शाम पर शेर
शाम का तख़्लीक़ी इस्तेमाल
बहुत मुतनव्वे है। इस का सही अंदाज़ा आप हमारे इस इन्तिख़ाब से लगा सकेंगे कि जिस शाम को हम अपनी आम ज़िंदगी में सिर्फ़ दिन के एक आख़िरी हिस्से के तौर देखते हैं वो किस तौर पर मानी और तसव्वुरात की कसरत को जन्म देती है। ये दिन के उरूज के बाद ज़वाल का इस्तिआरा भी है और इस के बरअक्स सुकून, आफ़ियत और सलामती की अलामत भी। और भी कई दिल-चस्प पहलू इस से वाबस्ता हैं। ये अशआर पढ़िए।
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे
शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं
शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं
वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
इंतिज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे
यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
अब उदास फिरते हो सर्दियों की शामों में
इस तरह तो होता है इस तरह के कामों में
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टैग्ज़ : ज़र्बुल-मसलऔर 1 अन्य
वो कौन था जो दिन के उजाले में खो गया
ये चाँद किस को ढूँडने निकला है शाम से
तुम परिंदों से ज़ियादा तो नहीं हो आज़ाद
शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो
बस एक शाम का हर शाम इंतिज़ार रहा
मगर वो शाम किसी शाम भी नहीं आई
कभी तो आसमाँ से चाँद उतरे जाम हो जाए
तुम्हारे नाम की इक ख़ूब-सूरत शाम हो जाए
न उदास हो न मलाल कर किसी बात का न ख़याल कर
कई साल ब'अद मिले हैं हम तेरे नाम आज की शाम है
अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहाँ
शाम आ गई है लौट के घर जाएँ हम तो क्या
दोस्तों से मुलाक़ात की शाम है
ये सज़ा काट कर अपने घर जाऊँगा
याद है अब तक तुझ से बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे
तू ख़ामोश खड़ा था लेकिन बातें करता था काजल
शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है
सोचता रोज़ हूँ मैं घर से नहीं निकलूँगा
नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
अब तो चुप-चाप शाम आती है
पहले चिड़ियों के शोर होते थे
कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते
किसी की आँख में रह कर सँवर गए होते
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
ज़िंदगी मैं तुझे नाकाम न होने दूँगा
मैं तमाम दिन का थका हुआ तू तमाम शब का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ
घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
ढलेगी शाम जहाँ कुछ नज़र न आएगा
फिर इस के ब'अद बहुत याद घर की आएगी
कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुई
शाम से सुब्ह हुई सुब्ह से फिर शाम हुई
शाम से उन के तसव्वुर का नशा था इतना
नींद आई है तो आँखों ने बुरा माना है
हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
अब ठहर जाएँ कहीं शाम के ढलते ढलते
शामें किसी को माँगती हैं आज भी 'फ़िराक़'
गो ज़िंदगी में यूँ मुझे कोई कमी नहीं
शजर ने पूछा कि तुझ में ये किस की ख़ुशबू है
हवा-ए-शाम-ए-अलम ने कहा उदासी की
हम दुनिया से जब तंग आया करते हैं
अपने साथ इक शाम मनाया करते हैं
शाम को आओगे तुम अच्छा अभी होती है शाम
गेसुओं को खोल दो सूरज छुपाने के लिए
उस की आँखों में उतर जाने को जी चाहता है
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
होती है शाम आँख से आँसू रवाँ हुए
ये वक़्त क़ैदियों की रिहाई का वक़्त है
शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
सारी ग़ज़लें बैठी होंगी अपने अपने मीर के पास
होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव
आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े
दिन किसी तरह से कट जाएगा सड़कों पे 'शफ़क़'
शाम फिर आएगी हम शाम से घबराएँगे
गुज़र गई है मगर रोज़ याद आती है
वो एक शाम जिसे भूलने की हसरत है
जब शाम उतरती है क्या दिल पे गुज़रती है
साहिल ने बहुत पूछा ख़ामोश रहा पानी
हम भी इक शाम बहुत उलझे हुए थे ख़ुद में
एक शाम उस को भी हालात ने मोहलत नहीं दी
साक़िया एक नज़र जाम से पहले पहले
हम को जाना है कहीं शाम से पहले पहले
कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
इक उम्र से मैं अपने ही साए में खड़ा हूँ
भीगी हुई इक शाम की दहलीज़ पे बैठे
हम दिल के सुलगने का सबब सोच रहे हैं
शाम ही से बरस रही है रात
रंग अपने सँभाल कर रखना
शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जाँ में सदा करती है
बैठा हुआ हूँ लग के दरीचे से महव-ए-यास
ये शाम आज मेरे बराबर उदास है
अब याद कभी आए तो आईने से पूछो
'महबूब-ख़िज़ाँ' शाम को घर क्यूँ नहीं जाते
आख़िरी बार मैं कब उस से मिला याद नहीं
बस यही याद है इक शाम बहुत भारी थी
साए ढलने चराग़ जलने लगे
लोग अपने घरों को चलने लगे
शाम होती है तो लगता है कोई रूठ गया
और शब उस को मनाने में गुज़र जाती है
दलील-ए-ताबिश-ए-ईमाँ है कुफ़्र का एहसास
चराग़ शाम से पहले जला नहीं करते
शाम होने को है जलने को है शम-ए-महफ़िल
साँस लेने की भी फ़ुर्सत नहीं परवाने को