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शकेब जलाली

1934 - 1966 | कराची, पाकिस्तान

प्रसिद्ध पाकिस्तानी शायर। कम उम्र में आत्म हत्या की

प्रसिद्ध पाकिस्तानी शायर। कम उम्र में आत्म हत्या की

शकेब जलाली

ग़ज़ल 59

नज़्म 14

अशआर 44

तू ने कहा था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ

आँखों को अब ढाँप मुझे डूबते भी देख

बद-क़िस्मती को ये भी गवारा हो सका

हम जिस पे मर मिटे वो हमारा हो सका

कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद

आईना ग़ौर से तू ने कभी देखा ही नहीं

आज भी शायद कोई फूलों का तोहफ़ा भेज दे

तितलियाँ मंडला रही हैं काँच के गुल-दान पर

सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह

देखो तो इक शिकन भी नहीं है लिबास में

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अज्ञात

अज्ञात

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आ के पत्थर तो मिरे सहन में दो चार गिरे

अज्ञात

कनार-ए-आब खड़ा ख़ुद से कह रहा है कोई

अज्ञात

जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है

पंकज उदास

मुजरिम

यही रस्ता मिरी मंज़िल की तरफ़ जाता है अज्ञात

मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख

अज्ञात

ऑडियो 15

आ के पत्थर तो मिरे सहन में दो चार गिरे

कोई इस दिल का हाल क्या जाने

ख़मोशी बोल उठ्ठे हर नज़र पैग़ाम हो जाए

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