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मीर की शख़्सियत: उनके कलाम में

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

मीर की शख़्सियत: उनके कलाम में

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

MORE BYशम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

     

    शाइ'री के बारे में हमारे यहाँ ये ख़याल आ'म है कि ये शाइ'र की शख़्सियत का इज़हार करती है। इसे तरह-तरह से बयान किया गया है। मसलन नूर-उल-हसन हाश्मी ने कहा कि शाइ'री या कम से कम “सच्ची” शाइ'री “दाख़िली” शय है। लिहाज़ा जिस शाइ'री में शाइ'र की “दाख़िली शख़्सियत” का सुराग़ न लगता था, उसे “ख़ारिजियत” पर मबनी शाइ'री, लिहाज़ा झूटी या कम-तर दर्जे की शाइ'री कहा गया। चुनाँचे ज़ियादा-तर मसनवियाँ, तक़रीबन तमाम मदही-क़साइद, ज़ियादा-तर ग़ज़ल, या'नी वो ग़ज़ल जिसमें मुआ'मलात-ए-दिल या मुआ'मलात-ए-तसव्वुफ़ का बयान न था, उन सबको सच्ची शाइ'री या आ'ला शाइ'री के ज़ुमरे से बाहर क़रार दिया गया।

    मसनवियों में से कुछ को ज़रूर इसलिए मुआ'फ़ी मिल गई कि उनमें “समाजी हालात” या “बयानिया-ए-वाक़िइ'य्यत” का शाइबा मिल जाता था। तंज़, हज्व वग़ैरह में भी “दाख़िलियत” का फ़ुक़दान था कि उनमें शाइ'र “अपने दिल की गहराई” में उतरने से गुरेज़ करता था।

    उ'मूमी तौर पर हमारे नक़्क़ादों की राय यही रही है कि सबसे अच्छी शाइ'री वो ग़ज़ल है जिसमें “दाख़िलियत” हो। मर्सिया चूँकि शाइ'र के अ'क़ाइद और जज़्बात का बयान करता है, लिहाज़ा मरसिये और ख़ासकर मीर ‘अनीस’ के मरसिये भी आ'ला शाइ'री के नमूनों में शुमार हो सकते हैं। तंज़ और हज्व का दर्जा सबसे अस्फ़ल क़रार पाया।

    शाइ'री में शख़्सियत के इज़हार के उसूल को यूँ भी बयान किया गया कि शाइ'री को “अस्लियत” या “हक़ीक़त” या “वाक़ई” हालात पर मबनी होना चाहिए। इस उसूल की रौ से भी ग़ज़ल की ही शाइ'री किसी शुमार-ओ-हिसाब में आ सकी और शर्त ये रखी गई कि ग़ज़ल का शाइ'र वही कुछ बयान करे जिससे वो ख़ुद दो-चार हो चुका हो। या'नी शाइ'री को एक तरह की ख़ुद-नविश्त सवानेह-ए-हयात क़रार दिया गया। चुनाँचे अं'दलीब शादानी ने अपने मशहूर और बा-असर सिलसिला-ए-मज़ामीन में ये दा'वा किया कि अच्छे शाइ'र अपनी ग़ज़ल में वही कुछ बयान करते हैं जो उनके ज़ाती तजुर्बे में दाख़िल हो। इनके बर-ख़िलाफ़, मुआ'सिरीन में जो मशहूर ग़ज़ल-गो हैं, मसलन ‘असग़र’, ‘जिगर’, ‘हसरत’ वग़ैरह उनकी शाइ'री कम-तर दर्जे की है, क्योंकि वो इ'श्क़ के “सच्चे वारदात” और ज़िंदगी के “सच्चे वाक़िआ'त” पर मबनी नहीं है। उनका ख़याल था कि, “ग़ज़ल कहने का अहल उसी को समझना चाहिए जो अपने जज़्बात की तर्जुमानी करता है, आप-बीती कहता है।”

    मिसाल के तौर पर अं'दलीब शादानी को सख़्त ए'तिराज़ है कि ग़ज़ल का शाइ'र अगर मर चुका है तो वो शे'र किस तरह कह रहा है, और अगर मरा नहीं है तो अपने मरने के वाक़िआ'त क्यों बयान कर रहा है? ‘हसरत’ मोहानी के बारे में शादानी लिखते हैं,

    “हसरत के अशआ'र और ‘हसरत’ के सवानेह-ए-हयात में हम-आहंगी तो कुजा, कोई दूर का तअ'ल्लुक़ भी नहीं मा'लूम होता। मौलाना हसरत ज़ीदा-उमरह माशाअल्लाह तंदुरुस्त-ओ-तवाना कानपूर में बिराज रहे हैं। फिर कोई किस तरह तस्लीम कर ले कि उनके अशआ'र में जो वाक़िआ'त मज़कूर हैं, मसलन मौलाना का क़त्ल या आ'लम-ए-नज़्अ’ और वफ़ात वग़ैरह, उनमें कोई अस्लियत है?”

    ईरानी ग़ज़ल के बारे में शादानी साहब का इरशाद था कि वहाँ जफ़ा-ए-महबूब वग़ैरह के मज़ामीन अस्लियत पर मबनी हैं, इसलिए चंदाँ क़ाबिल-ए-ए'तिराज़ नहीं। उर्दू के ग़ज़ल-गो, ख़ासकर शादानी के मुआ'सिर ग़ज़ल-गो सिर्फ़ नक़्क़ाली करते हैं। उनकी ज़िंदगियाँ इन मुआ'मलात से ख़ाली हैं।

    नाम निहाद “लखनऊ स्कूल” की शाइ'री को भी इसीलिए नाम निहाद “दिल्ली स्कूल” की शाइ'री के मुक़ाबले में कमज़ोर और कम-तर ठहराया गया कि नक़्क़ादों के ब-क़ौल “लखनऊ स्कूल” की शाइ'री में कंघी, चोटी, मिस्सी, सुरमे, अँगिया, कुर्ती की बातचीत “दाख़िली” बातें न थीं। इस तरह ये उसूल भी वजूद में आया कि वो शाइ'री जिसमें जिंसी जज़्बे या जिस्मानी हुस्न का इज़हार किया गया हो, वो दोएम बल्कि सोएम दर्जे की शाइ'री है।

    हमारे नक़्क़ाद साहिबान यहाँ पर ये बात भूल गए कि शाइ'र अगर मा'शूक़ के जिस्मानी हुस्न का बयान या अपने जज़्ब-ए-जिंस का इज़हार करता है तो वो अपनी शख़्सियत की सच्ची तस्वीर ही तो खींच रहा है। ख़ैर फ़िलहाल इस बात को अलग रखते हैं।

    शख़्सियत के इज़हार का उसूल हमारे यहाँ यूँ भी बयान किया गया कि उस्लूब बज़ात-ए-ख़ुद कुछ नहीं है, मुसन्निफ़ का सच्चा इज़हार उसके उस्लूब ही में होता है। ये अस्ल ब-ज़ाहिर जितना दिलकश है, इतना ही मुबहम है। पहली बात तो ये कि उसे हम लोगों ने ब-राह-ए-रास्त अंग्रेज़ी से मुस्तआ'र लिया। वहाँ ये फ़िक़रा इस तरह मक़बूल-ओ-मशहूर है,

    Style is the man

    लेकिन ये अंग्रेज़ी फ़िक़रा ख़ुद ही फ़्रांसीसी से मुस्तआ'र है। अस्ल फ़्रांसीसी है,

    Le style est Thomme meme

    इस फ़िक़रे का मुसन्निफ़ कोई नक़्क़ाद नहीं बल्कि बुफ़न (Buffon) नामी एक साईंस-दाँ था। फ़्रांसीसी में इस जुमले का मतलब ये निकलता है कि उस्लूब या Style का अलग से कोई वजूद नहीं, मुसन्निफ़ ही सब कुछ है। अंग्रेज़ी में इसका मतलब ये निकलता है कि जैसी शख़्सियत होगी वैसा उस्लूब होगा। हम लोगों ने यही मतलब अख़ज़ किया लेकिन इसके मुज़म्मिरात पर ग़ौर न किया।

    मिडिलटन मरी का क़ौल था कि “उस्लूब वो शय है जिसे किसी इंसान के बदन का गोश्त और हड्डियाँ कहें, न कि लिबास, जिसे वो ऊपर से पहनता है।” इसका मतलब ये निकला कि मुसन्निफ़ की अस्ल शख़्सियत को पहचाने बग़ैर हम उसे या उसके उस्लूब को नहीं पहचान सकते लेकिन मुसन्निफ़ की “अस्ल शख़्सियत” क्या है, इसका तअ'य्युन कम-ओ-बेश ग़ैर-मुम्किन था। लिहाज़ा हम लोगों ने इस क़ौल को उस्लूब के नामियाती नज़रिए के तौर पर क़ुबूल किया और जगह-जगह रस्मी तौर पर ही इसका विर्द करते रहे।

    अ'मलन हमने इससे सिर्फ़ ये काम लिया कि मुसन्निफ़ के “अस्ल किरदार” की रौशनी में उसके अदबी मर्तबे का फ़ैसला करना चाहा। लिहाज़ा हमने गुमान किया कि अगर ‘मीर’ ने “ज़िक्र-ए-मीर” में बहुत सारा झूट बोला है तो इस बात की बुनियाद पर हम उनकी शाइ'री के बारे में कोई नतीजा ज़रूर निकाल सकेंगे।

    मसलन हम शायद ये कह सकेंगे कि जो शख़्स इतना झूटा हो वो अच्छा शाइ'र नहीं हो सकता, क्योंकि उसने अपने वारदात-ए-इ'श्क़ के बयान में भी झूट से काम लिया होगा।

    ‘ग़ालिब’ के बारे में अक्सर ये शुबह ज़ाहिर ही किया गया कि उनमें इंसानी और अख़्लाक़ी कमज़ोरियाँ बहुत थीं, लिहाज़ा उनकी शाइ'री के बारे में भी हमारा तरह-तरह के शुकूक में मुब्तिला हो जाना हक़-ब-जानिब हो सकता है।

    जदीदियत ने शाइ'री में शख़्सियत के इज़हार के बारे में ये बात कही कि शाइ'री “इज़हार-ए-ज़ात” का नाम है। इससे मुराद ये ली गई कि शाइ'र वही बयान करता है जो कुछ वो ख़ुद महसूस करता है। वो किसी के हुक्म या मर्ज़ी का पाबंद नहीं होता। वो उन्हीं बातों का ज़िक्र करता है जिन्हें वो सच समझता है। शाइ'र अपनी सच्चाइयाँ लिखता है, अपनी बसीरत का इज़हार करता है। हक़ाएक़ के बयान के लिए शाइ'र किसी का मोहताज नहीं या मुक़ल्लिद नहीं होता, वो हर चीज़ को अपने हवाले से देखना और समझना चाहता है।

    दूसरे अल्फ़ाज़ में, शाइ'र पंचायती हक़ाएक़ के बजाए ज़ाती हक़ाएक़ का इज़हार करता है। इसमें कोई शक नहीं कि जदीद शाइ'री और नई शाइ'री, ख़ासकर जदीद नज़्म और नई नज़्म के लिए ये उसूल बिल्कुल सही है। जदीद ग़ज़ल और नई ग़ज़ल के लिए भी इस कुल्लिये को मिशअ'ल-ए-राह क़रार दिया जा सकता है। ‘मीरा-जी’, ‘राशिद’ और ‘अख़्तर-उल-ईमान’ से लेकर आज तक की तमाम जदीद शाइ'री की असास यही कुल्लिया है।

    जदीदियों को इफ़रात-ओ-तफ़रीत, बे-राह-रवी और धाँदली-बाज़ी के इल्ज़ामात से मुत्तहिम किया गया है। लेकिन उनके बड़े कारनामों में एक ये भी है कि उन्होंने “इज़हार-ए-ज़ात” के उसूल को क़दीम या क्लासिकी शाइ'री पर जारी नहीं किया। तरक़्क़ी-पसंद तन्क़ीद ने क्लासिकी शाइ'री को अपने नज़रियात की रौशनी में परखा और उसे ग़ैर-इत्मीनान-बख़्श पाया। उनके बर-ख़िलाफ़ जदीदियों ने शाइ'री के इज़हार-ए-ज़ात होने के उसूल को सिर्फ़ जदीद शाइ'री की बुनियाद क़रार दिया और इस बात पर इसरार न किया कि हमारी पुरानी शाइ'री भी इसी उसूल की रौशनी में परखी जाए। इसके अ'ला-अलर्रग़्म, उन्होंने ये कहा कि पुरानी और नई शाइ'री में कोई बुनियादी फ़र्क़ नहीं, क्योंकि दोनों ही शाइ'री हैं। इस तरह उन्होंने इस इम्कान की तरफ़ इशारा किया कि इज़हार-ए-ज़ात होना तमाम शाइ'री के लिए ज़रूरी नहीं।

    (2)
    मजमूई’ हैसियत से जो उसूल हमारे यहाँ मकतबी और सिक्का-बंद तन्क़ीद में राइज हुआ, वो ये था कि शाइ'री और ख़ासकर ग़ज़ल की शाइ'री, किसी न किसी मअ'नी में शाइ'र की ज़िंदगी का आईना होती है। इसके दो मअ'नी निकले।

    एक तो ये कि शाइ'र की ज़िंदगी और शख़्सियत के बारे में कुछ न कुछ हक़ाएक़ हम उसकी शाइ'री से अख़ज़ कर सकते हैं और दूसरे मअ'नी ये निकले के शाइ'र की ज़िंदगी और शख़्सियत की बुनियाद पर हम उसकी शाइ'री के बारे में कुछ नताइज अख़ज़ कर सकते हैं।

    मुख़्तलिफ़ नक़्क़ादों के यहाँ इन उसूलों की कार-फ़रमाई मुख़्तलिफ़ हदों के अंदर मिलती है और मुख़्तलिफ़ शाइ'रों की भी तन्क़ीद में इन उसूलों से काम मुख़्तलिफ़ हुदूद के अंदर ही लिया गया। मसलन मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने ‘आतिश’ को बे-रिया, ग़यूर, कम-ख़ुराक, दरवेश-सिफ़त मर्द-ए-आज़ाद के रूप में पेश किया था और ‘आतिश’ के बर-ख़िलाफ़ उन्होंने ‘नासिख़’ को ख़ुश-खुराक, दुनियावी और “ग़ैर-शाइ'राना” मा'मूलात मसलन कसरत और कुश्ती का शाइक़, थोड़ा बहुत मुतकब्बिर और मुतमव्विल इंसान दिखाया था।

    हमारी तन्क़ीद ने झट ये फ़ैसला कर लिया कि अगर ‘आतिश’-ओ-‘नासिख़’ दो मुख़्तलिफ़ तरह के लोग थे तो वो मुख़्तलिफ़ तरह के शाइ'र भी होंगे। लिहाज़ा ‘आतिश’ की दरवेशी और आज़ादा-रवी के पेश-ए-नज़र उन्हें “देहलवी तर्ज़” के “दाख़िली” अंदाज़ का शाइ'र क़रार दिया गया और ‘नासिख़’ को उनकी दुनियावी दिलचस्पियों के पेश-ए-नज़र “लखनवी” तर्ज़ का “ख़ारिजियत-पसंद” शाइ'र कहा गया।

    मुख़्तलिफ़ शो'रा के यहाँ शाइ'री सवानेह-ए-हयात, और सवानेह-ए-हयात शाइ'री, के उसूल को मुख़्तलिफ़ हदों के अंदर कार-फ़र्मा देखने की मिसाल नज़ीर अकबराबादी और अमीर मीनाई हैं। हमने नज़ीर अकबराबादी की नज़्मों में वसीअ’-उल-मशरबी, क़लंदराना आज़ादा-रवी और सुल्ह-ए-कुल के अंदाज़ देखकर ये नतीजा निकालने में देर न की कि उनकी शख़्सियत भी ऐसी ही थी। उनकी नज़्मों की बिना पर हमने उन्हें अ'वामी शाइ'र कह दिया। उनकी ग़ज़लों से ये नतीजा निकालना ग़ैर-मुम्किन था, लिहाज़ा नज़ीर की ग़ज़लों को हमने यकसर नजर-अंदाज़ कर दिया।

    जहाँ तक अमीर मीनाई का सवाल है तो हमने इस बात पर कोई तवज्जोह न दी कि सूफ़ी बा-सफ़ा और मुतशर्रे’ मर्द नेक-निहाद होते हुए भी अमीर मीनाई ने अपनी तमाम शाइ'री में ख़ासी उ'र्यानियत या जिंसी लुत्फ़-अंदोज़ी के मज़ामीन क्यों रवा रखे हैं? क्या इसका मतलब ये नहीं निकलता कि वो लज़्ज़त-कोशी और रिन्दी-ओ-शाहिद-बाज़ी के आदमी थे। और अगर ऐसा है तो फिर उनके तसव्वुफ़ का क्या होगा? हमने इस सवाल से भी सर्फ़-ए-नज़र किया। अ'ल-हाज़ा-अल-क़यास, हमने ‘दर्द’ की शाइ'री और ज़िंदगी में तताबुक़ देखने में कोई कमी न की लेकिन रशीद अहमद सिद्दीक़ी के इस कुल्लिये का जवाब देने से गुरेज़ करते रहे कि ग़ैर-शरीफ़ आदमी या अख़्लाक़ी तौर पर ख़राब किरदार का हामिल शख़्स अच्छा शाइ'र नहीं हो सकता।

    ‘मीर’ के साथ जहाँ बहुत सी ना-इंसाफ़ियाँ हुई हैं, वहाँ ये भी है कि उनकी शाइ'री के बारे में उनकी ज़िंदगी से और उनकी ज़िंदगी के बारे में उनकी शाइ'री से दलील लाने की कोशिश दीगर बड़े शाइ'रों के मुक़ाबले में ज़ियादा ही हुई। मसलन अं'दलीब शादानी ने यक़ीन कर लिया कि ‘मीर’ के यहाँ अमरद-परस्ती पर मबनी अशआ'र इस बात को साबित करते हैं कि ‘मीर’ अमरद-परस्त थे।

    या फिर यास-ओ-हिर्मां और ग़म-ओ-अंदोह पर मबनी ‘मीर’ के बा'ज़ मशहूर अशआ'र की रौशनी में ये नतीजा निकल आया कि ‘मीर’ को रोने-बिसूरने के सिवा किसी चीज़ से सरोकार न था। हत्ता कि ‘मीर’ के यहाँ ज़रीफ़ाना अशआ'र को भी ये कह कर टाल दिया गया कि वो या तो मुब्तज़िल और पस्त हैं, या'नी दर्जा-ए-शाइ'री से गिरे हुए हैं या फिर उनके ज़रीफ़ाना रंग पर भी हुज़्न-ओ-हिर्मां की परछाई तलाश कर ली गई। बाबा-ए-उर्दू फ़रमाते हैं,

    “मीर-साहब के अशआ'र में अंदोह-ओ-अलम, नाकामी-ओ-मायूसी की झलक पाई जाती है, ये उनकी तबीअ'त की उफ़्ताद है। उनके दिल से जब कोई बात निकली, वो यास-ओ-नाकामी में डूबी हुई थी। ज़राफ़त की चाशनी ‘मीर’ साहब के कलाम में मुतलक़ नहीं... चंद ज़रीफ़ाना अशआ'र भी पाए जाते हैं लेकिन या तो वो ऐसे मुब्तज़िल क़िस्म के हैं कि उनसे बद-मज़ाक़ी पाई जाती है, या वही हसरत-ओ-यास जो उनके दम के साथ थी।”

    मजनूँ गोरखपुरी ने अगरचे ‘मीर’ की शाइ'री में किसी न किसी तरह का इन्क़िलाबी, अख़्लाक़ी पैग़ाम ढूँढ निकाला लेकिन दस बीस मशहूर शे'रों की रौशनी से चकाचौंध हो कर वो ये कहने पर भी मजबूर हुए कि

    “मीर ग़म के शाइ'र हैं। ‘मीर’ का ज़माना ग़म का ज़माना था। अगर वो ग़म के शाइ'र न होते तो अपने ज़माने के साथ दग़ा करते और हमारे लिए भी इतने बड़े शाइ'र न होते।”

    लेकिन अब उन मज़ाहिया अशआ'र का क्या हो जिनकी फुलझड़ियों से ‘मीर’ का कलाम रौशन है? हज्व को तो ये कह कर टाल सकते हैं कि साहब क्या करें, ये उस ज़माने के मिज़ाज में थी। लेकिन सच्चे और पक्के ज़रीफ़ाना शे'रों को कहाँ ले जाएँ? लिहाज़ा मजनूँ साहब ने बाबा-ए-उर्दू का सिखाया हुआ सबक़ ज़रा बदल कर दोहरा दिया। जिस मज़्मून का मैंने इक़्तिबास दिया है, उसी में मजनूँ साहब ने लिखा,

    “याद रहे कि ‘मीर’ की ज़राफ़त ओछे और सस्ते क़िस्म की ज़राफ़त नहीं होती थी। उनकी ज़राफ़त में संजीदगी और बलाग़त की बड़ी गहरी तहें होती थीं।”

    इसके जवाब में यही कहा जा सकता है कि ये तहें कहीं तो इतनी गहरी होती थीं कि नज़र से ओझल ही रहती थी, वर्ना मीर इस तरह के शे'र न कहते,

    माक़ूल अगर समझते तो ‘मीर’ भी न करते
    लड़कों से इ'श्क़-बाज़ी हंगाम-ए-कोहना-साली
    (दीवान-ए-शिशुम)

    शोहरा रखे है तेरी ख़रीयत जहाँ में शैख़
    मस्जिद हो या कि दश्त उछल-कूद हर जगह
    (दीवान-ए-सेव्वुम)

    लज़्ज़त-ए-दुनिया से क्या बहरा हमें
    पास है रंडी वले है ज़ो'फ़-ए-बाह
    (दीवान-ए-दोव्वुम)

    किया जो अ'र्ज़ कि दिल सा शिकार लाया हूँ
    कहा कि ऐसे तो मैं मुफ़्त मार लाया हूँ
    (दीवान-ए-अव्वल)

    दाढ़ी सफ़ैद शेख़ की तू मत नज़र में कर
    बगुला शिकार होवे तो लगते हैं हाथ पर

    आख़िर अ'दम से कुछ भी न उखड़ा मिरा मियाँ
    मुझको था दस्त-ए-ग़ैब पकड़ ली तिरी कमर
    (दीवान-ए-अव्वल)

    कीसा पुर-ज़र हो तू जफ़ा-जू याँ
    तुमसे कितने हमारी जेब में हैं
    (फ़र्दियात)

    चाहूँ तो भर के कोली उठा लूँ अभी तुम्हें
    कैसे ही भारी हो मिरे आगे तो फूल हो

    दिल ले के लौंडे दिल्ली के कब का पचा गए
    अब उनसे खाई पी हुई शय क्या वसूल हो
    (दीवान-ए-अव्वल)

    शोख़ी तो देखो आप-ही कहा आओ बैठो ‘मीर’
    पूछा कहाँ तो बोले कि मेरी ज़बान पर
    (दीवान-ए-चहारुम)

    इस तरह के सैंकड़ों शे'र हैं, कहाँ तक नक़्ल किए जाएँ। लेकिन दो बातें जो ग़ौर करने की हैं, वो ये हैं कि मजनूँ साहब और मौलवी अब्दुल-हक़ दोनों को ‘मीर’ की ज़राफ़त से मुआ'मला करने में बड़ी मुश्किल पेश आ रही है। दूसरी बात ये कि मजनूँ साहब की नज़र में ‘मीर’ की ग़म-अंगेज़ी का बाइ'स उनका ज़माना है। ये ज़माना ही था जिसने ‘मीर’ की ज़िंदगी (और इसलिए शाइ'री) को बक़ौल मजनूँ गोरखपुरी “एक मुस्तक़िल सूली बना रखा था।” मजनूँ साहब के बर-ख़िलाफ़, मौलवी-साहब का ख़याल है कि ‘मीर’ का मिज़ाज ही ग़म-पज़ीर था।

    मौलवी-साहब के मुताबिक़ ‘मीर’ की ज़िंदगी उनकी शाइ'री को मुनअ'किस करती है और मजनूँ साहब के मुताबिक़ ‘मीर’ की शाइ'री उनकी ज़िंदगी को मुनअ'किस करती है। या'नी मौलवी-साहब का इरशाद है कि ‘मीर’ की शाइ'री इसलिए ग़म-गीं है कि उनका मिज़ाज ग़म-पज़ीर था, लिहाज़ा उनकी ज़िंदगी ग़म-गीं थी, लिहाज़ा उनकी शाइ'री ग़म से भरी हुई है।

    और मजनूँ साहब की राय में ‘मीर’ का ज़माना ग़म से भरा हुआ था, लिहाज़ा उनकी ज़िंदगी ग़म-गीं थी, इसलिए उनकी शाइ'री भी ग़म से भरी हुई है। ऐसी सूरत में मजनूँ साहब ये कहने पर मजबूर हैं कि ‘मीर’ की ज़राफ़त अस्ली नहीं बल्कि उनकी संजीदगी की नक़ाब है। मौलवी-साहब ने ‘मीर’ का कलाम शायद ज़ियादा ग़ौर से पढ़ा था, इसलिए वो कहते हैं कि ‘मीर’ की ज़राफ़त या तौर कैक और मुब्तज़िल है या वो ज़राफ़त है ही नहीं।

    मलहूज़ रहे कि दोनों साहिबान ने बस एक शे'र के अ'लावा ‘मीर’ के कलाम से कोई सबूत लाने की कोशिश नहीं की है और वो दोनों में मुश्तरक है,

    था ‘मीर’ तो दीवाना पर साथ ज़राफ़त के
    हम सिलसिला-दारों की ज़ंजीर हिला जाता
    (दीवान-ए-चहारुम)

    ‘मीर’ के कलाम से किसी और सबूत की ज़हमत न उठाने की रौशनी में यही कहा जा सकता है कि मजनूँ साहब और बाबा-ए-उर्दू दोनों ही ने कलाम ‘मीर’ से ज़ियादा इस मफ़रुज़े को मो'तबर जाना है कि शाइ'री और कुछ हो या न हो, शख़्सियत का इज़हार होती है।

    ये और बात है कि “शख़्सियत” के मअ'नी दोनों के यहाँ मुख़्तलिफ़ हैं। मौलवी-साहब की नज़र में शख़्सियत नाम है उफ़्ताद-ओ-मिज़ाज का, और मजनूँ साहब की नज़र में शख़्सियत नाम है समाजी, सियासी और सवानही हालात के मजमूए’ का। अं'दलीब शादानी को “शख़्सियत” की नफ़सियाती या तारीख़ी तवज्जोयाती से ग़रज़ नहीं। वो शे'र में सीधे सीधे “आप-बीती” का तक़ाज़ा करते हैं।

    ये तीन साहिबान हमारी क्लासिकी ग़ज़ल और ख़ासकर ‘मीर’ की ग़ज़ल के बहुत बा-असर नक़्क़ाद रहे हैं। और ये एक तरह से हमारे यहाँ आज़ाद और हाली के बा'द ‘मीर’ की तमाम तन्क़ीद का लुब्ब-ए-लुबाब कहे जा सकते हैं। इनके यहाँ और हाली-ओ-आज़ाद के यहाँ जो मंतक़ी मुग़ालते और मजमूई’ तौर पर कलाम-ए-‘मीर’ से जो चश्म-पोशियाँ हैं, उन पर बहस का ये मौक़ा नहीं। ये भी है कि अब वो बड़ी हद तक अ'याँ भी हो चुकी हैं।

    जिसने भी ‘मीर’ का कुल्लियात एक-बार पढ़ लिया होगा उसे ‘मीर’ के बारे में मुहव्वला-बाला नक़्क़ादों की रायों के खोखलेपन का अंदाज़ा हो ही गया होगा। इस वक़्त कहने वाली अहम बात ये है कि शाइ'री या ग़ज़ल की शाइ'री के बारे में ये तसव्वुर कि वो “दाख़िली” शय है, और शाइ'र की “शख़्सियत” का इज़हार होती है, मशरिक़ी उसूल-ए-नक़्द से कोई इ'लाक़ा नहीं रखता। ये उसूल मग़रिब से मुस्तआ'र है, और मग़रिब में भी इसकी तारीख़ बहुत पुरानी नहीं है।

    (3)
    मग़रिबी अदब में दो उसूल मुद्दत-ए-दराज़ तक राइज थे। एक तो ये था कि तमाम तख़्लीक़ी कार-गुज़ारी किसी न किसी तौर पर अपने पेश-रवों की मरहून-ए-मिन्नत होती है। दूसरा उसूल ये था कि हर सिन्फ़ के अपने क़ाएदे और रुसूमियात होते हैं और कोई भी तख़्लीक़ी कार-गुज़ारी अपनी सिन्फ़ के क़वाइ'द और रुसूमियात के हवाले के बग़ैर बा-मअ'नी नहीं हो सकती।

    मग़रिबी अदब में इन उसूलों पर कम-ओ-बेश अरस्तू के ज़माने से अठारवीं सदी या'नी “रौशन फ़िक्री” या enlightenment के ज़माने तक अ'मल होता रहा। यहाँ तक कि जब कोई नई सिन्फ़ क़ाएम होने लगती तो उसे भी पुराने अस्नाफ़ और पुराने क़वाइ'द की रौशनी में समझने और समझाने की कोशिश की जाती। चुनाँचे जब सोलहवीं सदी के शुरू’ में फ़्रांस में ऐसी तहरीरें लिखी जाने लगीं जिन्हें बा'द में नॉवेल की तारीख़ का हिस्सा क़रार दिया गया तो उन्हें होमर के रज़्मियों के जे़ल में रखकर समझाने की कोशिश हुई।

    वस्त सोलहवीं सदी के फ़्रांस में एक ख़ातून Madeleine de Scudery ने कसरत से तवील बयानिए लिखे जिन्हें नॉवेल की तारीख़ में बहुत एहमियत हासिल है। ये नॉवेल लिखती तो वो ख़ुद थी लेकिन छपते वो उसके भाई जौरजेस (Georges) के नाम से थे।

    मैडेलीन डी स्कुड्री ने 1641 में “इब्राहीम” नामी एक नॉवेल चार जिल्दों में लिखा। उसके भाई ने अपने दीबाचे में वज़ाहत से कहा कि “वो तहरीरें जो दिल से निकलें”, The works of the spirit उनको महज़ इत्तिफ़ाक़ और ग़ैर-मुतवक़्क़े'आत पर नहीं छोड़ सकते। ऐसी हर तहरीर क़वानीन की पाबंद होती है और ज़ेर-ए-नज़र तख़्लीक़ में यूनानियों, ख़ासकर होमर की इलियड Iliad का ततब्बो किया गया है।

    इसके एक सदी बा'द इंग्लिस्तान में जब फ़ील्डिंग (Fielding) ने नॉवेल ब-तौर सिन्फ़ के बारे में कलाम किया तो उसने नॉवेल को “नस्र में मज़ाहिया रज़्मिया” (a comic epic in prose) का नाम दिया। ये रिवायत हमारे ज़माने तक बर-क़रार रही। मशहूर जदीद फ़्रांसीसी नक़्क़ाद और नॉवेल निगार मिशेल बटर (Michel butor) ने 1969 में नॉवेल की नज़री तन्क़ीद पर मज़ामीन लिखे तो उसने भी नॉवेल की मा'नवियत क़ाएम करने के लिए रज़्मिये का हवाला मुस्तहकम करना चाहा।

    सोलहवीं सदी का मशहूर इतालवी नक़्क़ाद स्कैलिचर (Julius Caesar Scaliger) जिसका ज़माना 1484 से 1558 तक है, अपनी ग़ैर-मा'मूली इ'ल्मियत के साथ-साथ इस बात के लिए भी मशहूर है कि उसने अपनी किताबों में जदीद मुसन्निफ़ का नाम नहीं लिया है और सिर्फ़ क्लासिकी अदीबों से सरोकार रखा है।

    इस तंग-ख़याली की एक वज्ह ये भी थी कि यूरोप में तख़्लीक़ी अदब पर अफ़लातून ही के ज़माने से जो नुक्ता-चीनियाँ हो रही थीं, उनमें अहम-तरीन बात ये भी थी कि अदब और ख़ासकर शाइ'री से जो लुत्फ़ हासिल होता है, वो अख़्लाक़ की ख़राबी का बाइ'स होता है।

    सोलहवीं सदी तक यूरोप की तन्क़ीद में ये बात क़ाएम हो चुकी थी कि अदब का दिफ़ा’ जमालियाती नहीं बल्कि फ़लसफ़ियाना और अख़्लाक़ी बुनियादों पर होना चाहिए। ब-क़ौल जॉर्ज सेंट्स बरी (George Saints bury) नक़्क़ादों ने अपना वज़ीफ़-ए-हयात ये मुक़र्रर किया कि अदब और ख़ास कर शाइ'री को जम्हूरीयत में एक दिलकश चकमा pleasant deceit या अख़्लाक़ को ख़राब करने वाली क़ुव्वत नहीं, बल्कि “मज़हबी और फ़लसफ़ियाना हक़ाएक़ का क़िला’ और हिसार” साबित किया जाए।

    मग़रिबी तन्क़ीदी-ए-फ़िक्र पर अफ़लातून की धौंस इस क़दर ज़बरदस्त थी कि क़ब्ल जदीद ज़माने तक मग़रिबी नक़्क़ादों की सारी नज़री काविशें इस कोशिश पर मबनी थीं कि तख़्लीक़ी अदब को अफ़लातूनी फ़लसफ़े के लिए काबिल-ए-क़ुबूल साबित किया जाए। सिर्फ़ एक यूरपी नक़्क़ाद, जिसको हम लौंजाइनस Longinus या डायोनिसियस Dionysius के नाम से जानते हैं ऐसा है जिसने शे'र का मक़सूद “वज्द-आफ़रीनी” बताया, और अपने तसव्वुरात की बुनियाद शाइ'र के उस्लूब पर रखी लेकिन लौंजाइनस का असर बहुत बा'द में महसूस किया गया।

    उसका सही नाम और ज़माना भी मा'रज़ बहस में हैं और सब लोग तो ब-क़ौल सेंट्स बरी, इस कोशिश में लगे रहे कि अफ़लातून को कैसे राज़ी किया जाए। सेंट्स बरी का कहना है कि नौ-अफ़लातूनियों, ख़ासकर फ़लातीनोस Plotinus (वफ़ात - 270) के अफ़्क़ार इस सिलसिले में बहुत इस्ति'माल किए गए। फ़लातीनोस के ख़याल में “जिस्म रखने वाली अश्या” या'नी Bodily substances का हुस्न इस बात पर मुनहसिर है कि वो उलूही हुस्न से किस क़दर और क्या निस्बत रखती हैं।

    अब रहा ये मुआ'मला कि सच्चे हुस्न का इदराक क्यूँ-कर हो सकता है, तो ज़ाहिर है कि रूह ही ये काम कर सकती है। लिहाज़ा हुस्न कुछ नहीं है महज़ एक रुहानी, उलूही क़ुव्वत है, और ये “ख़ूबी” (the Good) का तफ़ाउ'ल है।

    ऐसी सूरत में शारेह कोई भी तख़्लीक़ी फ़न-पारा, किसी एक फ़र्द-ए-वाहिद की शख़्सियत या उसके दाख़िली तजुर्बात-ओ-महसूसात का इज़हार हो ही नहीं सकता। वही शे'र या फ़न-पारा सच्चा है जो ऐ'नी हक़ाएक़ पर पूरा उतरे। अफ़लातून के अ'ला-अलर्रग़्म, फ़लातीनोस ने इस बात को शे'र का ऐ'ब नहीं ठहराया कि वो नक़्ल करता है।

    फ़लातीनोस ने कहा कि अश्या की नक़्ल के ज़रीए’ फ़न हमें इन अस्लुल-उसूल की तरफ़ ले जाता है जो ऐ'न हक़ीक़त हैं। ब-क़ौल फ़लातीनोस, शो'रा “हुस्न को अल्फ़ाज़ में ढालते हैं।” ज़ाहिर है कि ऐ'नी हक़ाएक़ और ऐ'नी हुस्न को सही तौर पर बयान करने के लिए उन्हीं तौर तरीक़ों को बरतना होगा जो क़दीम-उल-अय्याम के उस्तादों ने राइज कर दिए हैं। ये भी ज़ाहिर है कि जब सिर्फ़ ऐ'न का ही बयान करना है तो शाइ'र की अपनी शख़्सियत कोई मअ'नी नहीं रखती।

    सोलहवीं सदी में जब ज़माना बदलने लगा तो बेन जॉनसन (Ben Jonson) (1573-ता-1637) जैसे लोग सामने आए। बेन जॉनसन ने दा'वा किया कि “हक़ीक़त का दरवाज़ा सब के लिए खुला हुआ है। हक़ीक़त किसी की नौकर नहीं।”

    अलेक्ज़ंडर पोप (1688 ता 1744) ने तो अठारवीं सदी में कहा कि “शेक्सपियर को अरस्तू के क़वानीन से परखना ऐसा है जैसा किसी शख़्स को किसी ग़ैर-मलिक के क़वानीन का ताबे’ ठहराना।” इस आज़ाद ख़याली के बा-वजूद इस तसव्वुर की झलक उन्नीसवीं सदी तक मिल जाती है कि उस्तादों ने जो तरीक़े मुक़र्रर कर दिए हैं, वो अटल हैं।

    अंग्रेज़ी के एक मशहूर और बा-असर अदबी रिसाले Edinburgh Review ने 1802 के एक इदारिये में लिखा कि “शे'र के मे'यारात बा'ज़ इलहाम-याफ़्ता मुसन्निफ़ों ने अ’र्सा-ए-दराज़ हुआ क़ाएम कर दिए हैं। अब उनसे इन्हिराफ़ ख़िलाफ़-ए-क़ानून है।”

    अठारवीं और उन्नीसवीं सदी में यूरोप के मुख़्तलिफ़ मुल्कों ने रूमानियत और अ'लामत-पसंदी को अदबी तहरीकों के तौर पर फ़रोग़ पाते हुए देखा और उन तहरीकों के जे़र-ए-असर ये ख़याल यूरोप में आहिस्ता-आहिस्ता आ'म हुआ कि शे'र को किसी ख़ारिजी क़ानून का ताबे’ नहीं बल्कि शाइ'र के इलहाम और तख़्लीक़ी उपज का ताबे’ ठहराना चाहिए।

    इसका लाज़िमी नतीजा ये निकला कि शे'र को उसके ख़ालिक़ की शख़्सियत का इज़हार क़रार दिया गया। उन्नीसवीं सदी में जब मग़रिबी ख़यालात हमारे यहाँ हर मैदान-ए-हयात में दर-आमद हुए तो ये तसव्वुर भी हमारी तन्क़ीद में दर आया। इसकी पकड़ इतनी ज़बरदस्त थी कि अगरचे ये तरक़्क़ी-पसंद शे'रियात के बिल्कुल ख़िलाफ़ जाता है लेकिन तरक़्क़ी-पसंद ज़माने में भी ये क़ाएम रहा।

    टी.एस. इलियट “शख़्सियत” या “ज़ात” को अदबी इज़हार के मैदान से बाहर क़रार देता था। उसका कहना था कि शाइ'र किसी जज़्बे का नहीं बल्कि महज़ एक वसीले (Medium) या'नी सिन्फ़-ए-सुख़न का इज़हार करता है। लेकिन उसने ये भी कहा कि Lyric शाइ'री वो है जिसमें शाइ'र ख़ुद से बात करता है। इसका मतलब ये लिया गया कि Lyric शाइ'री में शाइ'र इज़हार-ए-ज़ात करता है।

    हमने उर्दू में ग़ज़ल को Lyric शाइ'री के मुमासिल क़रार दिया, लिहाज़ा हमारे यहाँ ये ख़याल आ'म हो गया कि सिर्फ़ वही ग़ज़ल सच्ची ग़ज़ल है जिसमें शाइ'र अपनी शख़्सियत या अपने ज़ाती महसूसात का इज़हार करे।

    विक्टोरियाई रूमानियत के ज़ेर-ए-असर हम लोगों ने ऐसी ग़ज़ल को, जिसे Lyric कह सकते हैं, बहुत एहमियत दी। वाल्टर पीटर (Walter Pater) का कहना था कि शाइ'री का आ'ला-तरीन और मुकम्मल तरीन सिन्फ़ Lyric ही है। इस क़ौल की बाज़गश्त रशीद अहमद सिद्दीक़ी के इस मशहूर और बा-असर फ़ैसले में मिलती है कि ग़ज़ल हमारी तहज़ीब और हमारी शाइ'री की आबरू है।

    बीसवीं सदी की मग़रिबी नज़री तन्क़ीद में भी अदब इज़हार-ए-शख़्सियत या ज़ात का तसव्वुर इस क़दर मक़बूल हुआ कि ड्रामा तक की तन्क़ीद उसकी ज़द में आ गई। अगरचे ये बात सब मानते हैं कि ड्रामा से ज़ियादा ला-शख़्सी सिन्फ़-ए-सुख़न कोई नहीं लेकिन इस बात की कोशिश की गई कि ड्रामे, ख़ासकर शेक्सपियर के ड्रामे का मुताला’ कुछ इस नहज से हो कि हमें उसकी शख़्सियत के बारे में कुछ इ'ल्म हो सके।

    इस सिलसिले में यादगार कोशिश कैरोलीन स्पर्जन (Caroline Sprgeon) की ठहरी।

    इन ख़ातून ने 1939 में एक किताब शाया’ की जिसका नाम था Shakespeare’s Imagery and What it Tells Us. इस किताब में उन्होंने ये नज़रिया पेश किया कि शेक्सपियर ने अपने हर ड्रामे में बा'ज़ पैकरों को ख़ोशे cluster की शक्ल में बार-बार इस्ति'माल किया है।

    इन पैकरों का मुताला’ करके उन्होंने शेक्सपियर के आ'दात-ओ-अख़्लाक़, तौर-सुभाव पसंद-ना-पसंद वग़ैरह के बारे में बा'ज़ हुक्म लगाए। ज़ाहिर है कि शेक्सपियर के आ'दात-ओ-अख़्लाक़ वग़ैरह के बारे में कैरोलीन स्पर्जन के ख़यालात ना-मक़बूल रहे।

    इस ना-मक़बूलियत की वज्हों में एक ये भी वज्ह थी कि मग़रिब में ये एहसास था कि शख़्सियत या ज़ात के इज़हार का उसूल उन अदीबों और उन अस्नाफ़ पर नहीं जारी हो सकता जो इस उसूल के राइज होने के पहले वजूद में आए थे, मसलन शेक्सपियर, या जिनकी नौइ'य्यत ही ग़ैर-शख़्सी है, जैसे ड्रामा। लेकिन हमारे यहाँ ये उसूल आ'म तौर पर जारी किया गया कि शे'र नाम है शख़्सियत या ज़ाती तजुर्बात के इज़हार का, और वो शे'र जिसमें ये सिफ़त नज़र न आए, दोएम दर्जे का शे'र है।

    इसी बाइ'स ‘मीर’, हत्ता कि ‘ग़ालिब’ के भी कलाम को शख़्सी इज़हार का जामा पहनाया गया और इस उसूल से ये नतीजा भी अख़ज़ किया गया कि जब शाइ'री शख़्सियत का इज़हार है और हर शख़्सियत अपनी जगह बे-अ'दील होती है तो शाइ'र वो अच्छा है जिसमें कोई इन्फ़िरादियत हो।

    (4)
    मुंदरजा-बाला बहस से ये बात ज़ाहिर हो गई होगी कि शे'र को शाइ'र की शख़्सियत का इज़हार क़रार देने का उसूल आफ़ाक़ी नहीं है और ये हमारी क्लासिकी शाइ'री के लिए तो वज़ा’ ही नहीं किया गया था। लेकिन ये सवाल फिर भी रह जाता है कि आख़िर शाइ'र अपने कलाम में कुछ तो कहता है, क्या उसके क़ौल, या'नी बयान या utterance में इसकी शख़्सियत का कुछ भी इन-इ'कास नहीं होता?

    इसका जवाब हासिल करने के लिए पहले ये तय करना होगा कि “शख़्सियत” से हम क्या मुराद लेते हैं? कैरोलीन स्पर्जन ने तो यहाँ तक कोशिश की थी कि शेक्सपियर की पसंद-ओ-नापसंद, वज़ा’-क़ता’ वग़ैरह तक मा'लूम कर ली जाए लेकिन अगर शख़्सियत मजमूआ’ है इंसान के शऊ'र, ला-शऊ'र, तौरीस, ता'लीम और माहौल का, तो शाइ'र के कलाम के ज़रीए’ उसका पता लगना ग़ैर-मुम्किन है।

    फिर एक सवाल ये भी है अगर शख़्सियत का पता लग भी जाए तो इससे कौन सा अदबी मसअ'ला तय हो सकेगा? अगर हम फ़ैसला कर भी लें कि (मसलन) ‘मीर’ को ठंडा पानी बहुत पसंद था या वो वक़्त के पाबंद न थे, तो इससे हमें उनका कलाम समझने में क्या मदद मिलेगी?

    फ़र्ज़ कीजिए हम ये कहें कि अगर ये साबित हो सके कि ‘मीर’ की शख़्सियत उनकी शाइ'री में नुमायाँ है, तो ये भी साबित हो जाएगा कि ‘मीर’ की शाइ'री सच्ची है और सच्चे तजुर्बात-ओ-जज़्बात पर मबनी है। लेकिन अगर ये साबित भी हो जाए तो इससे ‘मीर’ के कलाम की ख़ूबी नहीं साबित हो सकती।

    शाइ'री की ख़ूबी अगर इस बात में है कि उसमें वही बातें लिखी हैं जो शाइ'र ने ख़ुद भोगी या महसूस की हैं तो फिर शे'र के बारे में मअ'नी, इस्ति'आरा, अ'लामत, ये सब और इस तरह के दीगर तसव्वुरात बे-मअ'नी हो जाते हैं। फिर तो हर वो शे'र जिसमें कोई तारीख़ी बात कही गई है, बड़ा शे'र नहीं तो अच्छा शे'र ज़रूर ठहरेगा, इस बिना पर कि उसमें जो बात कही गई है वो बिल्कुल सच्ची है, चाहे उसमें कुछ मा'नवियत न हो। शे'र की ख़ूबी इस बात में नहीं कि वो सच पर मबनी हो। शे'र की ख़ूबी इस बात में है कि वो मा'नवियत का हामिल हो।

    एक बात ये कही जा सकती है कि अगर किसी शाइ'र ने किसी मज़्मून या इस्ति'आरे को बार-बार इस्ति'माल किया है तो उस मज़्मून या इस्ति'आरे का तज्ज़िया करके हम इस शाइ'र की शख़्सियत या दाख़िली वजूद वग़ैरह के मैलान के बारे में नताइज निकालने में हक़-ब-जानिब होंगे। ये नुक्ता ब-ज़ाहिर तो बहुत दिलकश है लेकिन इसमें कई मुग़ालते हैं।

    मसलन ‘ग़ालिब’ के यहाँ रश्क के मज़ामीन और ‘मीर’ के यहाँ ख़ुद्दारी के मज़ामीन बहुत हैं। लिहाज़ा बा'ज़ लोगों का ख़याल है कि ‘ग़ालिब’ के मिज़ाज में रश्क का माद्दा बहुत था और ‘मीर’ बड़े ख़ुद्दार थे। लेकिन वाक़िआ’ ये है कि रश्क या ख़ुद्दारी के मज़ामीन की कसरत सिर्फ़ ये साबित करती है कि शाइ'र को इन मज़ामीन से शग़फ़ था।

    इससे ये बिल्कुल साबित नहीं होता कि ये ख़वास ख़ुद शाइ'र में मौजूद भी थे। मुम्किन है कि इसके बर-अ'क्स भी हो, इंसान के लिए अक्सर ऐसे ख़वास दिल-कशी के हामिल होते हैं जिनसे वो ख़ुद महरूम होता है।

    दूसरी बात ये कि अगर ‘ग़ालिब’ के यहाँ रश्क, और ‘मीर’ के यहाँ ख़ुद्दारी के मज़ामीन बहुत हैं, तो ऐसे भी मज़ामीन कम नहीं जो रश्क और ख़ुद्दारी की ज़िद हैं। मसलन ‘ग़ालिब’ के यहाँ मा'शूक़ की ख़ुशामद और इसके हुज़ूर-फ़रोतनी के भी शे'र हैं और ये बातें रश्क के ख़िलाफ़ जाती हैं। मसलन दीवान ‘ग़ालिब’ बे-तकल्लुफ़ खोलने पर ये शे'र नज़र पड़े,

    ‘ग़ालिब’ तिरा अहवाल सुना देंगे हम उनको
    वो सुनके बुला लें ये इजारा नहीं करते

    क्या तअ'ज्जुब है जो उसको देखकर आ जाए रहम
    वाँ तलक कोई किसी हीले से पहुँचा दे मुझे

    गदा समझ के वो चुप था मिरी जो शामत आए
    उठा और उठ के क़दम मैंने पासबाँ के लिए

    दर पे रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया
    जितने अ'र्से में मिरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला

    ज़ालिम मिरे गुमाँ से मुझे मुनफ़इ'ल न चाह
    है-है ख़ुदा न कर्दा तुझे बे-वफ़ा कहूँ

    जहाँ तक सवाल ‘मीर’ का है, तो उनका कलाम ऐसा मख़ज़न है जहाँ से हर शख़्स अपने हस्ब-ए-दिल-ख़्वाह शे'र निकाल सकता है। ख़ुद्दारी, ग़ुरूर, रश्क, आ'जिज़ी, मा'शूक़ से लड़ाई-झगड़ा, हाथा-पाई, बेज़ारी, बेहद लगावट, खुला-खुला जिंसी इज़हार, जो चाहिए हाज़िर है।

    ऐसे शाइ'र के बारे में हम सिर्फ़ यही कह सकेंगे कि वो हर शख़्स के ढब का आदमी है। ये बात ‘मीर’ के कलाम की मजमूई’ हैसियत तो बयान करती है लेकिन ‘मीर’ की शख़्सियत के बारे में हमें कुछ नहीं बताती।

    मज़ामीन की कसरत या क़िल्लत पर भरोसा करके शख़्सियत के बारे में हुक्म लगाने में तीसरा मुग़ालता ये है कि ऐसा हुक्म शेर-गोई के हालात को नजर-अंदाज़ करता है। किसी ज़माने में कोई मज़्मून ज़ियादा मक़बूल या ग़ैर-मक़बूल होता है और शो'रा के कलाम में इस मक़बूलियत या ग़ैर-मक़बूलियत का इन-इ'कास लाज़िमी है। ये सिर्फ़ हमारे ज़माने की सिफ़त नहीं कि बा'ज़ मज़ामीन या पैकर या इस्ति'आरे अक्सर शो'रा के यहाँ नज़र आते हैं।

    हर दौर में, बल्कि हर पाँच-सात बरस में मज़ामीन की मक़बूलियत का इशारिया बदलता रहता है और ये भी मुम्किन है कि एक ख़ास मज़्मून किसी ज़माने में शाइ'र को बहुत अच्छा लगता हो और बा'द में उसने उसे तर्क कर दिया हो।

    किसी मज़्मून या पैकर या इस्ति'आरे की कसरत किसी कलाम में अ'लामती अंदाज़ पैदा कर सकती है, इसके मअ'नी की तफ़हीम में हमारी मदद कर सकती है लेकिन ख़ुद साहिब-ए-कलाम के बारे में कोई मो'तबर इत्तिला नहीं बहम पहुँचाती। मिसाल के तौर पर, अठारवीं सदी के निस्फ़ दुवुम में ये मज़्मून आ'म था कि जो शख़्स अपने कलाम में रंज-ओ-ग़म के मज़ामीन भर देता है वो शाइ'र नहीं, मर्सिया-गो या सोज़-ख़्वाँ वग़ैरह है। ये चंद शे'र देखिए,

    लब-ए-‘क़ुदरत’से जुज़ फ़रियाद कुछ रेज़िश नहीं करता
    ये कुछ शाइ'र नहीं है अपने दिल का मर्सियाँ-ख़्वाँ है
    (क़ुदरत उल्लाह क़ुदरत)

    कुछ मैं शाइ'र नहीं ऐ ‘मुसहफ़ी’ हूँ मर्सियाँ-ख़्वाँ
    सोज़ पढ़-पढ़ के मुहिब्बों को रुला जाता हूँ
    (‘मुसहफ़ी’, सेव्वुम)

    नाला मौज़ूँ मी-कुनद उम्रीस्त अम्मा पेश-ए-यार
    नीस्त मज़हर दर-शुमार-ए-शाइ'राँ गोया हनूज़
    (मीरज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ ‘शहीद’)

    ये मज़्मून उन्नीसवीं सदी के शुरू’ में भी नज़र आ जाता है। सय्यद मुहम्मद ख़ान रिंद (1797-1857) कहते हैं,

    आ'शिक़ मिज़ाज रोते हैं पढ़ पढ़के बेशतर
    अशआ'र रिंद के न हुए मरसिए हुए
    (दीवान-ए-दोव्वुम)

    इन अशआ'र की रौशनी में ‘मीर’ के एक मशहूर शे'र के मअ'नी बदल जाते हैं और ये आप-बीती या इज़हार शख़्सियत का शे'र नहीं रह जाता बल्कि एक मक़बूल मज़्मून का इज़हार हो जाता है,

    मुझको शाइ'र न कहो ‘मीर’ कि साहब मैंने
    दर्द-ओ-ग़म कितने किए जमा’ तो दीवान किया
    (दीवान-ए-अव्वल)

    बा'ज़ लोगों का ख़याल है कि अगर ख़ुद शाइ'र ने अपने बारे में कोई बात अपने शे'र में लिखी है तो उसे दुरुस्त मान कर शाइ'र की शख़्सियत या कलाम के बारे में हुक्म लगा सकते हैं। यहाँ पहली बात ये है कि अपने बारे में किसी का बयान, चाहे वो हमारा महबूब शाइ'र ही क्यों न हो, बे-दलील क़ुबूल कर लेना अ'क़्ल-मंदी नहीं

    बातिल अस्त आँ चे मुद्दई गोयद
    ख़ुफ़्ता रा ख़ुफ़्ता कै कुनद बेदार

    शो'रा साहिबान और ख़ासकर क्लासिकी शो'रा, अपनी बुराई भी लिख डालें तो उसे भी ना-मो'तबर समझना चाहिए, ब-शर्त कि उनकी बात का अलग से कोई सबूत न हो। हम लोग भूल जाते हैं कि ग़ज़ल की दुनिया मज़्मून की दुनिया है, आप-बीती और इक़बाल-ए-जुर्म की नहीं। जिंसी तअ'ल्लुक़ात-ओ-अशवाक़ पर ‘मुसहफ़ी’ के चंद शे'र सुनिए,

    छोड़ा न मियाँ ‘मुसहफ़ी’ तुमने कोई लौंडा
    तुम काम में अपने ग़रज़ उस्ताद हो कोई
    (दीवान-ए-अव्वल)

    अमरद-परस्त तो नहीं इतना मैं ‘मुसहफ़ी’
    पर बेश-ओ-कम है फ़िर्क़ा-ए-निस्वाँ से इख़्तिलात
    (दीवान-ए-अव्वल)

    वो आहू-ए-रमीदा मिल जाए नीम-शब गर
    कुत्ता बनूँ शिकारी उसको भंभोड़ डालूँ
    (दीवान-ए-चहारुम)

    जो मिले भी वो तो मुझसे न हो फे़'ल-ए-ज़िश्त सरज़द
    ये दुआ’ क़ुबूल मेरी मिरे पाक ज़ात करना
    (दीवान-ए-सेव्वुम)

    हर-चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
    ग़ैर अज़-निसा वले न मिला चाह का मज़ा
    (दीवान-ए-चहारुम)

    इन अशआ'र को आप-बीती पर मबनी क़रार दिया जाए तो ‘मुसहफ़ी’ के किरदार या शख़्सियत की जो तस्वीर इनसे बनती है वो इतनी मुतज़ाद है कि उनके बारे में कोई हुक्म लगाना ग़ैर-मुम्किन हो जाता है। और अगर इन अशआ'र को मज़्मून-आफ़रीनी पर मबनी कहें तो कोई मुश्किल नहीं पड़ती। शाइ'रों का काम ही है कि नित-नए मज़्मून बाँधें और इस तरह अपनी क़ादिर-उल-कलामी के सबूत देते हुए ग़ज़ल में तनव्वो’ और दिल-कशी पैदा करें।

    मैंने ‘मुसहफ़ी’ से मिसाल इसलिए पेश की कि उनके यहाँ जिंसी मज़ामीन के साथ अपना ज़िक्र ‘मीर’ के यहाँ से ज़ियादा है। वर्ना उ'मूमी तौर पर अपनी बुराई बयान करने में ‘मीर’ और ‘मुसहफ़ी’ में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं। एक दीवान-ए-सिवुम के शुरू’ को सरसरी देखिए तो ये शे'र मिलेंगे,

    क्या तुमको प्यार से वो ऐ ‘मीर’ मुँह लगावे
    पहले ही चूमे तुम तो काटो हो गाल उसका

    अगर हम क़ित'अ-ए-शब सा लिए चेहरा चले आए
    क़यामत शोर होगा हश्र के दिन रू-सियाही का

    जब न तब मिलता है बाज़ारों में ‘मीर’
    एक लूती है वो ज़ालिम सर-फ़रोश

    ‘मीर’ को तिफ़्लाँ तह-ए-बाज़ार में
    देखो शायद हो वहीं वो दिल फ़रोश

    ‘मीर’ ने जिस ज़ोर-शोर से अपनी बुराइय‌ाँ की हैं, उससे भी बढ़कर उन्होंने मा'शूक़ को बुरा-भला कहा है। मा'शूक़ के लिए “औबाश” ‘मीर’ का ख़ास लफ़्ज़ है। तो क्या हम ये नतीजा निकालने में हक़-ब-जानिब होंगे कि ‘मीर’ का कोई मा'शूक़ या ‘मीर’ के सब मा'शूक़, इस शे'र के मिस्दाक़ थे,

    सोहबत में उसकी क्यों के रहे मर्द आदमी
    वो शोख़-ओ-शंग-ओ-बे-तह-ओ-औबाश-ओ-बद-मआ'श

    मलहूज़ रहे कि ये शे'र दीवान-ए-पंजुम का है, जिसकी तर्तीब के वक़्त ‘मीर’ की उ'म्र 80 बरस से मुतजाविज़ थी। तो क्या हम ये नतीजा निकालें कि हश्ताद सालगी में भी ‘मीर’ न सिर्फ़ ये कि इ'श्क़-पेशा थे बल्कि ये भी कि उनका मा'शूक़ इंतिहाई ना-पसंदीदा किरदार का कोई शाहिद-ए-बाज़ारी था?

    अगर हाँ, तो ये नतीजा भी अख़ज़ करना होगा कि ‘मीर’ में संजीदगी, मतानत, बुढ़ापे का रख-रखाव, अपनी उस्तादी और शौहरत का लिहाज़, ये सब नाम को न था। वो पस्त-मज़ाक़ शख़्स थे और पस्त-तबीअ'त लोगों में उठना बैठना पसंद करते थे।

    अगर शाइ'री को शख़्सियत का इज़हार माना जाए और बुढ़ापे की इ'श्क़ मिज़ाजी और औबाशों की सोहबत को शख़्सियत का इशारिया क़रार दें तो ‘मीर’ की शख़्सियत निहायत फ़रोमाया और उनकी ज़हनी सत्ही निहायत पस्त साबित होती है।

    अगर बड़ा शाइ'र होने के लिए इंसान के मिज़ाज में कुछ सक़ल-ओ-सिक़ाहत और ज़हनी-बुलंदी का कुछ मर्तबा लाज़िमी है तो ये सवाल भी उठ सकता है कि ‘मीर’ के वो सैंकड़ों अशआ'र जिन पर लोग सदियों से सर धुन रहे हैं, ‘मीर’ की तस्नीफ़ हैं भी कि नहीं? ऐसी सूरत में ये मुम्किन नहीं मा'लूम होता कि जिस ‘मीर’ का ज़िक्र हम ऊपर पढ़ चुके हैं, उसी ने दीवान-ए-शशुम में ये शे'र भी कहे होंगे,

    हो के बे-पर्दा मुल्तफ़ित भी हुआ
    न किसी से हमें हिजाब रहा

    बदन में सुब्ह से थी सनसनाहट
    उन्हीं सन्नाहटों में जी जला था

    गुलशन के ताइरों ने क्या बे-मुरव्वती की
    यक बर्ग-ए-गुल क़फ़स में हम तक न कोई लाया

    बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा
    पढ़ते किसू को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा

    दिल की तसल्ली जब कि न होगी गुफ़्त-ओ-शुनूद से लोगों की
    आग फुंकेगी ग़म की बदन में उसमें जलिए-भुनिएगा

    हमने न देखा उसको सो नुक़सान-ए-जाँ किया
    उनने जो इक निगाह की उसका ज़ियाँ हुआ

    मुर्ग़-ए-चमन की नाला-कशी कुछ ख़ुनुक सी थी
    मैं आग दी चमन को जो गर्म-ए-फ़ुग़ाँ हुआ

    ज़ाहिर है कि थोड़ी सी ढील दूँ तो पूरा न सही, आधा दीवान-ए-शशुम इसी अंदाज़ के शे'रों पर मुश्तमिल नक़्ल कर सकता हूँ। लेकिन ये भी ज़ाहिर है कि जिस तरह से औबाश वाले शे'रों से ये साबित नहीं हो सकता कि ‘मीर’ के मिज़ाज में मतानत का फ़ुक़दान और सफ़ाहत का वफ़ूर था, उसी तरह मुंदरजा-बाला अशआ'र से भी ये साबित नहीं हो सकता कि ‘मीर’ हँसने, खेलने, ठिठोल और आ'मियाना गुफ़्तगू, मज़ाह और ख़ुश-तबई’, छेड़-छाड़, जिस्मानी लज़्ज़त और सैर-ओ-तफ़रीह की सलाहियतों से बिल्कुल आ'री थे। ‘मीर’ के बड़े शाइ'र होने का एक सबूत ये भी है कि वो हर तरह के मज़्मून को अपनी शाइ'राना गिरफ़्त में ले आते हैं। कोई चीज़ न इतनी छोटी है और न इतनी बड़ी कि ‘मीर’ उसके साथ मुआ'मला न कर सकें।

    दीवान-ए-चहारुम में ‘मीर’ का शे'र है,

    बहम रखा करो शतरंज ही की बाज़ी काश
    न ‘मीर’ बार है ख़ातिर का यार-ए-शातिर है

    मैंने जब ये शे'र पहली बार पढ़ा तो दिल ने बे-साख़्ता तहसीन-ओ-इस्ते'जाब के कलमे कहे। दोनों मिसरे किस क़दर रवाँ और फिर भी दूसरे मिसरे में “बार-ए-ख़ातिर” और “यार-ए-शातिर” जैसे ना-मानूस फ़िक़रों को एक साथ निहायत कामयाबी के साथ खपाना, फिर “शतरंज” की मुनासिबत से “यार-ए-शातिर” में मअ'नी का एक और पहलू और ख़ुद “यार-ए-शातिर” में ख़फ़ीफ़ सा इशारा इस बात का कि ‘मीर’ बिल्कुल नन्हे मा'सूम भी नहीं, कुछ और भी मतलब रखते हैं, ग़रज़ किस-किस बात की ता'रीफ़ की जाए।

    मैं दीवान-ए-सिवुम में ये शे'र देख चुका था,

    जहाँ शतरंज बाज़िंदा फ़लक हम तुम हैं सब मोहरे
    बिसान-ए-शातिर-ए-नौ ज़ौक़ उसे मोहरों की ज़द से है

    इस मज़्मून से मुशाबह मज़्मून की एक रुबाई ख़य्याम से भी मंसूब है, मुलाहिज़ा हो,

    मा-लो'बतगा-नी'म-ओ-फ़लक लो'बत बाज़
    अज़-राह-ए-हक़ीक़ती न अज़-राह-ए-मजाज़

    बाज़ीचा हमी कुनीम बर-नत’अ-ए-वुजूद
    रफ़्तीम ब-संदूक़-ए-अ'दम यक-यक बाज़

    लेकिन “शातिर-ए-नौ” की जो सिफ़त इस शे'र में बयान हुई है उससे गुमान होता है कि ‘मीर’ को शतरंज से कुछ शग़फ़ रहा होगा। अब जो मैंने दीवान-ए-चहारुम में मज़कूरा-बाला शे'र पढ़ा तो मेरा गुमान और पुख़्ता हुआ। लेकिन कुछ अ'र्से बा'द मैंने “गुलिस्तान” में ये फ़िक़रा देखा कि “दर ख़िदमत-ए-मर्दुमाँ यार-ए-शातिर बाशम न बार-ए-ख़ातिर” तो मा'लूम हुआ कि दीवान-ए-चहारुम के शे'र की रौशनी में ‘मीर’ की शख़्सियत के बारे में सिर्फ़ ये कहा जा सकता है कि सा'दी की “गुलिस्तान” उन्होंने ग़ौर से पढ़ी थी। मेरा ख़याल है शाइ'री में शख़्सियत की तलाश बस इसी तरह की बातों तक महदूद रहनी चाहिए।

     

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