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देहाती बोलियाँ 1

सआदत हसन मंटो

देहाती बोलियाँ 1

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    आइए आपको पंजाब के दिहातों की सैर कराएं। ये हिन्दुस्तान के वो दिहात हैं। जहां रूमान तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के बोझ से बिल्कुल आज़ाद है। जहां जज़्बात बच्चों की मानिंद खेलते हैं। यहां का इश्क़ ऐसा सोना है जिसमें मिट्टी मिली हुई है। तसना और बनावट से पाक इन दिहातों में बच्चों, नौजवानों और बूढ़ों के दिल धड़कते हैं। क़दम क़दम पर आपको शायरी नज़र आएगी जो औज़ान की क़ैद और लफ़्ज़ी बंदिशों से बिलकुल आज़ाद है।

    यहां की खुली हवा में आप चलें फिरेंगे तो आप अपने अंदर एक नई ज़िंदगी पाएँगे। आपको ऐसा महसूस होगा कि आप भी इश्क़ कर सकते हैं, आपके अंदर भी फैल कर वालहाना वुसअत इख़्तियार कर लेने की क़ुव्वत मौजूद है, आप भी परिंदों की ज़बान समझ सकते हैं और हवाओं की गुनगुनाहट आपके लिए भी कुछ मअनी रखती है जब अबाबीलें ख़ामोश आसमान में डुबकियां लगाती हैं और शाम को चमगादड़ें क़तार अन्दर क़तार जंगलों की तरफ़ तैरती हैं और गांव वापिस आने वाले ढोर डंगरों के गले में बंधे हुए घुंघरु बजते हैं और फ़िज़ा पर एक दिल-फ़रेब नाच की सी कैफ़ियत तारी हो जाती है तो आपका दिल भी कभी फैलेगा और कभी सिकुड़ेगा।

    वो देखिए, सामने कच्चे कोठे ज़मीन पर लेटे हुए हैं। दीवारों पर बड़े बड़े उपलों की क़तार दूर तक चली गई है। मिट्टी के ये घरौंदे भी एक दूसरे से मुहब्बत करते हैं क्योंकि उनमें फ़ासिला नहीं। एक कोठा दूसरे कोठे से हम-कनार है, इसी तरह उस खुले मैदान पर एक और खुला मैदान बन गया है। उन कोठों पर चारपाइयां औंधी पड़ी हैं। गन्ने के लंबे लंबे छिलके जा-बजां बिखरे हुए हैं। दोपहर का वक़्त है, धूप इतनी तेज़ है कि चील भी अण्डा छोड़ दे। फ़िज़ा एक ख़्वाबगों उदासी में डूबी हुई है। कभी कभी किसी चील की बारीक चीख़ उभरती है और ख़ामोशी पर एक ख़राश सी पैदा करती हुई डूब जाती है... मगर इस तेज़-धूप में ये कोठे पर कौन चढ़ा है... अरे, ये तो कोई इस गांव की मुटियार (नौजवान लड़की) है। देखो तो किस अंदाज़ से तपे हुए कोठे पर नंगे पैर चल रही है। ये लो वो खड़ी हो गई। उसे किस का इंतिज़ार है। उसकी आँखें किस को ढूंढ रही हैं। बबूलों के झुण्ड में ये क्या देख रही है। कब तक ये ऐसे खड़ी रहेगी। क्या उसके पैर नहीं जलते शायद उसी ने ये कहा होगा,

    कोठे अप्पर खुलियां

    मेरी सटरन पैरां दियां तलियां

    मेरा यार नजर ना आवे

    (तर्जुमा:- मैं कोठे पर खड़ी हूँ और यूं खड़े खड़े मेरे पैर के तलवे जल गए हैं... लेकिन मेरा आशिक़ नज़र नहीं आता।)

    नहीं उसने तो गन्ने के सूखे हुए छिलके इकट्ठे करने शुरू कर दिए हैं... लेकिन ये फिर बार-बार उधर क्यों देखती है जिधर बूढ़े-बरगद के साय तले एक नौजवान हाथ में एक लंबी लाठी लिए खड़ा है... क्या ये उस का 'वो' तो नहीं...?

    उसकी लाठी पर पीतल के कोके कितने चमक रहे हैं।

    हम इधर नौजवान की तरफ़ देखते रहे और उधर आख़िरी कोठे पर जो कि यहां से काफ़ी दूर है एक और नौजवान लड़की नमूदार हो गई। दूर से कुछ दिखाई तो नहीं देता मगर उसकी नाक की लौंग कितनी चमक रही है। क्या इसी लौंग के बारे में ये कहा गया था,

    तेरे लौंग दा पिया लश्कारा

    हालियाँ ने हल डकतय

    (तर्जुमा:- तेरे लौंग (नाक की कील) ने जब चमक पैदा की तो हल चलाने वालों ने अपने हल रोक लिए इस ख़्याल से कि बिजली चमक रही है और बारिश रही है।)

    अजी नहीं ये तो कुछ और ही मुआमला है... ये देखिए, इधर की लड़की उस लड़की को इशारा कर रही है। शायद उसे आने के लिए कह रही है, फिर उस तरफ़ भी झुक कर देखती है जहां गांव का वो नौजवान आदमी साय तले खड़ा है। एक हाथ से लाठी पकड़े है और दूसरे हाथ से अपने गले में पड़े हुए तावीज़ों से खेल रहा है। इस मंज़र को देखकर वो 'बोली' याद जाती है जो इस गांव के तमाम लड़कों को याद है। क्या है...? हाँ...

    मुँडा मोह लिया तवेतां वाला

    दमड़ी दा सक मिल के

    (तर्जुमा:- एक तकड़े जवान को जिसने आफ़ात से महफ़ूज़ रहने के लिए तावीज़ पहन रखे थे, एक लड़की ने दमड़ी का सक (अखरोट या किसी और दरख़्त की छाल जिससे होंट रंगे जाते हैं) मल कर मोह लिया।)

    फिर इशारे हो रहे हैं। इधर की लड़की उसे जल्दी आने के लिए इशारा कर रही है... साफ़ साफ़ क्यों नहीं कह देती,

    कोठे कोठे लछए

    तीनों बंतो दा यार वखावां

    (तर्जुमा:- कोठे कोठे चली लच्छी... मैं तुझे बंतो का आशिक़ दिखाऊँ।)

    क्या पता है कि ये नौजवान जो बरगद के साय तले अपनी मूंछों को ताव दे रहा है बंतो ही का आशिक़ हो। बंतो का ना होगा तो किसी और का होगा। क्योंकि बहरहाल उसे किसी का तो आशिक़ होना ही चाहिए। देखिए किस अंदाज़ से खड़ा है। सर पर सफ़ेद खादी का साफा बांध रखा है और अपने आपको किस क़दर अहम समझ रहा है। उसको दो नौजवान लड़कियों ने इस हालत में देख लिया है, अब सारे गांव की कुंवारियों को मालूम हो जाएगा कि सर पर सफ़ेद खादी का साफा बांध कर वो बरगद के साय तले खड़ा था। क्या-क्या बातें ना होंगी। फब्तियां उड़ाई जाएँगी और कुवें पर देर तक हंसी और क़हक़हों के छींटे उड़ते रहेंगे और क्या पता है कि कोई शरीर छोकरी ऊंचे सुर में ये गाना शुरू कर दे।

    सर बना के खद्दर दा साफा

    चंद्रा शौक़ीन हो गया

    (तर्जुमा:- सर पर खादी का साफा बांध कर बेचारा शौक़ीन हो गया है।)

    ये छोकरी जब हँसेंगी तो उसके दाँतों में ठुकी हुई सोने की कीलें भी हँसेंगी और क्या पता है कि वहां पास ही किसी झाड़ी के पीछे कोई शरीर लौंडा छिपा बैठा हो। वो ये हँसती हुई कीलें देख ले और उठकर जब खेतों का रुख करे तो दफ़अतन उसके होंट वा हों और ये बोली परिंदे की तरह फिर से उड़ जाये।

    मौज संयारा ले गया

    जिन्हें लाईआं दंदाँ विच मेखां

    (तर्जुमा:- मज़ा तो वो संयारा ले गया जिसने तुम्हारे दाँतों में ये कीलें जड़ें।)

    ये लड़का जब खेतों से लौट कर गांव आएगा और शाम को चौपाल पर हुक़्क़े के दौर चलेंगे तो वहां वो सफ़ेद साफे वाला भी होगा। उसको मालूम हो जाएगा कि कुवें पर पानी भरने के दौरान में किस ज़ालिमाना तरीक़े पर उस का मज़हका उड़ाया गया है तो वो अफ़्सुर्दा और मग़्मूम हो जाएगा, उठते बैठते सोते जागते उसको अपनी माशूक़ा की बेरुख़ी सताती रहेगी, एक आह की सूरत में आख़िर-ए-कार उसके सीने में ये अल्फ़ाज़ उट्ठेंगे।

    कल्ला टक्करें तय हाल सुना वां

    दिखां विच पै गई जिंदड़ी

    (तर्जुमा:- इसमें अपने किसी दोस्त को या अपने ही आपको मुख़ातब किया गया है।)

    अगर तुम मुझे अकेले में मिलो तो मैं तुम्हें सारा हाल सुनाऊँ। मेरी ज़िंदगी दुखों में घिर गई। मुम्किन है, वो अपने किसी दोस्त को हमदर्द जान कर हाल-ए-दिल कहे मगर इत्तिफ़ाक़ ऐसा हो कि उन दोनों में किसी बात पर झगड़ा हो जाये जिसे उसने अपना हमदर्द बनाया था उसे सारे गांव में नश्र कर दे उस पर ये कोई ज़रूर कहेगा।

    यारी विच ना वकील बनए

    लड़के दस दिठ गा

    (तर्जुमा- इश्क़ में किसी को वकील ना बनाना चाहिए, क्योंकि अगर उससे लड़ाई हो गई तो वो सारा भेद खोल देगा।)

    फिर ना-मुराद आशिक़ ये समझ कर कि उसका इश्क़ नाकाम रहा है, हल चलाते हुए दोपहर की उदास धूप में यकायक बोल उट्ठेगा।

    मेरी लगदी किसे ना देखी

    तय टटदी नों जग जान दा

    (तर्जुमा- जब मेरी और उसकी मुहब्बत हुई तो किसी को पता तक ना चला, मगर अब कि ये रिश्ता टूट गया है। सारी दुनिया को मालूम हो गया है और जग-हँसाई का बाइस हुआ है।)

    लेकिन क्या पता है कि दूसरी तरफ़ उसकी माशूक़ा को भी कुछ कहना हो। क्या पता है कि वो इससे मुहब्बत करती हो और ज़ाहिर ना कर सकती हो, क्योंकि ये बोल उस के मुँह से बग़ैर किसी वजह के तो नहीं निकलेंगे।

    यार सी सर्वदा बूटा

    वीहड़े विच ला रिखदी

    (तर्जुमा- यार मेरा क्या था सर्व का दरख़्त था। बस उसे अपने सेहन में लगा छोड़ती।)

    इतने में फ़ौज की भर्ती शुरू हो जाएगी और उसका ये सर क़द यार लाम पर चला जाएगा। उसकी दुनिया सूनी हो जाएगी। जब बरसात आएगी। पीपल के दरख़्तों में झूले पड़ेंगे। आम के दरख़्तों पर पपीहे पीहू पीहू पुकारेंगे। कोयलें कूकेंगी। सारा गांव ख़ुश होगा तो वो... ...वो अपने घर की गीली मुंडेर की तरफ़ उम्मीद भरी नज़रों से देखकर पुकारेगी।

    बोल वे नुमांयां का वां

    कोयलां कोक दियां

    (तर्जुमा- निमाने कव्वे तू ही बोल, कोयलें कूक रही हैं। कव्वा अगर बोले तो ये समझा जाता है कि कोई अज़ीज़ आने वाला है।)

    मैदान ख़ाली होने पर उस गांव में एक और आशिक़ भी पैदा हो जाएगा। वो हर-रोज़ इस उम्मीद पर उस के घर के पास से गुज़रा करेगा कि एक रोज़ वो उसे ज़रूर बुलाएगी और इशारों ही इशारों में बातें होंगी मगर ऐसा नहीं होता। आख़िर-ए-कार वो तंग आकर कहेगा।

    कदी चंद्रीए हॉक ना मारी

    चूओड़े वाली बान्हा कढ के

    (तर्जुमा- लफ़्ज़ चन्द्री का तर्जुमा नहीं हो सकता। उर्दू में इसके लिए कोई मुतरादिफ़ लफ़्ज़ मुझे नहीं मिला। चन्द्री पंजाबी ज़बान में मुख़्तलिफ़ मअनों में इस्तिमाल किया जाता है। कभी हमदर्दी के तौर पर इसको गुफ़्तगू में इस्तिमाल किया जाता है। यहां मुहब्बत और शिकायत दोनों इसमें शामिल हैं। वो उसको चन्द्री से मुख़ातब करता है और कहता है कि तूने कभी अपने चूड़े (हाथीदांत की बनी हुई चूड़ियों का एक गिरोह जो कलाई से लेकर कुहनी तक दिहात की औरतें पहनती हैं) वाला बाज़ू बाहर निकालकर मुझे इशारा नहीं किया, मुझे अपने पास नहीं बुलाया।)

    एक ज़माना गुज़र जाएगा। इश्क़ की दास्तान फ़साना बन जाएगी और आख़िर एक रोज़ ये दिहाती हसीना किसी के साथ ब्याह दी जाएगी। उसके ब्याह पर लोगों में चि-मीगोइयां होंगी। लोग उसका और उसके ख़ाविंद का मुक़ाबला करेंगे और कोई नौजवान चीख़ उट्ठेगा।

    मुँडा रूही दी ककर दा जा तो

    व्याह के ले गया चन्द्र वर्गी

    (तर्जुमा- 'रूही दी ककर' एक ख़ास किस्म के बबूल को कहते हैं, जिसकी लकड़ी बड़ी करख्त और काली होती है। इस का मतलब ये हुआ कि एक मर्द जो कि रूही के बबूल की तरह खुर्दरा और काला था चांद जैसी दुल्हन ब्याह कर ले गया है।')

    पहली रात आएगी। हज़ारों कंपकंपाहटें अपने साथ लिए। एक पलंग पर दुल्हन गठड़ी बनी हुई अपने हिना आलूद हाथ जोड़ेगी और अपने आमाद-ए-ज़ुलम ख़ाविंद से मिन्नत भरे लहजे में कहेगी।

    मैनों इज दी रात ना छेड़ें

    मेहंदी वाले हथ जोड़ दी

    (तर्जुमा- मुझे सिर्फ आज की रात ना छेड़ो, देखो मैं अपने हिना आलूद हाथ जोड़ रही हूँ।)

    क्या वो मान जाएगा? क्या जोड़े हुए हिना आलूद हाथ उस ज़ालिम के दिल में रहम पैदा कर देंगे...? ख़ैर इस क़िस्से को छोड़िए। ये मरहला किसी ना किसी तरह तय हो ही जाएगा और दुल्हन पुरानी हो जाएगी, फिर झगड़े शुरू होंगे और एक रोज़ उसका ख़ाविंद उसके पहले आशिक़ को बुरा-भला कहेगा तो वो उस वक़्त सीने पर पत्थर रखकर ख़ामोश तो हो जाएगी मगर अकेले में उसके मुँह से ये बोल निकलेंगे।

    मेरे यार नों मंदा ना बोलीं

    मेरी भानूएं गति पट लईं

    (तर्जुमा- मेरी तुम चुटिया जड़ से उखेड़ लो, मगर मेरे यार को बुरा ना कहो।)

    (और... और फिर... यूं ही उम्र बीत जाएगी और ये फ़साना इस दिहात में नए फ़साने पैदा करेगा।)

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