अजंता
स्टोरीलाइन
यह कहानी सच्ची घटना पर आधारित है। इसमें अजंता के द्वारा गीता के उपदेशों को बहुत सुंदर ढंग से मूर्तियों के माध्यम से पेश किया गया है। कहानी का हीरो दंगा-फ़साद से भागकर अजंता की गुफ़ाओं में पनाह लेता है। वहाँ उसे गुफ़ाओं के माध्यम से गीता का उपदेश मिलता है, ‘कर्म कर, फल की चिंता मत कर।’ उपदेश पढ़कर हीरो को अपने कर्तव्य का बोध होता है वह वापस बंबई चला आता है।
अजंता हिंदुस्तान के आर्ट की मेराज है, दुनिया में इसका जवाब नहीं है... बड़े-बड़े अंग्रेज़ और अमेरिकन यहाँ आकर दम बख़ुद रह जाते हैं... ये ग़ार डेढ़ हज़ार साल पुराने हैं। इनको खोदने, तराशने, इनमें मुजस्समे और तस्वीरें बनाने में कम से कम आठ सौ बरस का अरसा लगा होगा... महात्मा बुद्ध के इस मुजस्समे को देखिए...
सरकारी गाइड की मंझी हुई आवाज़ ग़ार की ऊँची पथरीली छत से टकरा कर गूँज रही थी। अट्ठाईस रूपये माहवार तनख़्वाह और रूपया डेढ़ रूपया रोज़ाना बख़्शिश के एवज़ वो अपना तोते की तरह रटा हुआ सबक़ दिन में न जाने कितनी बार दोहराता था। निर्मल को उसकी आवाज़ ऐसी मालूम होती जैसे रहट चल रहा हो, या चरख़ा या कोल्हू। रों, रों, रों। एक बेमानी, बेरूह आवाज़ का ला-मतनाही सिलसिला जो ख़त्म होने ही में नहीं आता था। भारती... जो आर्ट की परस्तार भी थी और ख़ुद आर्ट का एक नादिर नमूना भी... गाइड के अल्फ़ाज़ पर सर धनु रही थी। हज़ारों बरस पुराने आर्ट के इस अथाह समुंदर में वो डूब जाना चाहती थी। हर तस्वीर, हर मुजस्समे, हर सतून, हर मेहराब, हर फूल और पत्ती को देखकर उसके मुँह से तारीफ़ का चश्मा बे-इख़्तियार फूट निकलता था,ओह निर्मल ये देखो... ओह निर्मल वो देखो... महात्मा बुद्ध के चेहरे पर कितना सुकून और शांत एक्सप्रेशन है... इस अप्सरा के बालों का सिंघार तो देखो... हाउ स्वीट... कितना सुंदर... हाव वंडरफ़ुल...
निर्मल ख़ामोश था। वो न गाइड की रों-रों सुन रहा था और न भारती के पुरजोश तारीफ़ी जुमले... उसकी निगाहें दीवार पर बनाई हुई तस्वीरों पर ज़रूर थीं। मगर उसे सिवाए धुंदले रंगीन धब्बों के कुछ नज़र नहीं आ रहा था... उसके कान गाइड की रटी हुई तक़रीर को सुन रहे थे, पर अब तक वो सिर्फ़ आवाज़ थी, बेमानी। धीमा-धीमा शोर। चर्ख़े या कोल्हू या रहट की रों-रों की तरह... भारती जब बोलती तो निर्मल को ऐसा मालूम होता कि उसके कानों पर कोई ग़ैर मुतअल्लिक़ और क़तई ग़ैरज़रूरी चोट पड़ी है... जैसे गर्मी की दोपहर में तांबे की तरह तपता हुआ आसमान एक उड़ती हुई चील की हैबतनाक चीख़ से गूँज उठे...
न जाने वो किस नंबर के ग़ार में थे। न जाने वो किस तस्वीर के सामने खड़े हुए थे... गाइड की रों-रों जारी थी... ये देखिए एक पिछले जन्म में सन्यासी के रूप में महात्मा बुद्ध उपदेश दे रहे हैं। बनारस के राजा की ये नर्तकी महात्मा बुद्ध के उपदेश सुनती है... राजा को जब ये मालूम होता है तो वो ख़ुद जाकर सन्यासी से सवाल जवाब करता है... तुम कौन हो और क्या उपदेश दे रहे हो... वो कहते हैं मैं शांति और सच्चाई का ज़िक्र कर रहा हूँ... राजा अपने जल्लाद को हुक्म देता है कि वो सन्यासी के हाथ, पाँव, नाक, कान तलवार से काट डाले। पर हर बार महात्मा बुद्ध ने यही कहा कि शांति और सच्चाई तो मेरे दिल में है। नाक, कान, हाथ, पाँव में नहीं है... ये देखिए उनके ज़ख़्मों से ख़ून...
ख़ून!
गाइड की बेमानी, ला-मतनाही रों-रों में से उस एक लफ़्ज़ ने निर्मल के दिमाग़ पर हथौड़े की तरह एक चोट लगाई।
ख़ून!
अजंता के ग़ारों की पथरीली दीवारें यक लख़्त फ़िज़ा में तहलील हो गईं... अब वहाँ न मुजस्समे थे, न तस्वीरें, न सतून... न गाइड और न भारती... न सर सब्ज़ पहाड़ियाँ, न वो सुरीले शोर के साथ बहने वाली नदी... न आर्ट और न तारीख़... न धर्म और न मज़हब... न महात्मा बुद्ध और न बनारस का ज़ालिम राजा...
ख़ून!
ख़ून की नदियां। ख़ून के दरिया। ख़ून का समुंदर और इन ख़ूनीं लहरों पर बहता हुआ निर्मल फिर बम्बई वापस पहुँच गया। वही ख़ूनी बम्बई जिससे भाग कर उसने तीन सौ मील परे और डेढ़ हज़ार बरस पुराने ग़ारों में पनाह ली थी... यकुम सितंबर ... शाम को हस्ब-ए-मामूल वो अपना काम ख़त्म करके गिरगाम अपने दोस्त वसंत के दफ़्तर गया था कि दोनों साथ ही ट्रेन से दादर जाएंगे कि ख़बर आई कि शहर में हिन्दू-मुस्लिम का फ़साद हो गया है। काम छोड़ कर हर कोई उस मज़मून पर राय-ज़नी करने लगा।
तुम देखना ये फ़साद चंद घंटे में दब जाएगा। इस बार गवर्नमेंट ने पूरी तैयारियाँ कर रखी हैं...
पर आज कैसे हो गया...? मुस्लिम लीग काले झंडों का मुज़ाहिरा तो कल करने वाली है...
ये कलकत्ता की ख़बरों का असर है...
सुना है कई हज़ार छुरे पकड़े गए हैं...
सुना है गोल पीठा पर पंडित जवाहर लाल नेहरू की तस्वीर को एक मुसलमान पुराने जूतों का हार पहना रहा था...
सुना है भिंडी बाज़ार में मुसलमानों ने कई हिन्दुओं को मार डाला...
पर तुम फ़िक्र न करो, अब के हिन्दू चुपके बैठने वाले नहीं हैं...
इतने में एंबुलेंस कार की घंटी की आवाज़ आई और सब खिड़की की तरफ़ भागे। सामने हरकिशन दास अस्पताल के दरवाज़े में ज़ख्मियों की मोटर दाख़िल हो रही थी। एक गठे हुए जिस्म के राहगीर ने जो धोती और मैली धारीदार क़मीस और काली मरहटा टोपी पहने हुए था, अस्पताल के दरबान से पूछा,ये कौन थे? हिन्दू या मुसलमान? दरबान ने जो मोटर में झाँक चुका था, जवाब दिया,एक मुसलमान, दो हिन्दू। और फ़ौरन कोने के हिन्दू होटल के सामने खड़े हुए गिरोह में खुसर-फुसर शुरू हो गई। सारी चरनी रोड पर दुकानें बंद हो चुकी थीं। होटल के सब दरवाज़े बंद थे। सिर्फ़ बीच वाले लोहे के जंगले का दरवाज़ा आधा खुला था। ट्राम देर हुई बंद हो चुकी थी। सड़क पर सन्नाटा था। हाँ ऊपर की मंज़िलों से लोग झाँक रहे थे। फ़िज़ा में एक अजीब तनाव था जैसे तना हुआ ढोल चोट पड़ने का मुंतज़िर हो।
यकायक सेंढ़र्स्ट रोड के चौराहे की तरफ़ से किसी के क़दमों की चाप सुनाई दी। हर शख़्स की निगाहें आवाज़ की सम्त फिर गईं। एक दुबला सा नौजवान कुरता पाजामा पहने आ रहा था। बिल्कुल बे-फ़िक्र जैसे शहर में फ़साद हुआ ही नहीं था।
साले की हिम्मत तो देखो! होटल के सामने खड़े हुए गिरोह में से एक आदमी ने कहा और गठे हुए जिस्म के आदमी का हाथ धारीदार क़मीस के नीचे अपनी मैली धोती की तहों में न जाने क्या तलाश करने लगा। बेफ़िक्र दुबला नौजवान अब वसंत के दफ़्तर की खिड़की के नीचे से गुज़र रहा था। निर्मल ने देखा कि उसके मलमल के कुरते में से उसकी हड्डियाँ नज़र आ रही हैं। साँवला रंग, छोटा सा क़द, मगर अच्छा ज़हीन चेहरा। कोई क्लर्क या तालिब इल्म मालूम होता था। न जाने क्यों निर्मल का जी चाहा, चिल्ला कर कहे,मियाँ भाई ज़रा सँभल कर आगे जाना। बड़ा ख़राब वक़्त है। पर उसके मुँह से कोई आवाज़ न निकली, और चश्म-ज़दन में उसने एक चमकीली छुरी को हवा में बुलंद होते देखा। छुरी दस्ते तक दुबले पतले नौजवान की कमर में उतर गई। उसके हाथ एक बार बे-इख़्तियार उठे शायद बचाओ करने के लिए, मगर अगले लम्हे में वो चकरा कर गिर पड़ा। और उसके मुँह से एक कराहती हुई आवाज़ निकली जो फ़रियाद भी थी और आख़िरी हिचकी भी।
हाय भगवान! और होटल के मजमे में एक खलबली सी मच गई।
अरे ये तो हिन्दू है हिन्दू।
नहीं रे साला बन रहा है।
पाजामा पहने हिन्दू कैसे हो सकता है?
साले का पाजामा खोल कर ख़तना देखो।
छुरी अभी तक नौजवान की कमर में गड़ी हुई थी, मगर उसकी परवाह न करते हुए कई आदमियों ने बढ़ कर सिसकती हुई लाश को पलट दिया और एक ने कमरबंद की डोरी को खींच कर गिरह खोली। निर्मल की आँखें शर्म से बंद हो गईं, उसे ऐसा मालूम हुआ जैसे किसी ने ग़लाज़त के ढेर में उसका मुँह रगड़ दिया हो। जब उसने आँखें खोलीं तो क़ातिल लाश को फिर उलट कर ज़ख़्म में से अपनी छुरी बाहर खींच रहा था।
ये तो मिष्टेक हो गया। उसने कहा, और अपनी मैली धोती में से एक कतरन फाड़ कर उससे छुरी का ख़ून पोछने लगा। छुरी जब ज़ख़्म से बाहर निकली तो निर्मल ने देखा कि ज़ख़्म से सियाही माइल गाढ़ा-गाढ़ा ख़ून बह निकला और मक़्तूल नौजवान के कपड़ों को रँगता हुआ सड़क पर फैल गया... ख़ून!
ख़ून ख़राबे, फ़साद दंगे से दूर ये कितनी सुंदर और शांत दुनिया है निर्मल? भारती ने नर्मी से, प्रेम से निर्मल की कमर पर हाथ रखते हुए कहा। एक झटके के साथ एक लहर ने उसे ख़ूनी समुंदर के बाहर किनारे पर ला फेंका।
क्या? क्या कहा तुमने भारती?
मैं कह रही थी कि अजंता के इन ख़ामोश पुर-सुकून ग़ारों में हम बम्बई कलकत्ते के ख़ून ख़राबे से कितनी दूर मालूम होते हैं। कई हज़ार बरस दूर, यहाँ तुम ज़रूर इन ख़ौफ़नाक नज़ारों को भूल सकोगे जो तुमने बम्बई में देखे हैं...
बेचारी भारती! हसीन और हुस्न परस्त भारती! उसका दिल प्रेम से कितना भरपूर था और उसका दिमाग़ समझ बूझ से कितना ख़ाली, उसे निर्मल से वाक़ई मोहब्बत थी और वो उसे एक मिनट के लिए भी दुखी नहीं देख सकती थी। जिस दिन फ़साद शुरू हुआ, उससे अगले दिन ही वो जान गई कि निर्मल का नाज़ुक और हस्सास दिमाग़ उस ख़ून ख़राबे की ताब नहीं ला सकता। चरनी रोड के ख़ून के बाद जो उसने अपनी आँखों से देखा था, निर्मल ने तीन दिन खाना न खाया और न ही वो सो सका। उसको चुप सी लग गई थी। उसके दिल-ओ-दिमाग़ पर एक गहरा सुकूत तारी था। उसने किसी को इसकी वजह न बताई थी। उसके साथियों ने पूछा भी तो उसने टाल दिया। पर, भारती से वो हर बात कह देता। इसकी गोद में सर रख कर निर्मल ने उस ख़ूनीं वाक़िआ की तमाम हौलनाक तफ़सील उसको सुना दी।
उस दुबले पतले नौजवान की सूरत अब मेरी आँखों के सामने फिरती है, भारती उसकी आख़िरी चीख़ अब भी मेरे कानों में गूँज रही है, उसने मेरी नींद उड़ा दी है। रात को सोता भी हूँ तो ख़्वाब में देखता हूँ कि मैं एक ख़ून के समुंदर में डूब रहा हूँ, और कोई मेरी मदद को नहीं आता। और घूँगर वाले बालों में अपनी मुलायम उंगलियों से कंघी करते हुए भारती ने कहा,बेचारा निर्मल!
अपनी मोहब्बत, अपनी बातों, सिनेमा, ग्रामोफ़ोन, रेडियो, किस-किस तरह उसने अपने दोस्त के दिल से उस वाक़िआ को भुलाने की कोशिश की थी, मगर वो नाकामयाब रही। निर्मल की शगुफ़्तगी, उसकी मशहूर ज़राफ़त, उसकी हाज़िर जवाबी सिरे से ग़ायब हो गई थी। वो जब कभी भी भारती से मिलने आता तो घंटों चुपचाप बैठा रहता और उसकी वहशत भरी आँखें टकटकी बांधे फ़िज़ा में न जाने क्या देखती रहतीं। वो कहती,मैं जानती हूँ निर्मल! तुम्हारे हस्सास दिमाग़ को कितना गहरा घाव लगा है, मगर भगवान के लिए अपने आपको सँभालो और उस वाक़िए को भुलाने की कोशिश करो। वो जवाब देता,हाँ भूल ही जाना चाहिए। और वो सोचता,कौन कौन से वाक़िआत भुलाने की कोशिश करूँ?
निर्मल कुमार क़ुदरत की तरफ़ से एक शायराना दिल और दिमाग़ लेकर आया था। उसकी ग़ज़लें और नज़्में, मज़ामीन, इन्शाइए लतीफ़ और अफ़साने मुल्क के चोटी के रिसालों में शाए होते थे। अमीर बाप की बेटी भारती उसकी अदबी क़ाबिलियत की क़द्र-दाँ और मद्दाह थी, उसका बस चलता तो निर्मल के लिए किसी पहाड़ की चोटी पर एक ख़ूबसूरत बँगला बनवा देती, जहाँ वो सुकून से अपने तख़्लीक़ी काम में मसरूफ़ रहता। मगर वो तो एक रोज़ाना अख़बार में रिपोर्टर था। भारती अक्सर कहती कि उस जैसे अदीब के लिए ज़र्नलिज़्म इख़्तियार करना सरासर ज़ुल्म था।
निर्मल कहता मौजूदा हिंदुस्तान में अदबी तख़्लीक़ सिर्फ़ दिमाग़ी तअय्युश है और लिखने वाले के लिए अख़बार नवीसी ही पेट पालने का एक ज़रिया बन सकता है। इसके अलावा रिपोर्टर की हैसियत से वो ज़िंदगी के ड्रामाई अनासिर से दो चार रहता। अदालत के मुक़दमों, थाने कोतवाली की वारदातों, मज़दूरों की हड़तालों, जलसों और जुलूसों में उसको इंसानी सीरत का मुताला करने का मौक़ा मिलता और यही मुशाहिदात इसके तख़लीक़ी साँचे में ढल कर ऐसे मज़ामीन, अफ़साने, और नज़्में बन जाते थे जिनमें ज़िंदगी की सच्चाई, ज़िंदगी की तड़प और ज़िंदगी की रूह नज़र आती थी।
रिपोर्टर की हैसियत से निर्मल को फ़साद के ज़माने में भी सारे शहर में घूमना पड़ता था। सेंढ़र्स्ट रोड, भिंडी बाज़ार, पायधोनी, बाइकला, परेल, दादर, सारा शहर मैदान-ए-जंग बना हुआ था। हर महाज़ पर ख़ून और क़त्ल के वाक़िआत हो रहे थे। यहाँ एक मुसलमान डबल रोटी वाला मारा गया। वहाँ एक हिन्दू दूध वाले को किसी मुसलमान ने छुरा घोंप कर मार डाला। यहाँ एक पठान का ख़ून हुआ। वहाँ एक पूरबी भैया क़त्ल हुआ। यहाँ एक दस बरस के बच्चे को किसी ने ज़ब्ह कर दिया। वहाँ एक ग्यारह बरस के बच्चे ने एक राह चलते आदमी की पसलियों में चाक़ू भोंक दिया। सारा शहर हिन्दू बम्बई और मुसलमान बम्बई में मुंक़सिम हो गया। किसी हिन्दू की जुरअत न थी कि भिंडी बाज़ार में क़दम रख सके। किसी मुसलमान की हिम्मत न थी कि पायधोनी से गुज़र सके। पाकिस्तान और अखंड हिंदुस्तान क़ाइम हो गए थे। निर्मल और दूसरे रिपोर्टरों को अक्सर पुलिस या फ़ौज के साथ लारियों में गश्त करना पड़ता था। एक दिन एक गोरे सार्जैंट ने निर्मल से कहा,तुम कांग्रेसी पाकिस्तान नहीं चाहते, फिर भी इस वक़्त बम्बई में पाकिस्तान क़ाइम है या नहीं?
अगले दिन एक अंग्रेज़ टॉमी ने निर्मल और उसके साथी रिपोर्टरों से कहा,तुम लोग तो क्विट इंडिया का नारे लगाते थे ना? हमसे कहते थे निकल जाओ, हिंदुस्तान छोड़ दो। अब हम छोड़ने को तैयार हैं तो क्यों हमारी ख़ुशामद करते हो? क्यों हमारे पीछे-पीछे भागते हो? हमारी हिफ़ाज़त का मुतालिबा करते हो? हिन्दू कहते हैं हमें मुसलमानों से बचाओ, मुसलमान कहते हैं हमें हिंदुओं से बचाओ, पर दोनों हमारी हिफ़ाज़त, हमारी तोपों और बंदूक़ों के मुहताज हैं। दोनों कहते हैं DONT QUIT INDIA और निर्मल को ऐसा मालूम हुआ जैसे हिन्दुस्तान की आज़ादी का महल अड़ अड़ा धम गिर पड़ा हो। जैसे पिछले सौ बरस की तमाम क़ौमी रिवायतें एक लम्हे में मिट्टी में मिल गई हों.. तर्क-ए-मवालात और तहरीक ख़िलाफ़त, स्वदेशी और बायकॉट, जलियाँवाला बाग़ की क़ुर्बानी, गांधी जी और अली बिरादरान, भगत सिंह, सत्याग्रह और सिविल नाफ़रमानी... तमाम नारे और क़ौमी गीत, हिंदुस्तान का इत्तिहाद और हिंदुस्तान की इज़्ज़त और आबरू... आर्ट और अदब, मूसीक़ी और शायरी और मुसव्विरी... हर चीज़ मिट्टी में मिल गई हो।
मिट्टी में मिल कर भी इस कुंदन की चमक नहीं गई। गाइड बक रहा था।
अजंता, हिंदुस्तान के आर्ट और अदब, मूसीक़ी और शायरी और मुसव्विरी का लाफ़ानी शाहकार है। भारती कह रही थी। मगर निर्मल को उस अंधेरे ग़ार में बिजली की पीली-पीली रौशनी के घेरे में भी सिवाए फीके-फीके रंगों के, चंद बेमानी धब्बों के कुछ नज़र न आया। न हुस्न, न आर्ट, न मानी, न मक़सद। बजाए एहसास-ए-हुस्न के उसका दिल एक अमीक़ ग़ुस्से, एक बेपनाह नफ़रत से भरा हुआ था। उसका बस चलता तो वो चिल्ला उठता,
ये सब क्यों...? ये हज़ारों आदमियों की हज़ारों बरस की मेहनत क्यों? और किस लिए...? ये पहाड़ की गोद से तराशे हुए ग़ार, ये मुजस्समे, ये तस्वीरें, ये सन्नाई, ये मुसव्विरी... क्यों? और किस लिए...? बेकार हैं ये सब। ये सारी मेहनत बेकार थी। दुनिया के लाखों बरस के इर्तिक़ा में एक लगो और मज़हका-ख़ेज़ लम्हा... बेहतर होता कि इतनी मेहनत पत्थरों में गुलकारी करने के बजाए इंसानों को इंसान बनाने में सर्फ़ की जाती, ताकि आज वो एक-दूसरे का ख़ून न करते होते... अजंता से हिंदुस्तान ने न कुछ सीखा है और न सीखेगा। ये ग़ार दुनिया से, असलियत से, सच्चाई से फ़रार के लिए बनाए गए हैं। अजंता न सिर्फ़ बेकार है बल्कि एक ज़बरदस्त झूट है। धोका है, फ़रेब है...
गाइड निर्मल के ख़ौफ़नाक ख़्यालात की रो से बेख़बर अपनी रों-रों किए जा रहा था,ये देखिए महात्मा बुद्ध घोड़े पर चढ़े बाज़ार में से गुज़र रहे हैं। इनके चेहरे पर कितनी शांति है... और देखिए ये औरतें अपने-अपने घरों पर से इनको कितनी मोतक़िदाना निगाहों से देख रही हैं। और भारती कह रही थी, निर्मल देखो, इन औरतों के चेहरे पर कितनी हसीन विज्दानियत तारी है। सच तो ये है कि हिंदुस्तानी औरतों की असली रूह, उनकी शांत आत्मा, उनकी नज़ाकत और उनकी मामता को कुछ अजंता के आर्टिस्ट ही समझे हैं...
हिंदुस्तानी औरतों की असली रूह, उनकी शांत आत्मा, उनकी नज़ाकत, उनकी मामता! निर्मल का दिल चाहा कि क़हक़हा मार कर इतने ज़ोर से हँसे कि ग़ारों की पथरीली दीवारें लरज़ उठें, ये चट्टानें थर्रा जाएं, ये ग़ारों का सिलसिला इसके नारे हिक़ारत से गूँज उठे। हिंदुस्तानी औरतों की असली रूह! उनकी शांत आत्मा! उनकी नज़ाकत! उनकी मामता! झूट, सरासर झूट, धोका, ख़ुद फ़रेबी।
निर्मल न कम्यूनिस्ट था और न कम्यूनिस्टों से हमदर्दी रखता, मगर एक दिन वो कम्यूनिस्ट पार्टी के दफ़्तर में पार्टी सेक्रेटरी पूर्णचंद्र जोशी का बयान लेने गया था कि यकायक सड़क की तरफ़ से कुछ शोर की आवाज़ आई और सब खिड़कियों की तरफ़ भागे। झाँक कर देखा तो एक बूढ़ा सफ़ेद दाढ़ी वाला बोरी मुसलमान अपने ख़ून में लत-पत सड़क के बीचों बीच पड़ा आख़िरी साँस ले रहा था। और साथ के मकान की बालकनी पर और उसकी निचली मंज़िल की दहलीज़ पर मरहटा औरतों का एक गिरोह खड़ा हंस रहा था जैसे कोई निहायत दिलचस्प और मज़ेदार तमाशा होरहा हो।
हिंदुस्तानी औरतों की असली रूह! उनकी शांत आत्मा! उनकी नज़ाकत! उनकी मामता!
एक रेड क्रॉस की मोटर आई, और बूढ़े बोरी मुसलमान की लाश को उठा कर ले गई, और सामने वाले मकान में से एक मरहटा औरत बाल्टी हाथ में लटकाए निकली और जहाँ बूढ़े का ख़ून गिरा था वहाँ निहायत इत्मीनान से पानी बहा कर सड़क को धो गई और कई रोज़ निर्मल के कानों में उन औरतों के क़हक़हे एक ख़ौफ़नाक शोर बन कर गूँजते रहे, और उसकी आँखों के सामने उस बूढ़े की सफ़ेद दाढ़ी जो ख़ुद के ख़ून से रंगीन हो गई थी, एक भयानक बगूला बनकर फड़फड़ाती रही। और उसे ऐसे मालूम हुआ कि तमाम हिंदुस्तान की औरतें किसी ऐसे ख़ौफ़नाक और ख़ूनीं मज़ाक़ पर हंस रही हैं जो उसकी समझ से बाहर है।
हिंदुस्तानी औरतों की असली रूह! उनकी शांत आत्मा! उनकी नज़ाकत! उनकी मामता!
निर्मल के बहुत से दोस्त मुसलमान थे मगर फ़साद के दिनों में वो उनके महल्लों में नहीं जा सकता था। एक दिन उसे मालूम हुआ कि उसके साथी रिपोर्टर और दोस्त हनीफ़ को सख़्त बुख़ार और सरसाम हो गया है। निर्मल से न रहा गया और भिंडी बाज़ार पहुँच ही गया। जहाँ एक चाल में हनीफ़ अकेला रहता था। क्राफ़ोर्ड मार्केट पर सिवाए निर्मल के तमाम हिन्दू बस से उतर गए। वो ख़ुद कोट पतलून पहने हुए था और उसकी वज़ा-क़ता से ये हरगिज़ न मालूम होता था कि वो हिन्दू है या मुसलमान या ईसाई। रंग गोरा होने की वजह से बा'ज़ तो उसे पारसी ही समझते थे मगर फिर भी जूं-जूं बस बम्बई के पाकिस्तानी इलाक़े में जा रही थी, उसका दिल ख़ौफ़ और परेशानी से धड़क रहा था। एक बार तो उसे ऐसा मालूम हुआ कि उसके बराबर बैठा हुआ हट्टाकट्टा ग़ुंडा-नुमा मुसलमान नौजवान उसके दिल की धड़कन सुनकर समझ जाएगा कि वो हिन्दू है और अपनी जाकेट में से छुरा निकाल कर उसकी कमर में घोंप देगा। उसी तरह जैसे चरनी रोड पर उस दुबले पतले नौजवान को एक हिन्दू ग़ुंडे ने मिष्टेक से मार डाला था और दफ़्अतन न जाने क्यों उसकी कमर की रीढ़ की हड्डी के पास खुजली सी महसूस होने लगी और एक ख़्याली चाक़ू का तेज़ फल उसकी पसलियों में पैवस्त होता गया।
बाटली वाला अस्पताल के पास वो बस से उतर कर पटरी पर चला तो उसे चारों तरफ़ से क़ातिल ही क़ातिल नज़र आए। वो छाबड़ी वाला जो केले और मौसंबियाँ बेच रहा था, न जाने वो किस वक़्त अपना तरकारी काटने का चाक़ू एक हिन्दू की कमर में पैवस्त कर दे। वो ख़ौफ़नाक लाल दाढ़ी वाला पठान तो ज़रूर एक काफ़िर बच्चे की तलाश में होगा। पुश्त से पथरीली सड़क पर खट-खट क़दम क़रीब आते हुए सुनाई दिए। निर्मल ने घबरा कर मुड़ कर देखा। कोई बुर्क़ा पोश औरत थी। एक लम्हे के लिए उसने इत्मीनान का साँस लिया ही था कि दफ़्अतन उसे ख़्याल आया कि उस बुर्क़े में कोई ग़ुंडाही छुपा हुआ हो। और वो तक़रीबन दौड़ता हुआ हनीफ़ की चाल की सीढ़ियों पर चढ़ गया।
हनीफ़ सरसामी कैफ़ियत में बेहोश पड़ा था। निर्मल को इसके पास शाम तक ठहरना पड़ा। जब हनीफ़ की हालत किसी क़दर बेहतर हुई और उसने वापस जाने का इरादा किया, उसी वक़्त एक सिपाही भोंपू में पुकारता हुआ वहाँ से गुज़रा कि शाम के पाँच बजे से कई इलाक़ों में चौबीस घंटों का कर्फ़्यू लगा दिया गया है, कोई घर से न निकले, क्योंकि गश्ती फ़ौजियों को सरे राह चलने वालों पर गोली चलाने के अहकामात दे दिए गए हैं। निर्मल ने घड़ी देखी। पाँच बजने में दस मिनट थे। इतनी देर में उसका शिवाजी पार्क पहुँचना नामुमकिन था। चार-ओ-नाचार उसने रात हनीफ़ के कमरे में गुज़ारने का फ़ैसला कर लिया।
हनीफ़ का कमरा किनारे पर था। एक खिड़की में से बड़ी सड़क नज़र आती थी, दूसरी एक गली में खुलती थी। सड़क पर भगदड़ मची हुई थी। हर कोई जल्द से जल्द अपने घर पहुँचने की फ़िक्र में था। निर्मल ने देखा कि एक पूरबी दूध वाला भैया जिसकी लम्बी चोटी दूर-दूर से पुकार कर कहती है कि मैं हिन्दू हूँ कँधे पर बहंगी, जिसमें दूध की गड़वियाँ रखी हुई हैं, सरासीमा नज़रों से इधर-उधर आगे पीछे देखता हुआ चला आ रहा है, और उस चरनी रोड वाले वाक़िए की तरह निर्मल का फिर बे-इख़्तियार जी चाहा कि चिल्ला कर दूध वाले भैया को ख़तरे से आगाह कर दे। मगर इस बार फिर अल्फ़ाज़ उसकी ज़बान पर जम कर रह गए और चश्म ज़दन में तीन तगड़े तहमद-बंद जवानों ने उस दुबले पतले काले पूरबी को घेर लिया। 11 कहाँ जाता है बे काफ़िर के बच्चे?
दूध वाले भैया की घिग्घी बंध गई। उससे कोई जवाब न बन पड़ा। शायद उसे उन तीनों की आँखों में अपनी मौत नज़र आई। वो वापस मुड़ा। उधर भी ग़नीम का एक गिरोह खड़ा हुआ उसकी तरफ़ क़ातिलाना नज़रों से घूर रहा था, एक हिरन की तरह जो हर तरफ़ शिकारियों से घिर गया हो। उसने एक लम्हे के लिए मायूस आँखों से इधर-उधर देखा और फिर दफ़्अतन वो उस गली की तरफ़ भागा और उसके तआक़ुब में पाँच शिकारी कुत्ते...! निर्मल भाग कर गली वाली खिड़की की तरफ़ गया। मगर अभी वो उधर पहुँच न पाया था कि दूध वाले भैया के ख़ुद अपनी बहंगी में उलझ कर गिरने की आवाज़ आई। पीतल की गड़वियाँ एक झंकार के साथ सड़क पर औंध गईं और उनका दूध एक सफ़ेद नहर बन कर बह निकला। जब निर्मल ने खिड़की में से देखा तो उस सफ़ेद दूध में पूरबी का सुर्ख़ ख़ून मिल चुका था।
भाग कर जाता था साला। और फिर निर्मल ने बराबर के कमरे से किसी औरत के हंसने की आवाज़ सुनी।
अरी ओ गुल बानो! देख तो सही। एक काफ़िर हमारी गली में मारा गया है... जैसे कोई कह रहा हो,अरी ओ गुल बानो! मुबारक हो, हमारी गली वालों ने आज कितनी बहादुरी का काम किया है... और फिर तीन-चार जवान, अधेड़, बूढ़ी औरतों की ख़ुशी से भरी हुई आवाज़ें,
अरी इसकी चुटिया तो देख।
अच्छा हुआ, ये सब पुरबिये दूध में बराबर का पानी मिलाते हैं। अब सज़ा मिली है।
गिरगाम में जो मुसलमान मारे हैं, हमारे आदमी भी उनमें से एक-एक का बदला लेंगे।
और फिर उन्हीं में से कोई औरत अंदर गई और घर भर का कूड़ा, तरकारी के छिलके, अंडों के खोल, गोश्त के छीछड़े और हड्डियाँ गली में लोट दिया। ऐन वहाँ जहाँ मक्खियों ने पूरबी भैया के दूध और ख़ून पर भुन भुनाना शुरू कर दिया था।
हिंदुस्तानी औरतों की असली रूह, उनकी आत्मा! उनकी नज़ाकत! उनकी मामता!
सेंढर्स्ट रोड वाली औरतों और भिंडी बाज़ार वाली औरतों के ख़ूनी क़हक़हे मिल कर निर्मल के ला-शऊर पर एक मुहीब गूँज बनकर छाए हुए थे। वही गूँज उसे अब तक अजंता के इन ग़ारों में भी सुनाई दे रही थी। धुंधली फीकी रंग की तस्वीरों में उसे हर देवी, हर अप्सरा, हर राज नर्तकी, हर औरत के चेहरे पर एक शैतानी ख़ुशी और उसकी आँखों में एक क़ातिलाना चमक नज़र आई और निर्मल का दिल एक अमीक़ नफ़रत से भर गया।
मैं हर औरत से नफ़रत करता हूँ। वो सोच रहा था,हर औरत से यहाँ तक कि भारती से भी... भारती... जो उससे मोहब्बत करती थी और जिससे मुद्दत से वो भी मोहब्बत करता था। भारती जो निर्मल को और उसकी हस्सास तबियत को अपनी दौलत की पनाह में रखना चाहती थी। जो बम्बई और उसके किश्त-ओ-खूँ के माहौल से निर्मल को तक़रीबन ज़बरदस्ती भगा कर अजंता ले आई थी। मोहब्बत। नफ़रत, नफ़रत, मोहब्बत, हम भाई-भाई हैं। हम आशिक़ व माशूक़ हैं। हम दोस्त और साथी हैं। हम एक-दूसरे के साथ मोहब्बत के रिश्ते में मुंसलिक हैं, मगर हम एक-दूसरे से नफ़रत करते हैं। हम एक-दूसरे की कमर में छुरा घोंपते हैं। हम एक-दूसरे पर पत्थर फेंकते हैं। एक-दूसरे का ख़ून बहाते हैं। एक-दूसरे का गला काटते हैं...
देखिए, ये लाशें देखिए। सर अलग और धड़ अलग। गाइड अपनी रों-रों किए जा रहा था। बोलते-बोलते उसको पसीना आ गया था मगर उसकी आवाज़ न थकती थी... और भारती... नाज़ुक, नफ़ासत-पसंद, हस्सास नर्म दिल भारती... ग़ार की दीवार पर तस्वीर ही में लाशें देख कर उसके चेहरे का रंग उड़ा जा रहा था।
इस ज़ालिम राजा ने सबको क़त्ल कर दिया है। सर कटवाकर लाशें इस गड्ढे में फिंकवा दी हैं चीलों, गिद्धों के खाने के लिए... और निर्मल के दिमाग़ में ये ग़ैर मुतअल्लिक़ ख़्याल रेंगता हुआ चला आया कि दर अस्ल राजा ज़ालिम नहीं था बल्कि शायद उसे गिद्धों, चीलों का बड़ा ख़्याल था। उनको ख़ुराक बहम पहुंचाने के लिए इसने इन सब लोगों को मरवा कर इनकी लाशें यहाँ डलवाई थीं। इसके ज़ुल्म में कम से कम मुर्दार ख़ोर जानवरों का तो भला था...
लाशें...!
सत्ताईस ठंडी, मस्ख़-शुदा काली और नीली लाशें, जो ठंडे पत्थर के फ़र्श पर इस तरह बिखरी हुई पड़ी थीं, जैसे फ़सल कटने के वक़्त किसी किसान ने गेहूँ की बालें काट कर खेत में छोड़ दी हूँ... जैसे मज़बह-ख़ाने में सत्ताईस बकरों की खाल उतार कर एक क़तार में लगा रखा हो... जैसे... जैसे सत्ताईस इंसानी लाशें बिखरी हुई हों!
निर्मल अख़बार के लिए रिपोर्ट लेने अस्पताल गया था और वहाँ उसे पता चल गया कि किस कमरे में फ़साद के मक़तूलीन की लाशें पोस्ट मार्टम और कोरोनर के फ़ैसले के लिए रखी गई हैं। उसने उम्र भर में सिर्फ़ एक बार एक लाश मेडिकल कालेज के सर्जरी वार्ड में रखी हुई देखी थी। तब भी तीन वक़्त उससे खाना न खाया गया था। वो फटी-फटी मुर्दा आँखें उसका तआक़ुब करती रही थीं मगर यहाँ एक लाश नहीं सत्ताईस लाशें रखी थीं। बूढ़े, जवान, बच्चे, सूखे हुए जिस्म। किसी की कमर में घाव। किसी की आँतें पेट से बाहर निकली हुई। किसी की गर्दन से सर जुदा, धड़ के क़रीब रखा हुआ। किसी का भेजा फटे हुए सर में से बाहर उबलता हुआ। इनमें से कौन हिन्दू था? और कौन मुसलमान? मौत की बिरादरी में सब एक थे। क़ातिल की छुरी ने सबको बराबर-बराबर लिटा दिया था। ये ठंडा पथरीला फ़र्श। ये था इनका पाकिस्तान और इनका हिंदुस्तान। ये बेकार मौत। ये पथराई हुई आँखें। ये सन्नाटा, ये बेचारगी... ये थी इनकी आज़ादी। ये था इनका इस्लाम और ये था इनका वैदिक धर्म... जय जय महादेव... अल्लाहु अकबर!
निर्मल अमली सियासत से हमेशा दूर भागता था। अलावा अख़बार के काम के जो वो पेट की ख़ातिर करता था, वो अमल के मैदान का धनी नहीं था। उसकी दुनिया ख़्यालात और महसूसात की दुनिया थी। फिर भी फ़सादात शुरू होने के तीसरे दिन ही वो अपने महल्ले के शांति दल में शामिल हो गया था और शायद इसलिए कि उसका तअल्लुक़ एक अहम रोज़ाना अख़बार से था और शांति दल हो या सेवा समाज हो या ख़ुद्दाम-ए-वतन, हर पब्लिक जमाअत को पब्लिसिटी की ज़रूरत होती है। उसको कमेटी का मेम्बर भी चुन लिया गया था। निर्मल का दोस्त और हमसाया अहमद जो एक दूसरे अख़बार में सब एडिटर था, वो भी कमेटी का मेम्बर चुन लिया गया था। इसलिए कि तमाम शिवाजी पार्क के इलाक़े में वही सिर्फ़ अकेला मुसलमान था जो शांति दल में शामिल हुआ था और ऐसी कमेटियाँ सरकारी मंज़ूरी नहीं हासिल कर सकतीं जब तक उनमें सब फ़िरक़ों के नुमाइंदे मौजूद न हों।
चंद रोज़ तक निर्मल शांति दल की तंज़ीम के काम में मुस्तग़रिक़ रहा और उसे ऐसा मालूम हुआ कि फ़साद के असर से उसपर जो एक मोहलिक जमूद और घुटे-घुटे ग़म और बेबसी की हालत तारी हो गई थी वो अब जाती रहेगी। शांति दल में शामिल होकर उसको वही वज्द आफ़रीं मसर्रत हासिल हुई जो एक सिपाही को तबल जंग सुन कर होती है। ये जंग तारीकी और रौशनी के दरमियान थी। ग़ारत-गरी और अमन के दरमियान। वो उस जंग में एक सिपाही था। वो शैतानी तअस्सुबात और दरिंदगी के ख़िलाफ़ जिहाद में शरीक था। मुमकिन है कि वो इस जंग में कोई कारहाए नुमायाँ न कर सके मगर कम से कम उसको ये तसल्ली तो थी कि वो अपना फ़र्ज़ अदा कर रहा है, कि उसकी ज़िंदगी बिल्कुल बेकार, बेमानी और बे-मक़सद तो नहीं हो गई है।
भारती ने कई बार निर्मल से कहा,चलो बम्बई से बाहर कहीं चले चलें। जब फ़साद ख़त्म हो जाएगा। तब आ जाएंगे। आगरा, दिल्ली, कश्मीर, अजंता, एलोरा, मैसूर, सिलोन न जाने कहाँ-कहाँ जाने का लालच दिलाया, मगर निर्मल को ऐसे वक़्त बम्बई छोड़ कर बाहर जाना परले दर्जे की कम हिम्मती और बुज़दिली मालूम हुई। भारती ने लाख समझाया कि उस जैसे हस्सास आर्टिस्ट के लिए अपनी जान को ख़तरे में डालना, उसकी ख़ुदा दाद ज़हानत की तहक़ीर थी। मगर वो न माना और सिवाए दफ़्तर के औक़ात के सारे दिन और रात का बेशतर हिस्सा शांति दल के काम में सर्फ़ करता रहा।
शांति दल का काम? निर्मल समझा था कि उसका काम वाक़ई शांति का प्रचार होगा। उसका ख़्याल था कि शांति दल के मेम्बर घर-घर जाएंगे और लोगों को अमन और शांति से रहने की तलक़ीन करेंगे। आपस की फ़िरक़ावाराना मुनाफ़िरत को दूर करके यगानगत और इत्तिहाद पैदा करने की कोशिश करेंगे। शहर में ख़ुद उनके इलाक़े में हर दम हर क़िस्म की अफ़वाहें मशहूर हो रही थीं। माहिम के मुसलमान शिवाजी पार्क के हिन्दुओं पर हमला करने वाले हैं। शिवाजी पार्क के हिन्दू माहिम के मुसलमानों पर हमला करने वाले हैं। हिन्दू दूध वाले दूध में ज़हर मिलाकर मुसलमानों के हाथ बेच रहे हैं, मुसलमान तरकारी वाले बैंगनों और मौसंबियों में ज़हर के इंजेक्शन दे कर हिन्दुओं के हाथ बेच रहे हैं।
ईरानी होटलों की चाय मत पियो, उसमें ज़हर है। हिन्दू हलवाई की मिठाई मत खाओ, उसमें ज़हर है। झूट, झूट, झूट, झूट और तास्सुब और नफ़रत का एक तूफ़ान जिसमें तमाम शहर डूबा जा रहा था। निर्मल और उसके दोस्त अहमद को उम्मीद थी कि शांति दल का पहला काम होगा इस ख़ूनी सैलाब को रोकना। मगर जल्द ही उनको मालूम हो गया कि हक़ीक़त कुछ और ही है। शांति दल का पहला काम चंदा जमा करना... अहमद के साथ निर्मल हर किसी के हाँ गया। गिनती के जो चंद मुसलमान थे, उन्होंने मदद करने से साफ़ इनकार कर दिया।
ये शांति दल के पर्दे में हिन्दू क्या कर रहे हैं, हम ख़ूब जानते हैं... हमने भी अपनी हिफ़ाज़त के लिए पठान रख लिए हैं... बाज़ हिन्दुओं ने कहा,आपके निहत्ते वालेंटियर हमारी हिफ़ाज़त क्या ख़ाक कर सकते हैं? हम सिख दरबान रख रहे हैं। और फिर राज़दाराना लहजे में,सिख किरपान रख सकते हैं, क्या समझे। ख़ैर, चंदा जमा किया गया। बीस पहरेदार पचास-पचास रूपये माहवार पर मुलाज़िम रखे गए। कमेटी में मसला दरपेश हुआ कि इनको कहाँ-कहाँ ड्यूटी पर लगाया जाए।
एक-एक आदमी हर सड़क के नाके पर लगाया जाए।
नहीं, ये हिमाक़त होगी। हमला सिर्फ़ तीन तरफ़ से हो सकता है, या माहिम की तरफ़ से, या वर्ली की तरफ़ से या समुंदर की तरफ़ से, सिर्फ़ इन नाकों पर पहरा लगाना चाहिए।
हमला? किसका हमला...?
मुसलमान अगर हमला करेंगे तो और किधर से हमला करेंगे?
पर इन पहरेदारों का काम क्या होगा?
इनसे कह दिया जाए कि जैसे ही किसी मुसलमान ग़ुंडे को देखें सीटी बजा दें ताकि चारों तरफ़ से लोग जमा हो जाएं।
सिर्फ़ मुसलमान ग़ुंडे? और अगर हिन्दू ग़ुंडे हों तो? निर्मल ने ये सवाल किया तो, मगर वो अहमद से आँखें चार न कर सका। कमेटी के जलसे के बाद उसने अहमद से कहा,ये तुम्हारी ही हिम्मत है कि ऐसे लोगों के साथ काम कर सकते हो। मुझे तो ये सब महा सभाई मालूम होते हैं। अहमद ने कहा,ऐसे बेवक़ूफ़ों और जाहिलों की कमी दोनों तरफ़ नहीं है। तुम नहीं जानते कि माहिम के मुसलमानों में क्या-क्या अफ़वाहें मशहूर की जा रही हैं। वो समझते हैं कि शिवाजी पार्क में शांति दल के नाम से हिन्दुओं की एक फ़ौज तैयार की जा रही है। जो बहुत जल्द माहिम के मुसलमानों पर शबख़ून मारेगी।
चंदा, वालेंटियर, मुहाफ़िज़, वर्दियाँ, सीटियाँ, जलसे, रिज़ॉल्यूशन, पुलिस कमिश्नर के नाम अर्ज़ियाँ। मगर शांति का प्रचार? इत्तिहाद का प्रोपेगंडा? इनका नाम नहीं तो फिर शांति दल का मक़सद? इस दौड़ धूप से फ़ायदा? मुसलमान ग़ुंडे... हिन्दू ग़ुंडे... घरों में पत्थर जमा करके रखो। मैंने तो दस लाठियाँ छुपा रखी हैं। मेरे हमसाए के पास पिस्तौल है। शांति! शांति! शांति!
ये शांति का महासागर है, निर्मल। भारती कह रही थी,अगर हम आठ दस दिन तक रोज़ यहाँ आकर कई घंटे गुज़ारा करें तो मुझे यक़ीन है कि तुम्हारे बेचैन दिल को ज़रूर शांति मिलेगी। और गाइड कह रहा था,आपने सब ग़ार देख लिए हैं। अब एक बाक़ी रह गया है। मगर इसमें आपको दूसरे ग़ारों की तरह संगतराशी और मुसव्विरी के नादिर और हसीन नमूने नहीं मिलेंगे। छत, सतून, फ़र्श, हर चीज़ नामुकम्मल है। इस ग़ार का काम अधूरा रह गया है...
अधूरा काम! वो... निर्मल... भी तो बम्बई में अपने काम को अधूरा छोड़ कर चला आया था। बल्कि अधूरे से भी कम... अभी जंग शुरू भी नहीं हुई थी कि उसने हार मान ली थी।
शांति दल कमेटी का आख़िरी जलसा।
निर्मल ने शुरू ही से ये तजवीज़ पेश की थी कि बजाय मामूली अनपढ़ और उजड्ड दरबानों और चौकीदारों के आज़ाद हिंद फ़ौज के साबिक़ सिपाहियों को माक़ूल मुशाहरे पर हिफ़ाज़त के लिए रखा जाए क्योंकि वो फ़िरक़ावाराना तअस्सुबात से पाक और बाला थे। उनमें क़ौमी ख़िदमत का जज़्बा था और वो अपनी पुरानी ख़िदमात और क़ुर्बानियों की वजह से मदद के मुस्तहिक़ थे। शांति दल के सक्रेटरी ने इस जलसे में बयान किया कि पुराने तमाम पहरेदार अलैहदा कर दिए गए हैं और इनकी बजाए चौदह आज़ाद हिंद फ़ौज के साबिक़ सिपाही रख लिए गए हैं। ये सुन कर निर्मल का हौसला बढ़ गया। उसे ऐसा मालूम हुआ कि अब शांति दल का काम सही तरीक़े पर होगा। मगर एक लम्हे ही में उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया।
एक बूढ़े मरहटा वकील ने सवाल किया,क्या ये सच है कि आज़ाद हिंद फ़ौज के इन सिपाहियों में मुसलमान भी हैं? सेक्रेटरी ने कहा,हाँ, मगर सिर्फ़ एक। एक मोटे गुजराती सेठ ने कहा,मेरे हलक़े में इस बात पर बड़ी बेचैनी फैली हुई है। एक दुबले सूखे मारवाड़ी ने कहा,ये तो गजब की बात है। बूढ़े वकील ने ऊँची आवाज़ में कहा,मैं सेक्रेटरी साहब से इस मामले में जवाब तलब करता हूँ कि क्यों एक मुसलमान को रखा गया। गुजराती सेठ ने अपना फ़ैसला सुनाया,अगर ऐसा होगा तो हमलोग एक पैसा चंदा नहीं देंगे। एक पिस्ता क़द डॉक्टर ने कहा,मेरे हलक़े के लोग भी यही कहते हैं कि अगर मुसलमान... दुबले सूखे मारवाड़ी ने कहा,ये हमारी स्त्रियों की इज्जत का सवाल है।
बूढ़े वकील ने कहा,मैं जवाब तलब करता हूँ... प्रेसीडेंट ने कहा,ख़ामोश, ख़ामोश। सेक्रेटरी ने कहा,मैं तो इसमें कोई हर्ज नहीं समझता। आज़ाद हिंद फ़ौज में हिन्दू मुसलमान की तफ़रीक़ नहीं की जाती। लेकिन अगर कमेटी की राय यही है तो हम किसी बहाने से उस मुसलमान सिपाही को अलैहदा कर सकते हैं। सबने बयक वक़्त शोर मचाया,हाँ-हाँ, फ़ौरन, एक दम। उसको रखा ही क्यों? सिर्फ़ अहमद ख़ामोश बैठा मुस्कुरा रहा था। न जाने क्यों अहमद को इत्मीनान से मुस्कुराते देख कर निर्मल के सब्र का पैमाना दफ़्अतन लबरेज़ हो गया। उसके दिमाग़ के अंदर की कोई कली दफ़्अतन तड़ाख़ से टूट गई।
नहीं! नहीं! वो ग़ैरमामूली जोश से चिल्लाया। सेक्रेटरी जो जलसे की रुयदाद में ये अल्फ़ाज़ लिखने में मसरूफ़ था कि ये तजवीज़ बिला मुख़ालिफ़त पास की गई कि आज़ाद हिंद फ़ौज के जिन साबिक़ सिपाहियों को हिफ़ाज़त के लिए रखा जाए, उनमें कोई मुसलमान न हो... अपनी कुर्सी से तक़रीबन उछल पड़ा। उसके हाथ से क़लम गिर पड़ा और सफ़ेद काग़ज़ पर जहाँ उस तजवीज़ के अल्फ़ाज़ लिखे गए थे वहाँ रोशनाई का एक बड़ा धब्बा पड़ गया... नहीं! नहीं! नहीं! जैसे उस एक लफ़्ज़ के दस बार दोहराने से बाक़ी दस मेंबरों की राय मंसूख़ हो जाएगी,मैं ऐसी तजवीज़ की कभी किसी हालत में भी मुवाफ़िक़त नहीं कर सकता।
निर्मल के अल्फ़ाज़ की वालिहाना शिद्दत ने चंद लम्हों के लिए सबको ख़ामोश कर दिया। मगर उस ख़ामोशी में उसे अपनी आवाज़ खोखली और बेमानी मालूम हुई। ऐसी तजवीज़ हमारे लिए बाइस-ए-शर्म होगी। हम शांति और इत्तिहाद के नाम लेवा हैं। मगर हम ख़ुद बदतरीन फ़िरक़ावाराना तअस्सुब का सबूत दे रहे हैं। अगर ये तजवीज़ पास हुई तो मैं इस मामले को प्रेस और पब्लिक के सामने रखना अपना फ़र्ज़ समझूँगा। और अहमद मुस्कुराए जा रहा था, जैसे कह रहा हो,शाबाश, बच्चे, मगर ये सब बेकार है।
दुबले मारवाड़ी ने मुख़ालिफ़ की हैसियत से कहना शुरू किया,मिस्टर निर्मल को नहीं मालूम कि हम हिन्दू कितने खतरे में हैं... गुजराती सेठ ने कहा,हम तो साफ़ बोलेंगे। अगर मुसलमान रहेगा तो हम चंदा नहीं देंगे। पिस्ता क़द सेठ ने कहा,हम इस्तिफ़ा देकर हिन्दू महासभा के सूरख्शन दल में मिल जाएंगे। मगर चालाक बूढ़े वकील ने दूसरों को हाथ के इशारे से ख़ामोश करते हुए निर्मल को मुख़ातिब करते हुए कहा,मिस्टर निर्मल एक बात बताइए, ये हिंदू इलाक़ा है। अगर यहाँ पहरा देते हुए इस बेचारे मुसलमान सिपाही को कुछ ऐसा वैसा हो गया तो कौन ज़िम्मेदार होगा? आप! और ये कह कर उसने गुजराती सेठ और पिस्ता क़द डॉक्टर की तरफ़ देख कर आँख मारी, गोया कह रहा हो कि देखा मेरा क़ानूनी पैंतरा। ऐसे-ऐसे लौंडे मैंने बहुत देखे हैं...अहमद ने मुस्कुरा कर निर्मल की तरफ़ देखा और नज़रों में कहा,मैंने कहा नहीं था कि कोई फ़ायदा नहीं है...
तजवीज़ पास हो गई। निर्मल बिफरा हुआ ख़ामोश बैठा रहा। वो बहुत कुछ कह सकता था। दावे, दलाइल, मंतिक़, सियासत। मगर उसे मालूम हो गया कि इस तअस्सुब और जहालत की दीवार पर सर पटख़ना लाहासिल है। उसके चारों तरफ़ आवाज़ों का समुंदर ठाठें मारता रहा। तजवीज़ें पास होती रहीं। बहस मुबाहिसे होते रहे। हस्ब-ए-मामूल मुख़्तलिफ़ मेंबरों और ओहदेदारों में सख़्त कलामी भी होती रही। मगर निर्मल ने कुछ कहा न सुना।
उसका दिमाग़ ख़ौफ़नाक ख़्यालात और मनाज़िर का स्टेज बना हुआ था। कलकत्ता, बम्बई, अहमद आबाद, नवाखाली, बिहार। क़त्ल, ख़ून, ख़ून की नदियाँ, ख़ून के दरिया, ख़ून का समुंदर। नफ़रत और तशद्दुद, तअस्सुब और नफ़रत। औरतों की बेहुरमती। बच्चों की लाशें, लाशों के पहाड़। एक ख़ूनीं आसमान की तरफ़ लपकते हुए हज़ारों शोले... और एक कलदार हतोड़े की तरह ये ख़्याल उसके दिमाग़ पर चोट लगाता रहा कि ये सब इसलिए हो रहा है कि शिवाजी पार्क शांति दल के मेंबर आज़ाद हिंद फ़ौज के एक मुसलमान सिपाही को अपनी हिफ़ाज़त के लिए रखने को तैयार नहीं हैं...
और उसे ऐसा मालूम हुआ कि आज़ाद हिंद फ़ौज के शानदार तारीख़ी कारनामे बेकार थे। तमाम जंग-ए-आज़ादी बेकार थी। तमाम देश भक्तों और शहीदान-ए-वतन की क़ुर्बानियाँ बेकार थीं। तमाम क़ौमी नारे, तमाम क़ौमी तहरीकें, तमाम क़ौमी लीडर, हर शख़्स बेकार था। हर चीज़ बेकार थी। शिवाजी पार्क शांति दल बेकार था। इस सिलसिले में निर्मल का काम बेकार था। उसका बम्बई में रहना बेकार था। उसकी ज़िंदगी ही बेकार थी... इसलिए कि हिन्दू और मुसलमान के ठप्पे आज़ादी और हिंदुस्तान से ज़्यादा अहम साबित हुए थे।
उसे शांति दल कमेटी के वो सब मेंबर उस वक़्त तअस्सुब और नफ़रत और ख़तरनाक जहालत के देवता मालूम हुए जो अपनी आतिशीं आँखों से उसको घूर रहे थे। जो उसे भस्म कर लेने के लिए उसकी तरफ़ बढ़े आ रहे थे। वही दस नहीं, बल्कि हर तरफ़ से लाखों राक्षशों के दल के दल उसकी तरफ़ बढ़े आ रहे थे। उनमें चोटी वाले भी थे और दाढ़ी वाले भी। हिन्दू भी और मुसलमान भी, बंगाली, बिहारी, मरहटा, गुजराती, पंजाबी, पूरबी पठान और सब उसके ख़ून के प्यासे।
भाग! निर्मल के धड़कते हुए दिल ने उसे ललकारा।
भाग! और निर्मल न सिर्फ़ जलसे के ख़त्म होने से पहले ही शांति दल के दफ़्तर से भागा बल्कि एक दिन भारती के साथ बम्बई से भी भाग आया।
कहाँ चलें? भारती ने पूछा।
जहाँ ये क़त्ल-ओ-ख़ून न हो, जहाँ अख़बार न हो, रेडियो न हो, जहाँ हिन्दू न हों, मुसलमान न हों, जहाँ चाक़ू, छुरियाँ, बरछे, भाले, तेज़ाब, ग़ुंडे, मवाली न हों। दूर.. दुनिया और ज़िंदगी से दूर...! और भारती ने सोच कर कहा,अजंता?
अहमद निर्मल को छोड़ने स्टेशन पर आया। गाड़ी चलने लगी तो उसने कहा, अच्छा है, चंद रोज़ के लिए तब्दील आब-ओ-हवा कर आओ। मगर अगले इतवार को शांति दल का जलसा है जिसमें चंद तजवीज़ें पेश करने वाला हूँ, उसमें तुम्हारी मौजूदगी ज़रूरी है। और जब निर्मल ने कहा,मैं अब शांति दल के जलसे में कभी न जाऊंगा। तो अहमद ने चलती रेल के साथ भागते हुए कहा था,तुम इस काम को अधूरा छोड़ कर नहीं भाग सकते, निर्मल।
अधूरा काम!
हूँह। ये अजंता के संगतराश और मुसव्विर। ये भी तो इस आख़िरी ग़ार को अधूरा ही छोड़ कर चले गए। न जाने क्यों। क्या वाक़िआ पेश आया कि आठ नौ सौ बरस तक दर्जनों नस्लों की मुसलसल मेहनत के बाद इस ग़ार को वो अधूरा छोड़ने पर मजबूर हो गए? तुम्हारा क्या ख़्याल है, भारती... पर भारती वहाँ नहीं थी। न गाइड था, कोई नहीं था। निर्मल की आवाज़ ग़ार की पथरीली दीवारों से टकराती हुई, ग़ुलाम गर्दिश में घूम कर फिर वापस लौट आई। शायद वो इस अंधेरे, अधूरे ग़ार के किसी कोने में अपने ख़्यालात में गुम हो गया था और भारती और गाइड ये समझ कर बाहर चले गए थे कि मुमकिन है वो तंग आकर वापस चला गया हो। उसको इस ग़ार में घूमते काफ़ी अरसा हो गया होगा क्योंकि दरवाज़े के बाहर जो सामने वाली सर सब्ज़ पहाड़ी नज़र आती है, वो काली पड़ चुकी थी, शायद आफ़ताब ग़ुरूब हो चुका था... एक बढ़ती हुई घुटन की तरह ग़ार में अंधेरा छाया जा रहा था।
निर्मल बाहर जाने के लिए क़दम बढ़ा ही रहा था कि उसने एक मशाल को अपनी तरफ़ आते देखा और वो ये देख कर मुतहय्यर रह गया कि जो कोई भी ये मशाल लिए आ रहा था वो ग़ार के तन्हा दरवाज़े से दाख़िल नहीं हुआ था बल्कि मुख़ालिफ़ सम्त से आ रहा था। फिर उसने सोचा कि शायद गाइड उसे ढूंढते हुए ग़ार के किसी दूसरे अंधेरे कोने में चला गया हो और अब लौट रहा हो। मगर उसकी हैरत की कोई इंतहा न रही, जब उसने देखा कि मशाल हाथ में लिए हुए जो आदमी गेरुवे रंग की कफ़नी पहने हुए आया था उसको किसी की तलाश नहीं थी। उसने एक अधूरे सतून के सहारे मशाल लगा दी और अपनी कफ़नी के किसी झोल में से एक छीनी और एक हथौड़ा निकाल कर पत्थर को छीलने लगा। निर्मल उसकी तरफ़ बढ़ने वाला ही था कि उसने देखा कि वैसी ही गेरुवे रंग की कफ़नियाँ पहने मुंडे हुए सर के दर्जनों भिक्षु मशालें लिए ग़ार के अंधेरे अक़ब में से निकले चले आ रहे हैं।
उनमें से किसी ने भी निर्मल की तरफ़ तवज्जो नहीं दी। सब अपनी-अपनी छीनियाँ और हथौड़े निकाल कर छत और दीवारें छीलने या सतूनों को गोल बनाने में मसरूफ़ हो गए। चंद दीवार पर मिट्टी का लेप करके उसकी सतह हमवार बना रहे थे ताकि जब दीवार उखड़ जाए तो मुसव्विर अपनी तस्वीरों के रंगीन नुक़ूश बना सकें और ग़ार पत्थर पर लोहे की चोट पड़ने की आवाज़ों से गूँज उठा। चंद मिनट तो निर्मल उस पुर हैरत मंज़र को देखता रहा। फिर उससे न रहा गया और वो उस संगतराश भिक्षु के पास गया जो सबसे पहले ग़ार में दाख़िल हुआ था।
माफ़ कीजिए, मैं आपके काम में मुख़िल हो रहा हूँ, मगर मुझे आप लोगों को मसरूफ़ देख कर बड़ा ताज्जुब हो रहा है।
क्यों?
इसलिए कि मैं समझता था कि इस ग़ार की तामीर अधूरी ही है, और ये अधूरा ही रहेगा।
दुनिया की तामीर भी अधूरी है, इंसान भी अधूरा है मगर इनकी तकमील होनी चाहिए। इस जवाब को निर्मल कुछ समझा और कुछ न समझा। फिर उसने पूछा, आप कब से काम कर रहे हैं?
नौ सौ बरस से।
नौ सौ बरस? आपका मतलब है कि आपकी उम्र...
मैं और मुझसे पहले मेरा बाप और उससे पहले उसका बाप और उससे पहले उसका बाप। एक नस्ल के बाद दूसरी नस्ल और उसके बाद तीसरी नस्ल। आत्मा के चक्र की तरह काम का चक्र तो चलता ही रहता है।
आपका नाम? निर्मल ने बातचीत को ज़ाती रंग देने की कोशिश की।
मेरा नाम? कुछ नहीं, हम सब बेनाम हैं। और निर्मल को याद आया कि उसने इन तमाम ग़ारों में किसी संगतराश या किसी मुसव्विर का नाम खुदा हुआ या लिखा हुआ नहीं देखा था।
फिर आप किसलिए इतना काम करते हैं?
काम किसी ग़रज़ से नहीं किया जाता। इंसान काम से अपनी पैदाइश का मक़सद पूरा करता है।
तो ये काम कब ख़त्म होगा?
कौन जानता है।
इस ग़ार को...
पूरा होने में दो सौ बरस लगेंगे। इसके बाद दूसरा ग़ार और इसके बाद तीसरा...
तो क्या अजंता की तकमील कभी न होगी?
होगी... जब इंसान की तकमील होगी। निर्मल की शक परस्ती उसकी हैरत पर ग़ालिब आई और उसने किसी क़दर तल्ख़ी से पूछा,मेहरबानी करके मुझे समझाइए कि हज़ारों बरस से जो आप जैसे हज़ारों आदमी इतनी मेहनत कर रहे हैं, ये क्यों और किसलिए? ये पहाड़ की गोद से तर्शे हुए ग़ार, ये मुजस्समे, ये तस्वीरें, ये सन्नाई, ये मुसव्विरी? ये क्यों और किसलिए? उसकी आवाज़ में तल्ख़ी के बजाए जोश और ग़ुस्सा आता गया,बेहतर होता कि इतनी मेहनत पत्थरों में गुलकारी करने के बजाए इंसानों को इंसान बनाने में सर्फ़ की जाती, ताकि आज वो एक-दूसरे का ख़ून न करते होते। आप लोगों ने संगतराशी और मुसव्विरी के ये जादू घर हमें धोका देने के लिए बनाए हैं। ये ग़ार दुनिया से, असलियत से, सच्चाई से फ़रार सिखाने के लिए बनाए गए हैं।
संगतराश भिक्षु के चेहरे पर एक अजीब पुर-सुकून मुस्कुराहट थी। जिसमें तल्ख़ी का शाइबा भी न था, सिर्फ़ मोहब्बत और रहम और अमीक़ इदराक। उसने अपने काम से नज़र हटाए बग़ैर सर हिला कर नर्मी से कहा,नहीं। निर्मल को उस आदमी की मुस्कुराहट, उसके सब्र-ओ-सुकून पर ग़ुस्सा आ रहा था। उसने चिल्लाकर कहा, तो फिर अजंता का क्या मक़सद है? अजंता का क्या पैग़ाम है?
सुनो। और सिर्फ़ इतना कह कर वो अपने काम में मशग़ूल हो गया। ग़ार में मुकम्मल ख़ामोशी थी सिर्फ़ पत्थर पर लोहा पड़ने की आवाज़। निर्मल मुंतज़िर रहा कि भिक्षु उसको अजंता का फ़लसफ़ा, अजंता का पैग़ाम सुनाएगा, मगर उसकी ज़बान से एक लफ़्ज़ न निकला। सिर्फ़ उसकी छीनी की खट-खट, खट-खट और पत्थर के पतले-पतले पत्र छिलकर फ़र्श पर गिरते रहे।
तो क्या तुम नहीं बताओगे कि अजंता का पैग़ाम...? मगर दफ़्अतन निर्मल के अंधेरे दिमाग़ में समझ की एक किरन चमकी और उसकी ज़बान पर जुमला अधूरा रह गया। ग़ार में मुकम्मल ख़ामोशी थी, सिर्फ़ पत्थर पर लोहे की चोट पड़ने की आवाज़। यही था अजंता का पैग़ाम, जिसे वो भिक्षु निर्मल को सुनाना चाहता था। निर्मल की आँखों में समझ की नई चमक देख कर वो राहिब अपनी मासूम अदा से मुस्कुराया, और फिर अपने काम में मसरूफ़ हो गया और निर्मल को ऐसा मालूम हुआ जैसे उसे दफ़्अतन दुनिया का सबसे बड़ा ख़ज़ाना मिल गया हो। आबे हयात, अक्सीर। इस क़ीमती नुस्ख़े के सामने हर चीज़ हेच थी। उसे अजंता का पैग़ाम मिल गया था। न जाने कब तक वो इस ग़ार के कोने में बैठा हुआ पत्थर पर लोहे की चोट पड़ने की आवाज़ों को सुनता रहा। खट-खट, खट-खट खट। और हर बार जब लोहे की छीनी पत्थर की दीवार पर पड़ती थी, निर्मल को मालूम होता कि वो ज़बान-ए-हाल से कह रही है।
अमल! अमल! अमल! काम! काम! काम! मेहनत! मेहनत! मेहनत!
अमल से पत्थर मोम की तरह छीला जाता है। अमल से पहाड़ की चट्टानें काटी जाती हैं। अमल से पत्थर में गुलकारी की जाती है। अमल से तस्वीरों में ज़िंदगी का रंग भरा जाता है। अमल से इंसान-इंसान बनता है। अमल ही इबादत है। अमल ख़ुद अमल का इनाम है...
खट-खट, खट-खट खट
पत्थर पर लोहे की चोट पड़ने की आवाज़। आज नहीं तो कल, सौ बरस में नहीं तो हज़ार बरस में, ये पत्थर ज़रूर छिल कर, तरश कर संगतराशी और मुसव्विरी के नादिर नमूने बनेंगे। एक-दो के हाथों नहीं, हज़ारों मिल कर इनको तराशेंगे। नस्लों के बाद नस्लें इस काम को जारी रखेंगी। ये काम कभी ख़त्म नहीं होगा। इसकी मंज़िल कमाल-ए-फ़न है।
खट-खट, खट-खट खट।
पत्थर पर लोहे की चोट पड़ने की आवाज़। आज नहीं तो कल, सौ बरस में नहीं तो हज़ार बरस में, इंसान की फ़ितरत के पत्थर छिल कर, तरश कर, हुस्न और ख़ूबसूरती, फ़न और इल्म के नादिर नमूने ज़रूर बनेंगे। एक-दो के हाथों नहीं, हज़ारों, लाखों, करोड़ों, तमाम इंसान मिल कर इनको तराशेंगे। नस्लों के बाद नस्लें इस काम को जारी रखेंगी। इसकी मंज़िल तकमील-ए-इंसानियत है।
खट-खट, खट-खट खट।
पत्थर पर लोहे की चोट पड़ने की आवाज़। निर्मल ने देखा कि राहिब अपने काम में इतना मुस्तग़रिक़ था कि उसे मालूम भी न हुआ कि कब हथौड़े की चोट उसके अँगूठे पर पड़ी। ज़ख़्म से लाल-लाल लहू की बूँदें टपक कर पथरीली फ़र्श पर गिर रही थीं। और दफ़्अतन निर्मल को वो तमाम तस्वीरें याद आ गईं जो उसने इन तमाम ग़ारों में देखी थीं। हज़ारों बरस के बाद भी कितने ताज़ा, कितने शादाब थे उनके रंग। और न जाने क्यों निर्मल ने सोचा कि उन तस्वीरों की लाली में इंसान के ख़ून का रंग है। जभी तो वो इतनी जीती जागती हैं। जभी उनमें इतनी ज़िंदगी है...
शायद वो सो गया। शायद वो अपने ख़्यालात में खो गया। जब उसको होश आया तो ग़ार तुलूअ-ए-आफ़ताब की धीमी-धीमी तिरछी किरनों से रौशन हो रहा था। मगर हर तरफ़ सन्नाटा था। न वो संगतराश थे, न मुसव्विर, न मशालें। तो क्या उसने ख़्वाब देखा था...? शायद... कितना अजीब ख़्वाब!
उसने सोचा,हाँ, ख़्वाब ही होगा। रात भर इस माहौल में गुज़ार कर कोई तअज्जुब नहीं कि मेरे तख़य्युल ने एक कैफ़ियत पैदा कर दी हो। मगर बाहर जाते वक़्त जब वो उस सतून के क़रीब से गुज़रा जिसको उसके ख़्वाब वाला राहिब तराश रहा था, तो उसने देखा कि सतून पर एक फूल खुदा हुआ है जो कल नहीं था। या शायद ये भी उसका वाहिमा ही हो। फिर कुछ याद आकर उसकी नज़रें फ़र्श पर गईं। वहाँ सुर्ख़ मोतियों की तरह ताज़ा ख़ून की कई बूँदें पत्थर पर बिखरी हुई थीं।
निर्मल भारती से मिले बग़ैर स्टेशन पहुँच गया। अगले दिन इतवार था और उसे शांति दल के जलसे में अहमद की तजवीज़ों की हिमायत करने के लिए पहुँचना ज़रूरी था। बम्बई से, फ़साद से, ज़िंदगी से, कोई क़रार नहीं था। रेल में एक हम सफ़र ने पूछा,आप शायद अजंता हो कर आ रहे हैं?
और निर्मल ने जवाब दिया,जी नहीं, मैं अजंता की तरफ़ जा रहा हूँ!
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