चचा छक्कन ने तस्वीर टांगी
चचा छक्कन कभी-कभार कोई काम अपने ज़िम्मे क्या ले लेते हैं घर भर को तिगनी का नाच नचा देते हैं । 'आ बे लौंडे, जा बे लौंडे, ये कीजो, वो दीजो', घर बाज़ार एक हो जाता है। दूर क्यों जाओ, परसों परले रोज़ का ज़िक्र है, दुकान से तस्वीर का चौखटा लग कर आया। इस वक़्त तो दीवानख़ाने में रख दी गई, कल शाम कहीं चची की नज़र उस पर पड़ी, बोलीं, 'छुट्टन के अब्बा तस्वीर कब से रखी हुई है, ख़ैर से बच्चों का घर ठहरा, कहीं टूट-फूट गई तो बैठे बिठाए रुपये दो रुपये का धक्का लग जाएगा, कौन टांगेगा इस को?'
'टांगता और कौन, मैं ख़ुद टांगूंगा, कौन सी ऐसी जू-ए-शीर लानी है, रहने दो, मैं अभी सब कुछ ख़ुद ही किए लेता हूँ।'
कहने के साथ ही शेरवानी उतार चचा टांगने के दरपे हो गए। इमामी से कहा, 'बीवी से दो आने लेकर मेख़ें ले आ। उधर वो दरवाज़े से निकला इधर मोदे से कहा मोदे! मोदे! इमामी के पीछे जा। कहियो तीन तीन इंच की हों मेख़ें। भाग कर जा लीजो उसे रास्ते में ही।'
लीजिए तस्वीर टांगने की दाग़ बेल पड़ गई और अब आई घर भर की शामत। नन्हे को पुकारा, 'ओ नन्हे, जाना ज़रा मेरा हथौड़ा ले आना। बन्नू! जाओ अपने बस्ते में से चफ़ती(लक्कड़ी की तख़्ती) निकाल लाओ और सीढ़ी की ज़रूरत भी तो होगी हमको। अरे भई लल्लू! ज़रा तुम जा कर किसी से कह देते। सीढ़ी यहां आकर लगा दे और देखना वो लकड़ी के तख़्ते वाली कुर्सी भी लेते आते तो ख़ूब होता।'
छुट्टन बेटे! चाय पी ली तुमने? ज़रा जाना तो अपने इन हम-साए मीर बाक़िर अली के घर। कहना अब्बा ने सलाम कहा है और पूछा है आपकी टांग अब कैसी है और कहियो, वो जो है न आपके पास, किया नाम है उसका, ए लो भूल गया, पलवल था कि टलवल, अल्लाह जाने किया था। ख़ैर वो कुछ ही था। तो यूं कह दीजो कि वो जो आपके पास आला है न जिससे सीध मालूम होती है वो ज़रा दे दीजिए। तस्वीर टांगनी है। जाइयो मेरे बेटे, पर देखना सलाम ज़रूर करना और टांग का पूछना न भूल जाना, अच्छा? ...ये तुम कहाँ चल दिए लल्लू? कहा जो है ज़रा यहीं ठहरे रहो। सीढ़ी पर रोशनी कौन दिखाएगा हमको?
आ गया इमामी? ले आया मेख़ें? मोदा मिल गया था? तीन-तीन इंच ही की हैं न? बस बहुत ठीक है। ए लो सुतली मंगवाने का तो ख़्याल ही नहीं रहा। अब क्या करूँ? जाना मेरे भाई जल्दी से। हवा की तरह जा और देखियो बस गज़ सवा गज़ हो सुतली। न बहुत मोटी हो न पतली। कह देना तस्वीर टांगने को चाहिए। ले आया? ओ विदो! विदो! कहाँ गया? विदो मियां! ... इस वक़्त सबको अपने अपने काम की सूझी है, यूं नहीं कि आकर ज़रा हाथ बटाएं। यहां आओ। तुम कुर्सी पर चढ़ कर मुझे तस्वीर पकड़ाना।
लीजिए साहिब ख़ुदा-ख़ुदा कर के तस्वीर टांगने का वक़्त आया, मगर होनी शुदनी, चचा उसे उठा कर ज़रा वज़न कर रहे थे कि हाथ से छूट गई। गिर कर शीशा चूर-चूर हो गया। हई है! कह कर सब एक दूसरे का मुँह तकने लगे। चचा ने कुछ ख़फ़ीफ़ हो कर किरचों का मुआ'इना शुरू कर दिया। वक़्त की बात उंगली में शीशा चुभ गया। ख़ून की तलल्ली बंध गई।
तस्वीर को भूल अपना रूमाल तलाश करने लगे। रूमाल कहाँ से मिले? रूमाल था शेरवानी की जेब में। शेरवानी उतार कर न जाने कहाँ रखी थी। अब जनाब घर भर ने तस्वीर टांगने का सामान तो ताक़ पर रखा और शेरवानी की ढूंढय्या पड़ गई। चचा मियां कमरे में नाचते फिर रहे हैं। कभी इससे टक्कर खाते हैं कभी उससे। सारे घर में किसी को इतनी तौफ़ीक़ नहीं कि मेरी शेरवानी ढूंढ निकाले। उम्र-भर ऐसे निकम्मों से पाला न पड़ा था और क्या झूट कहता हूँ कुछ? छे-छे आदमी हैं और एक शेरवानी नहीं ढूंढ सकते जो अभी पाँच मिनट भी तो नहीं हुए मैंने उतार कर रखी है भई।
इतने में आप किसी जगह से बैठे-बैठे उठते हैं और देखते हैं कि शेरवानी पर ही बैठे हुए थे। अब पुकार-पुकार कर कह रहे हैं अरे भई रहने देना। मिल गई शेरवानी ढूंढ ली हमने। तुमको तो आँखों के सामने बैल भी खड़ा हो तो नज़र नहीं आता।
आधे घंटे तक उंगली बंधती बँधाती रही। नया शीशा मंगवा कर चौखटे में जड़ा और तमाम क़िस्से तय करने पर दो घंटे बाद फिर तस्वीर टांगने का मरहला दरपेश हुआ। औज़ार आए, सीढ़ी आई, चौकी आई, शम्मा लाई गई। चचा जान सीढ़ी पर चढ़ रहे हैं और घर भर (जिसमें मामा और कहारी भी शामिल हैं) नीम दायरे की सूरत में इम्दाद देने को कील कांटे से लैस खड़ा है। दो आदमियों ने सीढ़ी पकड़ी तो चचा जान ने उस पर क़दम रखा। ऊपर पहुंचे। एक ने कुर्सी पर चढ़ कर मेख़ें बढ़ाईं। एक क़बूल कर ली, दूसरे ने हथौड़ा ऊपर पहुंचाया, सँभाला ही था कि मेख़ हाथ से छूट कर नीचे गिर पड़ी। खिसियानी आवाज़ में बोले, 'ए लो, अब कमबख़्त मेख़ छूट कर गिर पड़ी, देखना कहाँ गई?'
अब जनाब सब के सब घुटनों के बल टटोल-टटोल कर मेख़ तलाश कर रहे हैं और चचा मियां सीढ़ी पर खड़े हो कर मुसलसल बड़बड़ा रहे हैं। मिली? अरे कम बख़्तो ढूंडी? अब तक तो मैं सौ मर्तबा तलाश कर लेता। अब मैं रात-भर सीढ़ी पर खड़ा खड़ा सूखा करूँगा? नहीं मिलती तो दूसरी ही दे दो अंधो!
ये सुनकर सबकी जान में जान आती है तो पहली मेख़ ही मिल जाती है। अब मेख़ चचा जान के हाथ में पहुंचाते हैं तो मा'लूम होता है कि इस अ'र्से में हथौड़ा ग़ायब हो चुका है। ये हथौड़ा कहाँ चला गया? कहाँ रखा था मैंने? लाहौल वला क़ुव्वत। उल्लू की तरह आँखें फाड़े मेरा मुँह क्या तक रहे हो? सात आदमी और किसी को मा'लूम नहीं हथौड़ा मैंने कहाँ रख दिया?
बड़ी मुसीबतों से हथौड़े का सुराग़ निकाला और मेख़ गड़ने की नौबत आई। अब आप ये भूल बैठे हैं कि मापने के बाद मेख़ गाड़ने को दीवार पर निशाना किस जगह किया था। सब बारी-बारी कुर्सी पर चढ़ कर कोशिश कर रहे हैं कि शायद निशान नज़र आ जाये। हर एक को अलग-अलग जगह निशान दिखाई देता है। चचा सबको बारी-बारी उल्लू, गधा कह कह कर कुर्सी से उतर जाने का हुक्म दे रहे हैं।
आख़िर फिर चफ़ती ली और कोने से तस्वीर टांगने की जगह को दुबारा मापना शुरू किया। मुक़ाबिल की तस्वीर कोने से पैंतीस इंच के फ़ासले पर लगी हुई थी। बारह और बारह के (कितने) इंच और? बच्चों को ज़बानी हिसाब का सवाल मिला। ब-आवाज़-ए-बुलंद हल करना शुरू किया और जवाब निकाला तो किसी का कुछ था और किसी का कुछ। एक ने दूसरे को ग़लत बताया। इसी तू तू, मैं-मैं में सब भूल बैठे कि असल सवाल क्या था। नए सिरे से माप लेने की ज़रूरत पड़ गई।
अब चचा चफ़ती से नहीं मापते। सुतली से मापने का इरादा रखते हैं। सीढ़ी पर पैंतालीस दर्जे जा ज़ाविया बना कर सुतली का सिरा कोने तक पहुंचाने की फ़िक्र में हैं कि सुतली हाथ से छूट जाती है। आप लपक कर पकड़ना चाहते हैँ कि इसी कोशिश में ज़मीन पर आ रहते हैं। कोने में सितार रखा था। उसके तमाम तार चचा जान के बोझ से यकलख़्त झनझना कर टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं।
अब चचा जान की ज़बान से जो मंझे हुए अलफ़ाज़ निकलते हैं, सुनने के क़ाबिल हैं मगर चची रोक देती हैं और कहती हैं कि अपनी उम्र का नहीं तो इन बच्चों का ही ख़्याल करो।
बहुत दुशवारी के बाद चचा जान अज सर-ए-नौ मेख़ गाड़ने की जगह मुअ'य्यन करते हैं। बाएं हाथ से उस जगह मेख़ रखते हैं और दाएं हाथ से हथौड़ा सँभालते हैं। पहली ही चोट जो पड़ती है तो सीधी हाथ के अंगूठे पर। आप सी कर के हथौड़ा छोड़ देते हैं। वो नीचे आकर गिरता है किसी के पांव पर, हाय-हाय, ओफ़्फ़ो और मार डाला शुरू हो जाती है।
चची जल भुन कर कहती हैं यूं मेख़ गाड़ना हुआ करे तो मुझे आठ रोज़ पहले ख़बर दे दिया कीजिए। मैं बच्चों को लेकर मैके चली जाया करूँ और नहीं तो।
चचा नादिम हो कर जवाब देते हैं, ये औरत ज़ात भी बात का बतंगड़ ही बना लेती है। या'नी हुआ क्या जिस पर ये ता'ने दिए जा रहे हैं? भला साहिब-ए-कान हुए। आइन्दा हम किसी काम में दख़ल न दिया करेंगे।
अब नए सिरे के कोशिश शुरू हुई। मेख़ पर दूसरी चोट जो पड़ी तो इस जगह का पलस्तर नरम था, पूरी की पूरी मेख़ और आधा हथौड़ा दीवार में। चचा अचानक मेख़ गड़ जाने से इस ज़ोर से दीवार से टकराए कि नाक ग़ैरत वाली होती तो पिचक कर रह जाती।
इसके बाद अज सर-ए-नौ चफ़ती और रस्सी तलाश की गई और मेख़ गाड़ने की नई जगह मुक़र्रर हुई और कोई आधी रात का अ'मल होगा कि ख़ुदा-ख़ुदा कर के तस्वीर टंगी। वो भी कैसी? टेढ़ी और इतनी झुकी हुई कि जैसे अब सर पर आई। चारों तरफ़ गज़-गज़-भर दीवार की ये हालत गोया चांद मारी होती रही है।
चचा के सिवा बाक़ी सब थकन से चूर नींद में झूम रहे हैं। अब आख़िरी सीढ़ी पर से धम्म से जो उतरते हैं तो कहारी ग़रीब के पांव पर पांव। ग़रीब के डील (छाला) थी। तड़प ही तो उठी। चचा उसकी चीख़ सुनकर ज़रा सरासीमा तो हुए मगर पल-भर में दाढ़ी पर हाथ फेर कर बोले, 'इतनी सी बात थी, लग भी गई, लोग इसके लिए मिस्त्री बुलवाया करते हैं।'
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