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ग़ालिब और मीर: मुताले’ के चंद पहलू

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

ग़ालिब और मीर: मुताले’ के चंद पहलू

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

MORE BYशम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

    ‘ग़ालिब’ ने ‘मीर’ से बार-बार इस्तिफ़ादा किया है। ये इस बात की दलील है कि ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ एक ही तरह के शाइ'र थे। या'नी बा'ज़ मज़ाहिर-ए-काएनात और ज़िंदगी के बा'ज़ तजुर्बात को शे'र में ज़ाहिर करने के लिए दोनों एक ही तरह के वसाइल इस्ति'माल करना पसंद करते थे। इसका मतलब ये नहीं कि ‘ग़ालिब’ का उस्लूब ‘मीर’ से मुस्तआ'र है।

    इसका मतलब ये भी नहीं कि ज़िंदगी के किसी मौक़े’ या मंज़िल पर ‘ग़ालिब’ ने तर्ज़-ए-‘मीर’ को इख़्तियार करने की कोशिश की। इसका मतलब सिर्फ़ ये है कि दोनों शाइ'रों की ज़हनी साख़्त और तर्ज़-ए-फ़िक्र में मुमासिलत थी। अ'मली सत्ह पर इस साख़्त और तर्ज़-ए-फ़िक्र का इज़हार उस्लूब से ज़ियादा रवय्ये और उन चीज़ों के इंतिख़ाब में है, जिनके ज़रीए’ दोनों शाइ'रों ने मज़ाहिर-ए-काएनात और ज़िंदगी के तजुर्बात को ज़ाहिर किया है।

    ‘मीर’ ने फ़ारसी शो'रा से इस्तिफ़ादा किया है लेकिन उनका इस्तिफ़ादा तहसीन की क़िस्म का है, या'नी अगर उन्हें किसी शाइ'र के यहाँ कोई मज़्मून या गोशा पसंद आया तो उन्होंने भी उसको इख़्तियार कर लिया। इसके बर-ख़िलाफ़ ‘ग़ालिब’ ने ‘मीर’ के साथ वो बरताव किया जो कोई बड़ा शाइ'र ऐसे अपने किसी बड़े पेश-रौ के साथ करता है या'नी उन्होंने ‘मीर’ के तजुर्बात और वसाइल-ए-इज़हार को अपना मशाल-ए-राह बनाया।

    ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ का वही मुआ'मला है, जो मसलन एज़रा पाऊंड और वस्त लातीनी शो'रा का था या'नी पाऊंड ने वस्त लातीनी शो'रा की तरह सोचने की कोशिश की, लिखा मगर अपनी तरह। ‘मीर’ को ज़बानी ख़िराज-ए-अक़ीदत बहुत पेश किए गए हैं। उनमें ‘नासिख़’ भी हैं, जिन्होंने ‘मीर’ से कुछ हासिल किया। उनमें ‘आतिश’ के शागिर्द रिंद भी हैं, जो ‘आतिश’, ‘नासिख़’ और ख़ुद को तर्ज़-ए-‘मीर’ का शाइ'र बताते हैं। चुनाँचे रिंद का शे'र है,

    शेख़ ‘नासिख़’ ख़्वाजा ‘आतिश’ के सिवा बिल-फ़े'ल ‘रिंद’

    शाइ'रान-ए-हिंद में कहते हैं तर्ज़-ए-‘मीर’ हम

    हालाँकि अस्ल सूरत-ए-हाल ये है कि रिंद के यहाँ एक शे'र भी ‘मीर’ की तरह का नहीं। ‘आतिश’ ने ‘मीर’ के मज़ामीन बहुत उड़ाए लेकिन उनका ज़हन ‘मीर’ का सा था, तख़य्युल, मिज़ाज। लिहाज़ा ‘आतिश’ का कलाम ‘मीर’ के मज़ामीन का मक़तल बन गया है। ‘नासिख़’ ने ख़ुद ‘मीर’ की ता'रीफ़ की है लेकिन ‘नासिख़’ को भी ‘मीर’ की फ़हम थी।

    फ़हम तो बा'द की बात है, ‘नासिख़’ को ज़बान पर उस तरह की क़ुदरत भी थी जो ‘मीर’ का ख़ास्सा है। ये बात आ'म तौर पर मा'लूम है कि ‘नासिख़’ या ‘रिंद’ या ‘ज़ौक़’ ‘मीर’ की तरह के शाइ'र थे, इसलिए उनकी ता'रीफ़ों को रस्मी कह कर नज़र-अंदाज़ कर दिया जाता है या'नी ये समझ लिया जाता है कि इन लोगों ने ‘मीर’ का भारी पत्थर चूम कर छोड़ दिया और उनके ता'रीफ़ी अशआ'र ‘मीर’ की अ'ज़्मत तो साबित करते हैं, लेकिन ख़ुद उन शो'रा के बारे में हमें कुछ नहीं बताते।

    ये बात एक हद तक सही है लेकिन ‘नासिख़’, ‘ज़ौक़’, ‘रिंद’ वग़ैरह के ता'रीफ़ी अशआ'र से ये नतीजा भी निकलता है कि इन लोगों की नज़र में ‘मीर’ की शाइ'री ना-क़ाबिल-ए-तक़लीद थी। क्योंकि ‘मीर’ की ता'रीफ़ करने के बा-वजूद उन्होंने ‘मीर’ की तक़लीद की। ये नतीजा भी निकाला जा सकता है कि इन लोगों को ‘मीर’ की शाइ'री का कोई इ'रफ़ान था। क्योंकि अगर ‘मीर’ का थोड़ा बहुत भी इ'रफ़ान होता तो ‘मीर’ का कुछ तो परतव उनके यहाँ नज़र आता।

    लुत्फ़ की बात ये है कि ‘ग़ालिब’ जिन्होंने ‘मीर’ से वाक़ई’ इस्तिफ़ादा क्या, उनको भी ‘मीर’ का रस्मी ख़िराज-गुज़ार समझ लिया गया। लेकिन ‘ग़ालिब’ के बारे में ये भी कह दिया गया कि अपने आख़िरी ज़माने में उन्होंने ‘मीर’ का तर्ज़ इख़्तियार करने की कोशिश की, जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ।

    ‘ग़ालिब’ का वो शे'र जिसमें उन्होंने ‘मीर’ के दीवान को “कम-अज़-गुलशन-ए-कश्मीर नहीं” कहा था, उनके ज़माना-ए-नौजवानी का है और वो शे'र जो गुलशन-ए-कश्मीर वाले शे'र से ज़ियादा मशहूर है, वस्त उ'म्र का है क्योंकि ये ग़ज़ल 1847 के दीवान में मौजूद है। उसकी इशाअ'त के वक़्त ‘ग़ालिब’ की उ'म्र पचास से कुछ कम थी। मेरी मुराद इस मक़्ते’ से है,

    रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’

    कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था

    इन हक़ाएक़ के साथ-साथ हम अगर इस बात का भी ख़याल रखें कि ‘ग़ालिब’ ने ‘मीर’ से दिल खोल कर इस्तिफ़ादा किया है और जिन ग़ज़लों ने ‘ग़ालिब’ को ‘ग़ालिब’ बनाया, उनमें से अक्सर ऐसी हैं जो ‘ग़ालिब’ ने तीस बरस की उ'म्र को पहुँचने के पहले लिखी थीं और ‘ग़ालिब’ का ‘मीर’ से इस्तिफ़ादा तक़लीदी नहीं बल्कि तख़्लीक़ी है, तो ये बात साबित हो जाती है कि ‘ग़ालिब’ के तख़्लीक़ी सर-चश्मे में जो धारे आकर मिलते हैं उनमें बेदिल और सुबुक हिन्दी के बा'ज़ दूसरे “बदनाम” शो'रा के अ'लावा ‘मीर’ का दरिया-ए-ज़ख़्ख़ार भी है।

    इस नज़रिए की ख़ारिजी शहादत शाइ'री और फ़न-ए-शे'र के बारे में उन ख़यालात में मिल सकती है, जो ‘मीर’ और ‘ग़ालिब’ की तहरीरों में मुंतशिर हैं, लेकिन जिनको यकजा करके देखा जाए तो इन दोनों शाइ'रों का नज़रिया-ए शे'र मुरत्तब हो सकता है। ‘मीर’ ने निकातुश-शुअ'रा में मुख़्तलिफ़ शाइ'रों के बारे में जो लिखा है उससे भी उनका नज़रिया-ए-शे'र एक हद तक मुस्तंबित हो सकता है, लेकिन वहाँ ज़रूरत इस्तिंबात-ओ-इस्तिख़राज की होगी। क्योंकि शे'र या शाइ'री के बारे में ब-राह-ए-रास्त बयान निकातुश-शुअ'रा में मुश्किल से मिलेगा।

    इसके बर-ख़िलाफ़ ‘मीर’ के कलाम में शे'र और शाइ'री के बारे में बा'ज़ ब-राह-ए-रास्त बातें मिल जाती हैं। इन अशआ'र से ये नतीजा निकालना ग़ैर-ज़रूरी है (अगरचे ये ग़लत होगा) कि ‘मीर’ के अपने शे'रों में वो सब ख़ूबियाँ ज़रूर होंगी जिनका ज़िक्र उन्होंने शे'र के सिफ़ात और महासिन के तौर पर किया है, लेकिन ये अशआ'र हमें ये ज़रूर बताते हैं कि ‘मीर’ के ख़याल में शे'र में क्या सिफ़ात-ओ-महासिन होना चाहिए।

    या'नी ‘मीर’ के कलाम से उनका नज़रिया-ए-शे'र तो बरामद हो सकता है, लेकिन ये साबित नहीं हो सकता कि ख़ुद उनका कलाम उस नज़रिए पर पूरा उतरता है। इसी तरह ‘ग़ालिब’ के ख़ुतूत में शे'र और शाइ'री के बारे में जो मुंतशिर इज़हार-ए-राय है, उसको यकजा करके ये मा'लूम किया जा सकता है कि शे'र के महासिन के बारे में ‘ग़ालिब’ का नज़रिया क्या था। लेकिन ये ज़रूरी नहीं कि ख़ुद ‘ग़ालिब’ का कलाम उस नज़रिए पर पूरा उतरे।

    बहर-हाल हमें इस वक़्त इस बात से बराह-ए-रस्त बहस नहीं कि ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ के नज़रियात-ए-शे'र ख़ुद उनके कलाम पर कहाँ तक सादिक़ आते हैं। बहस इस वक़्त ये है कि उनके नज़रियात क्या हैं और अगर इन नज़रियात में क़रार वाक़ई’ मुमासिलत है तो हम ये कह सकते हैं कि चूँकि दोनों शाइ'रों का नज़रिया-ए शे'र बड़ी हद तक यकसाँ था, इसलिए दोनों की ज़हनी साख़्त और तर्ज़-ए-फ़िक्र में मुमासिलत थी और दोनों को शाइ'री से जो तवक़्क़ो'आत थीं, वो बड़ी हद तक यकसाँ थीं।

    ‘ग़ालिब’ ने बा'ज़ दोस्तों और मुलाक़ातियों के कलाम की रस्मी और मुबालग़ा-आमेज़ ता'रीफ़ें की हैं। उनको नज़र अंदाज़ करके उनके बराह-ए-रस्त नज़रियाती ख़यालात पर तवज्जोह कीजिए तो मा'लूम होता है कि वो मअ'नी-आफ़रीनी, शोर-अंगेज़ी, मुनासिबत-ए-अल्फ़ाज़ और रिआ'यत-ए-फ़न को बुनियादी एहमियत देते थे। ‘मीर’ ने भी इन्हीं चीज़ों को एहमियत दी है।

    तफ़्ता के नाम ख़त में ‘ग़ालिब’ का मशहूर क़ौल है, “भाई, शाइ'री मअ'नी-आफ़रीनी है, क़ाफ़िया-पैमाई नहीं।”

    सय्यद मुहम्मद ज़करिया ज़की के नाम सनद में ‘ग़ालिब’ लिखते हैं, “मअ'नी से तबीअ'त को इ'लाक़ा अच्छा है।” हातिम अ'ली महर की ता'रीफ़ करते हुए ‘ग़ालिब’ मअ'नी-ए-नाज़ुक और अछूते मज़ामीन का ज़िक्र करते हैं। अफ़सोस ये है कि अगर हमने पुराने लोगों की बुराइय‌ाँ तर्क कीं तो उनकी अच्छाइयाँ भी तर्क कर दीं। चुनाँचे मअ'नी-आफ़रीनी की इस्तिलाह इस क़दर ग़रीब हो चुकी है कि इसकी वज़ाहत के लिए मुस्तनद क़ौल नहीं मिलता। पचास बरस पहले भी लोग इस इस्तिलाह से कितने बे-ख़बर थे, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि नियाज़ फ़त्हपूरी ने फ़िराक़-गोरखपुरी जैसे तिही-दामन शाइ'र को भी मअ'नी आफ़रीं लिख दिया।

    दर-अस्ल मअ'नी-आफ़रीनी से मुराद वो तर्ज़-ए-बयान है, जिसमें एक ही बयान में कई तरह के मअ'नी ज़ाहिर या पोशीदा हों या जिसमें मा'मूली तर्ज़-ए-बयान को पेचदार बनाकर कहा जाए कि उस मा'मूली बात में भी कोई नया गोशा या उसका कोई ऐसा पहलू नज़र जाए जो आ'म तौर पर महसूस होता हो या फिर वो तर्ज़-ए-बयान जिसमें किसी बात से कोई ग़ैर-मुतवक़्क़े’ नतीजा निकाला जाए।

    शेली ने जब ये कहा था कि शाइ'री मानूस चीज़ों को ना-मानूस बना देती है तो वो मअ'नी-आफ़रीनी के एक पहलू की तरफ़ इशारा कर रहा था और जान करदरेनसेम ने जब शाइ'री की सिफ़त को “ए'जाज़ियत” Miraculism का नाम दिया था तो वो मअ'नी-आफ़रीनी के एक और पहलू की निशान-देही कर रहा था।

    वाज़ेह रहे कि मअ'नी-आफ़रीनी और नाज़ुक-ख़याली अलग-अलग चीज़ें हैं या'नी नाज़ुक-ख़याली और मअ'नी-आफ़रीनी हम-मअ'नी नहीं हैं। हो सकता है कि किसी शे'र में नाज़ुक-ख़याली और मअ'नी-आफ़रीनी दोनों हों या महज़ नाज़ुक-ख़याली या महज़ मअ'नी-आफ़रीनी हो। ‘ग़ालिब’ ने ‘मोमिन’ के बारे में कहा था कि उनकी तबीअ'त मअ'नी-आफ़रीन थी, लेकिन वाक़िआ’ ये है कि ‘मोमिन’ के यहाँ मअ'नी-आफ़रीनी से ज़ियादा नाज़ुक-ख़याली है। ख़ुद ‘ग़ालिब’ ने अपने शे'र,

    क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ

    ख़त्त-ए-जाम-ए-मै सरासर रिश्ता-ए-गौहर हुआ

    के बारे में ये कह कर इस शे'र में ख़याल है तो बहुत दक़ीक़, लेकिन लुत्फ़ कुछ नहीं, या'नी कोह-ए-कुन्दन काह बर-आवुर्दन, मअ'नी-आफ़रीनी और नाज़ुक-ख़याली का फ़र्क़ इशारों-इशारों में बयान कर दिया था। ये शे'र नाज़ुक-ख़याली की इंतिहाई मिसाल है लेकिन मअ'नी-आफ़रीनी से ख़ाली है। अगर इसमें मअ'नी-आफ़रीनी कार-फ़र्मा होती है तो इसका नतीजा कोह-ए-कुन्दन-ओ-काह बर-आवुर्दन होता। जैसा कि ‘मोमिन’ के शे'रों में अक्सर होता है।

    ‘ग़ालिब’ ने ‘क़द्र’ बिलग्रामी के मतले’ पर इस्तिलाह देते हुए उसकी जो तौजीह बयान की वो भी मअ'नी-आफ़रीनी को समझने में हमारी मदद करती है। ‘क़द्र’ का शे'र था,

    ला के दुनिया में हमें ज़हर-ए-फ़ना देते हो

    हाय इस भूल-भुलैयाँ में दग़ा देते हो

    ‘ग़ालिब’ ने रदीफ़ (देते हो) को जमा ग़ाइब’ (देते हैं) कर दिया और लिखा कि अब ख़िताब माशूक़ान-ए-मजाज़ी और क़ज़ा-ओ-क़द्र में मुश्तरक रहा। या'नी मअ'नी का इज़ाफ़ा हो गया। लिहाज़ा वो बयान जिसमें मअ'नी के ज़ियादा इम्कानात हों, मअ'नी-आफ़रीनी का हामिल ठहरता है।

    ‘ग़ालिब’ की तरह ‘मीर’ ने भी नाज़ुक-ख़याली का ज़िक्र नहीं किया है और मअ'नी-आफ़रीनी और पेचीदगी का ज़िक्र किया है। ‘मीर’ के बा'ज़ शे'र हस्ब-ए-जे़ल हैं,

    हो क्यों रेख़्ता बे-शोरिश-ओ-कैफ़िय्यत-ओ-मअ'नी

    गया हो ‘मीर’ दीवाना रहा सौदा सो मस्ताना

    (दीवान-ए-अव्वल)

    ज़ुल्फ़ सा पेचदार है हर शे'र

    है सुख़न ‘मीर’ का अ'जब ढंग का

    (दीवान-ए-चहारुम)

    तरफ़ें रखे है एक सुख़न चार चार ‘मीर’

    क्या-क्या कहा करें हैं ज़बान-ए-क़लम से हम

    (दीवान-ए-सेव्वुम)

    हर वरक़ हर सफ़्हे में इक शे'र-ए-शोर-अंगेज़ है

    अर्सा-ए-महशर है अर्सा मेरे भी दीवान का

    (दीवान-ए-पंजुम)

    इन अशआ'र में मअ'नी, पेचदारी, शे'र के मअ'नी के मुख़्तलिफ़-उल-इम्कान होने या'नी शे'र के तह-दार होने का ज़िक्र है। ज़ाहिर है कि ये सब सिफ़ात मअ'नी-आफ़रीनी की हैं। ये भी ज़ाहिर है कि ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ में मअ'नी-आफ़रीनी का नज़रिया मुश्तरक है। पहले और आख़िरी शे'र में शोरिश और शोर-अंगेज़ी का भी ज़िक्र है। इस इस्तिलाह के मअ'नी भी हम आज भूल गए हैं। लेकिन ‘ग़ालिब’ ने भी इसे इस्ति'माल किया है। एलाय के नाम एक ख़त में लिखते हैं, “मग़रिबी उ'रफ़ा में और क़ुदमा में है। उनका कलाम दक़ाएक़-ओ-हक़ाएक़-ए-तसव्वुफ़ से लबरेज़। क़ुदसी शाहजहानी शो'रा में साइब-ओ-कलीम का हम-अस्र और हम-चश्म। उनका कलाम शोर अंगेज़।”

    ‘ग़ालिब’ ने ये इस्तिलाह जिस तरह इस्ति'माल की है इससे साफ़ मा'लूम होता है कि शोर-अंगेज़ी से मुराद जज़्बात ख़ासकर इश्क़िया जज़्बात की फ़रावानी है। शोर-अंगेज़ कलाम में सूफ़ियाना दक़ाएक़-ओ-ग़वामिज़ बयान नहीं होते। लिहाज़ा इसमें वो महवियत या सरमस्ती या आ'रिफ़ाना मज़ामीन की वो बारीकी नहीं होती जो सूफ़ियाना शाइ'री का ख़ास्सा है।

    इसके बर-अ'क्स शे'र-ए-शोर-अंगेज़ में जज़्बात का तलातुम और एहसास बल्कि महसूसात की शिद्दत होती है। लेकिन उसमें जज़्बातियत और सत्हियत नहीं होती बल्कि उसमें एक अंदरूनी तनाव होता है। मुहम्मद जान क़ुदसी का कलाम इस बात पर शाहिद है कि इस अंदरूनी तनाव को केनेथ बर्क (Kenneth Burke) की ज़बान में Intension कह सकते हैं। ये तनाव अल्फ़ाज़ के दर्द-बस्त पर क़ाएम हो।

    तफ़्ता के एक शे'र की ता'रीफ़ करते हुए ‘ग़ालिब’ ने लिखा था कि “चार लफ़्ज़ हैं और चारों वाक़िए’ के मुनासिब।” इसी तरह “फ़साना-ए-अ'जाइब” के सरनामे पर शागिर्द-ए-‘मुसहफ़ी’ के शे'र का हवाला देकर,

    यादगार-ए-ज़माना हैं हम लोग

    याद रखना फ़साना हैं हम लोग

    ‘ग़ालिब’ तहसीन के अंदाज़ में लिखते हैं कि “याद रखना फ़साने के वास्ते कितना मुनासिब है।”

    इसी मुनासिबत को ‘ग़ालिब’ ने अब्दुल ग़फ़ूर सुरूर के ख़त में “रिआ'यत-ए-फ़न“ के नाम से याद किया है। अल्फ़ाज़ को आपस में मुनासिब होना चाहिए। फ़न की रिआ'यत से मुराद है वो चीज़ें, फ़न जिनका तक़ाज़ा करता है और जिन्हें रिआ'यत कहा जाता है। ज़ाहिर है इस रिआ'यत से मुराद वो तमाम फ़न्नी हथकंडे और बनाव हैं, जिनसे मुनासिबत-ए-लफ़्ज़ी-ओ-मा'नवी का इज़हार होता है। ‘मीर’ इन नकात को लफ़्ज़-ए-उस्लूब से ज़ाहिर करते हैं। उनके ख़याल में “उस्लूब” ही फ़न की पहचान है,

    ‘मीर’ शाइ'र भी ज़ूर कोई था

    देखते हो बात का उस्लूब

    (दीवान-ए-अव्वल)

    दीवान-ए-अव्वल और दीवान-ए-दुवुम की दो हम-तरह ग़ज़लों के मक़्ते में मुनासिबत के तसव्वुर को मीर ने अ'मली तौर पर ज़ाहिर किया है। दोनों शे'रों में “आब”, “पानी” और “रवानी” का तलाज़िमा इख़्तियार करके “आब-ए-सुख़न” की ता'रीफ़ बहम पहुँचाई है।

    दरिया में क़तरा-क़तरा है आब-ए-गुहर कहीं

    है ‘मीर’ मौजज़न तेरे हर-यक सुख़न में आब

    (दीवान-ए-अव्वल)

    देखो तो किस रवानी से कहते हैं शे'र ‘मीर’

    दर से हज़ार-चंद है उनके सुख़न में आब

    (दीवान-ए-दोव्वुम)

    ये सवाल उठ सकता है कि अगर ‘मीर’ और ‘ग़ालिब’ की शे'रियात में इतनी मुमासिलत है तो उनके अशआ'र में मुमासिलत क्यों नहीं? इसके कई जवाब मुम्किन हैं। एक तो वही जो मैं पहले अ'र्ज़ कर चुका हूँ कि ‘मीर’ और ‘ग़ालिब’ के बहुत से अशआ'र में मुमासिलत है।

    ये मुमासिलत ‘ग़ालिब’ के तख़्लीक़ी इस्तिफ़ादे का सबूत है और इस का इज़हार रवय्ये और उन अश्या के इंतिख़ाब में हुआ है, जिनके ज़रीए’ दोनों ने काएनात-ओ-ज़ात के बारे में अपने तजुर्बात को बयान किया है। दूसरा जवाब ये है कि शे'रियात में मुमासिलत होने के साथ-साथ अगर उस्लूब में भी मुमासिलत होती तो फिर ‘ग़ालिब’ का कारनामा ही क्या होता? तीसरा जवाब ये है कि ‘मीर’ ने शे'र की एक और ख़ुसूसियत का ज़िक्र किया है, जिसे “कैफ़ियत” कहते हैं।

    हो क्यों रेख़्ता बे-शोरिश-ओ-बे-कैफ़ियत-ओ-मअ'नी

    ‘ग़ालिब’ ने “कैफ़ियत” का ज़िक्र कहीं नहीं किया है। इस इस्तिलाह के भी मअ'नी अब गुम हो गए हैं। लेकिन दर-हक़ीक़त कैफ़ियत उस चीज़ का नाम है जिसको ज़हन में रखकर बेदिल ने अपना मशहूर फ़िक़रा कहा होगा कि “शे'र ख़ूब मअ'नी नदारद।”

    या'नी वो सूरत-ए-हाल जब शे'र में कोई ख़ास मअ'नी हों या उसके मअ'नी पूरी तरह फ़ौरन ज़ाहिर हों, लेकिन उसका जज़्बाती तअ'स्सुर या मुहाकाती असर फ़ौरी हो। बाज़-औक़ात ऐसे शे'र के मअ'नी अल्फ़ाज़ में बयान भी नहीं हो सकते। लेकिन अगर उसका जज़्बाती तअ'स्सुर या मुहाकाती असर फ़ौरी हो, या बा'ज़ मख़्सूस सियाक़-ओ-सबाक़ का मोहताज हो तो उस शे'र में कैफ़ियत नहीं बल्कि सत्हियत होगी। ‘मीर’ ने इस नज़रिए को इस तरह भी बयान किया है,

    किनने सुन शे'र-ए-‘मीर’ ये कहा

    कहियो फिर हाय क्या कहा साहब

    (दीवान-ए-दोव्वुम)

    “कहियो फिर” में शे'र को सिर्फ़ दुबारा दोहराने की दरख़्वास्त नहीं है, बल्कि नुक्ता ये भी है कि ऐसा शे'र और भी कहो। ‘ग़ालिब’ के यहाँ कैफ़ियत के शे'र ख़ाल-ख़ाल हैं, लेकिन ‘मीर’ के यहाँ ऐसे शे'र कसरत से हैं। फ़िराक़ साहब के यहाँ कम-कम और नासिर काज़मी के यहाँ अक्सर शे'र कैफ़ियत के हामिल हैं। इसीलिए लोगों का ख़याल होता है कि फ़िराक़ और नासिर काज़मी तर्ज़-ए-‘मीर’ के शाइ'र हैं।

    हक़ीक़त ये है कि कैफ़ियत के अ'लावा शे'र-ए-‘मीर’ की तमाम-तर ख़ुसूसियात ‘ग़ालिब’ के यहाँ ‘ग़ालिब’ की अपनी तख़्लीक़ी शान के साथ वारिद हुई हैं। उनकी शे'रियात के कई पहलुओं में मुमासिलत उनके ज़हनी इश्तिराक पर दाल है।

    एक नुक्ता ये भी है कि ‘ग़ालिब’ के मौज़ूआ'त ‘मीर’ के मुक़ाबले में महदूद हैं। ‘ग़ालिब’ के यहाँ मअ'नी की फ़रावानी ‘मीर’ से ज़ियादा है, इसलिए उनका कलाम ‘मीर’ से ज़ियादा रंगा-रंग मा'लूम होता है। लेकिन रोज़मर्रा की ज़िंदगी और उसके वाक़िआ'त से जितना शग़फ़ ‘मीर’ को है उतना ‘ग़ालिब’ को नहीं। ‘ग़ालिब’ तो ग़ैर-मा'मूली वाक़िआ'त को भी बाज़-औक़ात एक अंदाज़-ए-बे-परवाई से बयान कर जाते हैं। उनके बर-ख़िलाफ़ ‘मीर’ तमाम वाक़िआ'त को वाक़िआ'त की सत्ह पर बरतते हैं और उनमें जज़्बाती या तजुर्बाती मा'नवियत और एहमियत दाख़िल करते हैं।

    वाक़िआ'त की कसरत और उनकी जज़्बाती मा'नवियत की बिना पर ‘मीर’ की दुनिया ‘ग़ालिब’ की दुनिया से बहुत मुख़्तलिफ़ नज़र आती है।

    इंतिज़ार हुसैन ने उ'म्दा बात कही है कि उनको ‘नज़ीर’ अकबराबादी में एक अफ़्साना निगार और ‘मीर’ में एक नॉवेल-निगार नज़र आता है। नज़ीर अकबराबादी की हद तक तो उनकी बात में कलाम हो सकता है लेकिन इसमें शक नहीं कि ‘मीर’ की दुनिया अपनी वुसअ'त, वाक़िआ'त की कसरत, ग़ज़ल के रिवायती किरदारों को वाक़िआ'ती सत्ह पर बरतने की ख़ुसूसियत और आ'म ज़िंदगी के मुआ'मलात के तज़किरे के बाइ'स किसी बड़े नॉवेल निगार की दुनिया मा'लूम होती है।

    ‘मीर’ का कुल्लियात मुझे चार्ल्स डिकेन्स की याद दिलाता है। वही अफ़रा-तफ़री, वही अनोखे और मा'मूली और रोज़मर्रा और हैरत-अंगेज़ वाक़िआ'त का इम्तिज़ाज, वही इफ़रात वही तफ़रीत, वही बे-साख़्ता, मगर हैरत-अंगेज़ मज़ाह, वही भीड़-भाड़। मा'लूम होता है सारी ज़िंदगी इस कुल्लियात में मौजज़न है।

    ज़िंदगी का कोई ऐसा तजुर्बा नहीं, आ'रिफ़ाना विज्दान और मज्ज़ूबाना वज्द से लेकर रिंदाना बरहनगी तक कोई ऐसा लुत्फ़ नहीं, ज़िल्लत-ओ-नाकामी, नफ़रत, फ़रेब-ए-शिकस्तगी, फ़रेब-ए-ख़ुर्दगी, फक्कड़पन, ज़हर-ख़ंद, सीना-ज़नी से लेकर क़हक़हा, जिंसी लज़्ज़त-ए-इ'श्क़ की ख़ुद-सुपुर्दगी और महवियत तक कोई ऐसा जज़्बा और फे़'ल नहीं, जिससे ‘मीर’ ने अपने को महफ़ूज़ रखा हो।

    ऐसी सूरत में उनका कलाम ‘ग़ालिब’ से ब-ज़ाहिर मुख़्तलिफ़ मा'लूम होता है, हैरत-अंगेज़ नहीं। ब-क़ौल आल-ए-अहमद सुरूर, ‘ग़ालिब’ हमारे सामने वो महफ़िल सजाते हैं जिसमें ज़मीन से आसमान तक हर चीज़ जाती है लेकिन रहती वो महफ़िल ही है। ‘ग़ालिब’ का दीवान एक पुर-तकल्लुफ़ और तिलिस्मी दीवान-ख़ाना है। इस तिलिस्म में हर चीज़ नज़र जाती है और अक्सर इस तरह कि एक ही चीज़ कई-कई चीज़ें दिखाई देती है।

    इसके बर-ख़िलाफ़ ‘मीर’ का कलाम वो शहर है जिसमें हर वो चीज़ नज़र आती है, जो उस दीवान-ख़ाने के तिलिस्म में बंद है हत्ता कि वो दीवान-ख़ाना भी जिस शहर में है, वो ‘मीर’ का ही कलाम है। ऐसी सूरत में ज़हनी साख़्त और रवय्ये की मुमासिलत के बा-वजूद दोनों के कलाम का तअ'स्सुर मुख़्तलिफ़ होना लाज़िमी है।

    मुम्किन है आपको ख़याल आए कि ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ के दरमियान शे'रियात का कम-ओ-बेश मुश्तरक होना कोई ख़ास बात नहीं और इसकी बिना पर ये राय क़ाएम करना कि दोनों की ज़हनी साख़्त एक तरह की थी, जल्द-बाज़ी होगा। आप कह सकते हैं कि हिंद-ईरानी शे'रियात उर्दू के तमाम क्लासिकी शो'रा में मुश्तरक है। कोई वज्ह नहीं कि मसलन ‘नासिख़’ या ‘आतिश’ की भी शे'रियात वही हों, जो ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ की थी।

    इस बात में तो कोई कलाम नहीं कि शाइ'री के बारे में बहुत सी उ'मूमी बातें उर्दू के तमाम क्लासिकी शो'रा में मुश्तरक हैं और होना भी चाहिए। लेकिन आ'म तौर पर मुश्तरक तफ़्सीलात के बा-वजूद बुनियादी जुज़इयात में इख़्तिलाफ़ मुम्किन बल्कि ज़रूरी है। ये इख़्तिलाफ़ कई वज्हों की बिना पर हो सकता है। उनमें से एक वज्ह ला-इल्मी या कम-फ़हमी भी हो सकती है। जैसा कि रिंद के उस शे'र से ज़ाहिर हुआ होगा जो मैंने ऊपर नक़्ल किया है लेकिन ये इख़्तिलाफ़ ज़हनी साख़्त की बिना पर हो सकता है।

    ‘आतिश’ के बारे में मैं कह चुका हूँ कि वो ‘मीर’ के मज़ामीन बे-तकल्लुफ़ इस्ति'माल करते हैं। इस बिना पर गुमान गुज़र सकता है कि शाइ'री के बारे में उनके ख़यालात ‘मीर’ से मुशाबह होंगे लेकिन ऐसा नहीं है। उनके दो शे'र जिनमें से एक बहुत मशहूर है, हस्ब-ए-ज़ेल हैं।

    खींच देता है शबीह-ए-शे'र का ख़ाका ख़याल

    फ़िक्र-ए-रंगीं काम उस पर करती है परवाज़ का

    बंदिश-ए-अल्फ़ाज़ जड़ने से नगों के कम नहीं

    शाइ'री भी काम है ‘आतिश’ मुरस्सा-साज़ का

    (दीवान-ए-अव़्वल)

    ज़ाहिरी चमक-दमक के बा-वजूद पहले शे'र में Concepts या'नी तसव्वुरात ज़ोलीदा और ग़ैर-क़तई’ हैं। “ख़याल” और “फ़िक्र-ए-रंगीं” को इस्तेलाहों के तौर पर बरता है लेकिन “फ़िक्र-ए-रंगीं” मोहमल है और ये बात वाज़ेह नहीं हुई कि ख़याल जो शबीह-ए-शे'र का ख़ाका खींचता है, तख़य्युल यानी imagining है या शे'र में बयान-कर्दा ख़याल या'नी Idea है। ये बात भी वाज़ेह नहीं हुई कि शबीह-ए-शे'र के ऊपर परवाज़ या'नी “जिला” करने का काम फ़िक्र-ए-रंगीं किस तरह करती या कर सकती है। फ़िक्र-ए-रंगीं रंग तो शायद भर दे लेकिन शबीह को चमकाने में उसका क्या दख़्ल।

    दूसरे शे'र में ‘आतिश’ ने बहुत ज़ोर मारा तो शाइ'र को ज़र-गर या उस तरह का कोई Craftsman बना दिया और अगर बंदिश को नग जड़ने का अ'मल कहा जाए तो तमाम अल्फ़ाज़ को नग फ़र्ज़ करना पड़ेगा। इसकी कोई वज्ह नहीं बताई।

    फिर वो कौन सी चीज़ है जिसे सोना या चाँदी फ़र्ज़ किया जाए, जिसमें अल्फ़ाज़ के नग जड़े जाते हैं। मुम्किन है वो शे'र का वज़्न-ओ-बहर हो, लेकिन अगर ऐसा है तो शे'र को वज़्न-ओ-बहर से, अल्फ़ाज़ से अलग फ़र्ज़ करना पड़ेगा, जो ज़ाहिर है कि मोहमल है। एक महदूद क़िस्म के नज़रिया-ए-शे'र की हैसियत से इन अशआ'र को क़ुबूल किया जा सकता है लेकिन इस नज़रिए को ‘मीर’-ओ-‘ग़ालिब’ के नज़रिए से कोई इ'लाक़ा नहीं।

    ऊपर मैंने ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ के शे'र की दुनियाओं का फ़र्क़ ज़ाहिर करने के लिए लिखा था कि ‘मीर’ की दुनिया रोज़मर्रा के वाक़िआ'त से भरी हुई है और उन वाक़िआ'त को वो एक जज़्बाती मा'नवियत बख़्श देते हैं। उनके यहाँ किरदारों की कसरत है। ‘ग़ालिब’ की दुनिया अगरचे ‘मीर’ ही के इतनी भरपूर है, लेकिन उसमें वाक़िआ'त और किरदारों की ये कसरत नहीं। इसलिए दोनों का तअ'स्सुर मुख़्तलिफ़ मा'लूम होता है। इस बात को वाज़ेह करने के लिए ‘मीर’ और ‘ग़ालिब’ के एक-एक शे'र का मुताला’ दिलचस्प और कार-आमद होगा। दोनों शे'रों में मर्कज़ी किरदार और शाइ'र और आ'शिक़ की मौत का ज़िक्र है,

    ‘मीर’

    जहाँ में ‘मीर’ से काहे को होते हैं पैदा

    सुना ये वाक़िआ’ जिसने उसे तअ'स्सुफ़ था

    (दीवान-ए-सेव्वुम)

    ‘ग़ालिब’

    असदुल्लाह ख़ाँ तमाम हुआ

    द़रेग़ा वो रिंद-ए-शाहिद-बाज़

    ‘मीर’ के यहाँ इबहाम और किनाया भी बहुत ख़ूब हैं। इबहाम इसलिए कि “काहे को होते हैं पैदा” से मुराद ये भी निकलती है कि ‘मीर’ जैसे लोग शाज़ ही पैदा होते हैं और ये भी कि आख़िर में ‘मीर’ जैसे लोग (या'नी इतने बद-नसीब और तकलीफ़ से जीने मरने वाले लोग) पैदा ही क्यों होते हैं। “मीर से” में भी इबहाम है कि ‘मीर’ जैसे ग़ैर-मा'मूली लोग या ‘मीर’ जैसे बद-नसीब लोग या ‘मीर’ जैसे आ'शिक़ वग़ैरह।

    किनाये का हुस्न ये है कि मौत का ज़िक्र बराह-ए-रास्त नहीं किया बल्कि ‘ये वाक़िआ’ कह कर उसको साबित किया और ये इबहाम भी रख दिया कि ‘मीर’ की मौत एक काबिल-ए-ज़िक्र वाक़िआ’ है। रोज़मर्रा के एक वाक़िए’ में ‘मीर’ इस तरह जज़्बाती मा'नवियत और शिद्दत भर देते हैं। अब किरदारों की कसरत देखिए।

    एक तो ‘मीर’ ख़ुद, एक वो शख़्स जो इस शे'र का मुतकल्लिम है और तीसरा बड़ा गिरोह उन लोगों का जिन्होंने ये वाक़िआ’ सुना और तअ'स्सुफ़ किया। फिर मुतकल्लिम एक नहीं बल्कि दो हैं। एक तो वो शख़्स जो इस शे'र में बोल रहा है, या'नी जिसकी ज़बान से पूरा शे'र अदा हुआ है।

    दूसरी सूरत ये है कि पहला मिसरा’ किसी और शख़्स ने बोला है। उसको सुनकर तसदीक़ के तौर पर दूसरा शख़्स जवाब देता है। बुनियादी तौर पर ये शे'र कैफ़ियत का शे'र है लेकिन ये कैफ़ियत भी इन तह-दर-तह बारीकियों से पैदा हुई है।

    ‘ग़ालिब’ का शे'र भी उनके बेहतरीन अशआ'र में से एक है। ये शे'र भी बुनियादी तौर पर कैफ़ियत का शे'र है। लेकिन उसकी दुनिया में किरदार सिर्फ़ तीन हैं। एक तो ‘ग़ालिब’ ख़ुद और दूसरे वो शख़्स जो इस शे'र के मुतकल्लिम हैं। ‘ग़ालिब’ की शख़्सियत “रिंद-ए-शाहिद बाज़” से क़ाएम हुई है और बहुत ख़ूब क़ाएम हुई है लेकिन इसमें मज़ीद इम्कानात हैं। “तमाम हुआ” में गहरी साँस खींचने और अलमिये की कैफ़ियत ग़ैर-मा'मूली क़ुव्वत की हामिल है। ‘ग़ालिब’ की पूरी ज़िंदगी सामने जाती है।

    महसूस होता है कि रिन्दी और शाहिद बाज़ी में तिफ़्लात-ओ-खिलंडरेपन के अ'लावा किसी गहरी अंदरूनी कमी को छिपाने की कोशिश भी थी। अलमियाती कैफ़ियत और किरदार की पेचीदगी ने शे'र को आ'म वाक़िए’ की सत्ह से बहुत बुलंद कर दिया है। लेकिन इसका लहजा, इसकी दुनिया, ये सब एक निसबतन महदूद मुक़ाम Locals से मुतअ'ल्लिक़ हैं। ‘मीर’ की तरह ‘ग़ालिब’ ने भी दो मुतकल्लिमों का इम्कान रख दिया है क्योंकि मुम्किन है पूरा शे'र एक ही शख़्स ने बोला हो या पहला मिसरा’ एक शख़्स ने और दूसरा किसी और शख़्स ने, लेकिन दूसरे मिस्रे का लहजा चूँकि रोज़मर्रा से दूर है इसलिए मुकालमे का इल्तिबास उतना मुअस्सिर नहीं जितना ‘मीर’ के शे'र में है।

    ‘ग़ालिब’ के यहाँ रोज़मर्रा से दूरी का ज़िक्र मुझे ‘मीर’ की उस ख़ुसूसियत की तरफ़ लाता है, जिसे मैं उनके अ'ज़ीम-तरीन कारनामों में शुमार करता हूँ या'नी ये कि ‘मीर’ ने रोज़मर्रा की ज़बान को शाइ'री की ज़बान बना दिया। ये काम उनके अ'लावा किसी से नहीं हुआ और इसकी वज्हें मुतअ'य्यन करना आसान नहीं।

    “रोज़मर्रा' की ता'रीफ़ ब-ज़ाहिर मुश्किल मा'लूम होती है। क्योंकि रोज़मर्रा शख़्स, तबक़े और इ'लाक़े के साथ थोड़ा या बहुत बदलता रहता है। तारीख़ भी उस पर असर-अंदाज़ होती है हालाँकि ‘मीर’ की हद तक तारीख़ कोई अहम बात नहीं क्योंकि हम उस रोज़मर्रा का ज़िक्र कर रहे हैं, जो ‘मीर’ के ज़माने में मुरव्वज था।

    कहा जाता है कि रोज़मर्रा का इस्ति'माल ‘मीर’ के बहुत से हम-अस्रों के यहाँ भी मिलता है। फिर ‘मीर’ की ख़ूबी क्या है? इसका जवाब यही है कि ‘मीर’ के हम-अस्रों के यहाँ रोज़मर्रा को शाइ'री की सत्ह पर नहीं, बल्कि इज़हार-ए-ख़याल की सत्ह पर बरता गया है।

    ‘जुरअत’, ‘मुसहफ़ी’ और ‘मीर’ के सौ-सौ शे'रों का मुवाज़ना इस बात को वाज़ेह कर देगा कि ‘जुरअत’ और ‘मुसहफ़ी’ के यहाँ वो तह-दारी-ओ-पेचीदगी नहीं है, जो ‘मीर’ के यहाँ है। इन लोगों का रोज़मर्रा महज़ रोज़मर्रा है। उसमें ज़बान का सत्ही लुत्फ़ है शाइ'री नहीं है। ‘मीर’ का जो शे'र मैंने ऊपर नक़्ल किया है, वो इस बात की मिसाल के तौर पर काफ़ी है कि ‘मीर’ ने रोज़मर्रे को शाइ'री किस तरह बना दिया है।

    लेकिन रोज़मर्रा की ता'रीफ़ करना ज़रूरी है, वर्ना ‘ग़ालिब’ की ज़बान को भी रोज़मर्रा का दर्जा क्यों दिया जाए। आडन ने लिखा है कि आ'म ज़बान तो महज़ इस काम सकती है कि उसमें ज़िंदगी के आ'म सवाल जवाब हो सकें। मसलन ये कि “इस वक़्त क्या बजा है?” या “स्टेशन का रास्ता कौन सा है?”

    आडन कहता है कि शाइ'र का मसअ'ला ये होता है कि वो उस ज़बान को, जो रोज़मर्रा के कारोबार में लग कर अपनी मा'नवियत खो देती है, शाइ'री के मा'नवियत कोश कारोबार में किस तरह लगाए। उर्दू की हद तक ये मसअ'ला इतना गंभीर नहीं है। क्योंकि उर्दू में अदबी ज़बान और रोज़मर्रा की ज़बान बड़ी हद तक अलग-अलग वजूद रखती है। महज़ इज़ाफ़तों का ही इस्ति'माल दोनों ज़बानों को अलग करने के लिए काफ़ी है। लेकिन आडन के क़ौल की रौशनी में रोज़मर्रा की ता'रीफ़ मुतअ'य्यन करने की कोशिश हो सकती है।

    आडन के ख़यालात बड़ी हद तक वालेरी से माख़ूज़ हैं। वालेरी कहता है कि वो ज़बान जो आ'म ज़रूरियात के लिए इस्ति'माल होती है वो अपना मक़सद पूरा करके ख़त्म हो जाती है। या'नी वो बयान जिसमें किसी आ'म अ'मली ज़रूरत या ख़याल का इज़हार किया गया हो, अपना माज़ी-उल-ज़मीर अपने मुख़ातिब तक पहुँचाने के बा'द बेकार हो जाता है। ज़बान के इस इस्ति'माल को वालेरी अ'मली या मुजर्रद-ए-इस्ति'माल कहता है। उसका ख़याल है कि ज़बान के अ'मली या मुजर्रिद इस्ति'मालात में बयान ना-पाएदार होता है।

    या'नी बयान की हैअत या उसका वो तबीआ'ती ठोस हिस्सा, जिसे हम गुफ़्तगू का अ'मल कह सकते हैं, इफ़हाम के बा'द क़ाएम नहीं रहता। ये रौशनी में घुल जाता है। (या'नी वो रौशनी जो बयान का मंशा समझ लेने के बा'द हासिल होती है।) उसका अ'मल पूरा हो चुका होता है। उसने अपना काम अंजाम दे लिया होता है। उसने कहने वाले का माफ़ी-उल-ज़मीर ख़ाली कर दिया होता है, उसकी ज़िंदगी पूरी हो चुकी होती है। या'नी वो बयानात जो अ'मली ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कहे या लिखे जाते हैं, अपना मक़सद पूरा करने के बा'द ग़ैर-ज़रूरी और बे-मअ'नी हो जाते हैं।

    ज़ाहिर है कि जो बयानात अ'मली ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कहे या लिखे जाते हैं, उनकी सूरत रोज़मर्रा की होती होगी या उनकी हैसियत रोज़मर्रा की होती होगी। वालेरी का कहना है कि ये ज़बान शाइ'री के काम नहीं सकती। शाइ'री की हैसियत ज़बान के अंदर ज़बान की होती है।

    क्योंकि शाइ'र को आ'म ज़बान से क़र्ज़ लेकर अपनी ज़बान बनानी पड़ती है। आ'म ज़बान, जिसे वालेरी “पब्लिक की ज़बान” कहता है, रिवायती और ग़ैर-अ'क़्ली हैअतों और क़ाएदों का मजमूआ’ होती है। ऐसा मजमूआ’ जो बे-ढंगेपन और बे-क़ाएदगी का ख़ल्क़-कर्दा, मिलावट से भरपूर और लफ़्ज़ियात के सौती और मा'नवियाती रद्द-ओ-बदल का आईना-दार होता है।

    वालेरी इस बिना पर शाइ'री और आ'म ज़बान में नस्र में फ़र्क़ करता है और इस बात पर इसरार करता है कि शाइ'री में भी अफ़्क़ार-ओ-तसव्वुरात बयान होते हैं। अफ़्क़ार की ता'रीफ़ वो यूँ करता है, “फ़िक्र वो कार-गुज़ारी है, जो इन चीज़ों को हमारे अंदर ज़िंदा कर देती है, जो वजूद नहीं रखतीं और हमें इस बात पर क़ादिर करती है कि हम जुज़ को कुल, सूरत को मअ'नी समझ लें, जो हम में ये इल्तिबास पैदा करती है कि हम अपने बेचारे प्यारे जिस्म से अलग हो कर भी देख सकते हैं। अफ़आ'ल को अ'मल में ला सकते हैं।”

    वालेरी कहता है कि ये ख़याल ग़लत है कि शाइ'र के तफ़क्कुर की गहराई साईंस-दाँ या फ़लसफ़ी के तफ़क्कुर की गहराई से मुख़्तलिफ़ होती है। ये ज़रूर है कि शाइ'राना अ'मल ही में तफ़क्कुर-ओ-तजरीदी फ़िक्र मौजूद होती है। शे'र के बाहर उसे तलाश करना फ़ुज़ूल है।

    थोड़ा सा ग़ौर भी इस बात को वाज़ेह कर देगा कि वालेरी जिस क़िस्म के शाइ'र का ज़िक्र कर रहा है, वो ‘ग़ालिब’ की तरह का शाइ'र है या'नी ऐसा शाइ'र जो ऐसी ज़बान से गुरेज़ करता है कि जो आ'म ज़रूरतों को पूरा करने के लिए इस्ति'माल की जाती है। वालेरी का शाइ'र वो शख़्स है, जिसकी शाइ'री ही तजरीदी फ़िक्र है, इसलिए उसकी ज़बान ला-मुहाला इन सत्ही बयानात के बर-अ'क्स अ'मल करती है, जो ठोस मा'लूमात की तर्सील में काम आते हैं। दूसरे अल्फ़ाज़ में वालेरी का शाइ'र एक ख़ालिस अदबी बल्कि इ'ल्मी और अदबी ज़बान इस्ति'माल करता है। ऐसी ज़बान जो तजरीदी फ़िक्र से ममलू होती है।

    इसका नतीजा ये निकला कि वो ज़बान जो तजरीदी फ़िक्र से ममलू नहीं होती है और जिसे वालेरी आ'म ज़रूरत को पूरा करने के मक़सद के लिए काम आने वाली ज़बान कहता है, रोज़मर्रा की ज़बान होगी। ऐसी ज़बान तसव्वुरात से आ'री होगी। उसमें नाज़ुक या बारीक जज़्बात या जज़्बात के नाज़ुक या बारीक पहलुओं के इज़हार की भी क़ुव्वत होगी। ऐसी ज़बान में आप खाने या चाय का आर्डर दे सकते हैं। मुम्किन है ये भी कह सकें कि “मुझे तुमसे मुहब्बत है।” लेकिन इस ज़बान को इस्ति'माल करते हुए आप ख़ुदा की वाहिदियत और इसकी अहदियत का फ़र्क़ वाज़ेह नहीं कर सकते। इस ज़बान को इस्ति'माल करते हुए आप ये भी वाज़ेह नहीं कर सकते कि आपकी मुहब्बत और मजनूँ की मुहब्बत में क्या मुशाबहत और क्या मुग़ाइरत है। लिहाज़ा रोज़मर्रा की ता'रीफ़ ये हुई, वो ज़बान जो तसव्वुरात Concepts और नाज़ुक बारीक जज़्बात Subtle emotions को अदा करने की क़ुदरत से कम-ओ-बेश आ'री हो। ज़ाहिर है कि ऐसी ज़बान में बड़ी शाइ'री नहीं हो सकती बल्कि शायद शाइ'री ही नहीं हो सकती।

    वाज़ेह रहे कि वालेरी की तहज़ीब में “रोज़मर्रा” नाम की कोई इस्तिलाह नहीं है। वालेरी सिर्फ़ शाइ'री और ग़ैर-शाइ'री की ज़बान में फ़र्क़ कर सकता है। उसने रोज़मर्रा की ता'रीफ़ नहीं बयान की है। उसके यहाँ रोज़मर्रा था ही नहीं। या'नी वो मुहज़्ज़ब बा-मुहावरा ज़बान जो अ'वामी बोल-चाल से मुख़्तलिफ़ और नफ़ीस-तर है, लेकिन जिसमें तसव्वुराती और जज़्बाती तफ़रीकात यानी Categories बयान करने की क़ुव्वत नहीं है। लेकिन वालेरी और आडन के ख़यालात की रौशनी में रोज़मर्रा की ता'रीफ़ क़ाएम हो सकती है।

    चूँकि रोज़मर्रा या कम-ओ-बेश रोज़मर्रा में हमारे यहाँ बहुत सारी शाइ'री लिखी गई है। इसलिए हमारे यहाँ उसकी ख़ास एहमियत है, ख़ासकर इसलिए कि अक्सर लोगों ने रोज़मर्रा की ना-ताक़ती को ही उसकी ख़ूबी समझा और उसको “ज़बान की शाइ'री” से ता'बीर किया। हालाँकि शाइ'री तो एक ही होती है। ज़बान की शाइ'री और तसव्वुरात की शाइ'री की तफ़रीक़ मोहमल है।

    वो मंज़ूम कलाम जो हमारे यहाँ रोज़मर्रा पर मबनी है, उसका बड़ा हिस्सा ग़ैर-शे'र की ज़िम्न में आता है। अगर ‘मीर’ ने भी इसी ज़बान पर इक्तिफ़ा की होती जो “ज़बान की शाइ'री” वालों के यहाँ मिलती है तो वो भी ‘मुसहफ़ी’, ‘जुरअत’, ‘क़ाएम’ और ‘यक़ीन’ वग़ैरह की तरह दर्जा दोएम के शाइ'र होते। ‘मीर’ रोज़मर्रा के या ज़बान के शाइ'र नहीं हैं। उनकी बड़ाई इस बात में है कि उन्होंने रोज़मर्रा को शाइ'री की ज़बान में बदल दिया। या'नी उसमें वो क़ुव्वतें दाख़िल कीं जो तसव्वुराती और जज़्बाती तफ़रीकात का अहाता कर सकें। लेकिन ज़बान की जड़ें फिर भी रोज़मर्रा ही में पैवस्त रहीं। उन्होंने ना-मुम्किन को मुम्किन कर दिखाया और इस तरह कि आज तक उसका बदल हो सका।

    यहाँ इस बात की भी वज़ाहत ज़रूरी है कि अगरचे रोज़मर्रा में शख़्स, माहौल और अहद के ए'तिबार से तब्दीली होती रहती है, लेकिन उसकी एक बुनियादी हैअत हर ज़माने में होती है चाहे वो मिसाली और ख़याली ही हो। मुम्किन है ‘मीर’ का रोज़मर्रा ‘जुरअत’ और ‘इंशा’ के रोज़मर्रा से अलग रहा हो लेकिन ये तीनों एक दूसरे के रोज़मर्रा को रोज़मर्रा की ही हैसियत से तस्लीम करते थे। आज भी मेरा रोज़मर्रा आपसे मुख़्तलिफ़ हो सकता है लेकिन बुनियादी सिफ़ात के इश्तिराक की वज्ह से हम दोनों को एक दूसरे की ज़बान समझ लेने और उसे रोज़मर्रा क़रार देने में कोई झिजक महसूस नहीं होती।

    लिहाज़ा ‘मीर’ भी इस मिसाली और ख़याली रोज़मर्रा के दाएरे में हैं, जो उनके ज़माने में राइज था। ये और बात है कि ‘मीर’ ने रोज़मर्रा की बुनियाद पर अपनी शाइ'री की ज़बान ता‘मीर’ की और इस तरह शाइ'री की ज़बान के बारे में बहुत से मफ़रूज़ात को बदलने या तोड़ने का अ'मल किया।

    ‘मीर’ के ज़माने में उर्दू में अदबी और इ'ल्मी नस्र का वजूद था, इसलिए उनकी ज़बान का मुवाज़ना सिर्फ़ शाइ'रों की ज़बान से हो सकता है और उनके कारनामे की पूरी अ'ज़्मत का एहसास आसानी से नहीं हो सकता।

    अदबी नस्र से मेरी मुराद वो नस्र है जिसमें तसव्वुराती तफ़रीकात क़ाएम करने की सलाहियत हो लेकिन जिसमें जज़्बाती तफ़रीकात का हिस्सा ज़ियादा हो, तसव्वुराती तफ़रीकात का कम।

    इंशा-पर्दाज़ाना नस्र और बेशतर बयानिया नस्र और थोड़ी बहुत तन्क़ीद की भी नस्र इस ज़िम्न में आती है। इस नस्र में रोज़मर्रा को बहुत कम दख़्ल होता है। अदबी नस्र मा'लूमाती भी हो सकती है। इ'ल्मी नस्र में तसव्वुराती तफ़रीकात का अ'मल ज़ियादा होता है, जज़्बाती तफ़रीकात का कम और रोज़मर्रा इसमें तक़रीबन नहीं के बराबर दख़ील होता है।

    ‘मीर’ के सामने ज़बान के वही नमूने थे जो शाइ'री में दस्तयाब थे। मुम्किन है “कर्बल कथा” उन्होंने देखी हो, लेकिन उसमें दकनी इस क़दर अन-मिल बे-जोड़ थी कि वो नमूने का काम दे सकती थी। ‘ग़ालिब’ का ज़माना आते-आते उर्दू में अदबी नस्र वजूद में चुकी थी। ये ज़ियादा-तर दास्तानों की शक्ल में थी। इसमें शाइ'री की ज़बान का इल्तिबास था लेकिन तह-दारी होने की वज्ह से वो शाइ'री में बेजिंसेही काम सकती थी। थोड़ी बहुत इ'ल्मी नस्र भी लिखी जा रही थी। इसमें तफ़रीक़ात को बयान करने के लिए ग़ैर-फ़ितरी उर्दू का इस्ति'माल नुमायाँ था।

    ‘ग़ालिब’ का मसअ'ला ये था कि वो ऐसी ज़बान बनाना चाहते थे जो शाइ'री की ज़बान हो या'नी जिसमें इ'ल्मी, अदबी दोनों तरह की ज़बानों की सारी क़ुव्वतें हों और कमज़ोरियाँ कोई हों या कम से कम हों। ‘ग़ालिब’ अपनी कोशिशों में बड़ी हद तक कामयाब हुए और उनकी ज़बान आइंदा के तमाम शो'रा के लिए ऐसा आईडियल बन गई जिसको हासिल करने की सई’ ही उन शो'रा की ज़िंदगी का हासिल ठहरी। ‘हसरत’ मोहानी और ‘आरज़ू’ लखनवी और ‘दाग़’ और आज़ाद अंसारी और अ'ज़्मतुल्लाह ख़ाँ जैसे छोटे बड़े लोगों ने हज़ार ज़ोर मारा। ‘यगाना’ ने हज़ार मुँह टेढ़ा करके गालियाँ दीं लेकिन ‘ग़ालिब’ जो ज़बान ख़ल्क कर गए वही उर्दू शाइ'री की ज़बान रही और आज तक है।

    ‘सौदा’ ने अपने रिसाले “सबील-ए-हिदायत” पर जो दीबाचा लिखा था, वो उस अहद की अदबी नस्र का ग़ालिबन वाहिद नमूना है जिससे हम वाक़िफ़ हैं। सौदा की इ'बारत नस्र की शक्ल में ख़ासी ग़ैर-फ़ितरी मा'लूम होती है लेकिन उसका कोई फ़िक़रा ऐसा नहीं जो सौदा की शाइ'री में खप सके। ‘इंशा’ ने “दरिया-ए-लताफ़त” में ‘मीर’ ग़ज़र ग़ैनी की जो गुफ़्तगू दर्ज की है वो बहुत फ़ितरी मा'लूम होती है लेकिन उसके बहुत कम फ़िक़रे ऐसे हैं जो ‘मीर’ के कलाम में बेजिंसेही खप सकते हैं। इससे अंदाज़ा हो सकता है कि उस वक़्त की मुरव्वज शे'री ज़बान से इन्हिराफ़ और रोज़मर्रा को शाइ'री बनाने का अ'मल ‘मीर’ ने सर-अंजाम दिया। वो ‘ग़ालिब’ के कारनामे से कम वक़ीअ था।

    ‘ग़ालिब’ के ज़माने में कम से कम इतना तो था कि ज़बान के बहुत से नमूने मौजूद थे। लिहाज़ा ‘ग़ालिब’ को रद्द-ओ-क़ुबूल और ग़ौर-ओ-ख़ौज़ के मवाक़े’ तो मुहय्या थे। ‘मीर’ के सामने तो एक ही नमूना था, या'नी उस वक़्त की शे'री ज़बान, जिसकी मिसालें ‘सौदा’ और ‘ताबाँ’ वग़ैरह के यहाँ मिलती हैं। ‘सौदा’ की ज़बान बेशतर अदबी थी और ‘ताबाँ’ वग़ैरह की ज़बान पर रोज़मर्रा का असर ज़ियादा था। लिहाज़ा वो ज़बान अपनी मुरव्वज शक्ल में ‘मीर’ के काम की थी।

    ‘सौदा’ की शाइ'राना हैसियत ‘मीर’ से पहले क़ाएम हो चुकी थी। क्योंकि वो ‘मीर’ से कोई दस साल बड़े थे। ‘दर्द’ अलबत्ता तक़रीबन ‘मीर’ के हम-उ'म्र थे लेकिन उन्होंने शाइ'री ग़ालिबन देर में शुरू’ की और जो रंग ‘दर्द’ ने इख़्तियार किया वो अ'लल-आख़िर ‘ग़ालिब’ के काम आया।

    ‘मीर’ को ‘सौदा’ का रंग मंज़ूर था क्योंकि उनकी उफ़्ताद-ए-तबा’ और ज़हनी साख़्त ‘सौदा’ से बहुत मुख़्तलिफ़ थी। इसलिए ‘मीर’ को अपना रास्ता ख़ुद बनाना पड़ा। उनके सामने कोई नमूने थे। इस वज्ह से ‘मीर’ का लिसानी कारनामा ‘ग़ालिब’ के कारनामे से कम-तर नहीं, बल्कि कुछ बरतर ही मा'लूम होता है।

    ‘मीर’ के बारे में ये ग़लत-फ़हमी कि वो ख़ालिस ज़बान या रोज़मर्रा के शाइ'र हैं, कई वज्हों से आ'म हुई। अव्वल तो ये कि ‘मीर’ और उनके आ'म मुआ'सिरों में एक तरह की सत्ही और लाज़िमी मुमासिलत तो है ही क्योंकि बहर-हाल इन सब शो'रा की बुनियादी ज़बान मुश्तरक थी।

    दूसरी बात ये कि ‘मीर’ के बारे में इस तरह के वाक़िआ'त मशहूर हुए कि उन्होंने कहा मैं वो ज़बान लिखता हूँ, जिसकी सनद जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर मिलती है। ज़ाहिर है कि मुहावरे और तलफ़्फ़ुज़ वग़ैरह की हद तक तो इस बयान पर ए'तिमाद करना चाहिए लेकिन शे'री ज़बान के जौहर पर इसका इतलाक़ ग़ैर-तन्क़ीदी कारवाई है और ‘मीर’ की रूह से बे-ख़बरी का पता देता है। फिर ये कोई ज़रूरी नहीं कि शाइ'र को शऊ'री तौर पर मा'लूम ही हो कि वो क्या कर रहा है या अगर मा'लूम भी हो तो वो उस का इज़हार कर सके या करना चाहे। अ'लावा-बरीं अपनी शाइ'री के बारे में शाइ'र के बयानात को उसी वक़्त मो'तबर जानना चाहिए जब उनकी पुश्त-पनाही उसके कलाम से हो सकती हो।

    लिहाज़ा ‘मीर’ आ'म मअ'नी में रोज़मर्रा के शाइ'र नहीं हैं। उन्होंने रोज़मर्रा की ज़बान पर मबनी शाइ'री लिखी है। ये अ'ज़ीम कारनामा उनसे यूँ अंजाम पाया कि उन्होंने कई तरह के लिसानी और शाइ'राना वसाइल इस्ति'माल किए और इस तरकीब-ए-मुतनासिब से कि उनका मजमूआ’ बेहतरीन सूरत में अपनी तरह का बेहतरीन शाइ'राना इज़हार बन गया। इस तरकीब-ओ-तनासुब का पता मुश्किल भी है और गै़र-ज़रूरी भी। गै़र-ज़रूरी इसलिए कि वो क़वाइदी Normative नहीं हो सकता। अगर ऐसा हो सकता तो शाइ'री का खेल हम आप सब ‘मीर’ ही की तरह खेल लेते। लेकिन इन लिसानी और शाइ'राना वसाइल की तफ़्सील हस्ब-ए-ज़ेल है,

    (1) ‘मीर’ ने इस्ति'आरा और किनाया ब-कसरत इस्ति'माल किया। आई.ए. रिचर्ड्स ने बहुत ख़ूब लिखा है कि जज़्बात के नाज़ुक और बारीक पहलुओं का जब इज़हार होगा तो बग़ैर इस्ति'आरे के होगा। क्लीएंथ ब्रूक्स इस पर राय-ज़नी करते हुए लिखता है कि शाइ'रों को मुशाबहतों का सहारा लाज़िम है, लेकिन सब इस्ति'आरे एक ही सत्ह पर नहीं होते, ही हर इस्ति'आरा एक दूसरे के साथ सफ़ाई से चिपक सकता है। इस्तिआरों की सत्हें आगे-पीछे, ऊपर-नीचे होती रहती है और तनाक़ुज़ात बल्कि तज़ादात को राह देती हैं। इस्तिआरों के इस अ'मल को क्लीएंथ ब्रूक्स मुस्तहसन क़रार देता है और इसे क़ौल-ए-मुहाल और तंज़ का नाम देता है।

    अपनी बा'ज़ तहरीरों में ब्रूक्स इस ख़याल को बहुत आगे ले गया है। यहाँ तक कि उसने ग्रे की नज़्म (जिसका तर्जुमा हमारे यहाँ “शाम-ए-ग़रीबाँ” के नाम से नज़्म तबातबाई ने किया) में भी तंज़ की कार-फ़रमाई देख ली है, लेकिन इसमें कोई शुबह नहीं कि बुनियादी तौर पर क्लीएंथ ब्रूक्स का ख़याल बिल्कुल दुरुस्त है।

    ‘मीर’ के इस्तिआरों में तंज़ और क़ौल-ए-मुहाल की कार-फ़रमाई नज़र आती है। मग़रिबी तन्क़ीद किनाये की इस्तिलाह से बे-ख़बर है लेकिन किनाया भी इस्ति'आरे की एक शक़ है क्योंकि किनाये की ता'रीफ़ ये है कि किसी मअ'नी को ब-राह-ए-रास्त अदा किया जाए, लेकिन कोई ऐसा फ़िक़रा या लफ़्ज़ कलाम में हो जिससे उस मअ'नी पर दलालत हो सके।

    वाल्टर औंग का ख़याल है कि सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में अंग्रेज़ी शाइ'री को रेमस Ramus के इस नज़रिए से बहुत नुक़्सान पहुँचा कि इस्ति'आरा महज़ तज़ईनी चीज़ है, शाइ'री का जौहर नहीं है। ये सही है कि इस्ति'आरे के बारे में बा'ज़ बारीक-बीनियाँ जो जदीद मग़रिबी मुफ़क्किरों को हाथ आई हैं, हमारे क़दीम नक़्क़ादों की दस्तरस में नहीं हैं, लेकिन हमारे यहाँ ये ख़याल शुरू’ ही से आ'म रहा है कि इस्ति'आरा शाइ'री का जौहर है, इसलिए इस्ति'आरे को सनअ'तों की फ़हरिस्त में नहीं रखा गया बल्कि उसका मुताला’ इ'ल्म-ए-बयान के ज़िम्न में किया गया कि इस्ति'आरा वो तरीक़ा है जिसके ज़रीए’ हम एक ही मअ'नी को कई तरीक़े से बयान कर सकते हैं।

    ‘मीर’ का ज़माना आते आते इस्ति'आरे की हैसियत शाइ'री में इस तरह ज़म हो गई थी कि इसका ज़िक्र अलग से बहुत कम होता था। लेकिन ज़ाहिर है कि इस्ति'आरा हर एक के बस का रोग नहीं। अरस्तू ने यूँही नहीं कहा था कि इस्ति'आरे पर क़ुदरत होना सब सलाहियतों से बढ़कर है। “ये नाबिग़ा की अ'लामत है क्योंकि इस्तिआरों को ख़ूबी से इस्ति'माल करने की लियाक़त मुशाबहतों को महसूस कर लेने की क़ुव्वत पर दलालत करती है।”

    (2) इस्ति'आरा फ़ी-नफ़्सिही मा'नवी इम्कानात से पुर होता है, लेकिन वो इस्ति'आरे जो कसरत-ए-इस्ति'माल की बिना पर मुहावरा या इ'ल्म-ए-ज़बान का हिस्सा हो जाते हैं, उनके मा'नवी इम्कानात हमारे लिए बेकार हो जाते हैं। क्योंकि अक्सर उनको सिर्फ़ एक ही दो मा'नवी इम्कानात के लिए इस्ति'माल किया जाता है और बाक़ी इम्कानात मुअ'त्तल या ग़ैर-कारगर रहते हैं। ज़बान चूँकि ऐसे इस्तिआरों से भरी पड़ी है, इसलिए शाइ'र नए इस्ति'आरे तलाश करता है और नए पुराने दोनों तरह के इस्तिआरों को मज़ीद ज़ोर भी देता है।

    ‘मीर’ ने ये अ'मल मुनासिबत के ज़रीए’ अंजाम दिया। मुनासिबत-ए-अल्फ़ाज़, या'नी अल्फ़ाज़ में बाहम मुनासिबत होना या अल्फ़ाज़ को मअ'नी (या'नी ख़याल) से मुनासिबत होना, रिआ'यत-ए-लफ़्ज़ी से पैदा होती है या रिआ'यत-ए-मा'नवी से। रिआ'यत-ए-मा'नवी अक्सर बराह-ए-रस्त इस्ति'आरा होती है। रिआ'यत-ए-लफ़्ज़ी इस्ति'आरे का इल्तिबास पैदा करती है (मलहूज़ रहे कि इस्ति'आरे का बुनियादी अ'मल मुशाबहतों की दरियाफ़्त है।)

    (3) रिआ'यत चूँकि तलाज़ुम-ए-ख़याल पैदा करती है, इसलिए जब वो ख़ालिस इस्ति'आरा या तशबीह या मुहावरे या ज़र्बुल-मसल के साथ आती है तो दूसरा इस्ति'आरा क़ाएम होता है क्योंकि तशबीह भी इस्ति'आरे की तरफ़ इशारा करती है। मुहावरा तो अस्लन इस्ति'आरा होता ही है और ज़र्बुल-मसल इस्ति'आरे की क़ाइम मक़ाम होती है। रिआ'यत के ज़रीए’ मुहावरा और ज़र्बुल-मसल में नए इम्कानात भी पैदा होते हैं।

    (4) ‘मीर’ ने रिआ'यत को अक्सर इस तरह भी बरता है कि उसकी वज्ह से शे'र में कौल-ए-मुहाल या तंज़ या'नी Irony की जिहत भी पैदा हो जाती है।

    (5) मुनासिबत पैदा करने की ख़ातिर ‘मीर’ ने रिआ'यत को कभी-कभी यक-सत्ही अंदाज़ में भी बरता है कि शे'र में कोई नुदरत तो पैदा हो जाएगी। ‘मीर’ के यहाँ मुनासिबत का इल्तिज़ाम इस कसरत से है कि वो ‘ग़ालिब’ और मीर ‘अनीस’ के साथ उर्दू में रिआ'यतों के सबसे बड़े शाइ'र हैं। ‘मीर’ की रिआ'यतें मुख़्तलिफ़ सनाए’-ए-लफ़्ज़ी-ओ-मा'नवी का अहाता करती हैं। मुनासिबत की कसरत ने ‘मीर’ की ज़बान को बे-इंतिहा चोंचाल, पुर-लुत्फ़, कसीर-उल-इज़हार, ताज़ा-कार और तह-दार बना दिया है। ‘मीर’ के किसी मुआ'सिर को ये इम्तियाज़ नसीब नहीं।

    ऊपर की गुफ़्तगू में जिन नज़रियाती मबाहिस और उसूलों की तरफ़ इशारा है, उनका अ'मली इदराक ‘मीर’ और उनके मुआ'सिरीन को ज़रूर रहा होगा। हमारे ज़माने में मबाहिस और उसूल बड़ी हद तक भुला दिए गए।

    इस फ़रो-गुज़ाश्त से नुक़्सान ‘मीर’ का नहीं हुआ बल्कि हमारा हुआ क्योंकि हम ‘मीर’ की तहसीन-ओ-तअ'य्युन-ए-क़द्र के बा'ज़ अहम-तरीन पहलुओं से बे-बहरा रह गए। मैंने शरह में जा-ब-जा इन मुनासिबतों और रिआ'यतों की तशरीह की है जिनसे ‘मीर’ का कलाम जगमगा रहा है। यहाँ महज़ नमूने के तौर पर एक-दो मिसालें पेश करता हूँ। अशआ'र की तशरीह करूँगा, सिर्फ़ इस्ति'आरे और मुनासिबत-ए-लफ़्ज़ी के Interaction के नतीजे में उन उसूलों की कार-फ़रमाई दिखाऊँगा, जो मैंने ऊपर बयान किए हैं।

    मलहूज़ रहे कि ये ग़ज़ल बड़ी हद तक उस उस्लूब का नमूना है, जिसे हम ला-इल्मी की बिना पर रोज़मर्रा का उस्लूब कहते हैं। ये ज़बान इस हद तक तो रोज़मर्रा है कि इसमें तसव्वुरात नहीं हैं लेकिन अगर ये महज़ रोज़मर्रा होती तो इसमें शाइ'री बहुत कम होती, इज़हार-ए-ख़याल ज़ियादा होता। ये ज़बान शाइ'री की ज़बान इसलिए बन गई है कि ‘मीर’ ने उन उसूलों पर अ'मल किया है, जो मैंने ऊपर बयान किए हैं, दीवान-ए-सिवुम की ग़ज़ल है। मैं चंद अशआ'र पेश करता हूँ,

    दस्त-ओ-दामन जेब-ओ-आग़ोश अपने इस लाएक़ थे

    फूल मैं इस बाग़-ए-ख़ूबी से जो लूँ तो लूँ कहाँ

    दूसरे मिसरे में मा'मूली सा इस्ति'आरा है। दुनिया को “बाग़-ए-ख़ूबी” कहा है और मा'शूक़ों या हसीनों को “फूल” लेकिन “ख़ूबी” के मअ'नी “मा'शूक़ी” भी होते हैं। इसलिए “बाग़-ए-ख़ूबी” दुनिया के बजाए किसी महफ़िल या जगह का इस्ति'आरा भी बन जाता है फिर चूँकि मा'शूक़ के जिस्म को भी “बाग़” कहते हैं और उसके जिस्म के मुख़्तलिफ़ हिस्सों को “गुल-ए-हुस्न” या “फूल” कहा जाता है, इसलिए बाग़-ए-ख़ूबी महज़ मा'शूक़ का इस्ति'आरा भी बन जाता है।

    अब फूल के मअ'नी मा'शूक़ नहीं बल्कि मा'शूक़ के जिस्म का कोई हिस्सा या उसके जिस्म के किसी हिस्से का बोसा भी हो सकते हैं। इस तरह बाग़-ए-ख़ूबी और फूल एक मा'मूली इस्ति'आरा नहीं बल्कि एक पेचीदा इस्ति'आरा बन जाते हैं जो एक शख़्स या एक महल या एक आ'लम के मफ़हूम को मुहीत हैं।

    पहले मिसरे में फूल की मुनासिबत से “दस्त-ओ-दामन” में मुनासिबत ज़ाहिर है कि दामन को हाथ से पकड़ते हैं। इसी तरह “जेब-ओ-आग़ोश” में भी मुनासिबत ज़ाहिर है क्योंकि गिरेबान सीने पर होता है और आग़ोश में लेने के मअ'नी हैं सीने से लगाकर भींचना, फिर दस्त और आग़ोश में भी मुनासिबत है क्योंकि आग़ोश में लेते वक़्त हाथों को काम में लाते हैं लिहाज़ा ये जगहें जो फूल रखने के लिए मुनासिब हैं, यूँही नहीं जमा कर दी गई हैं, इनमें आपस में भी मुनासिबत है।

    अब इस्ति'आरा देखिए। दस्त-ओ-दामन, जेब-ओ-आग़ोश मुतकल्लिम की सलाहियत का इस्ति'आरा है। ये सलाहियत रुहानी भी हो सकती है, अख़्लाक़ी भी और जिस्मानी भी। दस्त और आग़ोश का तअ'ल्लुक़ बराह-ए-रस्त जिस्म से है। इसलिए शे'र में जिंसी तलाज़िमा क़ाएम होता है और दूसरे मिसरे का बाग़-ए-ख़ूबी उस दुनिया का इस्ति'आरा नज़र आता है, जिसमें मा'शूक़ भरे पड़े हैं और “फूल” मा'शूक़ का इस्ति'आरा नज़र आता है या बाग़-ए-ख़ूबी मा'शूक़ का जिस्म और फूल उसके जिस्म का हिस्सा या जिस्म के हिस्से से लम्स या बग़ल-गीरी का इस्ति'आरा दिखाई देता है लिहाज़ा दोनों मिसरों में जिंसी मुनासिबत मुस्तहकम हो जाती है।

    ये भी मुम्किन है कि “बाग़-ए-ख़ूबी” से मुराद रुहानी तजुर्बात या मा'रिफ़त हो और फूल से मुराद मा'रिफ़त का फूल हो। दामन और जेब के अल्फ़ाज़ इन मअ'नी से मुग़ाइर नहीं हैं क्योंकि बुनियादी लफ़्ज़ “फूल” है जो ब-ज़ाहिर “बाग़-ए-ख़ूबी” से भी कम पुर-ज़ोर है, लेकिन ये बुनियादी लफ़्ज़ इसलिए है कि पहला मिसरा’ तमाम-ओ-कमाल उसकी मुनासिबत से कहा गया है।

    इस मुनासिबत का एक फ़ाएदा और हुआ कि पहले मिसरे में ठोस और मरई चीज़ों का ज़िक्र है या'नी “दस्त-ओ-दामन, जेब-ओ-आग़ोश” इस वज्ह से जिंसी तलाज़िमा तो मुस्तहकम हुआ ही है। शे'र में तजरीद की जगह तज्सीम गई है। अगर मुनासिबत का ख़याल होता तो दिल, जान, रूह वग़ैरह क़िस्म के अल्फ़ाज़ रख सकते थे। फिर शे'र तजरीदी हो जाता और हाथ, दामन, आग़ोश में भर लेने के इंसानी और फ़ौरी अ'मल की गुंजाइश रहती। इस वक़्त इंसानी और फ़ौरी तअ'स्सुर की बिना पर शौक़ की Urgency और Eagerness बहुत ख़ूबी से गई है।

    अगर आँख वग़ैरह का लफ़्ज़ रखते तो लफ़्ज़ के जिंसी तलाज़िमे से हाथ धोना पड़ता। अब लफ़्ज़ ''कहाँ” पर ग़ौर कीजिए। ये दो मअ'नी रखता है “कहाँ” ब-मअ'नी “किस जगह” या'नी हाथ, जेब, दामन, आग़ोश जो जगहें मुनासिब थीं वो तो इस लाएक़ निकलीं। अब मैं इन फूलों को किस जगह लूँ।

    “कहाँ” के दूसरे मअ'नी इस्तिफ़हाम-ए-इन्कारी के हैं कि मैं फूल को नहीं ले सकता। अब फूल के इबहाम का एक और पहलू देखिए। कई जगहों का ज़िक्र करने से ये इबहाम पैदा होता है कि फूल सीग़ा-ए-वाहिद में नहीं बल्कि सीग़ा-ए-जमा’ में है या'नी मुतकल्लिम बहुत से फूलों का ख़्वाहाँ है और एक को भी हासिल करने का अहल नहीं है।

    सैर की रंगीं बयाज़-ए-बाग़ की हमने बहुत

    सर्व का मिसरा’ कहाँ वो कामत-ए-मौज़ूँ कहाँ

    सर्व को कामत-ए-यार से तशबीह देते हैं क्योंकि कामत-ए-यार को मौज़ूँ भी कहते हैं और मिसरा’ भी “मौज़ूँ” कहलाता है, इसलिए सर्व के लिए मिसरे’ का इस्ति'आरा रखा है, जो बहुत नादिर नहीं लेकिन दिलचस्प है। अब यहाँ से मुनासिबत का खेल शुरू’ होता है।

    सर्व चूँकि मिसरा’ है और सर्व बाग़ में होता है, इसलिए बाग़ को “बयाज़” कहा और चूँकि मिसरे की एक सिफ़त रंगीन भी होती है और बाग़ भी रंगों से भरा होता है, इसलिए बाग़ को रंगीं “बयाज़” कहा। क्योंकि ये मुनासिबत दोनों तरफ़ जाती है, लेकिन “बयाज़” के मअ'नी “सफ़ेदी” भी होते हैं, इस तरह रंगीन बयाज़ में क़ौल-ए-मुहाल पैदा हो गया (या'नी रंगीन सफ़ेदी) और आगे देखिए। बाग़ की मुनासिबत से “सैर” है जो सामने की मुनासिबत है। लेकिन सर्व को पा-ब-ज़ंजीर कहते हैं, इसलिए पा-ब-ज़ंजीर को देखने के लिए सैर करने जाने में एक लतीफ़ तंज़िया तनाव भी है।

    “सैर” और “सर्व” एक ही ख़ानदान के लफ़्ज़ मा'लूम होते हैं। हालाँकि ऐसा है नहीं, लेकिन इस शुबहे की बिना पर सर्व के सैर करने में एक नया लुत्फ़ महसूस होता है। मुनासिबत का लिहाज़ होता तो सैर की जगह कोई और लफ़्ज़ मसलन “गश्त” रख देते तो कोई हर्ज महसूस होता। फिर मा'शूक़ को सर्व-ए-रवाँ भी कहते हैं। इस तरह “सैर” और मा'शूक़ के कामत-ए-मौज़ूँ में भी एक मुनासिबत पैदा हो गई। “सैर” और “कहाँ” में मुनासिबत ज़ाहिर है,

    बाव के घोड़े पे थे इस बाग़ के साकिन सवार

    अब कहाँ फ़रहाद-ओ-शीरीं ख़ुसरव-ए-गुलगूँ कहाँ

    बाव के घोड़े पे सवार होना के मअ'नी हैं “बहुत मग़रूर होना।” ‘मीर’ ने मुहावरे को दुबारा इस्ति'आरा बना दिया है क्योंकि इस शे'र में इस मुहावरे के मअ'नी ये भी हैं कि इस बाग़ के रहने वाले बहुत जल्दी में थे। “साकिन” के मअ'नी हैं रहने वाला लेकिन ठहरे हुए को भी “साकिन” कहते हैं।

    इस तरह “साकिन” और “सवार” और ख़ासकर उस सवार में जो हवा के घोड़े पर भी सवार हो, कौल-ए-मुहाल का लुत्फ़ पैदा कर रहे हैं (साकिन सवार) “साकिन” ब-मअ'नी “रहने वाला” में एक तंज़िया तनाव भी है। क्योंकि अगर वो लोग “रहने वाले” (ब-मअ'नी ठहरने वाले, क़ाएम रहने वाले) थे, तो फिर इतनी जल्दी ग़ाइब कैसे हो गए? तंज़िया तनाव की एक जिहत ये भी है कि वो लोग थे तो रहने वाले, लेकिन अ'जब रहने वाले थे कि हवा के घोड़े पर सवार थे।

    फ़रहाद-ओ-शीरीं में मुनासिबत ज़ाहिर है लेकिन घोड़े, शीरीं और गुलगूँ में भी मुनासिबत है। क्योंकि शीरीं के घोड़े का नाम “गुलगूँ” था। बाग़ और गुलगूँ की मुनासिबत ज़ाहिर है। ख़ुसरो और गुलगूँ में भी मुनासिबत है क्योंकि बादशाह के हाथ में अक्सर फूल दिखाया जाता है, जो तरी-ओ-शादाबी और लताफ़त की अ'लामत है।

    बादशाह के चेहरे पर इ'ज़्ज़त और वक़ार की सुर्ख़ी भी होती है। लिहाज़ा “गुलगूँ' यूँ भी मुनासिब है। लेकिन फ़रहाद-ओ-शीरीं को एक तरफ़ रखने में भी एक तंज़िया जिहत है। “अब कहाँ फ़रहाद-ओ-शीरीं?” या'नी फ़रहाद-ओ-शीरीं जहाँ भी हैं, एक साथ हैं। “ख़ुसरव-ए-गुलगूँ कहाँ?” या'नी ख़ुसरो उनसे अलग है। “फ़रहाद-ओ-शीरीं” को एक नहवी इकाई और “ख़ुसरव-ए-गुलगूँ” को दूसरी नहवी इकाई के तौर पर बाँधने की वज्ह से मअ'नी की ये नई शक्ल पैदा हो गई।

    इन मुख़्तसर मिसालों से ये बात वाज़ेह हो गई कि ‘मीर’ की कसीर-उल-मा'नवियत और तह-दारी और ज़बान का नयापन इस्ति'आरे और रिआ'यत के बग़ैर मुम्किन होता और ख़ाली-ख़ाली रोज़मर्रे में इन सिफ़ात का गुज़र नहीं। ‘मीर’ के उस्लूब को सादा और सरीअ’-उल-फ़हम कहना और उनके इबहाम, उनकी पेचीदगी, कसीर-उल-मा'नवियत और ग़ैर-मा'मूली ज़ोर-ए-बयान को नजर-अंदाज़ करना सिर्फ़ ‘मीर’ बल्कि तमाम उर्दू शाइ'री के साथ बड़ी ज़्यादती है।

    जो शे'र मैंने ऊपर दर्ज किए उनमें कोई चीज़ ऐसी नहीं, जिसको मज़्मून के लिहाज़ से ग़ैर-मा'मूली कहा जाए। ‘मीर’ की सारी आफ़ाक़ियत इसी में है कि वो आ'म बातों को भी इन्किशाफ़ का दर्जा बख़्श देते हैं और ये उनके उस्लूब का करिश्मा है।

    ‘मीर’ की काएनाती अलम-नाकी की और ज़िंदगी के दर्द-ओ-ग़म में ग़ोता लगाने और इंसानी अ'ज़्मत और शश-जिहत के इसरार का सुराग़ लगाने की ता'रीफ़ में सफ़्हे के सफ़्हे सियाह करने वाले ये भूल जाते हैं कि बात गहरी हो या हल्की, उसे शाइ'री बनने के लिए कुछ शर्तें दरकार होती हैं।

    फ़लसफ़ियाना मज़ामीन में थोड़ा बहुत ज़ोर तो मियाँ फ़ानी भी पैदा कर लेते हैं। बड़ा शाइ'र वो है कि जो मा'मूली-मा'मूली हक़ीक़तों को भी इस तरह पेश करे कि एक हक़ीक़त के चार चार पहलू ब-यक-वक़्त नज़र आएँ और शे'र के अल्फ़ाज़ आपस में इस तरह गुथे हुए हों कि जैसे उनमें बर्क़ी मक़नातीसी दाएरा Electro Magnetic Field क़ाएम हो गया हो।

    इस्ति'आरे और मुनासिबत के उसूलों की इस मुख़्तसर वज़ाहत के बा'द में ‘मीर’ की ज़बान की बा'ज़ दूसरी ख़ुसूसियात की तरफ़ मुराजअत करता हूँ।

    (6) ‘मीर’ ने फ़ारसी के नादिर अल्फ़ाज़ और फ़िक़रे और निसबतन कम-मानूस अल्फ़ाज़ और फ़िक़रे ब-कसरत इस्ति'माल किए हैं। उन्होंने अ'रबी के ग़रीब-उल-इस्ति'माल अल्फ़ाज़ और तराकीब और अ'रबी के ऐसे अल्फ़ाज़ जो ग़ज़ल में शाज़ ही दिखाई देते हैं, वो भी ख़ूब इस्ति'माल किए हैं। अ'रबी अल्फ़ाज़-ओ-तराकीब के इस्ति'माल का ये फ़न ‘ग़ालिब’ भी ठीक से बरत सके।

    ‘मीर’ का आ'लम ये है कि उनकी कम ग़ज़लें ऐसी होंगी, जिनमें कम से कम एक नादिर फ़िक़रा या लफ़्ज़ या इस्तिलाह और छः सात निसबतन कम-मानूस अल्फ़ाज़ या फ़िक़रे इस्ति'माल हुए हों। अ'रबी के फ़िक़रे और तराकीब ‘इक़बाल’ के बा'द ‘मीर’ के यहाँ सब शाइ'रों से ज़ियादा निकलेंगी।

    ‘ज़ौक़’ और ‘मोमिन’ को भी अ'रबी से शग़फ़ था। ख़ासकर ‘ज़ौक़’ ने क़ुरआन-ओ-हदीस से ख़ासा इस्तिफ़ादा किया है। इन दोनों की अ'रबियत (शाइ'री में इस्ति'माल की हद तक) ‘ग़ालिब’ से ज़ियादा लेकिन ‘मीर’ से कम थी। ‘मीर’ के कलाम में रवानी इस क़दर है कि कोई लफ़्ज़ या फ़िक़रा बे-जगह नहीं मा'लूम होता। ये ख़ासियत ‘ज़ौक़’ में भी है, लेकिन ‘मीर’ के यहाँ अ'रबी इस तरह खप गई है कि अक्सर लोगों को उसका एहसास भी नहीं होता। मैं चंद मिसालें इधर-उधर से नक़्ल करता हूँ,

    ऐसा मौता है ज़िंदा-ए-जावेद

    रफ़्ता-ए-यार था तब आई है

    (दीवान-ए-दोव्वुम)

    “मौता” ब-मअ'नी “मरने वाला” ये लफ़्ज़ इस क़दर नादिर है कि अच्छे-अच्छों ने इसको “मोती” पढ़ा है।

    कुछ कम है होलनाकी-ए-सहरा-ए-आ'शिक़ी

    शे'रों को इस जगह पर होता है क़ुशा'रीरा

    (दीवान-ए-दोव्वुम)

    “क़ुशा'रीरा” ‘मीर’ को इतना पसंद था (और ये लफ़्ज़ है भी ग़ज़ब का) कि इसे दीवान-ए-दुवुम में एक-बार और “शिकार-नामा-ए-दुवुम” में भी इस्ति'माल किया है,

    वस्ल की दौलत गई हूँ तंग फ़ुक़्र-ए-हिज्र में

    या इलाही फ़ज़्ल कर ये हूर-ए-बा'द-उल-कौर है

    (दीवान-ए-पंजुम)

    “हूर-ए-बा'द-उल-कौर” ब-मअ'नी “ज़्यादती” के बा'द “कमी”, इसका जवाब भी ‘मीर’ ही के पास है।

    क्योंकि तू मेरी आँख से हो दिल तलक गया

    ये बहर-ए-मौज-ख़ेज़ तो उ'स्र-उल-उ'बूर था

    सरिश्क-ए-सुर्ख़ को जाता हूँ जो पिए हर-दम

    लहू का प्यासा अ'लल-इत्तिसाल अपना हूँ

    (दीवान-ए-अव्वल)

    मुनइ'म का घर तुम्हादी-ए-अय्याम में बना

    सो आप एक रात ही वाँ मेहमाँ रहा

    (दीवान-ए-शिशुम)

    शैख़ हो दुश्मन-ए-ज़न-ए-रक़्क़ास

    क्यों अल-क़ास ला-योहिब अल-क़ास

    (दीवान-ए-अव्वल)

    शर्म आती है पौंचते ऊधर

    ख़त हुआ शौक़ से तरस्सुल सा

    (दीवान-ए-दोव्वुम)

    “तरस्सुल” के मअ'नी आ'म लुगात में नहीं मिलते। मुंदरजा-ज़ेल अल्फ़ाज़ आ'म तौर पर ग़ज़ल के बाहर समझे जाते हैं,

    (इंतिफ़ा)

    कुछ ज़रर आएद हुआ मेरी ही ओर

    वर्ना इससे सबको पहुँचा इंतिफ़ा

    (दीवान-ए-सेव्वुम)

    (मुस्तहील)

    हैं मुस्तहील ख़ाक से अज्ज़ा-ए-नौ-ख़ताँ

    क्या सहल है ज़मीं से निकलना नबात का

    (मुस्तहलक)

    मुस्तहलक उसके इ'श्क़ के जानें हैं क़द्र-ए-मर्ग

    ईसा-ओ-ख़िज़्र को है मज़ा कब वफ़ात का

    (दीवान-ए-दोव्वुम)

    (लैत-ओ-ल'अल्ल)

    जान तो याँ है गर्म-ए-रफ़्तन लैत-ओ-ल'अल्ल वाँ वैसी है

    क्या क्या मुझ को जुनूँ आता है उस लड़के के बहानों पर

    (दीवान-ए-दोव्वुम)

    अ'लावा-बरीं ‘मीर’ ने अ'रबी के अल्फ़ाज़ अ'रबी मअ'नी में इस्ति'माल किए हैं। मसलन, ज़ख़्म-ए-ग़ाइर (गहरा ज़ख़्म), तजरीद (अकेलापन), तफ़र्रुज (खुलना), सुल्ह (मुआ'हदा), किफ़ायत (काफ़ी), समद (बे-नियाज़। ये लफ़्ज़ उर्दू में सिर्फ़ अल्लाह के नाम के तौर पर मुस्ता'मल है), मुंसल (मुसलसल, बे-वक़्फ़ा), मुतअ'स्सिर (असर करने वाला), वग़ैरह।

    अ'रबी अल्फ़ाज़ और फ़िक़रों के गिराँ मा'लूम होने की एक वज्ह शायद ये है कि ‘मीर’ ने ऐसे अल्फ़ाज़ को अक्सर ख़ुश-तबई’ के माहौल में सर्फ़ किया है। मैंने सिर्फ़ चंद शे'र नक़्ल किए हैं और वो भी ऐसे जिनमें अ'रबी लफ़्ज़ या फ़िक़रा बहुत ही ना-मानूस क़िस्म का है। वर्ना मुतवस्सित दर्जा के ना-मानूस अ'रबी अल्फ़ाज़ या ऐसे अ'रबी अल्फ़ाज़ जो आ'म तौर पर ग़ज़ल में इस्ति'माल नहीं होते, ‘मीर’ के यहाँ कसीर ता'दाद में हैं। फ़ारसी अल्फ़ाज़ और फ़िक़रों की ता'दाद अ'रबी से कई गुना ज़ियादा है। उनमें से बा'ज़ तो इस क़दर नादिर हैं कि पहली नज़र में वो मोहमल मा'लूम होते हैं। फ़ारसी की मिसालें मैं यहाँ दर्ज नहीं कर रहा हूँ क्योंकि बहुत से अशआ'र शरह या इंतिख़ाब में गए हैं,

    (7) फ़ारसी से इस शग़फ़ के बा-वजूद ‘मीर’ के कलाम की आ'म फ़िज़ा ‘ग़ालिब’ से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ है। इसकी वज्ह ये है कि ‘ग़ालिब’ का तख़य्युल बहुत तजरीदी है। उनके अक्सर फ़ारसी अल्फ़ाज़-ओ-तराकीब तजरीदी और ग़ैर-मरई तसव्वुरात-ओ-अश्या का इज़हार करते हैं। इसलिए ‘ग़ालिब’ की फ़िज़ा बहुत अजनबी मा'लूम होती है।

    बा-वजूद-ए-यक-जहाँ हंगामा-पैदाई नहीं

    इस तरह का मिसरा’ तो ‘मीर’ के यहाँ भी मिल जाएगा क्योंकि “यक-जहाँ हंगामा” और “पैदाई” में तजरीद से ज़ियादा तज्सीम का रंग है। मसलन ‘मीर’ का मिसरा’ है,

    या दर-ए-बाज़-ए-बयाबाँ या दर-ए-मय-ख़ाना था

    इसमें ‘ग़ालिब’ के मिसरे की कैफ़ियत है, लेकिन ‘ग़ालिब’ का दूसरा मिसरा...’

    हैं चराग़ान-ए-शबिस्तान-ए-दिल-ए-परवाना हम

    सरासर तजरीदी है। क्योंकि पहले तो परवाने का दिल फ़र्ज़ कीजिए, जो ग़ैर-मरई है। फिर उसका दिल-ए-शबिस्ताँ तसव्वुर में लाइए जो ग़ैर-मरई है, फिर उस शबिस्ताँ में चराग़ाँ को तसव्वुर में लाइए, जो और भी ज़ियादा ख़याली है। इस्ति'आरे की नुदरत और पैकर की बसरी चमक ने शे'र को ग़ैर-मा'मूली तौर पर हसीन बना दिया है वर्ना इसके अज्ज़ा को अलग-अलग कीजिए और फिर उनकी तजरीद पर ग़ौर कीजिए तो तअ'ज्जुब नहीं कि शे'र बिल्कुल ग़ैर-हक़ीक़ी दिखाई दे।

    ‘ग़ालिब’ के यहाँ अक्सर फ़ारसियत इस दर्जे की या इससे भी आगे की है क्योंकि इस शे'र में लिसानी उलझाव नहीं है जब कि ‘ग़ालिब’ अक्सर लिसानी उलझाव पैदा कर देते हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि ‘मीर’ इस तरह का तअ'स्सुर पैदा करने से बिल्कुल आ'री हों जो ‘ग़ालिब’ का ख़ास्सा है। मसलन दीवान-ए-अव्वल का जो मिसरा’ जो मैंने ऊपर नक़्ल क्या, उस ग़ज़ल का एक शे'र है,

    शब फ़रोग़-ए-हुस्न का बाइ'स हुआ था हुस्न-ए-दोस्त

    शम्अ’ का जल्वा ग़ुबार-ए-दीदा-ए-परवाना था

    इस शे'र को ‘ग़ालिब’ के दीवान में मिला दीजिए तो किसी को शक होगा ये ‘ग़ालिब’ का शे'र नहीं है। परवाने की आँख ग़ैर-मरई है फिर उसमें ग़ुबार फ़र्ज़ कीजिए जो ख़याली है, फिर शम्अ’ के जल्वे को इस ग़ुबार से ता'बीर कीजिए, जो तसव्वुराती है।

    लिहाज़ा ‘ग़ालिब’ का तजरीदी रंग ‘मीर’ के यहाँ नापैद नहीं। अगर ‘ग़ालिब’ पर बेदिल का असर होता तो हम कह सकते थे कि ‘मीर’ के तजरीदी अशआ'र से भी ‘ग़ालिब’ ने इस्तिफ़ादा किया होगा, लेकिन चूँकि आ'म तौर पर ‘मीर’ का तख़य्युल ठोस और मरई अश्या से खेलता है, इसलिए उनकी फ़ारसियत ‘ग़ालिब’ से मुख़्तलिफ़ तरह की है। ये बात मलहूज़ रहे कि उर्दू के बेशतर तसव्वुराती और तजरीदी अल्फ़ाज़ फ़ारसी-उल-अस्ल हैं। इसलिए ‘ग़ालिब’ की फ़ारसियत उनकी तजरीदियत के लिए सोने पर सुहागा बन गई।

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