तक़्सीम
एक आदमी ने अपने लिए लकड़ी का एक बड़ा संदूक़ मुंतख़ब किया जब उसे उठाने लगा तो वो अपनी जगह से एक इंच भी न हिला। एक शख़्स ने जिसे शायद अपने मतलब की कोई चीज़ मिल ही नहीं रही थी संदूक़ उठाने की कोशिश करने वाले से कहा, “मैं तुम्हारी मदद करूं?”
संदूक़ उठाने की कोशिश करने वाला इमदाद लेने पर राज़ी होगया। उस शख़्स ने जिसे अपने मतलब की कोई चीज़ मिल नहीं रही थी। अपने मज़बूत हाथों से संदूक़ को जुंबिश दी और उठा कर अपनी पीठ पर धर लिया... दूसरे ने सहारा दिया... दोनों बाहर निकले।
संदूक़ बहुत बोझल था। उसके वज़न के नीचे उठाने वाले की पीठ चटख़ रही थी। टांगें दोहरी होती जा रही थीं मगर इनाम की तवक़्क़ो ने इस जिस्मानी मशक़्क़त का एहसास नीम मुर्दा कर दिया था।
संदूक़ उठाने वाले के मुक़ाबले में संदूक़ को मुंतख़ब करने वाला बहुत ही कमज़ोर था। सारा रस्ता वो सिर्फ़ एक हाथ से सहारा दे कर अपना हक़ क़ायम रखता रहा। जब दोनों महफ़ूज़ मक़ाम पर पहुंच गए तो संदूक़ को एक तरफ़ रख कर सारी मशक़्क़त बर्दाश्त करने वाले ने कहा, “बोलो। इस संदूक़ के माल में से मुझे कितना मिलेगा।”
संदूक़ पर पहली नज़र डालने वाले ने जवाब दिया, “एक चौथाई।”
“बहुत कम है।”
“कम बिल्कुल नहीं ज़्यादा है... इसलिए कि सबसे पहले मैंने ही इस पर हाथ डाला था।”
“ठीक है, लेकिन यहां तक इस कमर तोड़ बोझ को उठा के लाया कौन है?”
“आधे आधे पर राज़ी होते हो?”
“ठीक है… खोलो संदूक़।”
संदूक़ खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला। हाथ में तलवार थी। बाहर निकलते ही उसने दोनों हिस्सा दारों को चार हिस्सों में तक़सीम कर दिया।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.