अनीस की मोजिज़-बयानी: तहज़ीबी जिहात
अनीस के शे'री कमालात का जाइज़ा लेते हुए नहीं भूलना चाहिए कि वही ज़माना जो लखनऊ में ग़ज़ल में नासिख़ीयत के उरूज यानी हैअती मेकानिकियत और तग़ज़्ज़ुल-ओ-तासीर के निस्बतन फ़ुक़्दान का ज़माना है, बहुत सी दूसरी अस्नाफ़ में फ़रोग़-ओ-बालीदगी और तारीख़ी-ओ-तख़्लीक़ी तब्दीलियों के ए'तिबार से निहायत ज़र-ख़ेज़ ज़माना है। अगरचे बहुत सी तब्दीलियों के मुहर्रिक उन्हीं ख़ानदानों के शोअरा थे जो दिल्ली से लखनऊ मुंतक़िल हुए थे। हरचंद कि अदबी तारीख़ में बहुत-सी तब्दीलियों की तावील मेयार रसीदगी के एतिबार से की जा सकती है, लेकिन ये बात हैरान-कुन नहीं तो क्या है कि उसी ज़माने में जहाँ मेकानिकी और ग़ैर तख़्लीक़ी नासिख़ीयत की जकड़-बंदी अपने उरूज को छू रही थी, मरसिया, मसनवी और दास्तान-गोई में तख़्लीक़ी ज़र-ख़ेज़ी के ऐसे-ऐसे कारनामे वुजूद में आए जिनकी कोई नज़ीर न तो उसके पहले के ज़मानों में मिलती है और न ही बाद के ज़मानों में।
गोया कि हिंदुस्तानी कल्चर में जिस उफ़्ताद-ज़ेहनी और मिज़ाज को लखनवियत कहा गया है (जिसकी मुसबत तारीफ़ हनूज़ कम ही की गई है। मर्सिया, मसनवी और दास्तान-गोई की बे-मिसाल तरक़्क़ी का गहरा तअल्लुक़ उसी तहज़ीबी साइकी से था जिसने ग़ज़ल में मेकानिकियत को फ़रोग़ दिया था। ये तारीख़ का अजूबा नहीं तो क्या है कि उर्दू की शाहकार मसनवियाँ ख़्वाह सहरुल बयान हो या गुलज़ार-ए-नसीम या मिर्ज़ा शौक़ की ज़हरे इश्क़ और दीगर मसनवियाँ, इन सबका तअल्लुक़ उसी ज़माने से है। यही मामला दास्तान-गोई और तिलिस्म-ए-होश-रुबा और फ़साना-ए-आज़ाद का है जिनकी तख़्लीक़ियत हर एतिबार से मिसाली दर्जा रखती है। मज़ीद ये कि यही ज़माना-ए-उर्दू में दास्तान से नॉवेल की तरफ़ गुरेज़ का भी है। और मो'जिज़ों का मो'जिज़ा तो मर्सिए की तारीख़ में रूनुमा हुआ यानी वही मर्सिया जो उससे पहले घुटनों के बल चल रहा था, वो देखते-ही-देखते तख़्लीक़ी फ़रोग़, मेयार-ए-रसीदगी और फ़न्नी कमाल की उस बुलंदी को पहुँचा कि कहा जा सकता है कि अनीस और उनके मुआसिरीन ने अपने ज़ोर-ए-बयान, परवाज़-ए-तख़य्युल और कमाल-ए-फ़न से गोया जमालियात-ए-शे'री की सबसे ऊँची चोटी यानी ऐवरेस्ट को छू लिया।
हरचंद कि मर्सिया उसके बाद भी लिखा जाता रहा और आज भी कहा जा रहा है, असातिज़ा-ए-फ़न के अपने-अपने कमालात अपनी जगह, वो ज़माना तो क्या उसकी परछाईं भी उसके बाद कहीं देखने को नहीं मिलती। सिन्फ़-ए-मर्सिया का ये फ़रोग़ और अनीस की मो'जिज़कारी जिसने मर्सिए के ज़्यादातर तख़्लीक़ी इम्कानात को हमेशा के लिए exhaust कर दिया, तारीख़ में अपनी मिसाल आप हैं। अगर ये सही है तो अनीस-शनासी का सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या उसका गहरा तअल्लुक़ उस तहज़ीबी साइकी, उस शे'रियात और उस अदबी जमालियात से नहीं था जो अपने ज़माने की तश्कील थी और अपने ज़माने के साथ ख़ास थी?
मुताला-ए-अनीस में ये बुनियादी सवाल हमेशा राक़िम-उल-हुरूफ़ के पेश-ए-नज़र रहा है और अनीस-शनासी या मर्सिए के ज़िम्न में अब तक मैंने जो कुछ अर्ज़ किया है, उसका कुछ न कुछ तअल्लुक़ इस सवाल से ज़रूर रहा है और इस बारे में मेरा तजुर्बा ये है कि अनीस के कमाल-ए-फ़न, यानी मो'जिज़ बयानी और तख़्लीक़ियत की जो जिहतें तहज़ीबी ज़ाविया-ए-नज़र से खुलती हैं, वो किसी और तरह मुम्किन नहीं। मसलन जिस तरह फ़क़त मौज़ूई अक़ीदत से अदबी मत्न के मसाइल हल नहीं हो सकते और सब सवालों के जवाब नहीं मिलते, उसी तरह मुजर्रद अदबी या मुजर्रद हैअती तज्ज़िये से भी उन तमाम भेदों को पाना आसान नहीं है जो कल्चर, ज़बान और तख़्लीक़ी ज़ेहन के बाहमी तआमुल (अमल दर अमल) से तश्कील-पज़ीर होते हैं। शायरी में जिस चीज़ को मो'जिज़-बयानी कहते हैं अगर वो फ़क़त हैअती होती तो मो'जिज़ बयानी हो ही नहीं सकती, क्योंकि अदब तहज़ीब का चेहरा है और पूरी की पूरी तहज़ीबें और ज़माने उसी चेहरे से हमारे रू-ब-रू होते हैं।
तारीख़ तो फ़क़त ख़ाका है नुक़ूश रफ़्ता का, ज़माने ज़िंदा रहते हैं तो फ़क़त शायरी में, और ज़माने बोलते हैं तो फ़क़त शायरी में। अनीस का वही मुताला सच्चा और खरा है जिसमें उनकी तख़्लीक़ियत तारीख़ की रूह और कल्चर के जौहर की ज़बान बन जाती है और उसे आने वाले हर ज़माने के लिए ज़िंदा-ए-जावेद बना देती है।
मुजर्रद अदबी मुतालेए की बेहतरीन मिसाल शिबली की मुवाज़ना-ए-अनीस-ओ-दबीर है जिसमें ज़्यादा तवज्जो फ़साहत-ओ-बलाग़त के हवाले से की गई है। इससे बेहतर बहस अनीस के कमाल-ए-फ़न की दाद देने के ये किसी से न बन पड़ी। मैं कहता रहा हूँ कि नक़द अनीस एक सदी से उसी राह पर गाम-ज़न है। फ़लसफ़े की दुनिया की तरह अदबी नक़द की दुनिया में भी कभी-कभी एक क़दम बढ़ाना गोया बहुत बड़ा फ़ासला तय करना होता है। ये बहुत कम सोचा गया है कि बजाय ख़ुद फ़साहत-ओ-बलाग़त का तसव्वुर शे'रियात का हिस्सा है और ख़ुद शे'रियात तश्कील है तहज़ीब और मुआशरों के ज़ेहन-ओ-मिज़ाज की जो static नहीं होते और तहज़ीबों के आर-पार बदल जाते हैं। अनीस को क्या तसव्वुरात विर्से में मिले और अनीस की तख़्लीक़ियत ने उनको क्या जमालियाती बुलंदी अता की (जो उनकी मो'जिज़-बयानी का हिस्सा है), नक़द-ए-अनीस का अगला सफ़र ग़ालिबन इस राह में होगा और होना भी चाहिए।
दूसरे ये कि शायरी हर चंद कि न फ़लसफ़ा है न मज़हब, लेकिन शायरी का गहरा तअल्लुक़ फ़लसफ़े से भी है और मज़हब से भी। बड़े फ़नकार की एक पहचान ये है कि अगर उसके जहान-ए-शे'र का तअल्लुक़ किसी अक़ीदे से है तो वो उसकी हुदूद को ऐसी वुसअत और बालीदगी अता करता है कि अक़ीदा मज़हबी तहदीद से मावरा होकर आफ़ाक़ियत और इंसानियत की आवाज़ें बन जाता है और ज़मान-ओ-मकान से बे-नियाज़ होकर उस वसीअ-तर दर्द-मंदी में ढ़ल जाता है जो मीरास-ए-आदम है। यूँ एक मज़हबी निशान sign या मोटिफ़ यकसर सेकुलर हो जाता है। इस पर बा'ज़ लोगों को ए'तिराज़ हो सकता है लेकिन मज़हब को ग़ैर-मज़हबी बनाना अदब का कमाल है।
मज़हब का मक़ाम बुलंद सही, लेकिन अदब की दुनिया यही बताती है कि अदब अक़ीदे, फ़लसफ़े, सियासत, नज़रिये सबसे आगे जाता है, इसलिए कि जहाँ मज़हब की अपील फ़क़त अक़ीदत-मंद के लिए होती है, शायरी की अपील सबके लिए यानी पूरी इंसानियत के लिए होती है और अनीस ने यही काम किया कि उस्वा-ए-शब्बीरी की हक़-शनासी और दर्द-मंदी की दौलत को उर्दू शायरी की हक़-शनासी और दर्द-मंदी के आफ़ाक़ में हमेशा के लिए बदल दिया।
अनीस के बाद हाली हों, चकबस्त या इक़बाल, जोश हों या मोहम्मद अली जौहर, जाँ निसार अख़्तर या अली सरदार जाफ़री, बीसवीं सदी की नज़्म-गोई पर अनीस का तख़्लीक़ी असर साफ़ देखा जा सकता है, फ़िक्शन में क़ुर्रत-उल-ऐन हैदर और इंतिज़ार हुसैन के फ़न को उस वक़्त तक समझा ही नहीं जा सकता जब तक उस तख़्लीक़ी साइकी को नज़र में न रखा जाए जो रिवायत में तह-नशीं तो थी, लेकिन जिसकी दर्द-मंदी को अदब की आफ़ाक़ी दर्द मंदी की दौलत अनीस ने दी और उसे अदबी तख़्लीक़ी रिवायत का ज़िंदा धड़कता हुआ हिस्सा बना दिया।
ये तख़्लीक़ी असरात नज़्म-निगारी और फ़िक्शन के अलावा ग़ज़ल पर भी पड़ते रहे हैं। अनीस से पहले उनमें कुछ हिस्सा ख़ुदाए सुख़न मीर तक़ी मीर का भी है और अनीस के बाद सबसे ज़्यादा असर इक़बाल की शायरी का है कि इमाम हुसैन की शहादत और उस्वा-ए-शब्बीरी की रिवायत उर्दू की एहतिजाजी शायरी के क़ल्ब की धड़कन बन गई। ये वो मस्अला है जिसको राक़िम-उल-हुरूफ़ ने अपनी किताब सानिहा-ए-करबला बतौर शे'री इस्तिआरा: जदीद उर्दू शायरी का तख़्लीक़ी रुजहान में निशान-ज़द करने की कोशिश की है। बिला किसी ख़ुद-नुमाई के अर्ज़ करना चाहता हूँ कि इससे पहले हम-अस्र शायरी के हवाले से या एहतिजाजी शायरी के हवाले से किसी की नज़र उस तरफ़ न गई थी। अर्ज़ करने का मक़सद ये है कि ये तख़्लीक़ी जिहत भी इसलिए सामने आई और निशान-ज़द हो सकी कि मत्न को मुजर्रद मतन के तौर पर नहीं बल्कि तहज़ीबी, तख़्लीक़ी, साइकी और ज़माने और कल्चर की तश्कील के तौर पर देखने की कोशिश की गई।
इस बात को सब ने तस्लीम किया कि एहितजाजी शायरी बिल-ख़ुसूस मुआसिर ग़ज़ल की एहतिजाजी शायरी में ये लय ख़ासी नुमायाँ है जिसके निशानात तो मुनीर नियाज़ी और परवीन शाकिर के यहाँ देखे जा सकते थे, लेकिन जिस को शे'री रुजहान की शक्ल इफ़्तिख़ार आरिफ़ और इरफ़ान सिद्दीक़ी ने दी और जिसका असर हिन्द-ओ-पाक के कम-ओ-बेश तमाम शोअरा पर आज भी देखा जा सकता है।
इसके बाद मैं इन दो अहम मसाइल पर तवज्जो दिलाना चाहूँगा जो पिछली रुब्अ् सदी से यानी 1975-76 से मेरे मुताले का मौज़ू रहे हैं जब बर्र-ए-सग़ीर के तूल-ओ-अर्ज़ में अनीस सदी मनाई गई थी। हर-चंद कि उन उमूर का तअल्लुक़ हीता-ए-नक़द से नहीं, ताहम बतौर पस-ए-परदा के उनके ज़िक्र में मज़ाइक़ा भी नहीं कि कुल-हिंद मर्कज़ी अनीस सदी कमेटी के सक्रेटरी की हैसियत से राक़िम-उल-हुरूफ़ ने दो मुहतम बिश्शान-ए-हिंद-ओ-पाक सेमिनार मुंअ'क़िद किए जिनमें से एक का इफ़्तिताह उस वक़्त के सदर-ए-जम्हूरीयाएहिंद मरहूम फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने फ़रमाया और दूसरे का मर्कज़ी वज़ीर-ए-तालीम प्रोफ़ेसर नूरुल हसन ने किया और बाद में राक़िम-उल-हुरूफ़ ने मक़ालात पर मब्नी किताब अनीस शनासी शाएअ् की जिसमें आले अहमद सुरूर, अली सरदार जाफ़री, सालिहा आबिद हुसैन, अली जवाद ज़ैदी, नाइब हुसैन नक़वी, शहाब सरमदी, शबीहुल हसन, इंतिज़ार हुसैन, वहीद अख़्तर, ज़ोए अंसारी, नैयर मसऊद, अकबर हैदरी काश्मीरी, ज़ाहिदा ज़ैदी, मुजीब रिज़वी, शारिब रुदौलवी और राक़िम-उल-हुरूफ़ के बतौर ख़ास लिखे गए मक़ालात शरीक हैं। तअज्जुब है कि पच्चीस बरस गुज़रने के बाद भी अनीस-शनासी की राह में अहल-ए-नज़र का कोई और मज्मूआ नक़द हनूज़ मंज़र-ए-आम पर नहीं आया जिसकी अशद्द ज़रूरत है, क्योंकि बाज़-गोई की तरह नक़्द में भी बाज़ मुताले की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता।
बहर-हाल जिन मसाइल पर मैं बराबर तवज्जो मुंअतिफ़ कराने की कोशिश करता रहा हूँ, उनमें से एक का तअल्लुक़ मर्सिए के नासिख़ीयत से टक्कर लेने और उसकी शराइत पर उसको शिकस्त देने से है वरना इस तहज़ीबी फ़िज़ा में मेकानिकी ग़ज़ल को जो मर्कज़ियत हासिल थी, उसमें तख़्लीक़ी मर्सिए का उभरना और उसका क़ाइम होना मुहाल था। अनीस ने ये काम नासिख़ीयत के अज्ज़ा की तक़्लीब से किया और न सिर्फ़ मर्सिया में मुसद्दस के बंद को क़सीदे का हम-पल्ला बना दिया बल्कि तग़ज़्ज़ुल की दर्द-मंदी और गुदाज़ को भी उसमें गूँध कर मुसद्दस को ऐसी तख़्लीक़ी शक्ल दे दी जो हद-दर्जा असर-अंगेज़ और मक़बूल-ए-ख़ास-ओ-आम हो गई।
मेरे दूसरे मस्अले का तअल्लुक़ अनीस की किरदार-निगारी की उस तहज़ीबी जिहत से है जिसे बा'ज़ नाक़िदीन बिल-उमूम मर्सिए के किरदारों को अवध की मुआशरत के क़ालिब में पेश करना और उनका ग़ैर-हक़ीक़त-पसंदाना होना कहते हैं और राक़िम-उल-हुरूफ़ जिसे ज़बान के तमाम तख़्लीक़ी इम्कानात का बरुए-कार लाना और आला पाए की फ़नकारी की नागुज़िरियत क़रार देता है। तअज्जुब है कि ये बात किसी ने नहीं सोची कि बड़े से बड़ा फ़नकार भी ज़बान के इस्तेमाल में इतना आज़ाद नहीं होता जितना समझा जाता है, कभी-कभी वो ज़बान को नई ग्रामर ज़रूर देता है जिसका मतलब है ज़बान के किसी सोये हुए हिस्से को जगाना। लेकिन ज़बान का ख़ज़ाना उसका भी वही होता है जो ज़बान बोलने वाले सबका यानी अहल-ए-ज़बान का होता है। ज़बान का ख़ज़ाना हमेशा दिया हुआ होता है (Always Already Given) उसी पुराने ख़ज़ाने में से फ़नकार की तख़्लीक़ियत नई-नई शक्लें ख़ल्क़ करती है, जो जादू जगाती हैं।
लेकिन याद रहे कि कल्चर ज़बान में खुदा हुआ है, ज़बान एक निज़ाम-ए-निशानात Sign System है जिसका अपना जब्र है जिससे कोई सर्फ़-ए-नज़र नहीं कर सकता। अनीस के मो'तरिज़ीन ने उर्दू Sign System की नौईयत-ओ-माहियत पर कभी ग़ौर नहीं किया वरना ए'तराज़ की गुंजाइश ही न थी। बड़ा फ़नकार ज़बान के ज़्यादा से ज़्यादा तख़्लीक़ी इम्कानात को बरुए-कार लाना चाहेगा तो उस ज़बान के Sign, उसकी तरकीबें, उसके रोज़-मर्रा, उसके मुहावरे, उसके आदाब-ओ-अत्वार, उसके अंदाज़-ए-तख़ातुब, उसकी दुआएँ, नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त, रुसूम-ओ-रिवाज, ग़रज़ जो भी ज़बान के Sign System का हिस्सा हैं, ला-मुहाला उन सबको ही बरूए-कार लाएगा। गोया मस्अला बोले वो हाथ जोड़ के अब्बास-ए-नामवर या बहनों को नेग लेने की हसरत ही रह गई या संदल से माँग बच्चों से गोदी भरी रहे जैसे इज़हारात का नहीं बल्कि ज़बान के साँस लेते हुए, ज़िंदा धड़कते हुए लहजे से तख़्लीक़ी काम लेने का है जो उस तहज़ीब-ओ-मुआशरत से गुथा हुआ था जिसको बिल-उमूम उर्दू कल्चर कहा जाता है।
उस तहज़ीबी Ethos क़ालिब से ज़बान को अलग करना गोया ज़बान को नर्स और Flat करना था। कोई अज़ीम फ़नकार ऐसा नहीं कर सकता। अनीस ने ऐसा नहीं किया। चुनाँचे इससे अनीस पर ए'तिराज़ का नहीं बल्कि अनीस की अज़मत का पहलू निकलता है कि अनीस ने ज़बान को उसके तमाम तख़्लीक़ी इम्कानात के साथ उस दर्जा-ए-हरारत पर इस्तेमाल किया जो ज़िंदगी की दर्द-मंदी की तर्सील के लिए ज़रूरी था, वरना हर शय Flat हो जाती। चुनाँचे वही अरब किरदार जो तारीख़ी ख़ाका भर थे, अनीस के यहाँ ग़ैर-मामूली तौर पर जीते-जागते और दुख का बोझ ढ़ोते हुए हक़ की पासदारी के लिए उस क़ुर्बानी के हिस्सेदार नज़र आते हैं जो इंसानियत की तारीख़ में फ़क़ीद-उल-मिसाल है। तारीख़ में, ग़ैर-मामूली को ग़ैर-मामूली कह देना काफ़ी है लेकिन अदब में फ़क़त अस्माए सिफ़त से यानी फ़क़त ग़ैर-मामूली कह देने से काम नहीं चलता, यहाँ उसका ग़ैर-मामूली-पन दिखा देना और उसे महसूस करा देना ज़रूरी है, वरना ख़ाली लफ़्ज़ों की ज़र्बों से कुछ नहीं होता।
रूसी मुफ़क्किर शक्लोवोस्की का कहना है कि अदब में पत्थर को पत्थर कहने से काम नहीं चलता। शय का शय होना अदब में ज़रूरी नहीं बल्कि उसके शय पन यानी पत्थर के पथरीले-पन को महसूस करा देना ताकि हवास, जो ज़बान को रोज़-मर्रा बरतने के मामूल (रोटीन) से कुंद हो जाते हैं और लफ़्ज़ बे-असर हो जाते हैं वो एक-बार फिर ज़िंदा हो उठें और फ़न का चलता हुआ जादू बन जाएँ। ज़बान को जगाना और ज़िंदा बनाना बड़े फ़नकारों का मन्सब है, अनीस ने यही बड़ा काम किया और असर-ओ-तासीर और गुदाज़-ओ-सोज़ का ऐसा जादू जगाया जो उस वक़्त भी ला-जवाब था और आज भी ला-जवाब है और वक़्त के महवर पर हमेशा के लिए ला-ज़वाल है।
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