विदाई पर शेर
किसी को रुख़्सत करते
हुए हम जिन कैफ़ियतों से गुज़रते हैं, उन्हें महसूस तो किया जा सकता है लेकिन उन का इज़हार और उन्हें ज़बान देना एक मुश्किल काम है । सिर्फ़ रचनात्मक-अभिव्यक्ति ही इन कैफ़ियतों को पेश कर कर सकती है । यहाँ अलविदा'अ और रुख़्सत की कैफ़ियतों से सर-शार शाइरी का संकलन प्रस्तुत किया जा रहा है ।
उस गली ने ये सुन के सब्र किया
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं
अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
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जाने वाले से मुलाक़ात न होने पाई
दिल की दिल में ही रही बात न होने पाई
आँख से दूर सही दिल से कहाँ जाएगा
जाने वाले तू हमें याद बहुत आएगा
उस को रुख़्सत तो किया था मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला
तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लाएगा
जाते हो ख़ुदा-हाफ़िज़ हाँ इतनी गुज़ारिश है
जब याद हम आ जाएँ मिलने की दुआ करना
अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जाएगा
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझ को चाहेगा
छोड़ने मैं नहीं जाता उसे दरवाज़े तक
लौट आता हूँ कि अब कौन उसे जाता देखे
अजीब होते हैं आदाब-ए-रुख़स्त-ए-महफ़िल
कि वो भी उठ के गया जिस का घर न था कोई
याद है अब तक तुझ से बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे
तू ख़ामोश खड़ा था लेकिन बातें करता था काजल
अब तुम कभी न आओगे यानी कभी कभी
रुख़्सत करो मुझे कोई वादा किए बग़ैर
तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है
तुम्हारे बा'द ये मौसम बहुत सताएगा
रेल देखी है कभी सीने पे चलने वाली
याद तो होंगे तुझे हाथ हिलाते हुए हम
तुम सुनो या न सुनो हाथ बढ़ाओ न बढ़ाओ
डूबते डूबते इक बार पुकारेंगे तुम्हें
ये एक पेड़ है आ इस से मिल के रो लें हम
यहाँ से तेरे मिरे रास्ते बदलते हैं
उस से मिलने की ख़ुशी ब'अद में दुख देती है
जश्न के ब'अद का सन्नाटा बहुत खलता है
गूँजते रहते हैं अल्फ़ाज़ मिरे कानों में
तू तो आराम से कह देता है अल्लाह-हाफ़िज़
उस से मिले ज़माना हुआ लेकिन आज भी
दिल से दुआ निकलती है ख़ुश हो जहाँ भी हो
उसे जाने की जल्दी थी सो मैं आँखों ही आँखों में
जहाँ तक छोड़ सकता था वहाँ तक छोड़ आया हूँ
जाने वाले को कहाँ रोक सका है कोई
तुम चले हो तो कोई रोकने वाला भी नहीं
दुख के सफ़र पे दिल को रवाना तो कर दिया
अब सारी उम्र हाथ हिलाते रहेंगे हम
तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी
और तिरी बज़्म से अब कोई उठा चाहता है
वक़्त-ए-रुख़्सत अलविदा'अ का लफ़्ज़ कहने के लिए
वो तिरे सूखे लबों का थरथराना याद है
हम ने माना इक न इक दिन लौट के तू आ जाएगा
लेकिन तुझ बिन उम्र जो गुज़री कौन उसे लौटाएगा
एक दिन कहना ही था इक दूसरे को अलविदा'अ
आख़िरश 'सालिम' जुदा इक बार तो होना ही था
वो अलविदा'अ का मंज़र वो भीगती पलकें
पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है
जादा जादा छोड़ जाओ अपनी यादों के नुक़ूश
आने वाले कारवाँ के रहनुमा बन कर चलो
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क्यूँ गिरफ़्ता-दिल नज़र आती है ऐ शाम-ए-फ़िराक़
हम जो तेरे नाज़ उठाने के लिए मौजूद हैं
वक़्त-ए-रुख़्सत तिरी आँखों का वो झुक सा जाना
इक मुसाफ़िर के लिए ज़ाद-ए-सफ़र है ऐ दोस्त
ये हम ही जानते हैं जुदाई के मोड़ पर
इस दिल का जो भी हाल तुझे देख कर हुआ
ये घर मिरा गुलशन है गुलशन का ख़ुदा हाफ़िज़
अल्लाह निगहबान नशेमन का ख़ुदा हाफ़िज़
आबदीदा हो के वो आपस में कहना अलविदा'अ
उस की कम मेरी सिवा आवाज़ भर्राई हुई
आई होगी तो मौत आएगी
तुम तो जाओ मिरा ख़ुदा हाफ़िज़
लगा जब यूँ कि उकताने लगा है दिल उजालों से
उसे महफ़िल से उस की अलविदा'अ कह कर निकल आए
अब मुझ को रुख़्सत होना है अब मेरा हार-सिंघार करो
क्यूँ देर लगाती हो सखियो जल्दी से मुझे तय्यार करो
बर्क़ क्या शरारा क्या रंग क्या नज़ारा क्या
हर दिए की मिट्टी में रौशनी तुम्हारी है
जाते जाते उन का रुकना और मुड़ कर देखना
जाग उट्ठा आह मेरा दर्द-ए-तन्हाई बहुत
तमाम-शहर जिसे छोड़ने को आया है
वो शख़्स कितना अकेला सफ़र पे निकलेगा