खुलने से नींद ख़राब होगी।”

    “इत्थे ठीक ऐ। दरवाज़े थल्लों ठंडी हवा आंदी ऐ।”

    और सन्नाटा छा गया, गहरा सन्नाटा...

    मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि कितनी देर मैं सन्नाटे से सुन्न रहा और मुझे ये भी याद नहीं कि मैंने मुड़ कर उसे देखा था या नहीं। ये ज़रूर याद है कि इन दिनों बच्चे ग़ायब होने की ख़बरें बहुत गर्म थीं।

    यूँ मैंने तल्ख़ी की एक तह खुरच कर उसके सामने रख दी जिसने मुझसे कलाम किया था और ख़ामोश हो गया, बड़ी देर ख़ामोश रहा, इतनी देर ख़ामोश रहा कि मेरी ख़ामोशी उसे खलने लगी जिसका चेहरा मुझे ठीक-ठीक याद नहीं और ये भी याद नहीं कि चेहरा देखा भी था या नहीं। उस समय अँधेरा भी ख़ूब था और उसके गिर्द रोशनी भी बहुत ख़ूब थी। अँधेरे और उजाले में मैंने क्या देखा था, मुझे ठीक-ठीक याद नहीं जो याद है तो उसकी आवाज़... जिसे बयान करना मेरे लिए मुम्किन नहीं, उसी आवाज़ ने मुझे उकसाया कि मैं कुछ और बात करूँ मगर मैं इसके बा’द और क्या बात करता भला? सो मैं ख़ामोश रहा। वो भी तो ख़ामोश रहता है मगर उस वक़्त वो बोला कि मैं बोलूँ, कुछ तो बोलूँ, तो मैं बोला।

    ये एक सर्द दोपहर थी, इतनी सर्द कि बयान नहीं की जा सकती मगर बंदा-ए-मज़दूर को सर्दी क्या और गर्मी क्या, उसे तो पेट का तनूर भरना ही पड़ता है। थोड़ा सा चलने-फिरने से नाक बहा देने वाली यख़-बस्ता दोपहर में मुझे मोटरसाईकल पर काम पर जाना पड़ रहा था और जब मैं एक वज़ीर की क़याम-गाह को जाने वाली तंग सड़क को मुड़ा और थोड़ा सा आगे बढ़ा तो क्या देखा? देखता तो अच्छा था मगर मैंने देखा कि एक छोटा सा बच्चा, जिसका नाफ़ से निचला हिस्सा सारे का सारा नंगा और नाफ़ से ऊपर शर्ट जो शर्ट कम चीथड़ा ज़ियादा थी, कचरे के छोटे से ढेर के साथ बैठा है और कुछ खा रहा है और मैं उसे देखते-देखते आगे बढ़ गया मगर कुछ ही दूर जा कर मोटरसाईकल रुक गई। घड़ी देखी। देर हो रही थी।

    मुझे मुआ’फ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं अगरचे थोड़ी सी शर्मिंदगी है कि मैं उस वक़्त उलझन में पड़ गया था कि आगे जाऊँ या पीछे। वो इतनी सख़्त सर्दी में नंगा-पड़ंगा क्यों है? चंद लम्हों की कश्मकश के बा’द मैं मुड़ा और उसके पास जा कर मोटरसाईकल रोक दी और ज़रा तहक्कुमाना अंदाज़ में कहा, “वे उठ। इत्थे क्या कर रहया ऐ। घर जा।”

    मगर वो बच्चा जिसकी ‘उम्र लगभग दस साल थी और क़द भी ‘उम्र के हिसाब से ठीक था मगर दुबला-पतला इतना कि किसी क़हत-ज़दा ‘इलाक़े का भुक-मारा नज़र आता था और ज़ियादा भयानक बात ये है कि उसके दिमाग़ के काफ़ी सारे पेच ढीले थे। सोचा कि ये पेच ढीले क्यों हैं? ‘आमिल कुछ कहेगा, मौलवी कुछ कहेगा, डाक्टर कुछ और कहेगा और तुम कुछ नहीं कहोगे मगर मैं यही कह सकता हूँ कि वो बच्चा जिसका रंग गोरा था मगर नज़र पीला-पीला आता था, मेरे तहक्कुमाना लहजे के जवाब में मुस्कुराया और उसने कचरे से कुछ उठाया और मेरी तरफ़ खाने को बढ़ा दिया...

    “बोलते जाओ।”

    अब बोलने को क्या रह गया है? तुमने उस बच्चे को वहाँ ठिठुरती दोपहर में देखा और चुप रहे और मुझे कहते हो कि बोलता जाऊँ। ये क्या मज़ाक़ है? तुम्हें मा’लूम है कि जब उसने कचरे से कुछ उठाया और मेरी तरफ़ खाने को बढ़ाया तो मेरा जी चाहा कि ये दुनिया बहर-ए-हिंद में ग़र्क़ हो जाए और सिर्फ़ वो बच्चा बचा रहे मगर मैं... मैं बेहद थुड़-दिला हूँ। मैंने फिर कुछ पैसे देकर भाग जाना चाहा उस बहाव से जो उसने हाथ बढ़ा कर मेरी तरफ़ बहाया था मगर नहीं भाग सका कि इसी अस्ना में एक तेरह-चौदह साला लड़का रुका और बच्चे से यूँ मुख़ातिब हुआ जूँ जानता हो। मैंने लड़के से ये पूछा कि ये बच्चा कहाँ रहता है तो उसने पचास-साठ फ़ुट दूर गली की तरफ़ इशारा किया। बार-बार इसरार पर लड़के ने बच्चे को मेरे पीछे मोटरसाईकल पर बिठाया और ख़ुद आगे-आगे चल पड़ा।

    “आगे क्या हुआ?”

    तुम कहते हो कि तुम जानते हो तो मान लो कि अब मैं और कुछ नहीं बताऊँगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि तुम ख़ामोश रहे। और तुम ये भी जानते हो कि मैं उस बच्चे को कुछ पैसे देकर, दरवाज़े पर छोड़कर, भाग गया था। हाँ मैं भाग गया था और भागते-भागते उस बच्चे के घर से पाँच मिनट की पैदल मसाफ़त पर वज़ीर के बड़े से महल के बड़े से दरवाज़े पर थूक गया था और मैं जब तक उस रास्ते से गुज़रता रहा, उसके दरवाज़े पर थूकता रहा।

    “तो इसलिए तुम्हारे अन्दर नफ़रत का काढ़ा उबलता रहता है?”

    “मेरी नफ़रत ही मेरी मुहब्बत है।”

    “वो कैसे?”

    “तुम जानते हो तो ये सवाल क्यों?”

    “समझाने के लिए। नफ़रत की सिम्त दुरुस्त करने के लिए। तो बताओ।”

    “क्या बताऊँ? क्या दिखाऊँ?”

    “जो जी चाहे बताओ, जो जी चाहे दिखाओ।”

    “अच्छा, फिर मैं तुम्हें अपनी याद के पर्दे पर नक़्श कुछ ऐसा दिखाता हूँ कि...”

    और मैंने उसे एक सात साला बच्ची दिखाई जिसकी ख़ाली आँखों में वो दास्तान भरी हुई थी जो सुनना चाहो तो सुनी जाए, सुनना चाहो तो अनसुनी हो, उसकी उँगलियाँ टूटी, कलाइयाँ कटी, जबड़े तड़ख़े, होंट फटे, नाक की हड्डी पिचकी, सीना ज़ख़्म-ज़ख़्म, टांगें मुड़ी-तुड़ी और वो गंदे नाले में बह रही थी, सारी दुनिया बह रही थी। मैंने उसे एक और लाश भी दिखाई जो दिन-भर रोड़ी पर पड़ी रही और मैंने उसे बच्ची का बाप भी दिखाया जो अपने परने में अपनी गुड़िया समेटे हस्पताल जा रहा था कि शायद ज़िंदा हो मगर वो नहीं थी। मैंने उसे मा’बद पंखे से झूलता बच्चा भी दिखाया जिसके माँ बाप ने अपने दूसरे बच्चों को बचाने के लिए लोतिए को मु’आफ़ कर दिया था। मैंने उसे दर्स-गाह में क़ुर्बानी के बकरों की तरह क़ुर्बान किए गए बच्चे भी दिखाए जिनके जनाज़ों पर खड़े हो कर कुछ लोग अपने क़द बढ़ाने में मसरूफ़ थे और मैंने उसे और भी बे-शुमार लाशें दिखाईं, छोटी-छोटी लाशें, छोटे-छोटे ताबूत... और मैंने उसे वो आदमी भी दिखाए जिनका इंसानों की नस्ल से कोई त’अल्लुक़ नहीं अगरचे वो इंसानों जैसे नज़र आते हैं और मैंने उससे पूछा कि ये पागलपन किस की देन है।

    “मेरी तो नहीं।”

    “तो क्या? तुम ये सब ख़त्म तो कर सकते हो।”

    वो मुँह से कुछ बोला तो मैंने उसे उकसाने के लिए एक दो साला बच्चा दिखाया जो अपने वालिद के साथ भरे बाज़ार में खड़ी गाड़ी में बैठा हुआ था और मन-पसंद खिलौना मिलने के ख़याल से उसका चेहरा चमक रहा था मगर एक तरफ़ से वो इंसान आए जिनका इंसानों से कोई त’अल्लुक़ नहीं। मैंने उसे गोलियाँ चलाने वालों के मुँह से निकलते ना’रे सुनवाए और मैंने उसे तीन गोलियाँ खाने वाले दो साला बच्चे के बाज़ू पर बंधा इमाम-ज़ामिन भी दिखाया। मैंने उसे दस साला बच्ची सर-ए-बाज़ार सर-ता-पा बरहना दिखाई जिसने मालिक-ज़ादे का फ़रमान नहीं माना था और मैंने उसे एक आठ साला बच्चा भी बल-खाती पगडंडियों पर घिसटता हुआ दिखाया जिसे गधे के पीछे बाँधा गया था जिसने मकई का एक भुट्टा तोड़ने का गुनाह-ए-कबीरा किया था और ‘इबरत-नाक सज़ा-ए-मौत पाई।

    मैंने उसे उस बच्चे की लाश भी दिखाई जो माँ के पेट में था और उसकी माँ को नाचने पर गोली मार दी गई थी जो बच्चे के दिल को जा लगी थी। वो भाग सड़ी मरते-मरते भी बाजा बजाने वाले जीवन साथी की बचत कर गई कि उसे दो क़ब्रों के पैसे नहीं देने पड़े। मैंने उसे ये भी दिखाया कि गायिका की लाश थाने पड़ी है मगर पर्चा नहीं कटा। लाश एस.पी. के दरवाज़े पर पड़ी है मगर पर्चा नहीं कटा। लाश प्रैस क्लब पहुँची तो पर्चा कटा। ये भी एक मसअला है कि कोई मसअला तब तक मसअला नहीं समझा जाता जब तक मीडिया उसे मसअला बना दे और जब मीडिया ने मसअला बनाया तो गोली चलाने वाला पकड़ा गया और मैंने उसकी शक्ल पर साफ़-साफ़ लिखा दिखाया कि वो पहले भी इंसानों पर गोली चला चुका है और मैंने उसे ये भी दिखाया कि गोली चलवाने वाला सर आराम से क़ाज़ी की मुंशी-गीरी करता रहा और मैंने ये पेशगोई भी कर दी कि सलाख़ों के पीछे नज़र आने वाला मकरूह चेहरा किसी भी वक़्त सलाख़ों के सामने फ़त्ह का निशान बनाए मुस्कुराता दिखाई देगा।

    उसने मेरी पेशीन-गोई पूरी होने ना होने के मुत’अल्लिक़ कुछ कहा तो मैंने ज़हर-ख़ंद मुस्कुराहट पेश करते हुए वो लोग दिखाए जो कह रहे थे कि सब्र करो। अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है। मुझे यक़ीन था कि ये देखकर वो ज़रूर बोलेगा जैसे मुझे यक़ीन था कि वो नारे सुनकर बोलेगा मगर वो ख़ामोश रहा, एक लफ़्ज़ तक बोला, बस मेरी तरफ़ उंगली उठाई, अफ़सोस मैं उसका इशारा ठीक-ठीक समझ पाया और यूँ मैं और भी झुँझला गया।

    एक वक़्त आता है जब कुछ भी ठीक-ठीक याद नहीं रहता अगरचे कुछ कुछ हमेशा याद रहता है सो मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि मैं उसे और क्या-क्या कहता रहा मगर ये ठीक-ठीक याद है कि वो ख़ामोश रहा और फिर मैंने भी चुप तान ली और ये चुप इतनी गहरी और लंबी हुई कि हर सू चुप ही चुप रह गई। इसी चुप में मैं गुम हो गया और वो भी और वो सारे बच्चे भी जो देखे और दिखाए मगर क़हवा-ख़ाने की दहलीज़ पर ठंडी हवा के सराब में एक और गठड़ी बना बच्चा ख़्वाब देख रहा था।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए