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इंसानी तअ'ल्लुक़ात की शाइ'री

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

इंसानी तअ'ल्लुक़ात की शाइ'री

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

MORE BYशम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

     

    ‘मीर’ की ज़बान के इस मुख़्तसर तज्ज़िये और ‘ग़ालिब’ के साथ मुवाज़ने से ये बात ज़ाहिर हो जाती है कि ‘मीर’ और ‘ग़ालिब’ में इश्तिराक-ए-लिसान है और नहीं भी। इस्ति'माल-ए-ज़बान से हट कर देखिए तो भी इश्तिराक के बा'ज़ पहलू नज़र आते हैं। ऊपर मैंने अ'र्ज़ किया है कि ‘मीर’ के बा'द ‘ग़ालिब’ हमारे सबसे बड़े इन्फ़िरादियत-परस्त हैं और इन दोनों की इन्फ़िरादियत-परस्ती इनके कलाम से नुमायाँ होने वाले आ'शिक़ के किरदार में साफ़ नज़र आती है।

    मुहम्मद हसन अ'सकरी ने लिखा है कि फ़िराक़ साहब का एक बड़ा कमाल ये भी है कि उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को एक नया आ'शिक़ और नया मा'शूक़ दिया। अ'सकरी साहब के ख़याल में फ़िराक़ के आ'शिक़ की नुमायाँ सिफ़त ‘वक़ार’ है। आगे वो लिखते हैं कि ‘ग़ालिब’ के यहाँ भी एक तरह का वक़ार है, लेकिन उसमें नर्गिसिय्यत और अनानियत है और ‘मीर’ के यहाँ भी एक नौ' का वक़ार है लेकिन उसमें ख़ुद-सुपुर्दगी ज़ियादा है। अ'सकरी साहब फ़रमाते हैं,

    “‘मीर’ के यहाँ सुपुर्दगी बहुत ज़ियादा है लेकिन वक़ार भी हाथ से नहीं जाने पाता... ‘मीर’ एक ऐसी दुनिया में बस्ते हैं जहाँ क़द्र-ए-अव्वलीं इंसानियत है... ये आ'शिक़ महबूब से मुहब्बत का तालिब नहीं, बस इतना चाहता है कि उसके साथ इंसानों जैसा बरताव किया जाए, उसके आ'लिम-ओ-फ़ाज़िल होने की वज्ह से नहीं, बल्कि महज़ इंसान होने की वज्ह से... वो इंसान इस क़दर है कि ज़हानत लाज़िमी चीज़ नहीं रहती। चुनाँचे उसका वक़ार एक ख़ुद्दार इंसान का वक़ार है।”

    इस बात से क़त’-ए-नज़र कि फ़िराक़ साहब के आ'शिक़ में कोई वक़ार या ज़हानत है कि नहीं, अ'सकरी साहब का ये क़ौल भी महल्ल-ए-नज़र है कि ‘मीर’ का आ'शिक़ अपने मा'शूक़ से मुहब्बत का तालिब नहीं, सिर्फ़ इंसानी बरताव का तालिब है और उसमें वो वक़ार है जो ख़ुद्दार इंसानों में होता है। वाक़िआ’ तो ये है कि ‘मीर’ का आ'शिक़ अपने मा'शूक़ से सिर्फ़ अफ़लातूनी मुहब्बत नहीं बल्कि हम-बिसतरी का भी तालिब है। वो हम-बिस्तर होता भी है और हिज्र के आ'लम में हम-बिसतरी के उन लम्हात को याद भी करता है।

    ये बात सही है कि वो इंसान इस क़दर है कि उसके लिए ज़हानत लाज़िमी चीज़ नहीं रहती। लेकिन इसी इंसानपन के बाइ'स वो मा'शूक़ से हाता-पाई, गाली-गलौज और तशनीअ’ भी कर लेता है और हवस-नाकी का भी दा'वा करता है। मगर इन बातों की बिना पर उसके किरदार में कोई इन्फ़िरादियत नहीं साबित की जा सकती। ये बातें तो अठारहवीं सदी की ग़ज़ल का ख़ास्सा हैं और आबरू से लेकर ‘मुसहफ़ी’ तक आ'म हैं। दर्द तक के यहाँ इसकी झलक मिल जाती है। रहा सवाल वक़ार का, तो जिस चीज़ को अ'सकरी साहब ‘ग़ालिब’ के आ'शिक़ की अनानियत कहते हैं, उसी को हम आप उसका वक़ार भी कह सकते हैं। अ'लावा-बरीं, जिस तरह का वक़ार अ'सकरी साहब ने ‘मीर’ के यहाँ ढूँढा है, वो क़ाएम के यहाँ मौजूद है। सिर्फ़ एक, और वो भी बहुत मशहूर शे'र सुन लीजिए,

    गो हमसे तुम मिले न तो हम भी न मर गए
    कहने को रह गया ये सुख़न दिन गुज़र गए

    अ'सकरी साहब की नुक्ता-रस निगाह ने ये बात तो दरियाफ़्त कर ली थी कि उर्दू शाइ'री में आ'शिक़ का एक रिवायती किरदार है और ‘मीर’-ओ-‘ग़ालिब’ के यहाँ इस रिवायती किरदार से मुख़्तलिफ़ चीज़ मिलती है। इस चीज़ को उन्होंने ‘मीर’-ओ-‘ग़ालिब’ की इन्फ़िरादियत-परस्ती पर महमूल किया था और बजा महमूल किया था। लेकिन इस नए किरदार के ख़द्द-ओ-ख़ाल मुतअ'य्यन करने में उन्होंने कुछ जल्दी फ़ैसला कर लिया, शायद इसलिए कि उन्हें फ़िराक़ साहब के यहाँ एक तीसरी ही तरह की इन्फ़िरादियत दिखानी थी। फ़िराक़ के यहाँ आ'शिक़ की इन्फ़िरादियत का मुख़्तसर तज्ज़िया मैं कहीं और कर चुका हूँ।

    ऊपर भी मैंने इशारा किया है कि ‘मीर’ से फ़िराक़ साहब ने कुछ ज़ियादा हासिल नहीं किया। ‘मीर’ के आ'शिक़ की इन्फ़िरादियत दर-अस्ल ये है कि वो रिवायती आ'शिक़ की तमाम सिफ़ात रखता है, लेकिन हम उससे एक इंसान की तरह मिलते हैं, किसी लफ़्ज़ी रुसूमियात (verbal convention) के तौर पर नहीं। ये इंसान हमें अपनी ही दुनिया का बाशिंदा मा'लूम होता है, जब कि रुसूमियाती आ'शिक़ के बारे में हम जानते हैं, वो बिल्कुल ख़याली और मिसाली होता है।

    जैसा कि मैं ऊपर अ'र्ज़ कर चुका हूँ, हमारी दुनिया का ये इंसान मुहम्मद तक़ी ‘मीर’ नहीं है और न ही ये किसी अफ़साने (fiction) का किरदार है कि इसके अफ़आ'ल के अ'वामिल (motivations) तलाश किए जाएँ, उसकी नफ़सियात का तज्ज़िया करने में हिन्दी की चिंदी की जाए, उसके तज़ादात से बहस की जाए, उसकी ख़ूबियाँ वाज़ेह की जाएँ, उसकी ख़राबियों पर मुँह बनाया जाए या'नी फ़िक्शन के किरदार को हम (और फ़िक्शन-निगार ख़ुद) इसी तरह बरतते हैं जिस तरह हम हक़ीक़ी दुनिया के किसी शख़्स को बरतते हैं।

    फ़िक्शन के किरदार से हम इख़्तिलाफ़ करते हैं, इत्तिफ़ाक़ करते हैं, नफ़रत करते हैं, मुहब्बत करते हैं, वग़ैरह। और सबसे बड़ी बात वो जो मैं पहले ही कह चुका हूँ कि हम उसके अ'वामिल-अफ़आ'ल तलाश करते हैं। उसने ऐसा क्यों किया? उसने वैसा क्यों न किया? फ़िक्शन (ब-शुमूल ड्रामा) के किरदार की तन्क़ीद का बुनियादी सवाल यहीं से शुरू’ होता है।

    ‘मीर’ के आ'शिक़ से हम इस तरह का कोई मुआ'मला नहीं रखते बल्कि वो इन मुआ'मलात से बाला-तर और मावरा है या'नी उसकी रुसूमियाती हैसियत मुसल्लम है और इसके बा-वजूद हम उसको आ'म इंसान की सत्ह पर देखते हैं और अस्ली इंसान की तरह उसका तसव्वुर करते हैं। ‘मीर’ की यही ज़मीनी सिफ़त उनके उस्लूब से तजरीदियत कम कर देती है और उनकी शाइ'री को वाक़े’ की सत्ह पर ले आती है।

    यही ज़मीनी सिफ़त उनके इस्तिआरों और पैकरों में ज़ाहिर होती है जो महसूसात से ममलू हैं। यही ज़मीनी सिफ़त ‘मीर’ के इ'श्क़ में जिंसियत और उनकी जिंसियत में अमरद-परस्ती बन कर ज़ाहिर होती है। यही ज़मीनी सिफ़त उन्हें मा'शूक़ से फक्कड़पन करने, अपने ऊपर अपना मज़ाक़ उड़ाने, मा'शूक़ पर तंज़ करने का अंदाज़ सिखाती है।

    इसी सिफ़त की बिना पर ‘मीर’ की ज़बान में फ़ारसी और प्राकृत का ग़ैर-मा'मूली तवाज़ुन नज़र आता है। इसी सिफ़त की बिना पर वो दुनिया और दुनिया के मुआ'मलात में इस क़दर जज़्ब हैं कि उनका सूफ़ियाना मैलान भी और काएनात की अज़ीमुश्शान वुसअ'त का एहसास भी उन्हें गोश्त-पोस्त के एहसासात से बे-ख़बर नहीं रखता।

    इसी की बिना पर वो काएनात के इसरार से वाक़िफ़ होने के बा-वजूद उनसे ख़ौफ़-ज़दा नहीं होते, क्योंकि रोज़मर्रा की दुनिया से उनका रिश्ता मज़बूत है। वो इस दुनिया के हैं लेकिन इसमें क़ैद नहीं हैं। इसी मज़बूती की बिना पर वो इंसानी रिश्तों के तअ'ल्लुक़ से हमारे सबसे बड़े शाइ'र हैं।

    ‘मीर’ के आ'शिक़ के किरदार में उनकी ये तमाम ख़ुसूसियात, जिनका ऊपर ज़िक्र हुआ, पूरी तरह ब-रू-ए-कार आती हैं। ‘मीर’ के पूरे कलाम से एक किरदार उभरता है, जिसने दुनिया के तमाम सच झूट, दु:ख सुख, मुसर्रत और ग़म, तज्ज़िया और इन्किशाफ़ को पूरी तरह बरता है, पूरी तरह बर्दाश्त किया है।

    इस किरदार की शख़्सियत किसी चीज़ के सामने पस्त नहीं होती। उसने इतना कुछ देखा, बरता और सहा है कि उसकी रूह में हर शय नज़र आती है, नज़र आई हुई सी का आ'लम नज़र आता है। उसे किसी ज़वाल पर, किसी उ'रूज पर, किसी हिज्र पर, किसी विसाल पर, किसी मौत पर, किसी ज़िंदगी पर, हैरत नहीं होती। ये शख़्सियत हर तरह मुकम्मल है और उसका परतव उस आ'शिक़ के किरदार पर पड़ता है जो ‘मीर’ के कलाम में जल्वा-गर है।

    ‘मीर’ पर यास-परस्ती या सरासर महज़ूनी और दिल-शिकस्तगी का हुक्म लगाने वाले ‘मीर’ के साथ इंसाफ़ नहीं करते, बल्कि उनकी शख़्सियत और कलाम की अ'ज़्मत को महदूद कर देते हैं। जिस शख़्स के यहाँ हर चीज़ अपनी पूरी क़ुव्वत और अपने पूरे फैलाव के साथ मौजूद हो, उसको किसी एक तरफ़ बंद कर देना ख़ुद उसके साथ ही नहीं, पूरी उर्दू शाइ'री के साथ ज़्यादती है। हक़ीक़त ये है कि ‘मीर’ का आ'शिक़ और उसकी पूरी शख़्सियत भी उनकी ज़बान ही की तरह बे-तकल्लुफ़, चोंचाल, तिबा’, पेचीदा और मुतनव्वे’ है।

    ‘मीर’ के बर-अ'क्स, ‘ग़ालिब’ के आ'शिक़ की इन्फ़िरादियत उसकी रुसूमियाती शिद्दत में है। ‘मीर’ और ‘ग़ालिब’ हमारे दो शाइ'र हैं जिनके यहाँ आ'शिक़ का किरदार, ग़ज़ल के रुसूमियाती आ'शिक़ से मुख़्तलिफ़ है और अपनी शख़्सियत आप रखता है।

    दोनों ने इस इन्फ़िरादियत-परस्त किरदार को ख़ल्क़ करने के लिए अपने तरीक़ों से काम लिया। ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ का इफ़्तिराक़ जितना इस मैदान में है, उतना और कहीं नहीं है। ‘मीर’ ने रुसूमियात की पाबंदी करते हुए भी अपने आ'शिक़ को इंसान की सत्ह पर पहुँचा दिया। ‘ग़ालिब’ ने रुसूमियात को इस शिद्दत से बरता कि उनके यहाँ आ'शिक़ की हर सिफ़त अपनी मिसाल आप हो गई। अपने इस्तिआ'राती और मुहाकाती तख़य्युल और इस तख़य्युल के ज़मीन से ऊपर उठने और तजरीद पर माइल होने की बिना पर ‘ग़ालिब’ ने आ'शिक़ के ख़वास-ओ-आ'दात, क़ौल-ओ-फ़े'ल के हर रुसूमियाती (या'नी ख़याली और मिसाली) पहलू को इसकी मुंतहा-ए-कमाल तक पहुँचा दिया।

    यही वज्ह है कि रश्क हो या ख़ुद्दारी, वफ़ादारी हो या नर्गिसिय्यत, वहशत-ओ-आवारगी हो या अंदर ही अंदर जलने और टूटने का रंग, जुनून और सौदा हो या तंज़-ओ-ख़ुद-आगाही, शिकस्त-ए-जिस्म हो या नुक़सान-ए-जाँ, शौक़-ए-शहादत हो या ज़ौक़-ए-वस्ल, वो तमाम चीज़ें जिनका हाली ने बड़े तंज़िया लुत्फ़ से ज़िक्र किया है, ‘ग़ालिब’ के यहाँ पूरी बल्कि मिसाली शिद्दत से मिलती हैं।

    ‘मोमिन’ के यहाँ भी बड़ी हद तक इन चीज़ों की कार-फ़रमाई है लेकिन ‘मोमिन’ का दिमाग़ छोटा है, वो इस्ति'आरे तक नहीं पहुँच पाते। उनके यहाँ कसीर-उल-मा'नवियत का पता नहीं, इसलिए वो एक तजुर्बे के ज़रीए’ कई और तजुर्बे नहीं बयान कर सकते। वो बात को घुमा कर, फिरा कर, बहुत बना कर कहते हैं, लेकिन मअ'नी-आफ़रीनी और इस्ति'आरे की कमी के बाइ'स उनकी बात छोटी और हल्की रह जाती है। ‘ग़ालिब’ का मुआ'मला ही और है। उनकी इस्तिआ'राती जिहत इतनी वसीअ’ है कि वो आ'शिक़ के तमाम मुआ'मलात को पेच-दर-पेच वुसअ'त दे देते हैं।

    यही वज्ह है कि ‘ग़ालिब’ के यहाँ आ'शिक़, ‘मोमिन’ के मुक़ाबले में बहुत ज़ियादा मुनफ़रिद और जानदार नज़र आता है। लिहाज़ा मीज़ान के एक सिरे पर ‘मीर’ हैं, जो आ'शिक़ को इंसान बनाकर पेश करते हैं, और दूसरी तरफ़ ‘ग़ालिब’ हैं जो आ'शिक़ को आईडियल बनाकर पेश करते हैं। ये कोई तअ'ज्जुब की बात नहीं कि ‘ग़ालिब’ गर्मी-ए-अंदेशा की बात करते हैं और ‘मीर’ अपने शे'र को ज़ुल्फ़ सा पेचदार बताते हैं। दोनों की असास इस्ति'आरे पर है, लेकिन ‘ग़ालिब’ का इस्ति'आरा तजरीदी है और ‘मीर’ का इस्ति'आरा मरई।

    इस बात की वज़ाहत चंदाँ ज़रूरी नहीं कि मिसाली तंज़ीम-ओ-तर्तीब, या'नी किसी चीज़ को इस तरह और इस हद तक बढ़ाना कि वो मिसाली हो जाएगी, तजरीद के बग़ैर मुम्किन नहीं। अरस्तू ने इसीलिए कहा था कि अगर कोई चीज़ बहुत ज़ियादा बड़ी हो जाएगी तो उसको देखना मुम्किन न होगा। तजरीद के बहुत से तफ़ाउ'ल हैं और उनमें से एक अहम तफ़ाउ'ल इस्ति'आरा भी है। लिहाज़ा कोई तअ'ज्जुब नहीं कि ‘ग़ालिब’ के यहाँ इस्ति'आरे और तजरीद ने मिलकर आ'शिक़ का मिसाली किरदार ता'‘मीर’ किया है। मुंदरजा-ज़ेल अशआ'र इस मिसाली किरदार और मिसाली होने की बिना पर उसके फ़क़ीद-उल-मिसाल 
    (unique) होने को ज़ाहिर करते हैं,

    ‘ग़ालिब’ मुझे है इससे हम-आग़ोशी आरज़ू
    जिसका ख़याल है गुल-ए-जेब-ए-क़बा-ए-गुल

    बा-वजूद-ए-यक-जहाँ हंगामा पैदाई नहीं
    हैं चराग़ान-ए-शबिस्तान-ए-दिल-ए-परवाना हम

    ज़ख़्म सिलवाने से मुझ पर चारा-जूई का है ता'न
    ग़ैर समझा है कि लज़्ज़त ज़ख़्म-ए-सोज़न में नहीं

    हसरत-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार रही जाती है
    जादा-ए-राह-ए-वफ़ा जुज़ दम-ए-शमशीर नहीं

    हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझसे
    मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझसे

    ख़ंजर से चीर सीना अगर दिल न हो दो-नीम
    दिल में छुरी चुभो मज़ा गर ख़ूँ-फ़िशाँ नहीं

    गुंजाइश-ए-अ'दावत-ए-अग़्यार इक तरफ़
    याँ दिल में ज़ो'फ़ से हवस-ए-यार भी नहीं

    बस क़ि हूँ ‘ग़ालिब’ असीरी में भी ‘आतिश’-ज़ेर-ए-पा

    मू-ए-‘आतिश’-दीदा है हलक़ा मिरी ज़ंजीर का
    कीजिए बयाँ सुरूर-ए-तप-ए-ग़म कहाँ तलक 

    हर मू मिरे बदन पे ज़बान-ए-सिपास है 
    सर पर हुजूम-ए-दर्द ग़रीबी से डालिए

    वो एक मुश्त-ए-ख़ाक कि सहरा कहें जिसे
    मिरी हस्ती फ़ज़ा-ए-हैरताबाद-ए-तमन्ना है

    जिसे कहते हैं नाला वो इसी आ'लम का अ'न्क़ा है
    साया मेरा मुझसे मिस्ल-ए-दूद भागे है असद

    पास मुझ ‘आतिश’-बजाँ के किससे ठहरा जाए है

    मौज-ए-सराब दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल
    हर ज़र्रा मिस्ल-ए-जौहर-ए-तेग़ आब-दार था

    बंदगी में भी वो आज़ादा-ओ-ख़ुद-बीं हैं कि हम
    उलटे फिर आए दर-ए-काबा अगर वा न हुआ

    सौ बार बंद-ए-इ'श्क़ से आज़ाद हम हुए
    पर क्या करें कि दिल ही अ'दू है फ़राग़ का

    दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
    हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना

    लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
    मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर

    ब-रंग-ए-काग़ज़-ए-‘आतिश’-ज़दा नैरंग-ए-बे-ताबी
    हज़ार आईना-ए-दिल बाँधे है बाल-ए-यक-तपीदन पर

    ज़ाहिर है कि अशआ'र की कमी नहीं। ये भी ज़ाहिर है कि जिन अशआ'र में मरई पैकर हैं भी, वो ग़ैर-मरई बातों की वज़ाहत के लिए हैं। पूरे कलाम पर असरार की फ़ज़ा मुहीत है, एक नीम-रौशन धुंद है जिसको देखकर झुरझुरी सी आ जाती है।

    सिर्फ़ तीन शे'र ऐसे हैं (बंदगी में भी, सौ बार बंद-ए-इ'श्क़, और दिल से मिटना) जिनके मुआ'मलात पर रोज़मर्रा की दुनिया का धोका हो सकता है और इनमें एक शे'र ऐसा है, जिसमें पूरी दुनिया एक अंगुश्त-ए-हिनाई में सिमट आई है।

    यहाँ हर चीज़ तसव्वुर की हुई सी है, नज़र आई हुई सी नहीं। यहाँ वो मुबालग़ा नहीं है, जो हम आप इस्ति'माल करते हैं, यहाँ हर चीज़ को निचोड़ कर उसके जौहर को तमाम कुरह-ए-अ'र्ज़ पर फैला दिया गया है। ये वो आ'लम है जिसमें बेचारगी भी बादशाह-ए-वक़्त का दबदबा रखती है। यहाँ ब-क़ौल ‘मीर’ “तजरीद का फ़राग़” है, जिसकी बिना पर आफ़ताब अपने साये से भी भागता है।

    ‘ग़ालिब’ के अलर्राग़्म ‘मीर’ दुनियावी रिश्तों के शाइ'र हैं। उन्होंने अपने आ'शिक़ को दुनिया में पेश करने के लिए और उसकी इन्फ़िरादियत साबित करने के लिए उसके बारे में बहुत सी बातें ख़ुद उसकी ज़बान से और दूसरों की ज़बान से कहलाई हैं। आपसी रिश्तों की ये सूरतों हस्ब-ए-ज़ेल हैं,

    आ'शिक़ अपने आ'दात-ओ-ख़वास-ओ-कैफ़ियात के बारे में यूँ इज़हार-ए-ख़याल करता है, गोया वो मा'शूक़ से गुफ़्तगू कर रहा हो, या मा'शूक़ को मौजूद फ़र्ज़ कर रहा हो। ये मुआ'मला-बंदी नहीं है बल्कि इसमें और मुआ'मला-बंदी में दो बहुत बड़े फ़र्क़ हैं।

    पहली बात तो ये कि मुआ'मला-बंदी में ख़ुद आ'शिक़ के हालात-ओ-कैफ़ियात-ओ-आ'दात का बयान नहीं होता, बल्कि मा'शूक़ की तरफ़ से कही या की हुई बात का हवाला होता है। मा'शूक़ को यहाँ भी मौजूद फ़र्ज़ कर सकते हैं, लेकिन बात मा'शूक़ के क़ौल-फे़'ल की होती है, तहसीन का रंग होता है और वो किसी मख़्सूस सूरत-ए-हाल के हवाले से होता है। ‘मीर’ ने जो अंदाज़ इख़्तियार किया है, उसमें आ'शिक़ अपने क़ौल-फे़'ल से मा'शूक़ को अपने बारे में आगाह करता है। इसमें शिकायत या तहसीन का रंग बहुत कम होता है और अगर होता भी है तो किसी मख़्सूस सूरत-ए-हाल के हवाले से नहीं बल्कि किसी आ'म सूरत-ए-हाल के हवाले से। मिसाल के तौर पर, मुआ'मला-बंदी के चंद अशआ'र हस्ब-ए-ज़ैल हैं,

    ‘मोमिन’
    उल्टे वो शिकवे करते हैं और किस अदा के साथ
    बेताक़ती के ता'ने हैं उ'ज़्र-ए-जफ़ा के साथ

    ‘मोमिन’
    यारब विसाल-ए-यार में क्यूँ-कर हो ज़िंदगी
    निकली ही जान जाती है हर-हर अदा के साथ

    ‘मोमिन’
    कहना पड़ा दुरुस्त कि इतना रहे लिहाज़
    हर-चंद वस्ल-ए-ग़ैर का इंकार है ग़लत

    ‘मोमिन’
    किसने और को देखा किसकी आँख झपकी है
    देखना इधर आओ फिर नज़र मिला देखें

    ‘मुसहफ़ी’
    कुछ हमारी भी तुम्हें फ़िक्र है अब या कि नहीं
    जूँ ही ये बात कही उससे तो बोला कि नहीं

    ‘मुसहफ़ी’
    मैं और किसी बात का शाकी नहीं तुझसे
    ये वक़्त के ऊपर तिरा इंकार ग़ज़ब है

    ‘ग़ालिब’
    कहा तुमने कि क्यों हो ग़ैर के मिलने में रुस्वाई
    बजा कहते हो सच कहते हो फिर कहियो कि हाँ क्यों हो

    ‘दाग़’
    क्या इज़्तिराब-ए-शौक़ ने मुझको ख़जिल किया
    वो पूछते हैं कहिए इरादे कहाँ के हैं

    ज़ाहिर है कि तमाम ग़ज़ल-गोयों की तरह ‘मीर’ ने भी मुआ'मला-बंदी के अशआ'र कहे हैं। मुआ'मला-बंदी में कमी (या उसमें तंग-दामानी) ये है कि वो हमें आ'शिक़ या मा'शूक़ की शख़्सियत के बारे में कोई नई बात नहीं बताती। इसकी ख़ूबी ये है कि इसके ज़रीए’ इ'श्क़ की वारदात मुबद्दल-ब-हक़ीक़त (actualize) हो जाती हैं। ‘मीर’ के यहाँ से मुआ'मला-बंदी के चंद शे'र मुलाहिज़ा हों। दीवान-ए-अव्वल की एक ग़ज़ल में क़ता’ है,

    कल थी शब-ए-वस्ल इक अदा पर
    उसकी गए होते हम तो मर रात

    जागे थे हमारे बख़्त-ए-ख़फ़्ता
    पहुँचा था बहम वो अपने घर रात

    करने लगा पुश्त-ए-चश्म नाज़ुक
    सोते से उठा जो चौंक कर रात

    थी सुब्ह जो मुँह को खोल देता
    हर-चंद कि तब थी एक पहर रात

    पर ज़ुल्फ़ों में मुँह छिपा के पूछा
    अब होवेगी ‘मीर’ किस क़दर रात

    कुछ तो क़ता’-बंदी की वज्ह से, और कुछ ‘मीर’ की पेचदारी की बिना पर ये अशआ'र मुआ'मला-बंदी की हद से कुछ आगे निकल गए हैं। वर्ना इसी मज़्मून को मिर्ज़ा अ'ली ‘लुत्फ़’ ने एक ही शे'र में ख़ूब बाँधा है,

    ये भी है नई छेड़ कि उठ वस्ल में सौ बार
    पूछे है कि कितनी रही शब कुछ नहीं मा'लूम

    मुआ'मला-बंदी को ग़ज़ल के उस अंदाज़ से भी बिल्कुल अलग रखना चाहिए जिसमें शाइ'र ब-ज़ाहिर तो मा'शूक़ को मुख़ातिब करता है लेकिन दर-अस्ल वो अपने आपसे बात कर रहा होता है।

    मसलन ‘ग़ालिब’,

    तुझसे क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
    था लिखा बात के बनते ही जुदा होना

    मिलना तिरा अगर नहीं आसाँ तो सहल है
    दुशवार तो यही है कि दुशवार भी नहीं

    या फिर ऐसे अशआ'र हैं जिनमें ब-ज़ाहिर मा'शूक़ से ख़िताब है, लेकिन ख़ुद-कलामी का लहजा नुमायाँ है। मसलन ‘ग़ालिब’,

    है मुझको तुझसे तज़्किरा-ए-ग़ैर का गिला
    हर-चंद बर-सबील-ए-शिकायत ही क्यों न हो

    अभी हम क़त्ल-गह का देखना आसाँ समझते हैं
    नहीं देखा शनावर जू-ए-ख़ूँ में तेरे तौसन को

    ‘मीर’ के जिस अंदाज़ पर यहाँ गुफ़्तगू मक़सूद है, वो इन सबसे मुख़्तलिफ़ है। इसमें इंकिशाफ़-ए-ज़ात या कम से कम ब-राह-ए-रास्त ख़ुद-इकतिशाफ़ी का रंग है और मा'शूक़ को मौजूद फ़र्ज़ करता है। या'नी वो मा'शूक़ को अपनी सूरत-ए-हाल से मतला’ करता है। ज़ाहिर है कि ऐसी सूरत में मुआ'मला रुसूमियाती हद-बंदियों से निकल जाता है और इंसानी तअ'ल्लुक़ की सत्ह ब-राह-ए-रास्त क़ाएम हो जाती है।

    वाज़ेह रहे कि ऐसे अशआ'र में इज़हार-ए-इ'श्क़ या ख़्वाहिश या तमन्ना का इज़हार नहीं होता। ये बात कि आ'शिक़ अपने मा'शूक़ को अपनी सूरत-ए-हाल से मतला’ कर रहा है, ख़ुद ही इज़हार-ए-इ'श्क़ या इज़हार-ए-ख़्वाहिश या इज़हार-ए-तमन्ना (या इन सब) का हुक्म रखती है। लिहाज़ा इस तरह के अशआ'र में वो शख़्स अपना इज़हार-ए-हाल कर रहा है, वो मर्कज़ी एहमियत इख़्तियार कर जाता है। चंद अशआ'र मुलाहिज़ा हों,

    दीवान-ए-चहारुम
    लुत्फ़-ओ-महर-ओ-ख़श्म-ओ-ग़ज़ब हम हर सूरत में राज़ी हैं
    हक़ में हमारे कर गुज़रो भी जो कुछ जानो बेहतर तुम

    दीवान-ए-चहारुम
    चुप हैं कुछ जो नहीं कहते हम कार-ए-इ'श्क़ के हैराँ हैं
    सोचो हाल हमारा टुक तो बात की तह को पाओ तुम

    दीवान-ए-अव्वल
    रंग-ए-शिकस्ता मेरा बे-लुत्फ़ भी नहीं है
    एक-आध रात को तो याँ भी सहर करो तुम

    दीवान-ए-चहारुम
    अहद किए जाऊँ हूँ अब की आख़िर मुझको ग़ैरत है
    जो भी मनाने आवेगा तू साथ न तेरे जाऊँगा

    दीवान-ए-अव्वल
    वैसा कहाँ है हमसे जैसा कि आगे था तू
    औरों से मिल के प्यारे कुछ और हो गया तू

    दीवान-ए-अव्वल
    हम वे हैं जिनके ख़ूँ से तिरी राह सब है गुल
    मत कर ख़राब हमको तो औरों में सान कर

    दीवान-ए-दोव्वुम
    अब तंग हूँ बहुत मैं मत और दुश्मनी कर
    लागू हो मेरे जी का उतनी ही दोस्ती कर

    दीवान-ए-अव्वल
    दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
    पछताओगे सुनो हो ये बस्ती उजाड़ कर

    दीवान-ए-दोव्वुम
    आज हमारे घर आया है तो क्या है याँ जो निसार करें
    इल्ला खींच बग़ल में तुझको देर तलक हम प्यार करें

    दीवान-ए-सेव्वुम
    वज्ह-ए-बेगानगी नहीं मा'लूम
    तुम जहाँ के हो वाँ के हम भी हैं

    अपना शेवा नहीं कजी यूँ तो
    यार जी टेढ़े बाँके हम भी हैं

    दीवान-ए-अव्वल
    हनूज़ लड़के हो तुम क़द्र मेरी क्या जानो
    शऊ'र चाहिए है इम्तियाज़ करने को

    दीवान-ए-दोव्वुम
    इतना कहा न हमसे तुमने कभू कि आओ
    काहे यूँ खड़े हो वहशी से बैठ जाओ

    दीवान-ए-अव्वल
    दरवेश हैं हम आख़िर दो इक निगह की फ़ुर्सत
    गोशे में बैठे प्यारे तुमको दुआ’ करेंगे

    दीवान-ए-अव्वल
    चाहूँ तो भर के कौली उठा लूँ अभी तुम्हें
    कैसे ही भारी हो मिरे आगे तो फूल हो

    दीवान-ए-चहारुम
    दर पर से अब के जाऊँगा तो जाऊँगा
    याँ फिर अगर आऊँगा सय्यद न कहाऊँगा

    दीवान-ए-चहारुम
    इ'श्क़ में खोए जाओगे तो बात की तह भी पाओगे
    क़द्र हमारी कुछ जानोगे दिल को कहीं जो लगाओगे

    दीवान-ए-पंजुम
    बरसों में पहचान हुई थी सो तुम सूरत भूल गए
    ये भी शरारत याद रहेगी हमको न जाना जाने से

    दीवान-ए-दोव्वुम
    ये तश्त-ओ-तेग़ है अब ये मैं हूँ ओर ये तू
    है साथ मेरे ज़ालिम दा'वा तुझे अगर कुछ

    इस तरह के अशआ'र के साथ उन शे'रों को भी रखा जाए जिनमें दोनों इम्कानात हैं, या'नी ये कि आ'शिक़ का मुख़ातिब मा'शूक़ है, या कोई भी नहीं है, तो ऐसे अशआ'र की ता'दाद सैकड़ों से ज़ियादा होगी जिसमें ‘मीर’ के आ'शिक़ ने अपनी शख़्सियत का इज़हार किया है। इस तरह के अशआ'र में भी मुआ'मला ‘ग़ालिब’ से मुख़्तलिफ़ है, क्योंकि ‘ग़ालिब’ के यहाँ ज़हनी वक़ूए' या'नी mental event का इज़हार है, जब कि ‘मीर’ के यहाँ मौजूद या'नी फ़ौरी सूरत-ए-हाल का।

    मसलन ‘ग़ालिब’ के दो शे'र मैंने जो ऊपर नक़्ल किए हैं (है मुझको तुझसे और अभी हम क़त्ल-गह) दोनों में उन ज़हनी आ'माल का ज़िक्र है जिनका ब-राह-ए-रास्त तअ'ल्लुक़ फ़ौरी सूरत-ए-हाल से नहीं है, बल्कि वो आ'म सूरत-ए-हालात का इज़हार कर रहे हैं। इनके बर-अ'क्स, ‘मीर’ के मुंदरजा-ज़ेल अशआ'र में फ़ौरी सूरत-ए-हाल का ज़िक्र है और यही वज्ह है कि इन अशआ'र के ज़रीए’ भी आ'शिक़ की इन्फ़िरादी हैसियत ज़ाहिर और क़ाएम होती है,

    दीवान-ए-अव्वल
    कहते न थे कि जान से जाते रहेंगे हम
    अच्छा नहीं है आ न हमें इम्तिहान कर

    दीवान-ए-अव्वल
    ता-कुश्ता-ए-वफ़ा मुझे जाने तमाम ख़ल्क़
    तुर्बत पे मेरी ख़ून से मेरे निशान कर

    दीवान-ए-चहारुम
    तुझको है सौगन्द ख़ुदा की मेरी ओर निगाह न कर
    चश्म-ए-सियाह मिलाकर यूँही मुझको ख़ाना-सियाह न कर

    दीवान-ए-सेव्वुम
    जिस चमन-ज़ार का तू है गुल-ए-तर
    बुलबुल उस गुलसिताँ के हम भी हैं

    दीवान-ए-दोव्वुम
    ज़र्दी-ए-रुख़ रोना हर-दम का शाहिद दो जब ऐसे हों
    चाहत का इंसाफ़ करो तुम क्यूँ-कर हम इंकार करें

    दीवान-ए-चहारुम
    हम फ़क़ीरों को कुछ आज़ार तुम्हीं देते हो
    यूँ तो इस फ़िरक़े से सब लोग दुआ’ लेते हैं

    दीवान-ए-अव्वल
    छोड़ जाते हैं दिल को तेरे पास
    ये हमारा निशान है प्यारे

    दीवान-ए-अव्वल
    दिल की कुछ क़द्र करते रहियो तुम
    ये हमारा भी नाज़-परवर था

    दीवान-ए-पंजुम
    दूर बहुत भागो हो हमसे सीखे तरीक़ ग़ज़ालों का
    वहशत करना शेवा है क्या अच्छी आँखों वालों का

    दीवान-ए-चहारुम
    ख़ाना-आबादी हमें भी दिल की यूँ है आरज़ू
    जैसे जल्वे से तिरे घर आरसी का भर गया

    मुंदरजा-बाला दोनों तरह के अशआ'र में से अक्सर ऐसे हैं जिनके लहजे में तमकनत, ख़ुद-ए'तिमादी, अपनी क़द्र-ओ-क़ीमत का पूरा एहसास और कहीं-कहीं अलमिया हीरो का वक़ार है। कहीं-कहीं मज़ाह तो कहीं आ'म आदमी की सी तल्ख़ी या चिड़चिड़ापन है। कहीं चालाकी और फ़रेब-कारी का भी शाइबा है। अगर वो मिस्कीन रोता-बिसूरता ‘मीर’, या वो ज़ार-ज़ार जूँ अब्र-ए-बहार रोता हुआ ‘मीर’ जो हमारे नक़्क़ादों के आईना-ख़ानों में जल्वा-गर है, इन अशआ'र में नज़र नहीं आता तो मेरा क़सूर नहीं।

    ‘मीर’ का कलाम ‘मीर’ का सबसे बड़ा गवाह है और ‘मीर’ के नक़्क़ाद और नुक्ता-शनास अगर इस गवाही के बदले मफ़रूज़ात पर मबनी गवाहियों को तस्लीम करें तो ये भी मेरा क़सूर नहीं।

    मा'शूक़ से ब-राह-ए-रास्त गुफ़्तगू और इज़हार-ए-हाल वाले अशआ'र की ज़िम्न में ऐसे अशआ'र भी आते हैं, जिनमें आ'शिक़ ने मा'शूक़ को बुरा-भला कहा है, जली-कटी सुनाई है या उसके किरदार पर हमला किया है।

    इन अशआ'र में वो तह-दारी और पेचीदगी बहुत कम है, जिससे मुंदरजा-बाला अशआ'र में से अक्सर शे'र मुत्तसिफ़ हैं। लेकिन जली-कटी सुनाने वाले इन अशआ'र में वासोख़्त का भी रंग नहीं है, बल्कि वही रोज़मर्रा ज़िंदगी के हवाले से बात कहने का अंदाज़ है, जो इस मैदान में ‘मीर’ का ख़ास्सा है। इस तरह के अशआ'र उन्नीसवीं सदी के शो'रा में तक़रीबन मफ़क़ूद हैं। अठारवीं सदी में थोड़ा बहुत इनका चलन ज़रूर मिलता है। ‘मीर’ के यहाँ ये लहजा दूसरे शो'रा के मुक़ाबले में ज़ियादा आ'म और ज़ियादा मुतनव्वे’ ढंग से नज़र आता है। दीवान-ए-सिवुम और चहारुम से कुछ अशआ'र बग़ैर किसी ख़ास तलाश के नक़्ल करता हूँ,

    दीवान-ए-सेव्वुम
    सुना जाता है ऐ घतिये तिरे मजलिस-नशीनों से
    कि तो दारू पिए है रात को मिलकर कमीनों से

    दीवान-ए-चहारुम
    अब तो जवानी का ये नशा ही बे-ख़ुद तुझको रक्खेगा
    होश गया फिर आवेगा तो देर तलक पछतावेगा

    दीवान-ए-चहारुम
    ख़िलाफ़-ए-वा'दा बहुत हुए हो कोई तो वा'दा-वफ़ा करो अब
    मिला के आँखें दरोग़-ए-कुहना कहाँ तलक कुछ हया करो अब

    दीवान-ए-चहारुम
    जो वज्ह कोई हो तो कहने में भी कुछ आवे
    बातें करो हो बिगड़ी मुँह को बना-बनाकर

    दीवान-ए-चहारुम
    क्या रक्खें ये तुमसे तवक़्क़ो’ ख़ाक से आ के उठाओगे
    रह में देखो उफ़्तादा तो और लगाओ ठोकर तुम

    दीवान-ए-चहारुम
    ग़रीबों की तो पगड़ी जामे तक ले है उतरावा तू
    तुझे ऐ सीमबर ले बर में जो ज़रदार आ'शिक़ हो

    दीवान-ए-सेव्वुम
    आ'क़िबत तुझको लिबास-ए-राह राह
    ले गया है राह से ऐ तंगपोश

    दीवान-ए-चहारुम
    ग़ैर की हम-राही की इ'ज़्ज़त जी मारे है आ'शिक़ का
    पास कभू जो आते हो तो साथ इक तोहफ़ा लाते हो

    दीवान-ए-सेव्वुम
    कैसी वफ़ा-ओ-उल्फ़त खाते अ'बस हो क़स्में
    मुद्दत हुई उठा दीं तुमने ये सारी रस्में

    दूसरी सूरत जिसमें मा'नवी पेचीदगी कम, लेकिन ड्रामाई दिलचस्पी वाफ़िर है, ये है कि कोई दूसरा शख़्स, या कई लोग मिलकर, मा'शूक़ को ‘मीर’ की हालत से मतला’ करते हैं, उसको राय मशवरा देते हैं, उसको समझाते हैं। ये लोग कौन हैं, ये बात वाज़ेह नहीं की जाती, लेकिन लहजे से लगता है कि ये मा'शूक़ के क़रीब वाले या हम-राज़ नहीं हैं। मा'लूम होता है कि आ'शिक़ और मा'शूक़ की बातें अब इतनी आ'म हो चुकी हैं कि लोग मा'शूक़ के पास जाकर ‘मीर’ के तअ'ल्लुक़ से गुफ़्तगू करना अ'वामी फ़रीज़ा समझते हैं। इस क़िस्म के अशआ'र की कसरत के बाइ'स ‘मीर’ के आ'शिक़ की दुनिया न सिर्फ़ बहुत आबाद और मसरूफ़ मा'लूम होती है, बल्कि उसका इ'श्क़ भी रोज़मर्रा की दुनिया के लिए सरोकार (concern) और तरद्दुद की चीज़ मा'लूम होता है। और ये तशवीश-ओ-तरद्दुद, ये लगाओ, ख़ालिस इंसानी है।

    इसमें अख़्लाक़ी बरतरी या नासेहाना इस्लाह का कोई शाइबा नहीं। जो लोग मा'शूक़ से गुफ़्तगू करने जाते हैं, वो सब इस मुआ'मले को बिल्कुल रोज़मर्रा के मुआ'मलात की सत्ह पर बरतते हैं। कोई तसन्नो’, कोई तेज़ी, कोई जज़्बाती (sentimental) इल्तिजा या'नी जज़्बे के तक़ाज़े से ज़ियादा अल्फ़ाज़ का सर्फ़ा, ऐसी कोई बात नहीं।

    दीवान-ए-सेव्वुम
    तुम कभू ‘मीर’ को चाहो सो कि चाहें हैं तुम्हें
    और हम लोग तो सब उनका अदब करते हैं

    दीवान-ए-सेव्वुम
    गया इस शहर ही से ‘मीर’ आख़िर
    तुम्हारी तर्ज़-ए-बद से कुछ न था ख़ुश

    दीवान-ए-सेव्वुम
    क्यूँ-कर न हो तुम ‘मीर’ के आज़ार के दरपै
    ये जुर्म है उसका कि तुम्हें प्यार करे है

    दीवान-ए-अव्वल
    टुक ‘मीर’-ए-जिगर-सोख़्ता की जल्दी ख़बर ले
    क्या यार भरोसा है चराग़-ए-सहरी का

    दीवान-ए-दोव्वुम
    हमिय्यत उसके तईं कहते हैं जो ‘मीर’ में थी
    गया जहाँ से प’ तेरी गली में आ न रहा

    दीवान-ए-चहारुम
    रहम क्या कर लुत्फ़ क्या कर पूछ लिया कर आख़िर है
    ‘मीर’ अपना ग़मख़्वार अपना फिर ज़ार अपना बीमार अपना

    दीवान-ए-दोव्वुम
    सर्फ़ा आज़ार ‘मीर’ में न करो
    ख़स्ता अपना है ज़ार है अपना

    दीवान-ए-दोव्वुम
    घर के आगे से तिरे ना'श गई आ'शिक़ की
    अपने दरवाज़े तलक तू भी तो आया होता

    दीवान-ए-दोव्वुम
    कह वो शिकस्ता-पा हमा-हसरत न क्यों के जाए
    जो एक दिन न तेरी गली में चला फिरा

    दीवान-ए-सेव्वुम
    तुम कहते हो बोसा-तलब थे शायद शोख़ी करते हों
    ‘मीर’ तो चुप तस्वीर से थे ये बात उन्हों से अ'जब सी है

    दीवान-ए-सेव्वुम
    तुम्हारे पाँव घर जाने को आ'शिक़ के नहीं उठते
    तुम आओ तो तुम्हें आँखों पे सर पे अपने जा देवे

    दीवान-ए-दोव्वुम
    थी जब तलक जवानी रंज-ओ-ताब उठाए
    अब क्या है ‘मीर’-जी में तर्क-ए-सितम-गरी कर

    इस तरह के अशआ'र आ'शिक़-ओ-मा'शूक़ के माबैन एक नया रब्त बल्कि नई मुसावात क़ाएम कर देते हैं। अक्सर अशआ'र में अफ़साने की सी कैफ़ियत है, इस मअ'नी में कि अशआ'र में जो बात बयान हो रही है, उसके पहले भी कुछ हो चुका है। लिहाज़ा ऐसे अशआ'र की वज्ह से ‘मीर’ के आ'शिक़ की दुनिया बहुत भरी-भरी और मसरूफ़ मा'लूम होती है। लेकिन ग़ज़ल की आ'म दुनिया में मा'शूक़ ब-राह-ए-रास्त आ'शिक़ से बहुत कम हम-कलाम होता है।

    मा'शूक़ की गुफ़्तगू अगर ग़ज़ल में बयान भी होती है तो हमेशा किसी दूसरे के अल्फ़ाज़ में। ज़ियादा-तर आ'शिक़ ही मा'शूक़ की गुफ़्तगू बयान करता है। मुआ'मला-बंदी के जे़ल में जो चंद शे'र मैंने नक़्ल किए, उनमें ये बात वाज़ेह तौर पर नज़र आती है लेकिन ‘मीर’ ने आ'म तरीक़े के ख़िलाफ़ जाकर मा'शूक़ और आ'शिक़ की ब-राह-ए-रास्त गुफ़्तगू भी बयान की है। मा'शूक़ का लहजा या अल्फ़ाज़ या दोनों आ'म तौर पर इस्तेहज़ाइया और तमस्ख़ुराना होते हैं लेकिन कभी-कभी इसके बर-अ'क्स भी होता है। एक क़ता’ मैंने ऊपर नक़्ल किया है। (अब होवेगी ‘मीर’ किस क़दर रात) उसमें मा'शूक़ ब-राह-ए-रास्त मुख़ातिब है (या उसकी गुफ़्तगू ब-राह-ए-रास्त तक़रीर (direct speech) के अंदाज़ में नक़्ल हुई है।) इन अशआ'र में मा'शूक़ तंज़-ओ-इस्तेहज़ा का बादशाह नज़र आता है,

    दीवान-ए-दोव्वुम
    मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उसके लब के
    हर-दम सदा यही थी दे गुज़रो टाल क्या है

    पर चुप ही लग गई जब उनने कहा कि कोई
    पूछो तो शाह-जी से उनका सवाल किया है

    दीवान-ए-सेव्वुम
    कहने लगा कि शब को मेरे तईं नशा था
    मस्ताना ‘मीर’ को मैं क्या जान कर के मारा

    दीवान-ए-दोव्वुम
    ये छेड़ देख हँस के रुख़-ए-ज़र्द पर मिरे
    कहता है ‘मीर’ रंग तो अब कुछ निखर चला

    दीवान-ए-दोव्वुम
    काहे को मैंने ‘मीर’ को छेड़ा कि उनने आज
    ये दर्द-ए-दिल कहा कि मुझे दर्द-ए-सर रहा

    इस आख़िरी शे'र के बारे में कहा जा सकता है कि मुम्किन है इसका मुतकल्लिम मा'शूक़ न हो बल्कि कोई दोस्त या शनासा हो। इसके दो जवाब मुम्किन हैं। अव्वल तो ये कि इस शे'र के दो ही मुतकल्लिम हो सकते हैं, या कोई दोस्त-शनासा या ख़ुद मा'शूक़। शे'र में ब-राह-ए-रास्त इशारा न होने की वज्ह से दोनों इम्कान बराबर के क़वी हैं। दूसरी बात ये कि दर्द का ज़िक्र, और ‘मीर’ की तरफ़ से दर्द-ए-दिल का पुर-ज़ोर-ओ-शोर बयान इस गुमान को क़वी-तर कर देता है कि मुतकल्लिम मा'शूक़ ही है।

    दीवान-ए-सेव्वुम
    हुआ मैंस ‘मीर’ जो उस बुत से साइल बोसा-ए-लब का
    लगा कहने ज़राफ़त से कि शह साहब ख़ुदा देवे

    दीवान-ए-सेव्वुम
    मुज़्तरिब हो जो हमरही की ‘मीर’
    फिर के बोला कि बस कहीं रह भी

    दीवान-ए-पंजुम
    कहने लगा कि ‘मीर’ तुम्हें बेचूँगा कहीं
    तुम देखियो न कहियो ग़ुलाम इसके हम नहीं

    दीवान-ए-चहारुम
    शोख़ी तो देखो आप ही कहा आओ बैठो ‘मीर’
    पूछा कहाँ तो बोले कि मेरी ज़बान पर

    इन अशआ'र में मा'शूक़ का लहजा इस्तेहज़ाइया है, कहीं-कहीं इसमें लगावट भी है। लेकिन आ'शिक़ भी कोई मजहूल, पसमांदा शख़्सियत नहीं रखता। अक्सर तो वो अपने अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू या अल्फ़ाज़ के इंतिख़ाब के ज़रीए’ ये ज़ाहिर कर देता है कि उसने भी मा'शूक़ के साथ शोख़ी बरती है। कभी-कभी ऐसा मा'लूम होता है कि आ'शिक़ के लिए मा'शूक़ की अदा-ए-नाज़ मा'शूक़ के वाक़ई’ अक़्वाल-ओ-अफ़आ'ल से भी ज़ियादा अहम है। लिहाज़ा ‘मीर’ की “पेचदारी” यहाँ भी मौजूद है।

    तीसरी सूरत ये है कि एक शख़्स, या कुछ लोग (मसलन कोई दोस्त, शनासा या आ'म लोग) आ'शिक़ के हालात, उसकी ज़िंदगी और मौत, उसकी शक्ल-ओ-शबाहत वग़ैरह पर तब्सिरे करते हैं। कभी-कभी इस तब्सिरे में राय-मशवरा भी शामिल हो जाता है। लेकिन लोगों की इस कसरत के बा-वजूद पंचायती कैफ़ियत नहीं पैदा होती, क्योंकि आ'शिक़ अपनी सी करता है, या कर गुज़रता है,

    दीवान-ए-सेव्वुम
    जहाँ में ‘मीर’ से काहे को होते हैं पैदा
    सुना ये वाक़िआ’ जिनने उसे तअ'स्सुफ़ था

    दीवान-ए-अव्वल
    मानिंद-ए-शम्अ’ मजलिस-ए-शब अश्क-बार पाया
    उल-क़िस्सा ‘मीर’ को हम बे-इख़्तियार पाया

    दीवान-ए-अव्वल
    आहों के शो'ले जिस जा उठते थे ‘मीर’ से शब
    वाँ जा के सुब्ह देखा मुश्त-ए-ग़ुबार पाया

    दीवान-ए-अव्वल
    गली में उसकी गया सो गया न बोला फिर
    मैं ‘मीर’-‘मीर’ कर उसको बहुत पुकार रहा

    दीवान-ए-अव्वल
    कहें हैं ‘मीर’ को मारा गया शब उसके कूचे में
    कहीं वहशत में शायद बैठे-बैठे उठ गया होगा

    दीवान-ए-दोव्वुम
    कल तक तो हम-वे हँसते चले आए थे यूँही
    मरना भी ‘मीर’-जी का तमाशा सा हो गया

    दीवान-ए-सेव्वुम
    ख़राब अहवाल कुछ बकता फिरे है दैर-ओ-का'बे में
    सुख़न क्या मो'तबर है ‘मीर’ से वाही-तबाही का

    दीवान-ए-सेव्वुम
    तस्बीहें टूटीं फ़िरक़े मुसल्ले फटे-जले
    क्या जाने ख़ानक़ाह में क्या ‘मीर’ कह गए

    दीवान-ए-पंजुम
    आह से थे रख़्ने छाती में फैलना उनका ये सहल न था
    दो-दो हाथ तड़प कर दिल ने सीना-ए-आ'शिक़ चाक किया

    दीवान-ए-पंजुम
    नाला-ए-‘मीर’ सवाद में हम तक दोशीं-शब से नहीं आया
    शायद शहर से ज़ालिम के आ'शिक़ वो बदनाम गया

    दीवान-ए-पंजुम
    दख़्ल-ए-मुरव्वत इ'श्क़ में था तो दरवाज़े से थोड़ी दूर
    हमरह ना'श-ए-आ'शिक़ की उस ज़ालिम को भी आना था

    दीवान-ए-पंजुम
    एक परेशाँ तुर्फ़ा-जमाअ'त देखी चाहने वालों की
    जीने के ख़्वाहाँ नहीं हैं मरने को तैयार हैं सब

    दीवान-ए-पंजुम
    क्या-क्या ख़्वाहिश बेकस-बेबस मुश्ताक़ उससे रखते हैं
    लेकिन देख के रह जाते हैं चुपके से नाचार हैं सब

    दीवान-ए-शिशुम
    जाते हैं उसकी जानिब मानिंद-ए-तीर सीधे
    मिस्ल-ए-कमान हल्क़ा-क़ामत ख़मीदा-मर्दुम

    दीवान-ए-शिशुम
    ऐ इसरार-ए-ख़ूँ-रेज़ी पे है नाचार हैं इसमें
    वगर्ना इ'ज्ज़-ताबी तो बहुत सी ‘मीर’ करते हैं

    दीवान-ए-अव्वल
    ‘मीर’-साहब रुला गए सबको
    कल वे तशरीफ़ याँ भी लाए थे

    दीवान-ए-अव्वल
    कहें तो हैं कि अ'बस ‘मीर’ ने दिया जी को
    ख़ुदा ही जाने कि क्या जी में उसके आई हो

    दीवान-ए-दोव्वुम
    गुफ़्तगू इतनी परेशाँ-हाल की ये दरहमी
    ‘मीर’ कुछ दिल तंग है ऐसा न हो सौदा हो मियाँ

    दीवान-ए-दोव्वुम
    तेग़-ओ-तबर रखा न करो पास ‘मीर’ के
    ऐसा न हो कि आपको ज़ाए’ वे कर रहें

    इस सूरत-ए-हाल का दूसरा पहलू ये है कि लोग, या दोस्त-आश्ना, आ'शिक़ से ब-राह-ए-रास्त गुफ़्तगू करते हैं,

    दीवान-ए-अव्वल
    ‘मीर’ अ'मदन भी कोई मरता है
    जान है तो जहान है प्यारे

    दीवान-ए-अव्वल
    लेते ही नाम उसका सोते से चौंक उठे हो
    है ख़ैर ‘मीर’-साहब कुछ तुमने ख़्वाब देखा

    दीवान-ए-सेव्वुम
    क्या तुमको प्यार से वो ऐ ‘मीर’ मुँह लगावे
    पहले ही चूमे तुम तो काटो हो गाल उसका

    दीवान-ए-अव्वल
    चला न उठ के वहीं चुपके फिर तू ‘मीर’
    अभी तो उसकी गली से पुकार लाया हूँ

    दीवान-ए-चहारुम
    चश्मक चितवन नीची निगाहें चाह की तेरी मशअ'र हैं
    ‘मीर’ अ'बस मुकरे है हमसे आँख कहीं तो लगाई है

    दीवान-ए-चहारुम
    चुपके से कुछ आ जाते हो आँखें भर-भर लाते हो
    ‘मीर’ गुज़रती क्या है दिल पर कुढ़ा करो हो अक्सर तुम

    दीवान-ए-चहारुम
    लगो हो ज़ोर-ए-बाराँ रोने चलते बात चाहत की
    कहीं इन रोज़ों तुम भी ‘मीर’-साहब ज़ार आ'शिक़ हो

    आ'शिक़ (और उसके हवाले से मा'शूक़) की किरदार-साज़ी में उन अशआ'र का भी बहुत बड़ा हिस्सा है जिनमें आ'शिक़ ख़ुद-कलामी से काम लेता है, या अपने हालात किसी दूसरे शख़्स से बयान करता है। चूँकि इस तरह के तमाम अशआ'र में गुफ़्तगू का अंदाज़ और रोज़मर्रा के वाक़िआ'त का ज़िक्र होता है, इसलिए उनमें वो मख़्सूस शाइ'राना वाक़िइ'य्यत पैदा हो जाती है जिसे रैनसम (J.C. Ransome) शाइ'री की अफ़सानवियत का नाम देता है। या'नी ये बात हम पर वाज़ेह रहती है कि हम किसी अस्ली शख़्स की गुफ़्तगू नहीं सुन रहे हैं, लेकिन जो कहा जा रहा है वो अस्ली दुनिया से मुस्तआ'र है। दीवान-ए-चहारुम के चंद शे'र देखिए,

    क्या हम बयाँ किसू से करें अपने हाँ की तरह
    की इ'श्क़ ने ख़राबी से इस ख़ानदाँ की तरह

    छुप-लुक के बाम-दर से गली-कूचे में से ‘मीर’
    मैं देख लूँ हूँ यार को इक बार हर तरह

    कैसी-कैसी ख़राबी खींची दश्त-ओ-दर में सर मारा
    ख़ाना-ख़राब कहाँ तक फिरिए ऐसा हो घर जावें हम

    पास ज़ाहिर से उसे तो देखना दुशवार है
    जाएँगे मजलिस में तो ईधर-उधर देखेंगे हम

    हैरत से आ'शिक़ी की पूछा था दोस्तों ने
    कह सकते कुछ तो कहते शर्मा के रह गए हम

    इसकी न पूछ दूरी में उनने पुर्सिश-ए-हाल हमारी न की
    हमको देखो मारे गए हैं आ कर पास वफ़ा से हम

    क्या-क्या इ'ज्ज़ करें हैं लेकिन पेश नहीं कुछ जाता ‘मीर’
    सर रगड़े हैं आँखें मलें हैं उसके हिनाई पा से हम

    ज़ो'फ़ दिमाग़ से क्या पूछो हो अब तो हममें हाल नहीं
    इतना है कि तपिश से दिल की सर पर वो धमाल नहीं

    कब तक दिल के टुकड़े जोड़ूँ ‘मीर’ जिगर के लख़्तों से
    कस्ब नहीं है पारा-दोज़ी में कोई वस्साल नहीं

    इ'श्क़ की रह में पाँव रखा सो रहने लगे कुछ रफ़्ता से
    आगे चल कर देखें हम अब गुम होवें या पैदा हों

    कोई तरफ़ याँ ऐसी नहीं जो ख़ाली होवे उससे ‘मीर’
    ये तुर्फ़ा है शोर-ए-जरस से चार तरफ़ हम तन्हा हों

    दिल न टटोलें काश कि उसका सर्दी-ए-महर तो ज़ाहिर है
    पावें उसको गर्म मबादा यार हमारे कीने में

    हाय लताफ़त जिस्म की उसके मर ही गया हूँ पूछो मत
    जब से तन-ए-नाज़ुक वो देखा तबसे मुझमें जान नहीं

    यूँ नाकाम रहेंगे कब तक जी में है इक काम करें
    रुस्वा हो कर मारे जावें उसको भी बदनाम करें

    हर्फ़-ओ-सुख़न की उससे अपनी मजाल क्या है
    उनने कहा है क्या-क्या मैंने अगर कहा कुछ

    क्या कहें उनने जो फेरा अपने दर पर से हमें
    मर गए ग़ैरत से हम भी पर न उसके घर गए

    बे-दिल हुए बे-दीं हुए बे-वक़्र हम अत-गत हुए
    बे-कस हुए बे-बस हुए बे-कल हुए बे-गत हुए

    मा'शूक़ों की गर्मी भी ऐ ‘मीर’ क़यामत है
    छाती में गले लग कर टुक आग लगा देंगे

    इस तरह के अशआ'र इतनी कसीर ता'दाद में है कि बे-तकल्लुफ़ उनसे एक दीवान तैयार हो सकता है। फिर इनमें उन अशआ'र को भी मिला लीजिए जिनमें मा'शूक़ का ज़िक्र-ए-वाहिद ग़ाइब के सीग़े में है लेकिन एक शख़्स की हैसियत से है, अ'लामत (या'नी मा'शूक़) के तसव्वुर की अ'लामत के तौर पर नहीं। मा'शूक़ का ज़िक्र मा'शूक़ के तसव्वुर की अ'लामत के तौर पर ‘ग़ालिब’ के मुंदरजा-ज़ेल अशआ'र में देखिए,

    है साइ'क़ा-ओ-शो'ला-ओ-सीमाब का आ'लम
    आना ही समझ में मिरी आता नहीं गो आए

    शोर-ए-जौलाँ था कनार-ए-बहर पर किसका कि आज
    गर्द-ए-साहिल है ब-ज़ख़्म-ए-मौजा-ए-दरिया नमक

    अभी हम क़त्ल-गह का देखना आसाँ समझते हैं
    अभी देखा नहीं ख़ूँ में शनावर तेरे तौसन को

    जल्वा अज़-बस-कि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है 
    जौहर-ए-आइना भी चाहे है मिज़्गाँ होना 

    इसके बर-ख़िलाफ़, मा'शूक़ ब-तौर एक शख़्स का इज़हार ‘ग़ालिब’ के इन अशआ'र में देखिए,

    थी वो इक शख़्स के तसव्वुर से
    अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ

    गई वो बात कि हो गुफ़्तगू तो क्यूँ-कर हो
    कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यूँ-कर हो

    मुँह न खुलने पर वो आ'लम है कि देखा ही नहीं
    ज़ुल्फ़ से बढ़कर नक़ाब उस शोख़ के मुँह पर खुला

    करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
    तिरी तरह कोई तेग़-ए-निगह को आब तो दे

    ये बात ज़ाहिर है कि मा'शूक़ की शख़्सियत इन अशआ'र में भी कम-ओ-बेश पर्दा-ए-राज़ में रहती है। मा'शूक़ को तसव्वुर की सत्ह पर अंगेज़ किया गया है। आख़िरी शे'र में जहाँ एक जिंसी मुआ'मला बयान हुआ है (अगरचे आ'म शारहीन ने इस शे'र को भी ग़ैर-जिंसी कहा है) मा'शूक़ ख़ुद मौजूद नहीं, सिर्फ़ ख़ुद-कलामी और शायद wishful thinking है।

    ‘ग़ालिब’ का ज़हन इस क़दर तसव्वुराती और तजरीदी है कि मा'शूक़ ब-हैसियत एक शख़्स उनके यहाँ बहुत कम है और जहाँ है भी, वहाँ भी तसव्वुराती पहलू हावी नहीं तो नुमायाँ ज़रूर रहता है। मुहम्मद हसन अ'सकरी को ‘ग़ालिब’ से शिकायत थी कि वो अपनी शख़्सियत को पूरी तरह तर्क नहीं करते बल्कि मा'शूक़ के सामने भी अपने आपको अलग शख़्सियत का हामिल ज़ाहिर करते हैं, लिहाज़ा उनके यहाँ ख़ुद-सुपुर्दगी की कमी है। मुम्किन है कि ‘ग़ालिब’ के यहाँ ख़ुद-सुपुर्दगी कम हो, लेकिन इससे उनकी शाइ'राना अ'ज़्मत न घुटती है, न बढ़ती है।

    बुनियादी बात ये है कि तसव्वुराती और तजरीदी मैलान के हावी होने के बाइ'स ‘ग़ालिब’ किसी ग़ैर-शख़्स को (चाहे वो मा'शूक़ ही क्यों न हो) पूरी तरह ज़ाहिर और बयान नहीं कर सकते। ‘मीर’ का मुआ'मला ये है कि वो हर चीज़ को ठोस, अर्ज़ी सत्ह पर बरतते हैं। लिहाज़ा उनके किरदार तसव्वुराती से ज़ियादा हक़ीक़ी और अ'लामती से ज़ियादा अफ़सानवी मा'लूम होते हैं। चुनाँचे मा'शूक़ के बारे में वाहिद ग़ाइब का सीग़ा इस्ति'माल करते वक़्त भी, या ख़ुद-कलामी के दौरान उनका सारा तअ'स्सुर किसी मौजूद शख़्स का होता है, किसी तसव्वुर या अ'लामत का नहीं।

    दीवान-ए-अव्वल
    नीमचा हाथ में मस्ती से लहू सी आँखें
    सज तिरी देख के ऐ शोख़ हज़र हमने किया

    दीवान-ए-अव्वल
    बारे कल ठैर गए उस ज़ालिम ख़ूँ-ख़्वार से हम
    मुंसफ़ी कीजिए तो कुछ कम न जिगर हमने किया

    दीवान-ए-अव्वल
    ख़ाक में लोटूँ कि लोहू में नहाऊँ मैं ‘मीर’
    यार मुस्तग़नी है उसको मिरी पर्वा क्या हो

    दीवान-ए-अव्वल
    जूँ चश्म-ए-बिस्मिली न मंदी आवेगी नज़र
    जो आँख मेरे ख़ूनी के चेहरे पे बाज़ हो

    इस शे'र में पैकर इस क़दर ग़ैर-मा'मूली और वाक़िइ'य्यत से भरपूर होने के बा-वजूद शिद्दत और मुबालग़े से इस तरह भरपूर है कि शेक्सपियर के बेहतरीन पैकरों की याद आती है। मा'शूक़ को ख़ूनी कहा है। फिर कहा है कि जो आँख उसके चेहरे पर खुल गई या'नी जिस आँख ने उसको देख लिया, फिर वो हमेशा टकटकी लगाए उसके चेहरे को तकती रहेगी, जिस तरह कि ज़ब्ह किए हुए जानवर की आँख खुली रह जाती है और कभी बंद नहीं होती। या'नी मा'शूक़ के हुस्न और उस हुस्न के क़त्ताल होने, दोनों बातों को ब-यक-वक़्त “चश्म-ए-बिस्मिली” के पैकर के ज़रीए’ ज़ाहिर कर दिया। 

    वाक़िआ'ती इशारे बिल्कुल सामने के हैं (मा'शूक़ का हद-दर्जा हसीन होना, उसका ज़ालिम होना, उसका ख़ूनी होना, लोगों का उसे देखना तो देखते रह जाना) लेकिन इस्ति'आरा, मुबालग़ा और तश्दीद से भरपूर है। इसके बा-वजूद शे'र की फ़ज़ा रोज़मर्रा दुनिया की सी है, क्योंकि “चश्म-ए-बिस्मिली” के बा'द इसमें दूसरा शाह-कार लफ़्ज़ “मेरे” है। या'नी वो शख़्स जो मेरा मा'शूक़ (ख़ूनी मा'शूक़) है, या वो जिसने मेरा ख़ून किया। दोनों सूरतों में एक घरेलू सी अपनाइयत है, जो मा'शूक़ की शख़्सियत को रोज़मर्रा ज़िंदगी के मुआ'मलात से बाहर नहीं जाने देती। अब देखिए ‘ग़ालिब’ ने इसी पैकर को किस दर्जा तसव्वुराती और आ'म दुनिया से किस क़दर दूर करके पेश किया है,

    अपने को देखता नहीं ज़ौक़-ए-सितम तो देख
    आईना ताकि दीदा-ए-नख़चीर से न हो

    मा'शूक़ को ज़ौक़-ए-सितम इस क़दर है कि जब तक किसी मक़्तूल की खुली हुई टकटकी लगाकर तकती हुई आँख का आईना फ़राहम न हो, वो अपनी आराइश भी नहीं करता। इस मिसाल के बा'द ‘मीर’ और ‘ग़ालिब’ के तरीक़-ए-कार का फ़र्क़ ज़ाहिर करने के लिए मज़ीद कुछ कहना गै़र-ज़रूरी मा'लूम होता है। मा'शूक़ की शख़्सियत के बारे में ‘मीर’ के चंद अशआ'र सिर्फ़ दीवान-ए-अव्वल से और सुन लीजिए,

    दीवान-ए-अव्वल
    उस्तुख़्वाँ तोड़े मिरे उसकी गली के सग ने
    किस ख़राबी से मैं वाँ रात रहा मत पूछो

    दीवान-ए-अव्वल
    मेरी उस शोख़ से सोहबत है बई'ना वैसी
    जैसे बन जाए किसू सादे को अ'य्यार के साथ

    दीवान-ए-अव्वल
    उसके ईफ़ा-ए-अहद तक न जिए
    उ'म्र ने हमसे बे-वफ़ाई की

    दीवान-ए-अव्वल
    उस मह के जल्वे से कुछ ता ‘मीर’ याद देवे
    अब के घरों में हमने सब चाँदनी है बोई

    दीवान-ए-अव्वल
    बाहम सुलूक था तो उठाते थे नर्म-गर्म
    काहे को ‘मीर’ कोई दबे जब बिगड़ गई

    दीवान-ए-अव्वल
    कल बारे हमसे उससे मुलाक़ात हो गई
    दो-दो बचन के होने में इक बात हो गई

    दीवान-ए-अव्वल
    शिकवा नहीं जो उसको पर्वा न हो हमारी
    दरवाज़े जिसके हमसे कितने फ़क़ीर आए

    दीवान-ए-अव्वल
    उस शोख़ की सर-तेज़ पलक है कि वो काँटा
    गड़ जाए अगर आँख में तो सर दिल से निकाले

    दीवान-ए-अव्वल
    सौ ज़ुल्म उठाए तो कभू दूर से देखा
    हरगिज़ न हुआ ये कि हमें पास बुला ले

    ग़रज़ कि ऐसे अशआ'र का एक दफ़्तर है। कुल्लियात का कोई सफ़्हा खोलिए, आपको दो-चार शे'र ऐसे मिल जाएँगे जिनमें आ'शिक़ और मा'शूक़ आ'म ज़िंदगी के इंसानों की तरह महव-ए-मुआ'मलात नज़र आते हैं। मलहूज़ रहे कि मैं अभी उन शे'रों का ज़िक्र नहीं कर रहा हूँ जिनमें मा'शूक़ के जिस्मानी हुस्न से लज़्ज़त-अंदोज़ होने का ब-राह-ए-रास्त ज़िक्र है और जिनमें मा'शूक़ सरासर गोश्त-पोस्त का इंसान नज़र आता है (और वो इंसान भी नहीं जिसके ख़त-ओ-ख़ाल कंघी-चोटी, मूबाफ़, अँगिया, कुर्ती और महरम के हवाले से वाज़ेह किए जाएँ।)

    मा'शूक़ से लज़्ज़त-अंदोज़ होने पर मबनी अशआ'र को फ़िलहाल छोड़िए, क्योंकि उनमें ग़ैर-मा'मूली हुस्न और शोख़ी तो है, लेकिन वो अठारवीं सदी की ग़ज़ल के आ'म धारे से बहुत अलग नहीं हैं। मैंने जिन अशआ'र का हवाला ऊपर दिया है वो ‘मीर’ के अपने तबा’-ज़ाद रंग के हैं। उनमें मा'शूक़ की शख़्सियत जिस नहज से नुमायाँ की गई है, वो उर्दू शाइ'री की आ'म नहज नहीं है, और ‘ग़ालिब’ से बहर-हाल बिल्कुल मुख़्तलिफ़ है।

    इन अशआ'र के अ'नासिर का तज्ज़िया कीजिए तो ये बात साफ़ मा'लूम होती है कि मा'शूक़ और आ'शिक़ में बराबरी का रिश्ता नहीं है, हो भी नहीं सकता। मा'शूक़ बहर-हाल आ'शिक़ पर हावी रहता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आ'शिक़ बिल्कुल बेचारा और बेकस है। वो कभी-कभी एहतिजाज करता है, कभी-कभी बिगड़ भी बैठता है, कभी-कभी उसकी और मा'शूक़ की मुलाक़ात भी हो जाती है। जब तक तअ'ल्लुक़ात ठीक रहते हैं, वो मा'शूक़ की सख़्त-नर्म बातें बर्दाश्त करता है, लेकिन जब बात बिगड़ जाती है, तो वो भी तुर्की-ब-तुर्की जवाब देता है। वो उसकी गली तक पहुँच भी जाता है।

    ये और बात है कि वहाँ मा'शूक़ की गली का कुत्ता उसकी हड्डियाँ तोड़ता है, लेकिन वो इस वाक़िए’ का बयान अ'जीब तमानियत और थोड़े बहुत मज़ाह के साथ करता है। मज़ाह का उं'सुर उसकी शख़्सियत में ज़ियादा नुमायाँ है, बेचारगी और पसमांदगी का कम लेकिन मा'शूक़ में इस्ति़ग़ना और ना-पुर्सी, ख़ूँ-रेज़ी और शौक़-ए-शिकार, ज़ुहद-रंजी और जौर-ए-बे-वज्ह-ओ-निहायत के भी अ'नासिर पूरी तरह कार-फ़र्मा हैं। ये बात तय नहीं होती कि मा'शूक़ जान-बूझ कर ज़ुल्म करता है, या उसकी फ़ितरत में ज़ुल्म इस तरह वदीअ'त किया गया है कि उसको एहसास ही नहीं होता कि वो ज़ालिम भी है। दीवान-ए-अव्वल का ये शे'र फिर देखिए,

    नीमचा हाथ में मस्ती से लहू सी आँखें
    सज तिरी देख के ऐ शोख़ हज़र हमने किया

    फिर ये अशआ'र भी मुलाहिज़ा हों,

    दीवान-ए-दोव्वुम
    पलकों से रफ़ू उनने किया चाक-ए-दिल ‘मीर’
    किस ज़ख़्म को किस नाज़ुकी के साथ सिया है

    दीवान-ए-सेव्वुम
    क़ल्ब-ओ-दिमाग़-ओ-जिगर के गए पर ज़ो'फ़ है जी की ग़ारत में
    क्या जाने ये क़ुलुक़्ची उनने किस सरदार को देखा है

    “क़ुलुक़्ची” वो सिपाही होता है जो बादशाह का ब-राह-ए-रास्त मुलाज़िम न हो बल्कि किसी रईस का मुलाज़िम हो। क़ल्ब-ओ-दिमाग़-ओ-जिगर की हैसियत क़ुलुक़्ची की सी है, क्योंकि वो (‘मीर’) आ'शिक़ के मुलाज़िम हैं। जब उन्होंने सरदार को देखा तो फ़ौरन उससे जाकर मिल गए और अपने रईस को छोड़ दिया। या'नी मा'शूक़ का सामना होते ही क़ल्ब, दिमाग़, जिगर सब साथ छोड़ गए।

    दीवान-ए-सेव्वुम
    बाव से भी गर पत्ता खड़के चोट चले है ज़ालिम की
    हमने दाम-गहों में उसके ज़ौक़-ए-शिकार को देखा है

    दीवान-ए-चहारुम
    जब तलक शर्म रही माना’-ए-शोख़ी उसकी
    तब तलक हम भी सितम-दीदा हया करते थे

    दीवान-ए-चहारुम
    कब वअ'दे की रात वो आई जो आपस में न लड़ाई हुई
    आख़िर इस औबाश ने मारा रहती नहीं है आई हुई

    लिहाज़ा हम देखते हैं कि ये मा'शूक़ ‘मोमिन’ (और बड़ी हद तक ‘ग़ालिब’) के मा'शूक़ की तरह सुतूरी (linear) और कम-ओ-बेश बाहम यकसाँ (Consistent) सिफ़ात रखने वाला नहीं है। बल्कि ये मा'शूक़ बहुत ही पेचीदा (complex) किरदार रखता है। कोई ज़रूरी नहीं कि सारे कुल्लियात में एक ही आ'शिक़ और एक ही मा'शूक़ हो। ये बहस तो उस वक़्त पैदा होती जब हम ये फ़र्ज़ करते कि ये आ'शिक़ और मा'शूक़ किसी फ़िक्शन के किरदार हैं।

    जैसा कि मैं ऊपर वाज़ेह कर चुका हूँ, ये किरदार उस मअ'नी में किरदार नहीं हैं जिस मअ'नी में फ़िक्शन-निगार अपने किरदार बनाता है। यहाँ बुनियादी बात ये है कि आ'शिक़ और मा'शूक़ का जो पैकर (image) ‘मीर’ के कुल्लियात में मिलता है, वो फ़िक्शन के किरदार की तरह अपनी इन्फ़िरादियत और शख़्सियत रखता है और वाक़ई’ ज़िंदगी के इंसानों की तरह बहुत पेचीदा भी है। इन किरदारों में रस्मी क़िस्म की वाक़िइ'य्यत नहीं है, लेकिन ये वाक़ई’ किरदारों की तरह हम पर असर-अंदाज़ होते हैं, क्योंकि शाइ'र ने उनको तसव्वुराती और तजरीदी सत्ह पर नहीं बयान किया है (जैसा कि ‘ग़ालिब’ का अंदाज़ है) बल्कि मरई और अर्ज़ी सत्ह पर बयान किया है।

    वाक़िइ'य्यत के इस रंग ने बहुत से नक़्क़ादों को इस धोके में मुब्तिला कर दिया कि कुल्लियात ‘मीर’ में आ'शिक़ दर-अस्ल ‘मीर’ ख़ुद हैं, और जो मा'शूक़ है वो भी कोई वाक़ई’ शख़्स है। हालाँकि मा'शूक़ के किरदार में तरह-तरह के मुतज़ाद पहलुओं और ख़ुद मा'शूक़ की जिंस में कहीं औरत और कहीं वाज़ेह तौर पर मर्द का तज़्किरा इस बात को साफ़ करने के लिए काफ़ी होना चाहिए था कि हम किसी वाक़ई’ शख़्स या अश्ख़ास का हाल नहीं पढ़ रहे हैं और न हम इन ग़ज़लों के पर्दे में ‘मीर’ की सवानेह-ए-हयात पढ़ रहे हैं।

    लेकिन नाम निहाद सवानिहाती, समाजियाती, तारीख़ी स्कूल के नक़्क़ादों को अपने अ'क़ाइद इस क़दर प्यारे हैं कि वो कुल्लियात-ए-‘मीर’ के बजाए अपने मफ़रूज़ात को पढ़ कर ‘मीर’ पर तन्क़ीद फ़रमाते हैं। ‘मीर’ ने अपने सवानेह बयान करने के लिए ख़ुद-नविश्त सवानेह-ए-हयात और मसनवी दोनों अस्नाफ़ को बरता है। ग़ज़ल का मक़सद उनकी नज़र में ये था ही नहीं कि इसमें “सच्चे हालात” बयान किए जाएँ। जो लोग ग़ज़ल को ख़ुद-नविश्त के तौर पर पढ़ते हैं वो क्लासिकी ग़ज़ल की शे'रियात से ना-वाक़िफ़ हैं।

    ‘मीर’ का कमाल ये नहीं है कि उन्होंने ग़ज़ल के पर्दे में अपनी दास्तान-ए-इ'श्क़ नज़्म कर दी। कुल्लियात का मा'मूली सा मुताला’ भी बता देगा कि मुख़्तलिफ़ वाक़िआ'त-ओ-कैफ़ियात-ओ-हालात-ओ-जज़्बात का ये बयान, ऐसे रूयों का बयान जो आपस में किसी तरह भी बाहम यकसाँ (consistent) नहीं हैं, आ'शिक़ और मा'शूक़ के आपसी अ'मल रद्द-ए-अ'मल में इस दर्जा गूना-गूनी का एहसास, ये सब बातें इस बात की ज़ामिन हैं कि ‘मीर’ की ग़ज़ल उनकी ख़ुद-नविश्त सवानेह नहीं है। (ख़ुद-नविश्त सवानेह का नज़रिया रखने वाले नक़्क़ाद ये क्यों नहीं सोचते कि अगर इन ग़ज़लों को सवानेह-ए-हयात ही होना है तो वो ‘मीर’ ही क्यों, किसी और की सवानेह क्यों नहीं हो सकती?)

    ये और बात है कि शाइ'र (और ग़ज़ल का शाइ'र) आ'म शो'रा से ज़ियादा अपने ज़ाती तजुर्बात-ओ-मुशाहिदात से काम लेता है, लिहाज़ा मुम्किन है कि ‘मीर’ ने भी बहुत सी बातें ऐसी कही हों जो पूरी की पूरी, या कम-ओ-बेश, या उससे मिलती-जुलती बातें, ख़ुद उन पर गुज़री हूँ लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वो आप-बीती को जग-बीती बनाकर पेश कर रहे हैं, या अपने दिल का दुखड़ा रो रहे हैं।

    ये तसव्वुर ही मोहमल है कि ‘मीर’ ने अपने ग़म को आफ़ाक़ी ग़म बनाकर पेश किया। अव्वल तो ये बात कोई ऐसी अहम नहीं लेकिन ज़ियादा बुनियादी बात ये है कि ऊपर जिन अशआ'र का हवाला गुज़रा, उनका शाइ'र आप-बीती, ज़ाती ग़म-ओ-अलम, दिल का दुखड़ा रोना वग़ैरह यक-सत्ही और महदूद बातों से बहुत आगे और बहुत बुलंद है।

    उसके यहाँ तजुर्बे और मुशाहिदे की वो दुनिया है जो ग़म, अलम, दर्दनाकी, दिल-शिकस्तगी, हिर्मां-नसीबी वग़ैरह जैसी इस्तेलाहों के ज़रीए’ नहीं बयान हो सकती। इस दुनिया में सब कुछ हो चुका है और सब कुछ होता है। इसमें मौत भी है और मौत से बद-तर ज़िंदगी भी। इसमें ख़ुद्दारी और ख़ुद-फ़रेबी दोनों हैं। इसमें मा'शूक़ बादशाह भी है और औबाश भी। इसमें ज़िंदगी मज़ेदार भी है और तल्ख़ भी। इसमें आ'शिक़ बेचारा भी है लेकिन थोड़ा बहुत बा-इख़्तियार भी है। जिस दुनिया में सब कुछ हुआ हो, और जिस शाइ'र ने सब कुछ बरता हो, उसको आप-बीती, अपने दु:ख-दर्द का महदूद इज़हार करने वाला वही नक़्क़ाद कह सकता है जिसको ‘मीर’ से दुश्मनी हो।

    अ'ला-हाज़ल-क़यास, वो नक़्क़ाद भी ग़लत-फ़हमी में गिरफ़्तार हैं जिनके ख़याल में ‘मीर’ की हिर्मां-नसीबी और महज़ूनी उस मुआ'शरे की फ़ितरी पैदा'वार थी, जिसमें औरतें घरों में पर्दा-नशीन रहती थीं और इ'श्क़ करना रुस्वाई का सौदा था। आज़ादाना इख़्तिलात के मवाक़े’ न होने की बिना पर इ'श्क़ में मायूसी लाज़िमी थी और समाज और मज़हब के ख़ौफ़ के बाइ'स आ'शिक़-ओ-मा'शूक़ इन मवाक़े’ का भी फ़ाएदा न उठा सकते थे जो कभी-कभी उनको मयस्सर हो जाया करते थे। ज़ाहिर है कि ये सब बातें भी नक़्क़ादों की अपनी इख़्तिरा हैं। उनका ग़ज़ल के क़वाइ'द और रिवायत से कोई वास्ता नहीं और न उन समाजी हालात से जो अठारवीं सदी की दिल्ली में वाक़ई’ रू-नुमा थे।

    समाजी हालात कुछ भी रहे हों, जो मा'शूक़ मुंदरजा-बाला अशआ'र और उनकी तरह के सैकड़ों अशआ'र में नज़र आता है, वो बहर-हाल कोई छुई-मुई क़िस्म की पर्दे की बूबू, कोई डरती झिझकती, कोठरी में छुप-छुप कर रोने वाली बिंत-ए-अ'म नहीं थी।

    इस बात से क़त’-ए-नज़र कि उसकी अपनी शख़्सियत ख़ासी पुर-क़ुव्वत और बड़ी हद तक जारिहाना थी, वो अपने क़ौल-फे़'ल में इस क़दर मजबूर भी नहीं थी कि उसका इ'श्क़ बहर-हाल नाकाम ही होता। बल्कि हम तो ये देखते हैं कि वो अपने इल्तिफ़ात-ओ-करम (favours) को अ'ता करने या न करने पर पूरी तरह क़ादिर है और इस बात का भी इख़्तियार-ओ-क़ुव्वत रखती है कि वो किसी बुर्क़ा-पोश की तरह सहमी हुई बाहर निकलने के बजाए इस तरह बाहर निकले कि हर तरफ़ “उधम” मच जाए।

    दीवान-ए-सेव्वुम
    आँखें दौड़ीं ख़ल्क़ जा ऊधर गिरी
    उठ गया पर्दा कहाँ ऊधम हुआ

    मुझे इस सवाल से कोई बहस नहीं कि आया ‘मीर’ के ज़माने में समाजी हालात वाक़ई’ ऐसे थे कि उनमें इस तरह का मा'शूक़ वजूद में आ सकता, जैसा कि इन शे'रों से ज़ाहिर होता है? समाजी हालात इतने पेचीदा और तह-दार होते हैं कि उनके बारे में कोई एक हुक्म लगाना ख़तरे से ख़ाली नहीं होता। लेकिन फ़र्ज़ किया कि हालात ऐसे नहीं थे कि मा'शूक़ का वो किरदार उनमें मुम्किन होता जो मुंदरजा-बाला शे'रों में नज़र आता है। तो फिर इससे साबित क्या होता है?

    समाजी हालत का वजूद या अ'दम-वजूद अशआ'र के वजूद को तो अ'दम से बदल नहीं सकता। अशआ'र हमारे सामने हैं, उनकी रौशनी में हमको फ़ैसला करना चाहिए कि ‘मीर’ के कलाम में आ'शिक़ और मा'शूक़ का पैकर किस तरह का है। ज़ाहिर है कि ये उस तरह का नहीं है जैसा बा'ज़ नक़्क़ाद फ़र्ज़ करते हैं कि ‘मीर’ का मा'शूक़ कोई पर्दे में छिप कर घुट-घुट कर मरने वाली लड़की है और आ'शिक़ बेचारा पर्दे के बाइ'स औरतों मर्दों की अलाहिदगी और समाज की आ'शिक़ दुश्मनी का सैद-ए-ज़बूँ होने की वज्ह से हिर्मां-नसीबी और नौमीदी-ए-जावेद का मुरक़्क़ा’ है।

    मैं सिर्फ़ ये कहना चाहता हूँ कि ‘मीर’ के शे'र की तरह उनके यहाँ आ'शिक़ और मा'शूक़ का किरदार भी इंतिहाई पेचीदा है। उस पर कोई एक हुक्म लगाना ‘मीर’ के साथ ज़्यादती होगी। ‘मीर’ के आ'शिक़-ओ-मा'शूक़ दोनों में ऐसी इन्फ़िरादियतें हैं जो किसी और के यहाँ नहीं मिलतीं। ये इन्फ़िरादियतें ख़ुद ‘मीर’ के मिज़ाज की इन्फ़िरादियत का मज़हर हैं और उनका इज़हार बा'ज़ ऐसी शे'री और ड्रामाई वाक़िइ'य्यत की तर्ज़ों से हुआ है जो ‘मीर’ का तुर्रा-ए-इम्तियाज़ हैं। आ'शिक़ और मा'शूक़ के किरदार की वाक़िइ'य्यत और इन्फ़िरादियत का इज़हार ‘मीर’ ने एक ही शे'र में भरपूर ढंग से कर दिया है,

    दीवान-ए-चहारुम
    ‘मीर’ ख़िलाफ़-ए-मिज़ाज मुहब्बत मूजिब-ए-तल्ख़ी कशीदन है
    यार मुवाफ़िक़ मिल जाए तो लुत्फ़ है चाह-मज़ा है इ'श्क़

     

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