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बाप और बेटा

मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी

बाप और बेटा

मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी

MORE BYमुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी

    (1)

    बाहर गहरा कोहरा गिर रहा था, काफ़ी ठंडी लहर थी। मेज़ पर रखी चाय बर्फ़ बन चुकी थी। काफ़ी देर के बाद बाप के लब थरथराए थे। “मेरा एक घर है” और जवाब में एक शरारत भरी मुस्कुराहट उभरी थी। “और में एक जिस्म हूँ... अपने आपसे सुलह कर लोगे तब भी एक जंग तो तुम्हारे अन्दर चलती ही रहेगी। ज़ेहन की सतह पर, एक आग के दरिया से तो तुम्हें गुज़रना ही पड़ेगा। अपने आपसे लड़ना नहीं जानते। घर, बच्चे, एक उम्र निकल जाती है।”

    बाप उस दिन जल्दी घर लौट आए थे। शायद, एक तरह के एहसास-ए-जुर्म से मुतास्सिर, ये ठीक नहीं। वो बहुत देर तक अंधेरे कमरे में अपनी ही परछाईयों से लड़ते रहे। कमरे में अंधेरा और सुकून हो तो अच्छा-ख़ासा मैदान-ए-जंग बन जाता है। ख़ुद से लड़ते रहो। मिज़ाइलें छूटती हैं तो पेन चलती हैं और कभी कभी अपना आप इतना लहू-लुहान हो जाता है कि तन्हाइयों से डर लगने लगता है। मगर थके हुए परेशान ज़ेहन को कभी कभी उन्हें तन्हाइयों पर प्यार आता है। ये तन्हाइयाँ क़िस्से “जनती” भी हैं और क़िस्से सुनती भी हैं।

    कमरे में उतरी हुई ये परछाईयां देर तक बाप से लड़ती रही थीं। पागल हो। तुम एक बाप हो। एक शौहर हो। बाप गहरी सोच में गुम थे। जिस्म की मांग कुछ और थी शायद। मगर नहीं। शायद ये जिस्म की मांग नहीं थी। जिस्म को तो बरसों पहले उदास कर दिया था उन्होंने, बस एक खुरदुरी तजवीज़ जैसे बूढ़े होने के एहसास से ख़ुद को बचाए रखने की एक ज़रूरी कार्रवाई बस... ज़िंदगी ने शायद उदासी के आगे का, कोई ख़ूबसूरत सपना देखना बंद कर दिया था।

    और एक दिन जैसे बाप ने ज़िंदगी की दूर तक फैली गुफा में अपने मुस्तक़बिल का इख्तितामिया पढ़ लिया था। बस, यही बच्चे। इन्ही में समाई ज़िंदगी और। यही इख्तिताम है। फ़ुल स्टप?”

    वो अंदर तक लरज़ गए थे।

    बाप उसके बाद भी कई दिनों तक लरज़ते रहे थे। दरअसल बाप को ये रूटीन लाईफ़ वाला जानवर बनना कुछ ज़्यादा पसंद नहीं था। मगर शादी के बाद से, जैसे रिवायत की इस गाँठ से बंधे रह गए थे। बस यहीं तक। फिर बचे हुए और अंदर का वो रूमानी आदमी, ज़िंदगी की अन-गिनत शाहराहों के बीच कहीं खो गया, बाप को इसका पता भी नहीं चला।

    (2)

    बाप के इस बदलाओ का बेटे को एहसास था। हो सकता है, घर के दूसरे लोग भी बाप की ख़ामोशी को अलग अलग तरह से पढ़ने की कोशिश कर रहे हूँ, मगर बाप अंदर ही अंदर कौन सी जंग लड़ रहे हैं, ये बेटे से ज़्यादा कोई नहीं जानता था। ये नफ़सियात की कोई ऐसी बहुत बारीक तह भी नहीं थी, जिसे जानने या समझने के लिए उसे काफ़ी मेहनत करनी पड़ी हो। बाप की अंदरूनी कश्मकश को उसने ज़रा से तजज़िये के बाद ही समझ लिया था।

    बाप में एक मर्द लौट रहा है?

    शायद बाप जैसी उ’म्र के सब बापों के अंदर, इस तरह सोए हुए मर्द लौट आते हों?

    बाक़ी बात तो वो नहीं जानता मगर बाप उस “मर्द” को लेकर उलझ गए हैं... ज़रा संजीदा हो गए हैं। तो क्या बाप बग़ावत कर सकते हैं?

    बेटे को एहसास तो था कि बाप के अंदर का मर्द लौट आया है मगर वो इस बात से ना-आश्ना था कि बाप घर वालों को इस मर्दानगी का एहसास कैसे करायेंगे ? बाप को, घर वालों को इस मर्दानगी का एहसास कराना भी चाहिए या नहीं?

    हो सकता है आप ये पूछें कि बेटे को इस बात का पता कैसे चला कि बाप के अंदर का “मर्द” लौट आया है? ताहम ये भी सही है कि बाप में आने वाली इस तब्दीली को घर वाले तरह तरह के मअ’नी दे रहे थे। जैसे शायद माँ ये सोचती हो कि पिंकी अब बड़ी हो गई है, इसलिए बाप ज़रा संजीदा हो गए हैं।

    लेकिन बेटे को इस मंतिक़ से इत्तिफ़ाक़ नहीं और इसकी वजह बहुत साफ़ है। बाप की हैसियत बेटे को पता है... दस पिंकियों की शादी भी बाप के लिए कोई मसला नहीं, बाप के पास क्या नहीं है, कार, बंगला और एक कामयाब आदमी की शनाख़्त... लेकिन बेटे को पता है इस शनाख़्त के बीच, अचानक किसी तन्हा गोशे में कोई दर्द उतर आया है।

    बाप के अंदर आई हुई तब्दीलियों का एहसास बेटे को बार-बार होता रहा। जैसे उस दिन बाप अचानक रोमांटिक हो गए थे।

    “तुम्हें पता है, बाथरूम में ये कौन गा रहा है?” उसने माँ से पूछा था, एक बेहद रिवायती क़िस्म की माँ।

    माँ के चेहरे पर सलवटें थीं।

    “मैंने पापा को कभी इतना ख़ुश नहीं देखा, क्यों माँ?”

    माँ के चेहरे पर बल थे।

    “वो ठीक तो हैं ना?” माँ के लहजे में डर था।

    “क्यों?”

    “उन्हें कभी इस तरह गाते हुए...”

    बेटे को हंसी गई। “कमाल करती हो तुम भी माँ... या’नी बाप को कैसा होना चाहिए। हर वक़्त एक फ़िक्रमंद चेहरे वाला, जल्लाद नुमा। गुस्सैला, आदर्शवादी।” बेटा मुस्कुराते हुए बोला, “बाप में भी तो जज़्बात हो सकते हैं”, बेटे ने पर्वा नहीं की। माँ उसके आख़िरी जुमले पर दुखी हो गई थी। शायद माँ को उसके आख़िरी जुमले से शुबहा हुआ था। पूरे बीस साल बाद बाप के तईं कहीं बाप में।

    माँ ने फ़ौरन एक हल्की मुस्कुराहट के साथ अपनी तसल्ली का सामान किया था। “कोई ज़ोरदार रिश्वत मिली होगी।” माँ को पता था कि किसी सरकारी अफ़्सर को भी उतना सब कुछ आराम से नहीं मिल जाता, जितना कि इस के शौहर ने हासिल किया हुआ था।

    बाप उस दिन रोमांटिक हो गए थे। फिर बा’द में काफ़ी संजीदा नज़र आए... जैसे तपती हुई ज़मीन पर बारिश की कुछ बूँदें बरस जाएं। बेटा दिल ही दिल में मुस्कुराया था। हो हो ये मेंह बरस जाने के बा’द का मंज़र था। बाप की ज़िंदगी में कोई आगया है। पहले बाप को अच्छा लगा होगा इसलिए बाप थोड़े से रूमानी हो गए होंगे। फिर बाप को एहसास के ऑक्टोपस ने जकड़ लिया होगा। बेटे को अब बाप की सारी कार्रवाइयों में मज़ा रहा था।

    (3)

    बाप को यहां तक, या’नी इस मंज़िल तक पहुंचने में काफ़ी मेहनत करनी पड़ी थी... जद्द-ओ-जहद के काफ़ी ऊबड़ खाबड़ रास्तों से गुज़रना पड़ा था। बेटे को पता था कि बाप शुरू से ही रूमानी रहा है... जज़्बाती... आँखों के सामने दूर तक फैला हुआ चमकता आसमान। बचपन में छोटी छोटी नज़्में भी लिखी होंगी। इन नज़्मों में उस वक़्त रचने बसने वाले चेहरे भी रहे होंगे। तब घर के उदास छप्परों पर ख़ामोशी के कव्वे बैठे होते थे। बाप को जल्द ही इस बात का एहसास हो गया कि ख़ुशबुओं के दरख़्तों पर रहने वाली रूमानी तितलियों की तलाश में उसे ज़रा सा प्रैक्टिकल बनना होगा। बाप होशयार था। उसने पथरीले रास्ते चुने... नज़्मों की नर्म-ओ-नाज़ुक दुनिया से अलग का रास्ता। एक अच्छी नौकरी और घर वालों की मर्ज़ी की बीवी के साथ ज़िंदगी के जज़ीरे पर आगया। मगर वो रूमानी लहरें कहाँ गईं या वो कहीं नहीं थीं। या उस उ’म्र में सब के अंदर होती हैं... बाप की तरह। और सब ही उन्हें अंदर छोड़कर भूल जाते हैं। रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कभी कोई सैलाब नहीं आता था। मगर बाप की आँखों में सैलाब चुका था, और वो भी अचानक... और वो भी ऐसे वक़्त जब पिंकी जवान हो चुकी थी और बेटे की आँखों में रूमानी लहरों की हल

    चल तेज़ हो गई थी। ठीक बीस साल पहले के बाप की तरह। लेकिन बीस साल बाद का ये वक़्त और था, बाप वाला नहीं।

    बेटे के साथ बाप जैसी उदास छप्पर की दास्तान नहीं थी। बेटे के पास बाप का बंगला था। एक कार थी। कार में साथ घूमने वाली यूं तो कई लड़कियां थीं, मगर समुंदर की बहुत सारी लहरों में से एक लहर उसे सबसे ज़्यादा पसंद थी। बेटे को सबसे ज़्यादा गुदगुदाती थी। और बे-शक बेटा उसके लिए, उसके नाम पर रूमानी शाइ’री भी कर सकता था।

    बेटे के सामने मुशाहिदा मंतिक़ और तसल्लियों के सब दरवाज़े खुले थे। बेटा, इंटरनैट, क्लोन और कंप्यूटर पर घंटों बातें कर सकता था, उसे अपने वक़्त की तरक़्क़ी का अंदाज़ा था। बहुत तरक़्क़ी याफताह मलिक का शहरी ना होने के बावजूद, ख़ुद को तरक़्क़ी याफ़्ता समझने की बहुत सी मिसालें वो घड़ सकता था।

    हाँ, ये और बात है कि कभी कभी वो फिसल भी जाता था। जैसे, उस दिन। उस ख़ुश्क शाम। काफ़ी शाप में बेटे की नज़र अचानक उस तरफ़ चली गई। उस तरफ़... मगर जो वो देख रहा था वो सद फ़ीसद सच्च था। उसने दाँतों से उंगलियों को दबाया। नहीं, जो कुछ वो देख रहा था, वो क़त्तई तौर पर नज़रों का धोका नहीं था... उसके टेबल के बाएं तरफ़ वाली टेबल, टेबल पर रेंगता हुआ एक मर्दाना हाथ। काफ़ी की पयालियों के बीच थरथराता हुआ एक ज़नाना हाथ। सख़्त खुरदुरी उंगलियां, धीरे से मुलाइम उंगलियों से टकराईं।

    “छिपकली!” बेटे के अंदर का तरक़्क़ी याफ़्ता आदमी सामने था।

    “क्या?” लड़की उछल पड़ी थी।

    “नहीं।”

    “तुमने अभी तो कहा।”

    “नहीं। कुछ नहीं बस यहां से चलो।”

    बेटा सीट छोड़कर उठ गया था। लड़की हैरान थी...

    “क्यों चलूं, अभी अभी तो हम आए हैं।”

    लड़की की आँखों में शरारत थी... “कोई और है क्या?”

    उठते उठते ,पलट कर लड़की ने उस सिम्त देख लिया था, जहां...

    दोनों बाहर गए। बाहर आकर लड़की के लहजे में तल्ख़ी थी...

    “कौन था वो?”

    “कोई नहीं।”

    “फिर बाहर क्यों गए?”

    “बस यूँही।”

    “यूँही नहीं। सुनो...” लड़की उसकी आँखों में झाँकती हुई मुस्कुरा रही थी।

    “कोई तुम्हारी जान पहचान का था?”

    वो चुप रहा।

    लड़की की आँखों में एक पल को कुर्सी पर बैठे उस शख़्स का चेहरा घूम गया...

    “सुनो उसका चेहरा कुछ जाना-पहचाना सा लगा।”

    “तुम नाहक़ शक कर रही हो।”

    “सुनो, वो तुम तो नहीं थे?” लड़की हंस दी।

    “पागल!” लड़के का बदन थरथराया।

    “अच्छा, अब मैं जान गई कि उसका चेहरा जाना-पहचाना क्यों लगा”, लड़की ज़ोर ज़ोर से हंस पड़ी। “और मैंने ये क्यों कहा कि वो तुम तो नहीं थे।”

    “फिर।” लड़के के माथे पर पसीने की बूँदें चमक उठीं...

    “क्योंकि वो तुम्हारे, तुम्हारे डैड थे, थे ना? अब झूट मत बोलो मगर एक बात समझ नहीं सकी। तुम भाग क्यों आए?”

    लड़की हैरान थी। “तुम्हारी तरह तुम्हारे डैड को, या हमारे पेरेंट्स को ये सब करने का हक़ क्यों नहीं?”

    बेटे को अब धीरे-धीरे होश आने लगा था। “आओ कहीं और बैठ कर बातें करते हैं।”

    (4)

    बाप इन दिनों अजीब हालात से दो-चार था। बाप जानता था कि इन दिनों जो कुछ भी उसके साथ हो रहा है, उसके पीछे एक लड़की है। लड़की जो पिंकी की उ’म्र की है ताहम बाप जैसा स्टेटस (Status) रखने वालों के लिए इस तरह की बातें कोई ख़बर नहीं बनती हैं, मगर बाप की बात दूसरी थी। बाप उस मुआ’शरे से था, जहां एक बीवी और एक ख़ुशगवार घरेलू ज़िंदगी का ही सिक्का चलता है। या’नी जहां हर बात किसी किसी सतह पर ख़ानदानी पन से जुड़ जाती है। ज़िंदगी के इस उलझे हुए पुल से गुज़रते हुए बाप को इस बात का एहसास ज़रूर था कि वो लड़की यूंही नहीं चली आई थी। धीरे धीरे एक वैक्यूम या ख़ालीपन उस में ज़रूर समा गया था जिसकी ख़ाना-पुरी के लिए किसी चोर दरवाज़े से वो लड़की, उसके अंदर दाख़िल हो कर उसके होश-ओ-हवास पर छा गई थी। कहीं एक उ’म्र निकल जाने के बाद भी एक उ’म्र रह जाती है, जो ज़िंदगी के तपते रेगिस्तान में किसी अमृत या किसी ठंडे पानी के झरने की आरज़ू रखती है। बाप ने सब कुछ तो हासिल कर लिया था, मगर उसे लगता था, सब कुछ पा लेने के बावजूद वो किसी मशीनी इन्सान या रोबोट से अलग नहीं है... और ये ज़िंदगी सिर्फ इतनी सी नहीं है। वो ऐसे बहुत से लोगों की तरह ज़िंदगी बसर करने के ख़िलाफ़ था, जिनके पास जीने के नाम पर कोई बड़ा मक़सद नहीं होता। या जो अपनी तमन्नाओं और आरज़ूओं और ज़िंदगी के तईं सभी तरह के रूमान को सुलाकर उदास हो जाते हैं... बाप के नज़दीक ऐसे लोगों को बस यही कहा जा सकता था। एक नाकाम आदमी! लेकिन अचानक बाप को लगने लगा था। क्या वो भी एक नाकाम आदमी है?

    दरअसल बाप के अंदर तब्दीली लाने में उस सपने का भी हाथ रहा था। कहना चाहिए वो एक भयानक सपना था और बाप के लिए किसी ज़ेह्नी हादिसे से कम नहीं। क्या ऐसे सपने दूसरों को भी आते हैं या सकते हैं? दुनिया से अगर अच्छाई-बुराई , गुनाह-ओ-सवाब जैसी चीज़ें एक दम से खो जाएं तो? इससे ज़्यादा ज़लील सपना। नहीं, कहना चाहिए बाप डर गया था, वो एक आ’म सपना था... जैसे सपने उन्फुवान-ए-शबाब में आ’म तौर पर आते रहते हैं। सपने में कोई ऐसी ख़ास बात नहीं थी, बल्कि बहुत ही मा’मूली सा सपना। जो बहुत से माहिरीन नफ़सियात जीवी रीडल्स, पीटर हाउज़ और फ्रायड के मुताबिक़। नाआसूदा ख़्वाहिशात वाले बूढ़े शख़्स के लिए ये कोई ग़ैर-मा’मूली हादिसा नहीं... या’नी सपने में किसी से ज़ना बिल जब्र... बाप से सपने में ऐसे ही जुर्म का इर्तिकाब हुआ था... लड़की ख़ौफ़-ज़दा हालत में पीछे हटती गई थी। बाप पर पागलपन सवार था। चर...र्र...। से आवाज़ हुई, ख़ौफ़-ज़दा लड़की का गुदाज़ जिस्म उसकी नज़रों के सामने था। तपते रेगिस्तान में जैसे ठंडे पानी की एक बूँद, बूँद, टप से गिरी।

    सुक़रात और अरस्तू से लेकर सैगमंड फ्रायड तक, सभी का ये मानना है कि सपनों में कहीं कहीं दबी ख़्वाहिशात और जिन्सी अफ़आ’ल रहते हैं। तो क्या जो कुछ सपने में हुआ, वो...

    तो क्या ये बाप की कोई दबी ख़्वाहिश थी? ना-आसूदा ख़्वाहिशात फ़क़त जिन्सी हैजानात ही होते हैं, बाप को पता था।

    सपनों के बारे में बाप का कोई गहरा मुताला’ तो नहीं था फिर भी अपनी दिलचस्पी के लिहाज़ से बाप ऐसी बातों से आश्ना था। क्लारवैंत, टेलीपैथी, प्रिकग्नेशन, रेंत्रोकोग्नेशन से लेकर सपनों में होने वाली जिन्सी ख़्वाहिश वग़ैरा के बारे में उसे मुकम्मल जानकारी थी, बाप को लगा, इ’स्मतदरी का मुर्तक़िब शख़्स वो नहीं, कोई प्रेत आत्मा है? (ऐसी प्रेत आत्माओं को पैरा नफ़सियाती ज़बान में इन्क्युबी और सेक्युबी नाम दिए गए हैं। ये शैतानी रूहें औरत और मर्द में सोई रूहों के साथ अपनी जिन्सी ख़्वाहिशात की तक्मील करती हैं। तो क्या वो सच-मुच बाप नहीं था। वो कोई बदरुह थी?)

    लेकिन ये तसल्ली कुछ ज़्यादा जानदार नहीं थी। उसने नफ़सियात और पैरा नफ़सियात के सारे चीथड़े बिखेर दिए थे। बाप के लिए ये सब कुछ नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त था। इसलिए कि सपने में जिस लड़की के साथ बाप ने ज़ना बिल जब्र किया था , वो लड़की पिंकी थी।

    देर तक बाप का बदन किसी सूखे पेड़ की मानिंद तेज़ हवा से हिलता रहा था। इन्सान के ज़ेह्नी हरकात-ओ-सकनात को क़ाबू करने वाले जज़्बे का नाम है LIBIDO... ये मर्द, औरत के मिलन से ही मुम्किन है। अपने मन चाहे साथी के साथ जिन्हें उस ख़्वाहिश की तक्मील मयस्सर होती है वो ज़ेह्नी ए’तबार से सेहत मंद हो जाते हैं... अपनी पसंद की तसकीन हासिल हो तो ज़ेह्न में दबी ख़ाहिश डरावने ख़्वाबों को जन्म देती है। तो क्या बाप ना-आसूदा था? बहुत दिनों तक औरत के बदन की शबीहें जैसे ओखली, दवात, कमरा, कुँआं वग़ैरा उसके सपनों में उभरते रहे और उन सपनों का ख़ात्मा कहाँ हुआ था। वो भी एक ऐसे “ज़ानी” के साथ। उसने पूरी नंगी औरत के साथ मुबाशरत की थी...

    बाप गहरे सन्नाटे में था। ऐसे गहरे सन्नाटे में, जहां इस तरह के तजज़िये भी ग़ैर ज़रूरी मा’लूम होने लगते हैं कि वो अभी तक सेहतमंद है? जवानी अभी उस में बाक़ी है। अभी तक उस में पतझड़ नहीं आया। बीवी की तरह। वो किसी ठंडे सूखे कुँवें में नहीं बदला। जांघों पर हाथ फेरते हुए जिस्म में, ख़ून की तमाम लहरों पर उसकी नज़र रहती है। एक गर्म जिस्म शायद उसके जवान बेटे से भी ज़्यादा गर्म, बीवी ने बरसों पहले जैसे यहां, सुख के इस मर्कज़ पर दीवार उठा दी थी। उसके पास सबसे ज़्यादा बातें थीं पिंकी के बारे में, पिंकी के लिए अच्छा सा शौहर ढ़ूढ़ने के सपने के बारे में शायद बीवी के पास मुस्तक़बिल के नाम पर कुछ और भी बूढ़े सपने रहे हों, मगर...

    उस दिन पिंकी शावर से निकली थी, नहा कर। शायद बाप किसी ऐसे ही कमज़ोर लम्हे में, वक़्त से पहले अपनी बेटी की शादी का फ़ैसला कर लेता है। बाप ने नज़र नीची कर ली थी पिंकी के जिस्म से मिज़ाइलें छूट रही थीं। उसने शलवार और ढीले गले का जंपर पहन रखा था। वो सर झुकाए तौलीए से बाल सुखा रही थी। पहली ही नज़र में उसने आँख झुका ली थी, आह! किसी भी बाप के लिए ऐसे लम्हे कितने ख़तरनाक और चैलेंज से भरपूर होते हैं।

    तो क्या इस अनचाहे सपने के लिए ये मंज़र ज़िम्मेदार था, या... उसके अंदर दबी ख़्वाहिश ने उसे ज़ालिम हुक्मराँ में बदल दिया था।

    ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर... बाप ख़ुद को ज़्यादा से ज़्यादा मसरूफ़ रखना चाहता था। गुज़रे हुए बहुत सारे ख़ूबसूरत लम्हों या बिछड़ी हुई उस रूमानी दुनिया में एक-बार फिर अपनी वापसी चाहता था। अपनी हदों को पहचानने के बावजूद। शायद इसीलिए लड़की की तरफ़ से मिलने वाली लगातार दा’वतों को ठुकराने के बाद, उस दिन, उसने, उसे पहली बार मंज़ूरी दी थी।

    (5)

    “चलो! कहीं बाहर चाय पीने चलते हैं।”

    बेटा कुछ देर तक ख़ामोश रहा।

    लड़की के लिए तजस्सुस का मौज़ू’ दूसरा था। उसने पूछा, “तुम्हें पहली बार कैसा लगा अपने बाप को देखकर।” वो थोड़ा मुस्कुराई थी। “इश्क़ फ़रमाते हुए देखकर?”

    “बाप हमें देख लेते तो, कैसा लगता उन्हें।”

    लड़की को ये जवाब कुछ ज़्यादा पसंद नहीं आया...

    लड़का कुछ और सोच रहा था। “अच्छा मान लो, वो बाप की गर्लफ्रेंड हो। वो बस बाप के दफ़्तर में काम करने वाली एक औरत हो।”

    “औरत नहीं। एक कम-सिन, जवान और ख़ूबसूरत लड़की, जैसी में हूँ”, लड़की हंसी, “मेरी उ’म्र की।”

    “क्या इस उ’म्र की लड़कियां दफ़्तरों में काम नहीं करतीं?”

    “करती क्यों नहीं। बाप जैसे लोग उनके साथ चाय पीने भी आते होंगे, मगर वो। मेरा दा’वा है, जिस तरह तुम्हारे पापा ने। उसके हाथ पर अपना हाथ रखा था, मेरा यक़ीन है, वो तुम्हारे पापा की गर्लफ्रेंड ही होगी।”

    “अच्छा बताओ, मुझे कैसा लगना चाहिए था?”

    “मुझे नहीं पता।”

    “अच्छा बताओ। अगर वो तुम्हारे पापा होते तो?”

    लड़की ने उसकी आँखों में झाँका। “मेरे पापा-मम्मी में तलाक़ हो चुकी है। मैं मम्मी के साथ रहती हूँ, इसलिए कि पापा की ज़िंदगी में कोई और गई थी। हो सकता है वो उसके साथ ऐसे ही घूमते हों जैसे।”

    “इस हादिसे के बाद तुम्हारी मम्मी ने किसी को नहीं चाहा?”

    “नहीं, लेकिन ये मम्मी की ग़लती थी जो ये सोचती हैं कि जवान होती लड़की की मौजूदगी में किसी को चाहना गुनाह है। कभी-कभी मुझे मम्मी पर ग़ुस्सा आता है। सिर्फ मेरे लिए एक पूरी ज़िंदगी उन्हें देवदासी की तरह गुज़ारने की क्या ज़रूरत थी। मेरे लिए, मेरे साथ रहने वाली ज़िंदगी का ख़ात्मा इस तरह हो जाये, ये मुझे गवारा नहीं।”

    “मान लो अगर तुम्हारी मम्मी का कोई रोमांस शुरू हो जाता तो?”

    “एक सुदेश अंकल थे। मम्मी का ख़्याल रखते थे मगर मम्मी ने सख़्त लफ़्ज़ों में उन्हें आने से मना कर दिया।”

    “क्या तुम्हें यक़ीन है कि मम्मी के अंदर, तुम्हारी तरह एक जवान औरत भी होगी?”

    “मुझे यक़ीन है कि मम्मी सुदेश अंकल को भुली नहीं होंगी और ये कि उनके अंदर कोई कोई भूक ज़रूर दबी होगी। मैं जानती हूँ, मम्मी इस भूक को लिये हुए ही मर जाएँगी।”

    बेटे की आँखों में उलझन के आसार थे। तो क्या बाप भी इसी तरह बरसों से अपनी भूक दबाए हुए होंगे?

    “तुम्हारी मम्मी कैसी हैं?”

    “हमारे लिए बहुत अच्छी। हाँ! पापा के लिए नहीं। लगता है, मम्मी इस उ’म्र में सिर्फ हमारे लिए रह गई हैं। वो पापा के लिए नहीं हैं।”

    लड़की ने कुछ सोचते हुए कहा, “पापा की ज़िंदगी में कई जाएं तो भयानक बात नहीं। ऐसे बहुत से मर्द हमारे समाज में हैं। सच्चाई ये है कि बहुत सी घर वालियाँ भी ये सब जानते हुए चुप रह जाती हैं। इस से घर नहीं टूटता। बाप की ज़िंदगी में कोई दूसरा जाये, तब ख़तरे की बात है। इस दूसरे के आने से घर टूट भी सकता है। जैसा, मेरे बाप के साथ हुआ।”

    “पता नहीं, बाप क्या करेंगे।” लड़के को फ़िक्र थी। “लेकिन एक बात कहूं ये दुहरे पन का ज़माना है, दुहरे पन का।”

    लड़की हंसी... सीधी सच्ची बात कहूं तो “दोगला बन कर ही जी सकते हो तुम। आराम से... ज़िंदगी में बैलेंस के लिए दोहरे पन का किरदार ज़रूरी है या’नी आप एक वक़्त में दो जगह हो सकते हैं। अलग अलग अपनी ज़िम्मेदारियाँ अदा करते हुए। सीधे सीधे कहूं तो, अगर आप बीवी हैं तो आपको भूलना होगा कि घर से बाहर आपका शौहर क्या करता है और अगर शौहर हैं तो भूल जाइए कि बाक़ी वक़्त आपकी बीवी क्या करती है। इस मार्केटिंग एज में अगर आप अख़्लाक़ी इक़दार या रवायात की बात करेंगे तो ख़सारा आपका ही होगा।”

    लड़का बोला। “शायद इतना कुछ क़बूल करना सब के लिए आसान हो।”

    “तुम्हारे बाप की ज़िंदगी में एक लड़की चुकी है, ये क़बूल करते हुए तुम्हें कैसा लगेगा?”

    लड़के ने बहुत सोचने के बाद कहा, “अभी इस मेज़ पर बैठ कर मैं इस का जवाब सही तौर पर नहीं दे पाऊँगा।”

    बाप के लिए ये एक ग़ैर मुतवक़्क़े’ समझौता था। या’नी इस सपने से उस लड़की तक का सफ़र। लड़की का साथ पाकर जैसे उसका पूरा जिस्म गुनगुना उठा था। नहीं, इससे भी ज़्यादा। बाप का जिस्म जैसे अचानक वायलिन में बदल गया हो और वायलिन के तार झनझना कर मस्ती भरी धुनें पैदा कर रहे हों।

    लड़की कम उ’म्र थी, बाप ने पूछा...

    “तुमने अपनी उ’म्र देखी है?”

    “हाँ।” लड़की ढिटाई से मुस्कुराई, “और तुमने?”

    “हाँ।”

    “तुम्हारी जैसी उ’म्र को मेरी ही उ’म्र की ज़रूरत है।”

    “और तुम्हारी उ’म्र को?” बाप उस फ़लसफ़े पर हैरान था।

    लड़की मदहोश थी। “नए लड़के नातजरबाकार होते हैं, मूर्ती की तराश-ख़राश से वाक़िफ़ नहीं होते। इस उ’म्र को एक तजरबेकार मर्द को ही सोचना चाहिए, जैसे तुम।” लड़की हंसी थी।

    घर आकर भी बाप को लड़की की हंसी याद रही। इस दिन लड़की के सिर्फ हाथों के लम्सऔर ख़ुशबू ने, घर में तरह तरह से उसकी मौजूदगी दर्ज करा दी थी। जैसे डाइनिंग टेबल पर खाना खाते हुए दफ़अतन ग़ैर शऊ’री तौर पर उसके हाथ “तबला” बन गए थे। जैसे बाथरूम में वो यूंही गुनगुनाने लगा था। जैसे, और भी बहुत कुछ हुआ था। मगर शायद अब वो याद करने की हालत में नहीं था। क्योंकि अब उस लम्स या ख़ुशबू से गुज़रते हुए वो सारी रात अपनी “अग्नि परीक्षा” देने पर मजबूर था। पता नहीं, बीवी को इस बदलाव पर हैरान होना चाहिए था या नहीं? मगर बीवी डर चुकी थी ये सोचते हुए कि उसका शौहर किसी सख़्त ज़ेह्नी उलझन में गिरफ़्तार है। वो अपने बाप के घर की रिवायत को निभाने या बीवी का धरम निभाने पर मजबूर थी... और वो बार-बार शौहर के आगे पीछे घूम कर कुछ ऐसी मज़हकाख़ेज़ सूरत-ए-हाल पैदा कर रही थी जैसे किसी छोटे बच्चे पर पागलपन का दौरा पड़ा हो और माँ अपनी मुकम्मल ममता बच्चे पर उंडेल देना चाहती हो। शौहर के बदलाव पर उस का ज़ेह्न कहीं और जाने की हालत में नहीं था।

    “पिंकी के लिए परेशान हो?”

    बाप की मुट्ठियाँ सख़्ती से भिंच गईं। अभी अभी तो वो यक डरावने सपने के सफ़र से वापस लौटा था।

    “मत सोचो ज़्यादा।”

    “नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।”

    “क़र्ज़ चढ़ गया है?”

    “नहीं।”

    “नौकरी पर, कोई।”

    “कोई ख़तरा नहीं है।” बाप का लहजा ज़रा सा उखड़ा हुआ था।

    “लाओ सर में तेल डाल दूं।”

    बाप ने घूर कर देखा। बीवी के चेहरे की झुर्रियाँ कुछ ज़्यादा ही फैल गई थीं। सर पर तेल भी चुपड़ा हुआ था। तेल डालने से सर के बाल और भी चिपक गए थे...

    “नहीं, कोई ज़रूरत नहीं है, इस वक़्त मुझे अकेला छोड़ दो।”

    दूसरे दिन भी माँ परेशान रही।

    बेटे ने माँ को देखकर चुटकी ली, “तुमने कुछ महसूस किया?”

    “नहीं।”

    “तुम महसूस कर भी नहीं सकती हो!”

    “क्यों?” माँ के लहजे में हैरानी थी।

    “क्योंकि तुम्हारे मुक़ाबले में, बाप अभी तक जवान है।”

    माँ को ख़ौफ़ज़दा छोड़कर बेटा आगे बढ़ गया।

    उसी दिन शाम के वक़्त बेटे ने अपनी महबूबा से कहा।

    “सब कुछ ख़्याल के मुताबिक़ ही चल रहा है।”

    “कैसा लग रहा है तुम्हें?”

    “कह नहीं सकता, मगर लगता है, कशिश के लिए हर उ’म्र एक जैसी है।”

    “या हर उ’म्र की कशिश एक जैसी होती है।”

    “शायद। मगर शायद मैं इतने तज़बज़ुब में होता बाप की उम्र में पहुंच कर।”

    “हर उ’म्र एक जैसी होती है। हादिसात अपना चेहरा बदलते रहते हैं”, बदलते सिर्फ़ हादिसात हैं लड़की बोली। “ख़ैर उस दिन मैंने तुमसे पूछा था। तुम्हारे बाप की ज़िंदगी में एक लड़की चुकी है ये क़बूल करते हुए तुम्हें कैसा लगेगा?”

    “अभी तक कुछ सोच पाने की हालत में नहीं हूँ।”

    लड़की फिर ढिटाई से हंस दी। और शायद आगे भी हो इसलिए कि बाप पर ग़ौर फ़िक्र करते हुए तुम सिर्फ बाप पर ग़ौर नहीं कर रहे हो बल्कि बाप के साथ अपने, पिंकी, माँ और सूरत-ए-हाल पर भी ग़ौर कर रहे हो। इन सबको हटा कर सिर्फ बाप के बारे में सोचो।”

    “लेकिन ऐसा कैसे मुम्किन है?”

    लड़की ने पता नहीं किस सोच के तहत कहा। “इसे मुम्किन बनाओ वर्ना एक-बार फिर ये दुनिया जुड़ने के बजाय टूट जाएगी।

    (6)

    बाप को कोई फ़ैसला नहीं लेना था। बल्कि अंदर बैठे बोझल आदमी को ज़रा सा ख़ुश करना था। किसी का ज़रा सा साथ और बदले में बहुत सी ख़ुशियां या बेरंग काग़ज़ पर नक़्क़ाशी करनी थी। एक कामयाब आदमी के अंदर छुपे नाकाम और डरपोक आदमी को ठंडे और ख़ुशगवार हवा के झोंके की तलाश थी और ये कोई ऐसी बेईमानी भी नहीं थी। इस में कोई मकर-ओ-फ़रेब भी नहीं था। रेगिस्तान की तप्ती ज़मीन पर जैसे किसी अमृत-बूँद की तलाश। शायद इसी ना-आसूदा जिन्सी ख़ाहिश ने इस अज़ीयतनाक सपने को जन्म दिया था। बाप इस नई रिफ़ाक़त को कामयाबी की कुंजी भी मान सकता था कि तस्कीन में ही कामयाबी छुपी है। तस्कीन ज़ेह्नी तौर पर उसे ग़ैर सेहतमंद नहीं रहने देती। वो आराम से पिंकी की शादी करता। बीवी से दो-चार अच्छी-बुरी बातें, बेटे के साथ थोड़ा हंसी-मज़ाक़ और ज़िंदगी आराम से गुज़रने वाली सीढ़ियाँ पहचान लेती।

    मगर बाप की आज़माइश भी यहीं से शुरू हुई थी। वो भयानक अज़ीयत से गुज़र रहा था। सिर्फ एक लम्स या ख़ुशबू से वो ख़ुद अपनी नज़रों से कितनी बार नंगा होते-होते बचा था। उसकी उ’म्र, की तफ़सील उसके उसूल, उसका ख़ानदानीपन। बाप कई रातें नहीं सोया, उसके बाद बाप कई दिनों तक उस लड़की से नहीं मिला।

    ज़ाहिर है, आज़माइश में बाप हार गया था। मुकम्मल शिकस्त, बाप का जुर्म साबित हो चुका था। बाप को फिर से घर वालों की नज़र में पहले जैसा बनना था। बाप को इस ग़ैर-इन्सानी ज़ाविए, से बाहर निकलना था।

    और बाप धीरे-धीरे बाहर निकलने भी लगा था और कहना चाहिए।

    (7)

    बाप नॉर्मल हो चुका है।

    बेटे ने इस कहानी का क्लाइमेक्स लिखते हुए कहा।

    “क्या?” लड़की चौंक गई थी।

    “हाँ, उस में तवाज़ुन लौट आया है। वो बराबर हँसता है या’नी जितना हँसना चाहिए, वो बराबर बराबर। या’नी इतना ही मुस्कुराता है, जितना मुस्कुराना चाहिए और कभी-कभी, किसी ज़रूरी बात पर उतना ही संजीदा हो जाता है, जितना...”

    “या’नी वो लड़की उसकी ज़िंदगी से दूर जा चुकी है?”

    “या उसे बाप ने दूर कर दिया?”

    लड़की की आँखों में जैसे घंघोर अंधेरा छा गया हो। वो एक लम्हे के लिए काँप गई थी। शायद एक क़तरा आँसू उसकी आँखों में लर्ज़ां था...

    “क्या हुआ तुम्हें?”

    “कुछ नहीं। माँ का ख़्याल आगया।”

    “अचानक... मगर क्यों?”

    लड़की ने मौज़ू’ बदल दिया। “अब सोचती हूँ मेरी माँ मुकम्मल क्यों नहीं हो सकी। मेरी माँ बदनसीब है।”

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