दिल्ली के चटख़ारे
शाहजहाँ बा’दशाह ने आगरा की मिचमिचाती गर्मी से बचने के लिए दिल्ली को हुकूमत का सदर मुक़ाम बनाने के लिए पसंद किया और जमुना के किनारे क़िला’-ए-मुअ’ल्ला की नीव पड़ी। यहाँ हू का आ’लम था। देखते ही देखते जमुना के किनारे-किनारे हिलाली शक्ल में शहर आबा’द होना शुरू’ हो गया। हज़ारों मज़दूर क़िले’ की ता’मीर में लग गए। उनके बाल-बच्चे, कुन्बे, क़बीले वाले सब मिल-मिला कर लाख डेढ़ लाख आदमी तो होंगे। उनकी ज़रूरियात पूरी करने के लिए सौदा-सलफ़ बेचने वाले भी आ गए। घास-फूंस की झोंपड़ियाँ और कच्चे मकानों की आबादी में ख़ासी चहल-पहल रहने लगी।
लाल-क़िले’ के पहलू में दरियागंज के रुख़-ए-मुतवस्सिलीन शाही और अमीर-उ’मरा के महलात, ड्योढ़ियाँ और हवेलियाँ बननी शुरू’ हो गई। उधर क़िले’ के सामने पहाड़ी पर जामा मस्जिद उभरनी शुरू’ हुई। शहर के बाज़ारों के नक़्शे बने, जहाँ अब परेड का मैदान है, यहाँ उर्दू बाज़ार, ख़ानम का बाज़ार और ख़ास बाज़ार था। चाँदनी-चौक यही था और क़िले’ के चौक पर ख़त्म होता था। जा-ब-जा नहरों और बाग़ों से शहर को सजाया गया था। जब क़िले’ की ता’मीर मुकम्मल हुई और बा’दशाह ने इसमें नुज़ूल-ए-इजलाल फ़रमाया तो शाहजहाँबाद सज-सजा कर दुल्हन बना।
पहला दरबार हुआ तो बा’दशाह ने खज़ाने का मुँह खोल दिया। मुग़ल शहंशाहों की बे-इंतिहा दौलत पानी की तरह बहने लगी और रिआ’या फ़ारिग़-उल-बाल और माला-माल हो गई। बा’दशाह के हुक्म के मुताबिक़ बाज़ारों में दुनिया ज़माने की चीज़ें मौजूद। इसके इ’लावा फ़रमान हुआ कि रोज़मर्रा सौदा गली-गली और कूचे-कूचे फेरी वाले आवाज़ लगा कर बेचें, चुनाँचे दिल्ली में यही दस्तूर चला आता था कि घर बैठे एक पैसे से लेकर हज़ार रुपये की चीज़ फेरी वालों से बाज़ार के भाव ख़रीद लो।
अस्ल में पर्दा-नशीन ख़वातीन की आसाइश बा’दशाह को मंज़ूर थी कि जिसका जी चाहे अपनी ड्योढ़ी पर ज़रूरत की चीज़ ले-ले। दिल्ली की औ’रतें बेटी का पूरा जहेज़ घर बैठे ख़रीद कर जमा कर लिया करती थीं। घर से क़दम निकालना बुरा समझा जाता था, जिस घर में उनका डोला आता था, उस घर से उनकी खाट ही निकलती थी। कनजड़े, क़साई, कमेरे, ठटेरे, क़लई’-गर, बढ़ई, खट-बुने, बज़्ज़ाज़, मनीहार, फ़स्ल का मेवा और रुत का फल बेचने वाले, हद ये कि फूल वाले तक बड़ी दिलकश आवाज़ लगाते थे और गली-गली सौदा बेचते फिरते थे। उनकी आवाज़ें फिर कभी आपको सुनाएँगे, इस वक़्त तो सिर्फ़ एक आवाज़ सुन लीजिए।
“रेशम के जाल में हिलाया है, नुक्तियाँ बना क़ुदरत का ऊदा बना जलेबा खा लो।”
एक तो बोल दिलकश, उस पर तरन्नुम ग़ज़ब। जी अदबदा कर यही चाहता है कि सौदे वाला ख़ाली न जाने पाए। गंडे-दमड़ी की औक़ात ही क्या? झट आवाज़ दी, “ए भई जलेबे वाले, यहाँ आना।”
“अच्छा बुआ”, कह कर वो ड्योढ़ी पर आ गया।
“हाँ बुआ, क्या हुक्म है?”
“ए भई हुक्म अल्लाह का। धेले का जलेबा दे जाओ।”
फेरी वाला धेले के ढेर सारे शहतूत दे गया। अच्छे ज़माने, सस्ते समय, पैसे में चार सौदे आते थे। दिल्ली के दिल वाले सदा के चटोरे हैं। शायद इस ज़बान के चटख़ारे के ज़िम्मेदार यही चटपटे फेरी वाले हैं जिनकी सुरीली आवाज़ें दिल को खींचती हैं। शायद ही कोई सौदे वाला हो जो किसी शूम के घर से ख़ाली जाता हो। धेली पाओला हर गली से मिल जाता है। बाहर वाले दिल्ली वालों के ये तौर-तरीक़े देखते तो उनकी आँखें फटतीं। शाही 1857 के साथ ख़त्म हुई मगर दिल्ली वालों की ज़बान का चटख़ारा और शाह-ख़र्चियाँ फिर भी न गईं।
ज़बान के चटख़ारे का ज़िक्र आया है तो इस शहर-वालों के एक इसी पहलू को ले लीजिए। दिल्ली वालों को अच्छा खाना और तरह-तरह के खानों का शौक़ था। ये शौक़ उन्हें विरसे में मिला था। अगले दिल्ली वालों में शायद ही कोई ऐसा हो जो बा’दशाह से बिल-वास्ता या बिला-वास्ता वाबस्ता न हो। बा’दशाह की दौलत में से हिस्सा रसद सबको पहुँचता था। महंगाई नाम को न थी।
रुपये पैसे की तरफ़ से फ़राग़त, बे-फ़िक्री से कमाते थे और बे-फ़िक्री से उड़ाते थे और बातों की तरह खाने पीने में भी क़िले’ वालों की तक़लीद की जाती थी। हर क़िस्म के खाने रिकाब-दार और बावर्चियों से तैयार कराए जाते थे। हफ़्त-हज़ारी से लेकर टके की औक़ात वाले तक, हर एक को ख़ुद भी अपने हाथ का कमाल दिखाने का शौक़ था। आख़िरी बा’दशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने कई खाने ईजाद किए जिनमें से मिर्चों का दलिया आज भी दिल्ली वालों के घरों में पकाया जाता है। ग़रीबों में अब भी किसी-किसी के हाँ ताहरी ऐसी पकती है कि बिरयानी उसके आगे हेच है। कभी उनके हाँ मूंग पुलाव या यख़नी पुलाव खाने का इत्तिफ़ाक़ हो तो उँगलियाँ ही चाटते रह जाईए। माश की दाल ऐसी मज़ेदार कि कोई और लगावन उससे लगा नहीं खाते।
घरों के इ’लावा बा’ज़ बाज़ार के दुकानदारों ने किसी एक चीज़ में ऐसा नाम पाया कि आज तक उनकी मिसाल दी जाती है, मसलन घंटे वाला हलवाई, चिड़िया वाला कबाबी, सरकी वालों का खीेर वाला, पाए वालों के चचा कबाबी, क़ाबिल अत्तार के कूचे का हल्वा सोहन वाला, शाहगंज का नवाब क़ुल्फ़ी वाला, फ़िराश ख़ाने का शाबू भटियारा, लाल कुँवें का हाजी नानबाई और चाँदनी-चौक का गंजा निहारी वाला। ये वो नाम हैं जो दिल्ली में ज़बान-ज़द-ए-आ’म थे, वर्ना शायद ही कोई मुहल्ला ऐसा हो जिसमें इन सब सौदे बेचने वालों की दुकानें न हों। मशहूर दुकानदारों के हाँ सौदा-सलफ़ साफ़-सुथरा, नफ़ीस और ज़ाइक़ा-दार होता है। पुश्त-हा-पुश्त से उनके हाँ यही काम होता चला आता है। उनके ख़ानदानी नुस्खे़ उनके सीनों में महफ़ूज़ रहते हैं और कहा जाता है कि हर कारोबार की तरह उनके भी चंद भेद होते हैं। अ’वाम के इस नज़रिए ने इतनी शिद्दत इख़्तियार की कि तरह-तरह की रिवायतें और अफ़्वाहें शहर में फैल गई थीं।
चचा कबाबी गोले के कबाब ऐसे बनाते थे कि सारा शहर उन पर टूटा पड़ता था। पाए वालों के रुख़ जामा मस्जिद की सीढ़ियों के पहलू में उनका ठिया था। चचा के दादा के कबाब बा’दशाह के दस्तर-ख़्वान पर जाया करते थे। शहर में मशहूर था कि चचा के दादा जैसे कबाब न तो किसी बनाए और न आइंदा बनाएगा। उनमें कुछ ऐसा सलोन-पन पाया जाता था कि खाने वाला होंट चाटता रह जाता था। हमने अक्सर बड़े बूढ़ों से पूछा कि आख़िर इन कबाबों में और उन कबाबों में फ़र्क़ क्या है? वो कहते, “मियाँ बस चुपके हो जाओ। कुछ कहने का मुक़ाम नहीं है।”
“आख़िर कुछ तो बताए।”
“मियाँ समझे भी ये सलोन-पन काहे का होता था?”
“नमक का होता होगा।”
“ऊँह। अमाँ आदमी का गोश्त खिलाता था, आदमी का।”
“आदमी का गोश्त?”
“और नहीं तो क्या। जब वो पकड़ा गया और उसके घर की तलाशी हुई है तो सैकड़ों खोपड़ियाँ तह-ख़ाने में निकलीं।”
“आपने ख़ुद देखा था?”
“ख़ुद तो नहीं देखा, अलबत्ता कान गुनहगार हैं।”
“रोज़ाना आदमी ग़ायब होते रहें और कोई उन्हें तलाश न करे।”
“क्या पता चल सकता है? आदमियों से दुनिया भरी पड़ी है।”
“मगर खोपड़ियाँ आख़िर तह-ख़ाने में क्यों भर रखी थीं?”
“ओहो भई मुझे क्या मा’लूम?”
“मगर।”
“अगर-मगर कुछ नहीं। तुम्हारी तो आ’दत ही हुज्जत करने की है।”
नाराज़ हो कर चले गए। लाहौल-वला क़ुव्वत। भला ये भी कोई समझ में आने वाली बात है? अफ़्वाहों की देवी बड़ी भयानक होती है जो अपनी हज़ारों ख़ामोश लटकी हुई ज़बानों से हवा में बिस घोलती रहती है।
अस्ल में अ’ज्ज़ा-ए-तर्कीबी के सही और ख़ास तनासुब की वज्ह से एक मख़सूस ज़ाइक़ा पैदा हो जाता है। फिर ताव-भाव भी बड़ी अहमियत रखता है। भला ख़ैर ऐसी कौन सी अनोखी चीज़ है? घर-घर पकती है मगर सरकी वालों की दुकान के पियालों में कुछ और ही मज़ा होता था। वही दूध, चावल और शुक्र का आमेज़ाह है, मगर तनासुब और ताव भी तो है, ये मा’लूम होता था कि दौलत की चाट खा रहे हैं।
शाबू भटियारे के हाँ का शोरबा मशहूर था। उनका कहना ये था कि, “हमारे हाँ बा’दशाही वक़्त का शोरबा है।”
“अरे भई बा’दशाही वक़्त का? ये कैसे?”
“अजी हुज़्ज़त ये ऐसे कि हम शोरबे में से रोज़ाना एक पियाला बचा लेते हैं और अगले दिन के शोरबे में मिला देते हैं। ये दस्तूर हमारे हाँ सात पीढ़ी से चला आ रहा है। यूँ हमारा शोरबा शाही ज़माने से चला आता है।”
हाजी नानबाई के हाँ यूँ तो शादी-ब्याह के लिए ख़मीरी, कुलचे और शीरमाल तैयार किए जाते और ऐसे मुलाइम कि होंटों से तोड़ लो, उनका हुनर देखना हो तो फ़रमाइश कर के पकवा लीजिए। रोटियों के नाम ही सुन लीजिए, रोग़नी रोटी, बरी रोटी, क़ीमा भरी रोटी, बेसनी रोटी, गावदीदा, गाव ज़बान, बाक़र ख़ानी, शीरमाल, बादाम की रोटी, पिसते की रोटी, चावल की रोटी, गाजर की रोटी, मिस्री की रोटी, ग़ौसी रोटी, नान मंबा, नान गुलज़ार, नान क़ुमाश, ताफ़तान, रवी के पराठे, मैदे के पराठे, गोल, चौकोर, तिकोने। ग़रज़ रोटी की कोई शक्ल और तरकीब ऐसी नहीं जो उनके तंदूर में तैयार न हो सकती हो।
हाजी नानबाई का ज़िक्र आया तो यादश-बख़ैर मियाँ गंजे नहारी वाले याद आ गए। अस्ल में नहारी वाले नानबाई ही होते हैं, भटियारे नहीं होते। नहारी तो जाड़ों में खाई जाती है। गर्मियों और बरसात में नहीं खाई जाती। ख़ाली दिनों में नहारी वाले अपना तंदूर गर्म करते हैं और रोटी पकाने पर उनकी गुज़र-औक़ात होती है। 47 में दिल्ली उजड़ने से पहले तक़रीबन हर मुहल्ले में एक नहारी वाला मौजूद था। लेकिन अब से 40-50 साल पहले सिर्फ़ चार नहारी वाले मशहूर थे। न्होंने शहर के चारों खोंट दाब रखे थे। गंजे की दुकान चाँदनी-चौक में नील के कटरे के पास थी और शहर में उसकी नहारी सबसे मशहूर थी।
दिल्ली से बाहर अक्सर लोग ये भी नहीं जानते थे कि नहारी क्या होती है। बा’ज़ शहरों में ये लफ़्ज़ कुछ और मा’नों में मुस्तअ’मिल है, मसलन चौपायों को, ख़ुसूसन घोड़ों को तक़वियत देने के लिए एक घोलुवा पिलाया जाता है जिसे नहारी कहते हैं। बा’ज़ जगह पायों को नहारी कहा जाता है। दिल्ली में ये एक ख़ास क़िस्म का सालन होता था जो बड़े एहतिमाम से तैयार किया जाता था और बाज़ारों में फ़रोख़्त होता था। इसके पकाने का एक ख़ास तरीक़ा है और इसके पकाने वाले भी ख़ास होते हैं। नहारी को आज से नहीं 1857 के पहले से दिल्ली के मुसलमानों में बड़ी अहमियत हासिल है। यूँ तो घर में भी और बाहर भी सैकड़ों क़िस्म के क़ोरमे पकते हैं मगर नहारी एक मख़सूस क़िस्म का क़ोरमा है जिसका पकाना सिवाए नहारी वालों के और किसी को नहीं आता।
इसकी पुख़्त-ओ-पज़ की एक ख़ुसूसियत ये है कि इसे सारी रात पकाया जाता है और पकने की हालत में हमा-वक़्त इसका ताव मुसावी रखा जाता है। इस काम के लिए बड़ी मश्क़-ओ-महारत की ज़रूरत है। तीसरे पहर से इसकी तैयारी शुरू’ होती है। दुकान की दहलीज़ के पास ज़मीन में गड्ढा खोद कर एक गहरा चूल्हा या भट्टी बनाई जाती है और उसमें एक बड़ी सी देग इस तरह उतार कर जमा दी जाती है कि सिर्फ़ उसका गला बाहर निकला रह जाता है। चूल्हे की खिड़की बाहर के रुख़ खुलती है। इसमें से ईंधन डाला जाता है जो देग के नीचे पहुँच जाता है। आग जलाने के बा’द जैसे क़ोरमे का मसाला भूना जाता है। घी में प्याज़ दाग़ करने के बा’द धनिया, मिर्चें, लहसुन, अदरक और नमक डाल कर नहारी का मसाला भूना जाता है। जब मसाले में जाली पड़ जाती है तो गोश्त के पारचे, ख़ुसूसन अदले डाल कर उन्हें भूना जाता है। इसके बा’द अंदाज़े से पानी डाल कर देग का मुँह बंद कर दिया जाता है।
पकाने वाले को जब आध-गले गोश्त का अंदाज़ा हो जाता है तो देग का मुँह खोल कर उसमें पच्चीस-तीस भेजे और उतनी ही नलियाँ या’नी गूदे-दार हड्डियाँ डाल दी जाती हैं। शोरबे को लबधड़ा बनाने के लिए आलन डाला जाता है। पानी में आटा घोल कर आलन बनाया जाता है। ये देग सारी रात पकती रहती है और इसका ताव धीमा रखा जाता है। बारह चौदह घंटे पकने के बा’द जब अ’लल-सुब्ह देग पर से कोन्डा हटाया जाता है तो दूर-दूर तक उसकी इश्तिहा-अंगेज़ ख़ुशबू फैल जाती है। सबसे पहले देग में से भेजे और नलियाँ निकाल कर अलग लगन में रख ली जाती हैं। फिर ग्राहकों का भुगतान शुरू’ होता है। ये खाना चूँकि दिन के शुरू’ होते ही खाया जाता है, इसलिए इसका नाम निहार की रिआ’यत से नहारी पड़ गया।
हाँ तो ज़िक्र था गंजे नहारी वाले का। दिल्ली वालों के इ’लावा क़ुर्ब-ओ-जवार से भी लोग उनकी नहारी खाने आया करते थे, ख़ुसूसन अलीगढ़ कॉलेज के लड़के इतवार को धावा बोला करते थे। इसी सिलसिले में हमें भी चंद-बार गंजे साहब की नहारी से लुत्फ़-अंदोज़ होने का मौक़ा’ मिला। उनकी दुकान गजर-दम खुलती थी और खुलने से पहले गाहक मौजूद होते थे। किसी के हाथ में पतीली, कोई बादिया, कोई नाशता-दान सँभाले सर्दी में सिकुड़ता, सूँ-सूँ करता टहल लगा रहा है। नपी-तुली एक देग पकती और हाथों-हाथ बिक जाती। ज़रा देर से पहुँचे तो मियाँ गंजे ने माज़रत के लहजे में कहा, “मियाँ अब ख़ैर से कल लीजिएगा और ज़रा सवेरे आईएगा।”
नहारी के मसालों का वज़्न और पकाने का तरीक़ा औरों को भी मा’लूम है मगर वो हाथ और निगाह जो उस्ताद गंजे को मयस्सर थी वो किसी और को नसीब न हुई। अक्सर लोग ख़ुद उनसे दरियाफ़्त भी करते थे कि “आख़िर उस्ताद क्या बात है कि दूसरों के हाथ नहारी में ये लज़्ज़त नहीं होती?”
वो हँसकर कह दिया करते थे कि “मियाँ बुज़ुर्गों की जूतियों का सदक़ा और हज़रत सुलतान जी का फ़ैज़ है, वर्ना मैं क्या और मेरी बिसात क्या।”
उस्ताद गंजे के किरदार पर रौशनी डालने से पहले ज़रूरी है कि कुछ उनका सरापा भी बयान कर दिया जाए। “गंजे” के नाम से ख़्वाह-मख़ाह ज़हन में एक कराहत सी पैदा होती है। नफ़ीस मिज़ाज और नाज़ुक ख़याल लोग तो गंजे के हाथ का पानी पीना भी गवारा नहीं कर सकते। लेकिन उस्ताद को सिरे से गंज की बीमारी थी ही नहीं। अस्ल में उनकी चंदिया के बाल झड़ गए थे और टांट साफ़ हो कर तामड़ा निकल आया था, जिसके तीन तरफ़ चार उंगल चौड़ी बालों की एक झालर सी थी
दिल्ली के चुलबुली तबीअ’त वाले भला कब चूकने वाले थे। गंजे की फबती उन पर कसी और ये कुछ ऐसी जमी कि चिपक कर रह गई। गंदुमी रंग का गोल चेहरा, ख़शख़शी डाढ़ी, बड़ी-बड़ी चमकदार मगर हलीम आँखें, बा-वजूद नहारी-फ़रोशी के उनका लिबास हमेशा साफ़-सुथरा रहता था। लट्ठे का शरई पाजामा, नीचा कुर्ता, कुरचते पर बहुत सूफियाना छींट की नीम-आसतीन, सर पर साफ़ा। कसरती और भरा-भरा बदन, कोई देखे तो समझे कि बड़े ख़रांट हैं। बात-बात पर काटने को दौड़ते होंगे, मगर उनकी तबीअ’त इसके बिल्कुल बर-अ’क्स थी। बिल-उ’मूम नामी दुकानदार बड़े बद-मिज़ाज और ग़ुस्सैल होते हैं, जैसे चचा कबाबी कि बड़े हथ-छट थे और मारपीट तक से नहीं चूकते थे। उस्ताद गंजे बड़े ख़लीक़ और रख-रखाव के आदमी थे। हमने कभी नहीं सुना कि उन्हें ताव आया हो या कभी उनके मुँह से कोई ना-शाइस्ता कलमा निकला हो। हर गाहक से चाहे वो आने दो आने का हो, चाहे रुपये दो रुपये का, बड़ी नर्मी से बात करते और मुस्तक़िल ग्राहकों को तो अपना मेहमान समझते थे।
उस्ताद गंजे के किरदार में सबसे नुमायाँ चीज़ उनका इ’ल्म और इन्किसार था। हज़रत निज़ामउद्दीन औलिया से जिन्हें दिल्ली वाले सुलतान जी कहते हैं, उस्ताद गंजे को बड़ी अ’क़ीदत थी और ये सुलतान जी ही का रुहानी तसर्रुफ़ था कि उस्ताद का दिल-गुदाज़ हो गया था। वो अपनी सारी कमाई ग़रीबों, मिस्कीनों और मुहताजों की इमदाद करने में सर्फ़ कर दिया करते थे।
सुलतान जी की सत्रहवीं में अपनी दुकान बड़े एहतिमाम से ले जाते थे और सारे दिनों में जुमेरात के जुमेरात दरगाह में हाज़िरी पाबंदी से होती थी। रुपये पैसे से ख़ुश थे मगर दिल्ली से सुलतान जी की दरगाह पैदल जाया करते थे। हर मौसम के लिहाज़ से मुहताजों को कपड़ा तक़सीम करते थे। हर महीने ग्यारहवीं की तैयारी उनके हाँ बड़ी धूम से होती। दिन-भर लंगर जारी रहता। जुमेरात को उनकी दुकान पर फ़क़ीरों की लंगतार रहती और सबको पैसा-टका मिलता। सबसे बड़ी बात ये थी कि दुकान=दारी शुरू’ करने से पहले अल्लाह नाम का हिस्सा निकाला करते। अगर कोई मुहताज मौजूद हुआ तो पहले उसे खिलाया वर्ना निकाल कर अलग रख दिया। फिर देग में से भेजे और नलियाँ निकाल कर तबाक़ में रखीं, तार और रौनक़ को एक बड़े बादिए में अलग निकाल लिया। इसके बा’द दुकानदारी शुरू’ हुई।
दुकान में बीसियों पतीलियाँ, देगचे और बर्तन रखे हैं। किसी में दो रुपये, किसी में रुपया, किसी में बारह आने, किसी में आठ आने पड़े हैं। शौक़ीन और क़द्र-दान रात को ही अपने अपने बर्तन दे गए हैं कि सुब्ह को मायूस न होना पड़े। सबसे पहले इन्ही बर्तनों की तरफ़ उस्ताद की तवज्जोह होती है। बड़ी तेज़ी और फुर्ती से हाथ चलाते हैं, उधर ग्राहकों के ठट के ठट लगे हैं। उनकी आराइश का भी उन्हें ख़याल है। गाहक भी जानते हैं कि जिनके बर्तन पहले आ गए हैं, उन्हें नहारी पहले मिलेगी। किसी बाहर वाले ने, जो यहाँ के क़ाएदे-क़रीने नहीं जानता, जल्दी मचाई तो उस्ताद ने रसान से कहा, “अभी देता हूँ। जो पहले आया है उसे अगर पहले न दूँगा तो शिकायत होगी।“
बर्तनों की लेन डोरी ख़त्म हुई तो ग्राहकों का भुगतान शुरू’ हुआ। दो रुपये से दो पैसे तक के ख़रीदार मौजूद और सबको हिस्सा रसद मिलता है। तीन घंटे में डेढ़ दो सौ ग्राहकों को नहारी दी और देग सख़ी के दिल की तरह साफ़ हो गई। अब जो कोई आता है तो बड़ी इनकिसारी से कहते हैं, “मियाँ मुआ’फ़ी चाहता हूँ। मियाँ अब कल दूँगा, अल्लाह ने चाहा तो अल्लाह ख़ैर रखे, कल खाइएगा।”
सुब्हान-अल्लाह, क्या अख़लाक़ था और कैसी वज़्अ’-दारी थी। आग और मिर्चों का काम और इस क़दर ठंडे और मीठे! दूसरों को देखिए गाली गलौज, धक्का-मुक्की और लपाडगी की नौबत रहती है।
उस्ताद गंजे के हाँ दो क़िस्म के गाहक आते थे। एक वो जो ख़रीद कर ले जाते थे और दूसरे वो जो वहीं बैठ कर खाते थे। वहीं बैठ कर खाने वालों के लिए दुकान के ऊपर कमरे में नशिस्त का इंतिज़ाम था। ये एक छोटा सा साफ़-सुथरा कमरा था जिसमें चटाइयाँ बिछी रहती थी। इस कमरे में एक-एक दो-दो आदमी भी खाते थे और दस-दस बारह-बारह की टोलियाँ भी। उस्ताद से जितना-जितना और जो-जो सौदा कहा जाए उतना ही देते थे, अपनी तरफ़ से उसमें कमी-बेशी नहीं करते थे। मुस्तक़िल ग्राहकों का बहुत लिहाज़ करते थे। बड़े मिज़ाज-शनास थे और उनकी याददाश्त भी ग़ज़ब की थी। सूरत देखते ही कहते, “फ़रमाईए हकीम साहब, क्या हुक्म है, हकीम साहब क़िबला तो ख़ैरियत से हैं?”
“हाँ डिप्टी साहब, इरशाद? बड़े डिप्टी साहब के दीदार तो रोज़ाना शाम को हो जाते हैं।”
“हाँ मियाँ, आप फ़रमाईए? वकील साहब से मेरा सलाम अ’र्ज़ कीजिएगा।”
उस्ताद गंजे की नहारी दिल्ली के सब शुरफ़़ा के हाँ जाती थी। उनकी सात पुश्तें इसी दिल्ली में गुज़री थीं। सारा शहर उनको जानता था और ये भी दिल्ली की दाई बने हुए थे। शहर आबादी और शहर आबादी बा’द के सारे ख़ानदान और उनके रूदार अफ़राद उन्हें अज़बर थे। कभी मौज में होते तो मज़े मज़े की बातें भी कर लेते।
“जी चाहता है कि डिप्टी साहब को एक दिन तोहफ़ा नहारी खिलाऊँ। अल्लाह ने चाहा तो अब के वो नहारी खिलाऊँगा कि चिल्ले के जाड़ों में पसीना आ जाए।“
“हाँ मियाँ तो आपके लिए क्या भेजूँ?”
“उस्ताद, छः आदमियों के लिए नहारी कमरे पर।”
बस इस से ज़ियादा आपको कहने की और उनको सुनने की ज़रूरत नहीं। उन्हें मा’लूम है कि आपकी नहारी का क्या लवाज़िमा होता है। ज़ाहिर है कि आपके साथी भी आपके हम-मज़ाक़ ही होंगे। फ़ी-कस पाव भर नहारी के अंदाज़े से उन्होंने नहारी एक बड़े से बादिए में निकाली। घी आध पाव फ़ी-कस के हिसाब से दाग़ करने अँगीठी पर रख दिया। इतने घी तैयार हो, उन्होंने छः भेजे तोड़ साफ़-सूफ़ कर नहारी में डाल दिए और बारह नलियाँ भी उसमें झाड़ दीं। ऊपर से कड़कड़ाता घी डाल ताँबे की रकाबी से ढक दिया। लड़के को आवाज़ देकर पहले गोरियाँ और चमचा ऊपर भेजा। लड़के ने ऊपर पहुँच कर खूँटी पर से खजूर का बड़ा सा गोल दस्तर-ख़्वान बीच में बिछा दिया और उसपर गोरियाँ चुन दीं। फिर लपक कर नीचे आया और नहारी का बादिया एहतियात से ऊपर पहुँचा दिया।
फिर आफ़ताबा और सलफ़ची लेकर एक कोने में खड़ा हो गया। इतने वो हाथ धुलाए दूसरा लड़का थई की थई ख़मीरियाँ और एक रकाबी में गर्म मसाला, अदरक की हवाईयाँ, हरी मिर्चें और खट्टा रख गया। सब दस्तर-ख़्वान पर हो बैठे तो वही लड़का दहर-दहर जलती अँगीठी एक सीनी में उनके पास रख गया। लड़का रोटी सेंक-सेंक कर देता जाता है। दोस्तों के क़हक़हे चहचे होते जाते हैं। घी ने नहारी की लज़्ज़त बढ़ाने के इ’लावा मिर्चों का दफ़ भी मार दिया है। नहारी ज़रा ठंडी हुई और ग़ौरी अँगीठी पर रखी गई।
लीजिए, उस्ताद ने आपके दोस्तों के लिए एक ख़ास तोहफ़ा भेजा है। तनूर में से गर्म=गर्म रोटियाँ निकाल कर घी में डाल दें और रोटियाँ घी पी कर ऐसी ख़स्ता और मुलाएम हो गई हैं जैसे रूई के गाले। वाह-वाह क्या मिज़ाज-दानी और अदा-शनासी है जभी तो आज तक गंजे नहारी वाले को दिल्ली वाले याद करते हैं।
ये तो ख़ैर अमीरों के चोंचले हैं। अस्ल में नहारी ग़रीब ग़-रबा का मन भाता खाजा है। दस्तकार, मज़दूर और कारीगर सुब्ह-सुब्ह काम पर जाने से पहले चार पैसे में अपना पेट भर लेते थे। दो पैसे की नहारी और दो पैसे की दो रोटियाँ उनके दिन-भर के सहारे को काफ़ी होतीं। घर में अ’लल-सुब्ह चार पैसे में भला क्या तैयार हो सकता है।
सस्ते और बा-बरकत समय थे। एक कमाता दस खाते थे। अब दस कमाते हैं और एक को नहीं खिला सकते। वो वक़्त नहीं रहे। मियाँ गंजे नहारी वाले भी गुज़री हुई बहारों की एक चटपटी दास्तान बन कर रह गए।
सदा रहे नाम अल्लाह का।
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