मीर साहब का ज़िंदा अजाइब घर, कुछ ताज्जुब नहीं ख़ुदाई है
मीर साहब का ज़िंदा अजाइब घर, कुछ ताज्जुब नहीं ख़ुदाई है
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
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मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने ‘मीर’ के बारे में एक वाक़िआ' लिखा है कि उन्होंने अपने घर के बारे में एक दोस्त से कहा कि मुझे ख़बर नहीं कि इसमें कोई पाईं-बाग़ भी है। वाक़िआ' निहायत मशहूर है लेकिन उसे मुहम्मद हुसैन आज़ाद के गुल-ओ-गुलज़ार अल्फ़ाज़ में सुना जाए तो लुत्फ़ और ही होगा,
“मीर साहब को बहुत तकलीफ़ में देखकर लखनऊ के एक नवाब उन्हें मा’-अयाल अपने घर ले गए और महल-सरा के पास एक माक़ूल मकान रहने को दिया। नशिस्त के मकान में खिड़कियाँ बाग़ की तरफ़ थीं। मतलब इससे यही था कि हर तरह उनकी तबीअ'त ख़ुश और शगुफ़्ता रहेकु। ये जिस दिन वहाँ आकर रहे, खिड़कियाँ बंद पड़ी थीं। कई बरस गुज़र गए, उसी तरह बंद पड़ी रहीं, कभी खोल कर बाग़ की तरफ़ न देखा।
एक दिन कोई दोस्त आए, उन्होंने कहा, “इधर बाग़ है। आप खिड़कियाँ खोल कर क्यों नहीं बैठते?”
मीर साहब बोले, “क्या इधर बाग़ भी है?”
उन्होंने कहा कि इसीलिए नवाब आपको यहाँ लाए हैं कि जी बहलता रहे और दिल शगुफ़्ता हो। ‘मीर’ साहब के फटे पुराने मुसव्विदे ग़ज़लों के पड़े थे, उनकी तरफ़ इशारा कर के कहा कि मैं तो इस बाग़ की फ़िक्र में ऐसा लगा हूँ कि उस बाग़ की ख़बर भी नहीं। ये कह कर चुप हो रहे।”
क्या महवियत है! कई बरस गुज़र जाएँ, पहलू में बाग़ हो और खिड़की तक न खोलें। ख़ैर। समरा इसका ये हुआ कि उन्होंने दुनिया के बाग़ की तरफ़ न देखा। ख़ुदा ने उनके कलाम को वो बहार दी कि साल-हा-साल गुज़र गए, आज तक लोग वरक़े उलटते हैं और गुलज़ार से ज़ियादा ख़ुश होते हैं।
इस बयान के दाख़िली तज़ादात को देखते हुए शायद ही किसी को इस बात में कोई शक हो कि ये वाक़िआ' महज़ सुनी-सुनाई गप पर मुश्तमिल है। मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने जिन दो तज़किरों पर कसरत से भरोसा किया है, उनमें ये वाक़िआ' मज़कूर नहीं। मेरी मुराद क़ुदरतुल्लाह क़ासिम के “मजमूआ’-ए-नाज़” और सआ'दत ख़ाँ नासिर के “ख़ुश मा'र्का-ए-ज़ेबा” से है। लेकिन “आब-ए-हयात” का जादू सर पर चढ़ कर बोलता है और आज तक ‘मीर’ के बारे में आ'म तसव्वुर यही है कि वो मर्दुम-बेज़ार नहीं तो दुनिया-बेज़ार ज़रूर थे।
दुनिया और अ'लाइक़-ए-दुनिया से उन्हें कुछ इ'लाक़ा न था, अपने कल्बा-ए-अहज़ाँ में पड़े रहना, दिल-ए-शिकस्ता के औराक़ की तदवीन करना और अपनी ग़ज़लों के ‘फटे पुराने मुसव्विदे’ मुजतमा’ करते रहना गोया उनका वज़ीफ़ा-ए-हयात था।
अगर मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद का बयान-कर्दा वाक़िआ' फ़र्ज़ी है तो अग़लब है कि इसकी बुनियाद ‘मीर’ के हस्ब-ए-ज़ेल शे'र पर क़ाएम की गई होगी। दीवान पंजुम में ‘मीर’ कहते हैं,
सर्व-ए-लब-ए-जू, लाला-ओ-गुल नसरीन-ओ-समन हैं शगूफ़ा है
देखो जिधर इक बाग़ लगा है अपने रंगीं ख़यालों का
मलहूज़ रहे कि ‘मीर’ का दीवान पंजुम1800 के आस-पास तैयार हुआ था, या'नी जब वो लखनऊ में थे। इस लिहाज़ से भी ये मफ़रूज़ा कुछ क़वी हो जाता है कि “मैं तो इस बाग़ की फ़िक्र में ऐसा लगा हूँ कि उस बाग़ की ख़बर भी नहीं” वाली रिवायत की ता'मीर में इस शे'र को भी दख़्ल होगा। लेकिन लुत्फ़ ये है कि अग़लबन लखनऊ ही में मुरत्तब-शुदा दीवान चहारुम में ‘मीर’ ये भी कह चुके थे,
कब तक दिल के टुकड़े जोड़ूँ ‘मीर’ जिगर के लख़्तों से
कसब नहीं है पारादोज़ी मैं कोई वस्साल नहीं
ये बात ज़ाहिर है कि ‘पारा-दोज़ी’ और ‘वस्साल’ जैसे अल्फ़ाज़ इस्ति'माल करने वाला कोई घर-घुसना, रोना-बिसूरता शख़्स न होगा, बल्कि मुख़्तलिफ़ तबक़ों और पेशों के लोगों से वाक़फ़ियत रखता होगा और वो भी ऐसी कि उन्हें शे'र में ब-हुस्न-ओ-ख़ूबी इस्ति'माल भी कर सकता होगा। लफ़्ज़ ‘पारादोज़’ का इस्ति'माल, जहाँ तक मैं देख सका हूँ, ‘अमीर मीनाई’ के बा'द किसी ने नहीं किया, और ‘अमीर मीनाई’ ने भी बिल्कुल ‘मीर’ का मज़मून बाँधा और निहायत कमज़ोर कर के बाँधा,
पारा-दोज़ी की दुकाँ है कि मिरा सीना है
ढेर हैं लख़्त-ए-दिल-ओ-लख़्त-ए-जिगर के टुकड़े
(गौहर-ए-इंतिख़ाब, मतबूआ 1873, स, 58)
और लफ़्ज़ ‘वस्साल’ का ये आलम है कि आसफ़िया, नूर, और प्लेट्स, तीनों इससे ख़ाली हैं।
अश्या के नामों और उनके मुतअ'ल्लिक़ बातों का ज़िक्र हमारे यहाँ ‘नज़ीर’, ‘मीर’, और ‘अकबर’ इलाहाबादी के यहाँ सबसे ज़ियादा मिलता है। अकबर इलाहाबादी का मुआ'मला सबसे ज़ियादा मुनफ़रिद है क्योंकि उन्होंने रोज़मर्रा की बातों और अश्या को, और ख़ासकर नई अश्या को शे'र का न सिर्फ़ हिस्सा बनाया बल्कि उन्हें नई, अ'लामती मा'नवियत भी अ'ता की। इंजन, रेल, ब्रिगेड (Brigade) या'नी अंग्रेज़ों के वफ़ादार लोग, कैम्प (Camp) या'नी मग़रिबी तर्ज़-ए-मुआ'शरत, कौंसल, मैंबर, पतलून, धोती, तहमद, और फिर आ'म लोगों के नाम जो बतौर इशारा इस्ति'माल हो सकते थे, मसलन बुध्धू, जुम्मन, और अलक़ाब, मसलन शैख़-साहब, पण्डित, और नए मज़ामीन, मसलन वाटर टैक्स (Water Tax)، पानी का नल, पार्क, स्कूल, रात की रखी हुई रोटी, वग़ैरह सैकड़ों नई या अजनबी अश्या और उनके मुतअ'ल्लिक़ात के साथ मुआ'मला करना हमें अकबर ही ने सिखाया।
ज़ाहिर है कि अकबर का ज़ियादा-तर सरोकार सियासी और समाजी मुआ'मलात से था और उनके यहाँ नए अल्फ़ाज़ और इस्तिलाहें इसी सरोकार को ज़ाहिर और पुख़्ता करने के लिए आई हैं। अकबर के बर-ख़िलाफ़, नज़ीर अकबराबादी को आ'म ज़िंदगी, ख़ासकर आ'म शहरी ज़िंदगी के आ'म ही लोगों से दिलचस्पी थी। उनके यहाँ अश्या की कसरत कुछ तो महज़ ज़ोर-ए-बयान और ख़तीबाना तर्ज़ के लुत्फ़ की ख़ातिर है, या फिर ज़िंदगी के ज़ाहिरी पहलुओं, इंसानों के ज़ाहिरी तौर तरीक़ों से दिलचस्पी के बाइ'स है। नज़ीर अकबराबादी के कलाम में अल्फ़ाज़ के बे-जा सर्फ़ या गै़र-ज़रूरी सर्फ़ के बाइ'स अश्या की कसरत कोई ख़ास मअ'नी नहीं हासिल करती। कसरत, सिर्फ़ कसरत बन कर रह जाती है।
ब-अल्फ़ाज़-ए-दीगर, नज़ीर के यहाँ कसरत तो है लेकिन तनव्वो' नहीं। जोश साहब को नज़ीर का कलाम बहुत पसंद था और मुम्किन है जोश साहब के यहाँ अल्फ़ाज़ की बेजा कसरत में कुछ नज़ीर अकबराबादी की भी तासीर शामिल हो।
‘मीर’ का मुआ'मला नज़ीर और अकबर दोनों से अलग है। ये तो है ही कि ‘मीर’ ने ढूँढ-ढूँढ कर अपनी ग़ज़लों में ताज़ा अल्फ़ाज़ इस्ति'माल किए हैं और उनके यहाँ अश्या की भी फ़रावानी है। लेकिन अहम-तरीन बात ये है कि ये फ़रावानी कसरत-ए-मअ'नी के लिए भी काम आती है और लफ़्ज़े कि ताज़ा अस्त ब-मज़मूँ बराबर अस्त का भी हुक्म रखती है। अकबर के यहाँ जिस तरह के अल्फ़ाज़ का ज़िक्र मैंने अभी किया है, उनमें इस्तिआ'राती रंग है और कसरत-ए-इस्ति'माल के बाइ'स उनमें से बा'ज़ में अ'लामती रंग भी आ गया है, मसलन लफ़्ज़ ‘तोप’ को वो अपने आ'म मअ'नी से मुख़्तलिफ़ और पूरे अंग्रेज़ी तर्ज़-ए-हुकूमत के इक़्तिदार की अ'लामत के तौर पर इस्ति'माल करते हैं।
‘कैम्प’ (Camp) में भी यही कैफ़ियत है लेकिन कम। ‘मीर’ के यहाँ ग़ज़लों में नए अल्फ़ाज़ और अश्या, ज़िंदगी गुज़ारने के तौर को बयान करने के लिए ब-कार लाए गए हैं और उनमें जानवर और इंसान दोनों शामिल हैं। मुंदर्जा ज़ेल अशआ'र मुलाहिज़ा हों। ये मैंने दीवान चहारुम से यूँही एक वरक़ खोल कर हासिल किए हैं।
घास है मैख़ाने की बेहतर इन शैख़ों के मुसल्ले से
पाँव न रख सज्जादे पे इनके, इस जादे से राह न कर
कल से दिल की कल बिगड़ी है जी मारा बेकल हो कर
आज लहू आँखों में आया दर्द-ओ-ग़म से रो-रो कर
छाती जली है कैसी उड़ती जो ये सुनी है
वाँ मुर्ग़-ए-नामा-बर का खाया कबाब कर कर
सबद फूलों भरे बाज़ार में आए हैं मौसम में
निकल कर गोशा-ए-मस्जिद से तू भी ‘मीर’ सौदा कर
मेरे ही ख़ूँ में उनने तेग़ा नहीं सुलाया
सोया है अज़दहा ये बहुतेरे मुझसे खा कर
आप ग़ौर फ़रमाएँ कि महज़ दो सफ़्हों को सरसरी देखने पर ये लफ़्ज़ हाथ आए हैं, घास, कल (ब-मअ'नी-ए-मशीन), मुर्ग़ के कबाब, बाज़ार में फूलों भरे सबद, तेग़ा, अज़दहा जो अपने शिकार को खा कर ग़ुनूदगी के आलम में है। इस बात को अलग रखिए कि किसी भी ग़ज़लगो के यहाँ सिर्फ़ दो सफ़्हों के अंदर इस तरह के अल्फ़ाज़ इतनी ता'दाद में न मिलेंगे। आप उनके अक़्साम पर ग़ौर कीजिए,
नबातात (घास, फूल)
ग़ैर-इंसानी अश्या (कल, फूलों की टोकरियाँ, तेग़ा)
जानवर (मुर्ग़, अज़दहा)
इजतिमाई जगहें (मय-ख़ाना, मस्जिद, बाज़ार)
ख़ुर्दनी अश्या (कबाब)
हम लोग आ'म तौर पर ‘मीर’ के कलाम के बारे में कहते हैं कि ये चहल-पहल और मुतहर्रिक ज़िंदगी से भरा-पुरा कलाम है। ज़ाहिर है कि इसकी एक वज्ह अश्या की फ़रावानी भी है। कृष्ण-चंद्र ने मंटो के बारे में लिखा है, “मंटो ज़मीन के बहुत क़रीब है, इस क़दर क़रीब कि अक्सर घास के ख़ोशे में रेंगने वाले कीड़े भी अपने तमाम औसाफ़ के साथ उसे नज़र आ जाते हैं।”
ग़ौर कीजिए कि ‘मीर’ के सिवा और किस उर्दू शाइ'र के बारे में ये बात कही जा सकती है।
यहाँ तक तो ग़ज़लों का निहायत मुख़्तसर ज़िक्र था, लेकिन ‘मीर’ की ये सिफ़त सिर्फ़ ग़ज़लों तक महदूद नहीं है, बल्कि मसनवियों और दीगर मंज़ूमात में भी यही अंदाज़ मिलता है और निहायत तनव्वो' और रंगा-रंगी के साथ। ख़ुसूसन जानवरों, माहौल के तनव्वो' और ना-मानूस लेकिन निहायत मअ'नी-ख़ेज़ अल्फ़ाज़ की कसरत ने ‘मीर’ के कलाम को तमाम उर्दू शाइ'री, बल्कि फ़ारसी शाइ'री में भी मुमताज़ कर दिया है।
‘मीर’ की ग़ज़लों की शोहरत ने उनकी इ'श्क़िया मसनवियों को दबा लिया है और इ'श्क़िया मसनवियों की शोहरत ने उनकी हज्वों और मुख़्तलिफ़ तरह की ख़ुद-नविश्ती या घरेलू नज़्मों को तो बिल्कुल ही कुंज-ए-ख़ुमूल में डाल दिया। ऐसा नहीं है कि ये कलाम मिलता नहीं है। बहुत अच्छे ऐडिशनों में न सही, लेकिन ‘मीर’ का रसाई कलाम भी मिलता है और मसनवियों, हज्वों वग़ैरह को तो कोई शख़्स कहीं भी हासिल कर सकता है। बहर-हाल, कोशिश की गई है कि ‘मीर’ का सारा मा'लूम कलाम मुम्किन हद तक सही सूरत में क़ौमी कौंसल बराए-फ़रोग़ उर्दू की शाया-कर्दा कुल्लियात-ए-‘मीर’ की जिल्द अव्वल और जिल्द दुवुम में सामने आ जाए और मुतदावल रहे।
ये बात तो हम सब जानते हैं कि ‘मीर’ ने जानवरों पर, या जानवरों के बारे में कई मसनवियाँ लिखी हैं। उनमें ‘अज़दर-नामा’ उस वक़्त से मशहूर है जब मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने इसका ज़िक्र किया, कि ‘मीर’ ने इस मसनवी में ख़ुद को अज़दहा और दूसरे तमाम शो'रा को हशरात-उल-अ'र्ज़ फ़र्ज़ किया है। मौलाना आज़ाद ने इस बाब में जो रिवायत ‘आब-ए-हयात’ में दर्ज की है वो क़ुदरतुल्लाह क़ासिम के तज़किरे ‘मजमूआ’-ए-नग़्ज़’ की मुतअ'ल्लिक़ा इबारत का तक़रीबन तर्जुमा है। लिहाज़ा मैं आज़ाद ही की इबारत नक़्ल करता हूँ,
“दिल्ली में ‘मीर’ साहब ने एक मसनवी कही। अपने तईं अज़दहा क़रार दिया और शे'र-ए-अस्र में किसी को चूहा, किसी को साँप, किसी को बिच्छू, किसी को कनखजूरा, वग़ैरह वग़ैरह ठैराया। साथ इसके एक हिकायत लिखी कि दामन-ए-कोह में एक ख़ूँख़ार अज़दहा रहता था। जंगल के हशरात-उल-अ'र्ज़ जमा' हो कर उससे लड़ने गए। जब सामना हुआ तो अज़दहे ने ऐसा दम भरा कि सब फ़ना हो गए। इस क़सीदे (कज़ा) का नाम अजगर-नामा (कज़ा) क़रार दिया और मुशाइ'रे में लाकर पढ़ा। मुहम्मद इमाम निसार, शाह हातिम के शागिर्दों में एक मुश्ताक़ मौज़ूँ तब'अ थे। उन्होंने वहीं एक गोशे में बैठ कर चंद शे'र का क़िता' लिखा और उसी वक़्त सर-ए-मुशाइ'रा पढ़ा। चूँकि ‘मीर’ साहब की ये बात किसी को पसंद न आई थी, इसलिए क़िते' पर ख़ूब क़हक़हे उड़े और बड़ी वाह-वाह हुई। और ‘मीर’ साहब पर जो गुज़रनी थी सो गुज़री। चुनाँचे मक़ता-ए-क़िता’-ए-मज़कूर का ये है,
हैदर-ए-कर्रार ने वो ज़ोर बख़्शा है ‘निसार’
एक दम में दो करूँ अज़दर के कल्ले चीर कर।
क़ुदरतुल्लाह क़ासिम ने ये भी लिखा है कि इस मसनवी, “बल्कि इसके कहने वाले [‘मीर’] पर फ़िल-हक़ीक़त सद-हज़ार नफ़रीन थी।”
मौलाना आज़ाद ने इस बात को ज़रा नर्म कर के लिखा है और ये ‘मीर’ पर उनकी मेहरबानी ही कही जाएगी। लेकिन ज़ुल्म उन्होंने ये किया है कि ‘अज़दर-नामा’ को शायद ख़ुद उन्होंने पढ़ा नहीं। इसका नाम वो ‘अजगर-नामा’ लिखते हैं और एक ही साँस में इसे मसनवी और फिर क़सीदा बताते हैं। बहर-हाल आ'म तअ'स्सुर यही है कि ‘अज़दर-नामा’ ‘मीर’ की बद-मज़ाक़ी और उनके यहाँ हिस्स-ए-मज़ाह की कमी का पक्का सबूत नहीं तो ख़ाम नमूना ज़रूर है।
ख़ैर, ‘मीर’ की हिस्स-ए-मज़ाह तो ‘ग़ालिब’ से भी बढ़कर थी, लेकिन इस बाब में भी उनकी शोहरत यही है कि ब-क़ौल मौलवी अब्दुल हक़ या मजनूँ गोरखपुरी, ‘मीर’ को गिर्या-ओ-ज़ारी के सिवा कोई फ़न आता ही न था। अब रही बद-मज़ाक़ी, तो अट्ठावन (58) शे'रों की इस मसनवी में ‘मीर’ ने बहुत से बहुत पंद्रह शे'र हज्वोया लिखे हैं और किसी का नाम नहीं लिया है। मसनवी के इख़्तिताम में वो कहते हैं कि ये लोग ‘गज़ंदे’ हैं और मेरा मुक़ाबला नहीं कर सकते और मुझे इन लोगों की दाद मतलूब नहीं, मैं इन सबसे अलग रहता हूँ। मैं सबसे आख़िरी तीन शे'र नक़्ल करता हूँ,
तो क्या हो उन्हों से बहुत दूर मैं
हूँ अपनी जगह शाद-ओ-मसरूर मैं
मिरी क़द्र क्या उनके कुछ हाथ है
जो रुत्बा है मेरा मिरे साथ है
कहाँ पहुँचें मुझ तक ये कीड़े हक़ीर
गया साँप, पीटा करें अब लकीर
लिहाज़ा पहली बात तो ये कि इस नज़्म में मुद्द'इयाना क़िस्म की महज़ हज्व नहीं लिखी गई है। ‘मीर’ ने अपने मआ'सिरों को छोड़कर गोशा-गीर हो जाने की बात भी की है और ये भी कहा है कि मैं अपना मर्तबा ख़ुद जानता हूँ, किसी की रसाई उस तक नहीं हो सकती। इन मज़ामीन में बद-मज़ाक़ी नहीं, अपने ग़म-ओ-अंदोह की तरफ़ इशारा, दूसरों से बेज़ारी, मआ'सिरों के इस्तिख़फ़ाफ़, और अपनी बड़ाई के पहलू ज़रूर हैं। लेकिन ये कोई नई बात नहीं जिसे ख़ास ‘मीर’ का क़ुसूर ठहराया जाए। नई बात तो ये है कि पूरी मसनवी जानवरों के नाम और उनके आदात-ओ-ख़वास के ज़िक्र से भरी हुई है, बल्कि लगता है कि ये मसनवी लिखी ही इसलिए गई थी कि इन्हीं बातों को नज़्म किया जाए। चंद शे'र देखिए,
कहाँ छिपकली अज़दहे से लड़ी
किस अज़दर पे ऐसी क़यामत पड़ी
हज़ार अजगर अंदोह से जाए लुट
वले ऐसे कीड़े-मकोड़े हैं चुट
जहाँ शोर-ए-अज़दर से है धूम धाम
कोई कन-सिलाई से निकले है काम
कि था दश्त में एक अज़दर मुक़ीम
दरिंदों के भी दिल थे उससे दो-नीम
निकलते न थे उस तरफ़ हो के शेर
पलंग-ओ-नमर, वांँ न रहते थे देर
जहाँ शेर का ज़ोहरा होता हो आब
शग़ाल और रूबा का वाँ क्या हिसाब
गए जान ले-ले वहूश-ओ-तुयूर
कोई रह गया मूश-ओ-मेंडक सा दूर
गई लोमड़ी एक सूखी हुई
किसी और जंगल में भूखी हुई
ख़रातीन-ओ-ख़र-मूश-ओ-मूश-ओ-शग़ाल
इस अज़दर को कर जिंस अपनी ख़याल
वो गिरगिट कि जिसमें थी ग़र्दन-कशी
हुई ख़ौफ़ से उसपे तारी ग़शी
क़दम ग़ूक से गर्द का जल गया
भरोसा था गीदड़ पे सो टल गया
एक सरसरी गिनती के मुताबिक़ (मुकर्ररात को छोड़कर) ‘मीर’ ने इस नज़्म में तीस (30) जानवरों के नाम लिए हैं। चूँकि ‘अज़दर-नामा’ का मर्कज़ी किरदार (या मर्कज़ी जानवर) अज़दहा है, इसलिए मुनासिब मा'लूम होता है कि यहाँ ‘मोर-नामा’ के भी कुछ शे'र देख लिए जाएँ कि इस मसनवी में भी अज़दहे का ज़िक्र बहुत है।
‘मोर-नामा’ अपनी तरह की अनोखी दास्तान यूँ भी है कि इसमें एक मोर और एक रानी के इ'श्क़ का बयान है। जानवरों और नन्ही-मुन्नी अश्या से ‘मीर’ को किस क़दर दिलचस्पी है, इसके सबूत में पहले तो इस बात को मलहूज़ रखिए कि ‘मीर’ उस इम्कान के क़ाइल हैं कि अगर इंसान को जानवर से मुहब्बत हो सकती है तो जानवर को भी इंसान से मुहब्बत हो सकती है और ये मुहब्बत इस तर्ज़-ओ-तौर की है जिसे इंसानों की ज़बान में ‘इ'श्क़’ कहते हैं। बहर-हाल, मोर और रानी के बाहमी उन्स या इ'श्क़ का राज़ आ'म हो जाता है तो राजा को भी इसकी ख़बर लगती है और मोर अचानक पुर-असरार तौर पर ग़ाइब हो जाता है और बिल-आख़िर एक दश्त-ए-हौलनाक में जा रहता है। कुछ मुंतख़ब शे'र मुलाहिज़ा हों,
राह में उन सबको ये आई ख़बर
जिस बयाबाँ में है वो तफ़्ता-जिगर
ख़ार का जंगल नहीं है दश्त-मार
रोज़-ए-रौशन में भी है तीरा-ओ-तार
दमकश अज़दर निकले है गर सैर को
दूर से खींचे है वहश-ओ-तैर को
जलते हैं आतिश-ज़बानी से बहुत
पतले हो जाते हैं पानी से बहुत
है अ'जब मारों में मोर आकर रहे
मार भी फिर कैसे अज़दर अज़दहे
मुर्ग़ कर जाते हैं मुर्ग़-अंदाज़ दस
क्या करें इक मोर के खाने से बस
(मुर्ग़ अंदाज़ करना - घोंट जाना)
है ज़माने से भी धीमी उनकी चाल
जिनसे हैं कीड़े-मकोड़े पायमाल
जेब को अपनी गज़ों तक दें हैं तूल
ख़िश्त-ओ-संग-ओ-ख़ाक तक खावें अकूल
हर क़दम ख़तरा कि हैं शेर-ओ-पलंग
उसपे सर मारें कि रह पुर-ख़ार-ओ-संग
हाथी अरने ख़ूक की वाँ बाश-ओ-बूद
कर्गदन की धूम से अक्सर नुमूद
जंग हैवानात से है बेश्तर
हैं तरफ़ अज़दर नमर शेराँ शुतर
आए हाथी भी उतर गर कोह से
हो सकेगा फिर न कुछ अंबोह से
हो गया बाराह सद्द-ए-राह गर
लेवेंगे जा कर नफ़र राह-ए-दिगर
(बाराह - जंगली ख़िंज़ीर)
हो अगर जामूस-दश्ती से मुसाफ़
तो कोई दम ही को है मैदान साफ़
हो गई गर ख़िर्स से इस्तादगी
दरमियाँ आ जाएगी उफ़्तादी
मुँह अगर गुर्ग-ए-बग़ल-ज़न आ गया
देखियो पीठ इक जहाँ दिखला गया
पूरी मसनवी में जानवरों के नामों और आग और मौत के मुतअ'ल्लिक़ पैकर हैं, वो भी इस तरह, कि रिआ'यतों और मुनासिबतों का भी एक जंगल सा बना दिया है। ऊपर के अशआ'र से क़त’-ए-नज़र कर के नज़्म के आख़िरी हिस्से से कुछ मुतफ़र्रिक़ शे'र नक़्ल करता हूँ। लेकिन इससे पहले ये कहना ज़रूरी समझता हूँ कि जानवरों से शदीद मुहब्बत और शग़फ़ और उनकी तफ़सीलात से दिलचस्पी के बग़ैर ‘बाराह’ जैसा लफ़्ज़ ‘मीर’ जैसे बड़े शाइ'र को भी नसीब न होता। श्री विष्णु जी का एक रूप जंगली सुवर का है। चूँकि संस्कृत में सुवर को varaha कहते हैं, इसलिए विष्णु जी का एक नामvarahamira भी है और इस रूप में उनकी सिफ़त शिफ़ा-ए-अमराज़ है। ‘मीर’ ने कहीं से varaha सुना और उसे ‘बाराह’ में बदल दिया।
ये लफ़्ज़ ‘लुग़त-नामा-ए-दहख़ुदा’ में है, लेकिन वहाँ उसके मअ'नी ग़लत लिखे हैं, और ‘दहख़ुदा’ का वजूद ‘मीर’ के ज़माने में न था। ‘बाराह’ उन्होंने जहाँ से भी दरियाफ़्त किया हो, इसे ए'जाज़-ए-सुख़न-गोई ही कहेंगे। इसी तरह, ‘मुर्ग़-अंदाज़ करना’ या'नी बे-चबाए हुए लुक़मे घोंट जाना भी तरफ़ा पैकर है कि मुहावरे का मुहावरा है, रिआ'यत की रिआ'यत, और ‘मुर्ग़’ और ‘मुर्ग़ अंदाज़’ का ईहाम उस पर मुस्तज़ाद।
इस जुमला-ए-मो'तरिज़ा के बा'द हम ‘मोर-नामा’ के कुछ और अशआ'र नक़्ल करते हैं जिनमें रिआ'यत और मुनासिबत की बहुत लतीफ़ कार-फ़रमाई है और आसानी से नज़र नहीं आती,
जदवल उनकी तेग़ की जारी रहे
उनकी तर-दस्ती से वो आ'री रहे
‘जदवल’ ब-मअ'नी ‘नहर’ (तलवार की आब की मुनासिबत से उसे जदवल कहते हैं), ‘जदवल’ की मुनासिबत से ‘जारी’ और ‘जारी’ की मुनासिबत से ‘तर-दस्ती’ और फिर ‘तेग़’ की मुनासिबत से ‘आरी’ [आरी] कि जब तलवार की धार में दंदाने पड़ जाते हैं तो कहते हैं, “तलवार आरी हो गई।”
आग फैली इन बनों में दूर तक
जल गए हैवाँ कई लंगूर तक
लंगूर को हनुमान जी की औलाद कहते हैं और हनुमान जी ने तो लंका फूँक दी थी लेकिन ख़ुद उन पर आग ने सिर्फ़ इतना असर किया था कि उनका मुँह झुलस गया था। लिहाज़ा यहाँ लंगूरों के जल जाने में मज़ीद लुत्फ़ और लताफ़त है।
या'नी रानी ने सुनी जो ये ख़बर
आतिश-ए-ग़म से जला उसका जिगर
खींच आह-ए-सर्द ये कहने लगी
इ'श्क़ की भी आग क्या बहने लगी
बन जला कर बस्तियों में आ लगी
फैल कर याँ दिल जिगर को जा लगी
आतिश-ए-ग़म और आह-ए-सर्द और इ'श्क़ की आग के लिए ‘बहना’ का लफ़्ज़ इस्ति'माल करना पुर-लुत्फ़ है, कि क्या आग पानी तरह बहती है जो जंगल से बस्तियों तक आ गई। ‘लगी' ख़ुद आग के लिए रोज़मर्रा है, चुनाँचे कहते हैं, ‘लगी बुझाना’ और ‘आ लगना’ की मुनासिबत से ‘बहना’ और ‘फैलना’ किस क़दर ख़ूब हैं।
‘मीर’ का कलाम इस क़दर मुतनव्वे' है कि इसमें ‘मोर-नामा’ कोई अनोखी मसनवी नहीं है। लेकिन इसकी शाइ'राना नज़ाकतों से क़त’-ए-नज़र भी कीजिए (क्योंकि वो ‘मीर’ के तमाम कलाम में मौजूद हैं) तो दो बुनियादी बातें नज़र आती हैं। एक का ज़िक्र मैं पहले ही कर चुका हूँ, या'नी तमाम तरह के जानवरों और आ'म अश्या से ‘मीर’ की ग़ैर-मा'मूली दिलचस्पी और दूसरी बात ये कि ‘मीर’ की नज़र में जानवर भी इंसानों की कई सिफ़ात से मुत्तसिफ़ हैं। या'नी जानवरों में नज़ाकत-तब्अ', शाइस्तगी और जुरअत-ए-किरदार भी है और वो जज़्बा और एहसास की दौलत से भी माला-माल हैं। या'नी बात सिर्फ़ इतनी नहीं कि इ'श्क़ की आग में सब खप जाते, जैसा कि ‘मीर’ ने ‘मोर-नामा’ के ख़ातिमा-ए-कलाम में कहा है,
इ'श्क़ से क्या ‘मीर’ इतनी गुफ़्तगू
ख़ाक उड़ा दी इ'श्क़ ने चार-सू
ताइर-ओ-ताऊस हैवाँ अज़दहे
सब खपे क्या इ'श्क़ की कोई कहे
सरसरी तौर पर ‘मीर’ का ‘मोर-नामा’ हमें शायद नज़ीर अकबराबादी के ‘क़िस्सा-ए-हंस’ की याद दिला सकता है। ‘क़िस्सा-ए-हंस’ में तमाम चिड़ियाँ एक नौ-आमदा हंस पर आ'शिक़ हो जाती हैं। नज़ीर ने चिड़ियों के नाम इस कसरत से जमा' किए हैं कि ख़याल होता है जुरअत को अपने शहर-आशोब में इस्ति'माल करने के लिए ये तरकीब यहीं से ज़हन में आई होगी। लेकिन नज़ीर की फ़ेहरिस्त भी जुरअत की तरह फ़ेहरिस्त ही है, इससे कोई मा'नवी बा'द नहीं पैदा होता। और हंस दर-अस्ल रूह-ए-इंसानी की तमसील है कि जब हंस अपने मर्जा' को वापिस जाता है तो कुछ देर तो उसकी चाहने वाली चिड़ियाँ उसके साथ चलने का दा'वा रखती हैं, फिर फ़ानी के मिसरे के मिस्दाक़ थक-थक कर इस राह में आख़िर एक-इक साथी छूट गया। ‘क़िस्सा-ए-हंस’ के आख़िरी दो बंद हैं,
थी उसकी मुहब्बत की जो हर एक ने पी मै
समझे थे बहुत दिल में वो उल्फ़त को बड़ी शै
जब हो गए बेबस तो फिर आख़िर हुई रे
चीलें रहीं कव्वे गिरे और बाज़ भी थक गए
इस पहली ही मंज़िल में किया सबने किनारा
दुनिया की जो उल्फ़त है तो उसकी है ये कुछ राह
जब शक्ल ये होवे तो भला क्यों के हो निरबाह
नाचारी हो जिसमें तो वहाँ कीजिए क्या चाह
सब रह गए जो साथ के साथी नज़ीर आह
आख़िर के तईं हंस अकेला ही सिधारा
नज़ीर की नज़्म में वो सब ख़ूबियाँ और ऐ'ब हैं जो नज़ीर का ख़ासा हैं। लेकिन बुनियादी बात ये है कि उनके जानवर या तो जानवर हैं या तमसीलें हैं, उनमें न पूरा जानवर-पन है न पूरा इंसान-पन। और दूसरी बात ये कि हंस पर आ'शिक़ होने वाले सब उसके हम-जिंस हैं। ‘मोर-नामा’ एक रानी [या'नी एक इंसान] और एक मोर [या'नी एक हैवान] के इ'श्क़ की दास्तान है और बिल-आख़िर दोनों जल मरते हैं। उनकी ज़िंदगी और मौत दोनों में अलमिये की शान है जिसके सामने नज़ीर की तमसील फीकी मा'लूम होती है।
‘मीर’ की नज़र में जानवर और अजनास-ओ-अश्या सब क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। इस बात की तफ़्सील के लिए हमें कुछ मसनवियाँ और देखनी होंगी। मसलन उनवान से तो मा'लूम होता है कि ‘कपी का बच्चा’ नज़ीर अकबराबादी के तर्ज़ की नज़्म होगी। लेकिन ‘मीर’ के यहाँ बंदर का बच्चा कम-ओ-बेश इंसान नज़र आता है,
उसके परदादा ने है ये हर्फ़ दी
एक दुम लाबा में लंका फूँक दी
(दी - गुज़िश्ता पिछ्ला दिन, दीरोज़)
एक चंचल है बला-ए-रोज़गार
हाथ रह जाए तो पा सरगर्म-ए-कार
है तो बच्चा सा व-लेकिन दूर है
पस्त उसकी जस्त का लंगूर है
क्या कोई अंदाज़ शोख़ी का कहे
हो मुअ'ल्लक़-ज़न तो आदम तक रहे
(मुअ'ल्लक़-ज़न होना=उछलना)
अचपलाहट उसकी सब मा'लूम है
मा'रकों में चौक के इक धूम है
होते हैं इस जिन्स में भी ज़ी-ख़िरद
आदम-ओ-हैवाँ में ये बरज़ख़ हैं बद
(बद सबसे अलग)
तंज़ है ये बात अगरचे है कही
जो करे इंसान तो बूज़ीना भी
लेकिन इस जागह तो सादिक़ है ये क़ौल
सारे उसके आदमी के से हैं डोल
‘मीर’ की नज़्म में इस मुरब्बियाना एहसास-ए-बरतरी से ममलू रवैय्ये का शाइबा तक नहीं जो हमें नज़ीर अकबराबादी की नज़्मों और सय्यद रफ़ीक़ हुसैन के अफ़्सानों में मिलता है। इन दोनों के यहाँ जानवर सिर्फ़ जानवर हैं। और जहाँ ऐसा नहीं है मसलन सय्यद रफ़ीक़ हुसैन के अफ़साने ‘गोरी हो गोरी’ में, तो वहाँ तसन्नो' साफ़ झलकता है। और नज़ीर की नज़्म ‘रीछ का बच्चा’ में मुतकल्लिम मदारी है और रीछ का बच्चा तफ़रीह का सामान। अगरचे वो सज-धज में परी जैसा था लेकिन था वो जानवर ही, और वो भी क़ैदी जानवर।
था रीछ के बच्चे पे वो गहना जो सरासर
हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर
कानों में दर और घुंघरू पड़े पाँव के अंदर
वो डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुर-ज़र
जिस डोर से यारो था बंधा रीछ का बच्चा
झुमके वो झमकते थे पड़े जिस पे करन फूल
मुक़य्यश की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल
और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुल-फूल
यूँ लोग गिरे पड़ते थे सर पाँव की सुध भूल
गोया वो परी था कि न था रीछ का बच्चा
कहा जा सकता है ‘मीर’ ने जानवर को इंसान की सी सिफ़ात से मुत्तसिफ़ कर के कुछ कमज़ोरी का सबूत दिया है। कहा जा सकता है कि अगर जानवर को मुरब्बियाना और बरतरी की नज़र से देखना ग़लत है तो उसे इंसान सिफ़त (Anthropomorphic) बताना भी ग़लत है। ये बात सही है, लेकिन ये नुक्ता मलहूज़ रखिए कि जानवरों से दिलचस्पी रखना, उनके वजूद को वजूद मानना, उनके हुक़ूक़ का क़ाइल होना, उनके एहसासात को समझने की कोशिश करना, या'नी उनके साथ यक-दर्दी (Empathy) रखना, मुरब्बियाना दिलचस्पी, या कारामद होने के बाइ'स उनको अपना मुतीअ' बनाने से बदर्जहा बेहतर है। दूसरी बात ये कि जानवरों से ‘मीर’ का ये शग़फ़ दर-अस्ल अश्या और दुनिया-ए-इंसान के मुख़्तलिफ़ मज़ाहिर से दिलचस्पी के बाइ'स है। ‘मीर’ की यक-दर्दी (Empathy) अश्या-ओ-मज़ाहिर से उनकी मुहब्बत की दलील है और इस सिफ़त में उर्दू का कोई शाइराँ का हम-सर नहीं। मज़ीद मिसाल के तौर पर ‘मोहिनी बिल्ली’ के चंद अशआ'र मुलाहिज़ा फ़रमाएँ,
बिल्लियाँ होती हैं अच्छी हर कहीं
ये तमाशा सा है बिल्ली तो नहीं
गिर्द-रू बाँधे तो चेहरा हूर का
चाँदनी में हो तो बक्का नूर का
(गिर्द-रू: फूलों या मोतियों वग़ैरह का गुलू-बंद)
बिल्ली का होता नहीं उस्लूब ये
है कबूदी चश्म यक-महबूब ये
देखे जिस-दम यक ज़रा कोई उसको घूर
चश्म-ए-शोर आफ़ताब उस दम हो कू्र
(चश्म-ए-शोर=चश्म-ए-बद)
दाग़ गुलज़ारी से इसके ताज़ा बाग़
इस ज़मान-ए-तीरा की चश्म-ओ-चराग़
क्या दिमाग़-आ'ला तबीअ'त क्या नफ़ीस
क्या मुसाहिब बे-बदल कैसी जलीस
ये नफ़ासत ये लताफ़त ये तमीज़
आँख दौड़े ही न हो कैसी ही चीज़
यहाँ भी हम देखते हैं कि ‘मीर’ की बिल्ली इंसानों के आ'ला सिफ़ात से मुत्तसिफ़ है। जानवरों पर नज़्में दुनिया के बहुत से शो'रा ने लिखी हैं। यहाँ बोदलियर (Charles Baudelaire, 1821-1867) की नज़्में फ़ौरन याद आती हैं। बोदलियर ने बिल्ली (या बिल्लियों) पर तीन नज़्में लिखी हैं और तीनों में वो बिल्ली के मिज़ाज में किसी न किसी तरह का इंसान देखता है। पहली नज़्म में वो कहता है,
जब मेरी उंगलियाँ आज़ादा तुम्हारे सर
और लचकदार कमर को सहलाती हैं
तो मेरे हाथ में तुम्हारे बर्क़ीले बालों
के लम्स से एक इर्तिआ'श पैदा हो जाता है
और मुझे अपनी माशूक़ा याद आने लगती है, उसकी निगाह
सर्द और गहरी, जैसे तुम्हारी आँखें..
दूसरी नज़्म में बोदलियर एक क़दम आगे जाकर कहता है,
एक बिल्ली मेरे ज़हन में
बल खाती हुई महव-ए-ख़िराम है, जैसे
वही यहाँ की मालिक हो,
चिकनी, सुडौल, रऊनत से भरी हुई लेकिन
अपनी मर्ज़ी जताने में निहायत मोहतात
इस दर्जा, कि जब वो म्याऊँ करती है तो मुझे
मौसीक़ी सुनाई देती है
बोदलियर की तीसरी नज़्म के ये मिसरे तो लगता है ‘मीर’ ने लिखे हों,
उ'श्शाक और उ'लेमा, या'नी जोशीले जज़्बात वाले लोग और
ख़ुश्क, रियाज़त-पसंद लोग, इन सबको
बिल्लियों से मुहब्बत हो जाती है, बिल्लियाँ, उनके घरों का इफ़्तिख़ार
दोनों ही की तरह उन्हें भी सर्दी ज़ुकाम बहुत जल्द लग जाते हैं
दोनों ही की तरह ये भी चलत-फिरत में कम, लेकिन
चिकनी, सुडौल और क़ुव्वत-मंद
अ'रब तहज़ीब के साथ तवील रब्त-ज़ब्त के बाइ'स फ़्रांस और मशरिक़ में बा'ज़ बातें मुश्तरक ज़रूर हैं, (मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद का क़ौल था कि नेपोलियन के क़वानीन जो Napoleonic Code के नाम से मशहूर हैं और आज भी फ़्रांसीसी क़ानून की बुनियाद हैं, फ़िक़्ह शाफ़िई' पर मबनी हैं) लेकिन ‘मीर’ और बोदलियर में जानवरों और ख़ासकर बिल्ली के बारे में ये मुताबिक़त बहर-हाल हैरत-अंगेज़ है। दोनों में फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि ‘मीर’ के पैकर ज़ियादा-तर बसरी और हरकी हैं और बोदलियर के पैकर उसकी अपनी उफ़्ताद मिज़ाज के मुताबिक़ लम्सी और शामी हैं।
बिल्ली के बारे में ‘मीर’ को फिर सुनिए और फ़ैसला कीजिए कि बोदलियर अगर उर्दू में कहता तो इससे बेहतर क्या कहता। ये ‘तसंग-नामा’ के अशआ'र हैं। ऊपर जिस बिल्ली का ज़िक्र था उसका नाम मोहिनी था। ये बिल्ली जो तसंग के सफ़र में खो गई, सोहनी के नाम से मौसूम थी,
रंग जैसे कि वक़्त गर्ग-ओ-मेश
या'नी सुर्ख़ी थी कम सियाही बेश
जिनसे मालूफ़ थी वहीं रहती
उनसे कुछ-कुछ निगाहों में कहती
क्या नफ़ासत मिज़ाज की कहिए
सुथरी इतनी कि देख ही रहिए
ख़ाल जूँ फूल गुल कुतरते हैं
या कि नक़्शों में रंग भरते हैं
बिल्लियों के इस क़दर ज़िक्र से आपको ये गुमान न होना चाहिए कि ‘मीर’ के अ'जाइब-घर में कुछ ही जानवर और कुछ ही अश्या हैं। मैं पहले ही अ'र्ज़ कर चुका हूँ कि ‘मीर’ को तमाम अश्या-ओ-मज़ाहिर से दिलचस्पी है। मुर्ग़ और मुर्ग़-बाज़ भी उनकी दिलचस्पी का मर्कज़ हैं, बकरियाँ भी और कुत्ते भी और छोटे मोटे जानवरों और चीज़ों का तो शुमार ही क्या है। इसी ‘तसंग-नामा’ के चंद शे'र हैं,
बीच में होते कुछ अगर असबाब
मुँह उठाने की जी में होती ताब
सो तो कम्मल न पट्टू ने लोई
साया-गुस्तर न अब्र बन कोई
अब्र ही बे-कसी पे रोता था
अब्र ही सर का साया होता था
कीच पानी में कपड़े ख़्वार हुए
वहीं गाड़ी में जा सवार हुए
रह-रवी का किया जो हमने मेल
भैंस चहले के थे बहल के बैल
(चहला - दलदली कीचड़)
आसमाँ आब सब ज़मीं सब कीच
ख़ाक है ऐसी ज़िंदगी के बीच
इन अशआ'र में ज़राफ़त भी है, अपनी बेचारगी पर ग़ुस्सा भी है, रोज़मर्रा के सामानों का ज़िक्र भी है और वो मुनासिबात-ए-लफ़्ज़ी भी हैं जिनके बग़ैर ‘मीर’ लुक़मा नहीं तोड़ते थे। ‘मुँह उठाना’ बजाए ‘क़दम/पाँव उठाना’, अब्र की तरह साया-गुस्तर भी कोई नहीं और अब्र ही हमारी बे-कसी पर गिर्या-कुनाँ भी है, अब्र की तरह की साया-गुस्तरी की तलाश और सर पर वही अब्र साया बन कर गिर्या-कुनाँ और आख़िरी शे'र तो शाहकार है,
आसमाँ आब सब ज़मीं सब कीच
ख़ाक है ऐसी ज़िंदगी के बीच
‘मीर’ की दुनिया में समंदर और सैलाब भी हैं, लेकिन उनका ज़िक्र मैं यहाँ इसलिए नहीं करता कि ग़ज़लों पर बहस करते हुए ऐसे कई शे'र मैंने ‘शे'र-ए-शोर-अंगेज़’ में जगह-जगह नक़्ल किए हैं। बरसात के भी अच्छे और बुरे मनाज़िर ‘मीर’ के यहाँ बे-शुमार हैं। लेकिन अब चूँकि पानी का ज़िक्र आ गया है तो ‘शिकार नामा-ए-अव्वल’ से कुछ शे'र सुनिए। पहला बयान चढ़े हुए दरिया (ग़ालिबन घाघरा) का है,
हुआ हाइल-ए-राह बहर-ए-अ'मीक़
कि हो वहम साहिल पे जिसके ग़रीक़
क़रीब आके उतरी ये ख़ाइफ़ थी फ़ौज
कि बेडौल उठती थी हर एक मौज
मुहीब और आलूदा-ए-ख़ाक-ओ-आब
बे-ऐनिही फटी आँख था हर हबाब
ग़ज़ब लज्जा-ख़ेज़ी बला जोश पर
तलातुम क़यामत लिए दोश पर
चले बस तो कुछ कोई चारा करे
मगर देखकर ही किनारा करे
यहाँ भी ‘मीर’ ने रोज़मर्रा की चीज़ों का लिहाज़ रखा है। ‘बेडौल मौज’ और ‘फटी आँख था हर हबाब’ ता'रीफ़ से मुस्तग़नी हैं लेकिन मुंदरजा-बाला इक़्तिबास का आख़िरी शे'र तो ए'जाज़-ए-सुख़न-गोई है, मगर ब-मअ'नी ‘लेकिन’ और ब-मअ'नी ‘मगरमच्छ’ और पुर-शोर साहिल-ए-दरिया के ए'तिबार से ‘किनारा करे’, ये रिआ'यतें उसी को सूझ सकती हैं जो ज़बान का सच्चा नब्बाज़ और इसके ख़ल्लाक़ाना इम्कानात के आमाक़ में पूरी तरह उतरा हुआ हो। अब ज़रा सर्दी में बरसात का एक रंग देखिए। ये भी ‘शिकार नाम-ए-अव्वल’ में है,
हुआ एक अब्र इस जबल से बुलंद
हवा पर बिछे उसके यज़्दी परिंद
(यज़्दी शहर यज़्द की बनी हुई - परिंद चादर, दो-शाला)
पहर दिन से बारिश लगी होने ज़ोर
रहा सारी वो रात तूफ़ाँ का शोर
हुए खे़मे पानी के ऊपर हबाब
सब असबाब लोगों का था ज़ेर-ए-आब
न पूछ और असबाब-ए-मर्दुम का हाल
न चादर रही ख़ुश्क ने कोई पाल
भरा पानी लश्कर में फैला हुआ
अगर फ़र्श बिस्तर था थैला हुआ
हवा सर्द अज़-बस हुई एक-बार
कलेजों के होती थी बरछी सी पार
फिरे बा'द से लोग मुँह ढाँपते
जिगर छातियों में रहे काँपते
रहा ऐसी सर्दी में कीधर शिकार
हुए लोग ख़ेमों के अंदर शिकार
मुंदरजा-बाला इक़्तिबासात से ज़ाहिर हुआ होगा कि ‘मीर’ के शिकार-नामे दर-अस्ल जंगल की ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलुओं का बयान हैं। लोग अ'मूमन शिकायत करते हैं कि उर्दू के शाइ'र मनाज़िर-ए-क़ुदरत से दूर हैं, आ'म ज़िंदगी से दूर हैं, मा'मूली दर्जे के लोगों को नज़र-अंदाज करते हैं, वग़ैरह। लेकिन ‘मीर’ की मसनवियाँ और हज्वें एक निगाह ग़लत-अंदाज़ से भी देख ली जातीं तो झूट का ये तिलिस्म शिकस्त हो जाता। नज़ीर के बारे में हमने बहुत सुना है, लेकिन नज़ीर अपने शहर के बाहर कम, बहुत ही कम जाते हैं। ‘मीर’ तो गाँव-गाँव घूमते हैं और वहाँ के हालात में ख़ुद को शरीक करते हैं। वो हँसते भी हैं, मज़ाक़ भी उड़ाते हैं, लेकिन ये भी बताते हैं कि हम भी इसी ज़िंदगी का हिस्सा हैं।
‘तसंग-नामा’ के ये अशआ'र देखिए,
हमको खाने ही का तरद्दुद है
सुब्ह बक़्क़ाल का तशद्दुद है
बनिया मुँह को छिपाए जाता है
रोटी का फ़िक्र खाए जाता है
तुम कहो दाल माश की है ज़बूँ
याँ बहम पहुँचे है जिगर हो ख़ूँ
तुम कहो किस कसा खाया
याँ कलेजा छिना तो हाथ आया
माश की दाल का न करिए गिला
गोश्त याँ है कभू किसू को मिला
जी अगर चाहे कोई तरकारी
गोल कद्दू मिले ब-सद-ख़ारी
भिंडी बैंगन के नाँव ढ़ेंढ़स था
अरवी तोरी बग़ैर जी बस था
घाँस ही घाँस इस मकाँ में तमाम
तिस में लस्सा' जानवर इक़साम
(लस्सा' - डसने वाले)
जैसे ज़ंबूर ज़र्द ऐसे डाँस
काट खावें तो उछलो दो-दो बाँस
पश्शा-ओ-कैक और खट्टी थी
जिनके काटे उछलती पत्ती थी
नन्हे-मुन्ने जानवरों का कुछ हाल सुनाने के बा'द मुनासिब था कि मैं शिकार-नामों से कुछ अशआ'र ऐसे नक़्ल करता जिनमें बड़े जानवरों का ज़िक्र है। लेकिन तवालत के ख़ौफ़ से अशआ'र नहीं लिखता, सिर्फ़ चंद अशआ'र से मुंतख़ब कर के कुछ जानवरों के नाम लिखता हूँ। कभी-कभी एक ही जानवर के लिए एक से ज़ियादा लफ़्ज़ हैं, मैंने उन्हें तर्क नहीं किया है ताकि शाइ'र के ज़ख़ीरा-ए-अल्फ़ाज़ का कुछ अंदाज़ा हो सके, शेर, पलंग, शेर-ए-नर, नमर [तेंदुवा], बब्बर, हाथी, बकरी, निहंग, निरा शेर, चीतल, पाढ़ा, अरुणा [भैंसा], शेर-ए-झ़ियाँ, पील-ए-दमाँ, भेड़, शुतुरमुर्ग, गवज़न, हिरन, कुत्ता, गर्ग, आहू, हिरन, फ़ील, गुरू [ख़र], शग़ाल, रूबाह, रीछ
मुंदरजा बाला फ़ेहरिस्त ‘शिकार-नामा-ए-अव्वल’ के अव्वलीन चालीस अशआ'र से अख़ज़ की गई है। अब ‘शिकार-नामा-ए-दुवुम’ से एक फ़ेहरिस्त देखते हैं। ग़ज़लों को छोड़कर ये फ़ेहरिस्त इस मसनवी के अव्वलीन पचपन (55) अशआ'र पर मबनी है, पलंग, शेर-ए-बब्बरी, चिकारा, गर्ग, शेर, असद, बादख़ोर [हुमा], कुलंग, बाज़, जर्रा, मुर्ग़ाबी, बज़ा[बकरा], अरुणा [भैंसा], ग़ज़नफ़र, हाथी, अज़दर, गवज़न, गुरू [ख़र], किरकिरा, उ'क़ाब, ज़ग़न, तगदार, ख़ार [क़ाज़], ज़ाग़, कुलाग़, शुतुरमुर्ग, पलंगान-ए-मद्रुमदर, हिज़बर-इन-ख़ूँ-ख़्वार, ग़िरंदा शेर, फ़ीलान-ए-मस्त, गैंडा, भैंसा, उ'स्फ़ूर, कपी, लंगूर, शाहीन, बकरी, गर्ग कुहन, कुलंग, क़ूच [मेंढा], ईल [बारहसिंघा], रंग [जंगली-बैल], जर्रा, सुर्ख़ाब, लग-लग, तीतर, ग़म-ख़्वारक [बगुला], सारस, क़ाज़, हवासिल, ताऊस।
अगर आपको ये गुमान गुज़रे कि ये सब नज़ीर अकबराबादी की तरह महज़ फ़ेहरिस्तें हैं, तो मैं चंद शे'र इधर-उधर से हाज़िर कर देता हूँ। ये उन्हीं अशआ'र में हैं जिनसे फ़ेहरिस्तें अख़ज़ की हैं,
सुन आवाज़-ए-शीरान-ए-नर डर गए
पलंग-ओ-नमर ख़ौफ़ से मर गए
जहाँ बब्बर आया नज़र सैद था
बयाबाँ इसी पहन से क़ैद था
पलंगान-ए-सहरा के दिल-ए-ख़ूँ किए
निहंगान-ए-दरिया हुए मर जिए
गए बा'द-ख़ुर आसमाँ में पलट
कुलंगों की सफ़ बाज़ ने दी उलट
कुलंग ऐसे बाज़ों से आए सुतोह
कि काबुल से आगे गए सद-कुरोह
(सुतोह - अव्वल मज़मूम, आजिज़)
ग़ज़ब कर गए जर्रे नव्वाब के
उड़ा खा गए ख़ैल सुर्ख़ाब के
हवासिल को होता अगर हौसला
तो गिरता न खेतों में हो दह-दिला
अब मैं मसनवी ‘सग-ओ-गुर्बा’ और ‘मरसिया-ए-ख़ुरूस’ का ज़िक्र छोड़कर मसनवी ‘दर हज्व-ए-ख़ाना-ए-ख़ुद’ और मसनवी ‘दर मुज़म्मत-ए-बर्शगाल’ का ज़िक्र करता हूँ कि मे'मारी की इस्तिलाहें और घर के मुख़्तलिफ़ हिस्सों और उनके मकीनों के नाम भी ज़रा मा'लूम हो जाएँ। मुंदरजा जे़ल मुतफ़र्रिक़ अशआ'र ‘दर हज्व-ए-ख़ाना-ए-ख़ुद’ के आग़ाज़ से लिए गए हैं,
लौनी लग-लग के झड़ती है माटी
आह क्या उ'म्र बे-मज़ा काटी
झाड़ बाँधा है मैना ने दिन रात
घर की दीवारें हैंगी जैसे पात
बाव में काँपती हैं जो थर-थर
इनपे रद्दा रखे कोई क्योंकर
कहीं घूँसों ने खोद डाला है
कहीं चूहे ने सर निकाला है
कहीं घर है किसू छछूंदर का
शोर हर कोने में है मच्छर का
कहीं मकड़ी के लटके हैं जाले
कहीं झींगुर के बे-मज़ा नाले
कड़ी तख़्ते सभी धुएँ से सियाह
उसकी छत की तरफ़ हमेशा निगाह
कभू कोई सँपोलिया है फिरे
कभी छत से हज़ार-पाए गिरे
कोई तख़्ता कहीं से टूटा है
कोई दासा कहीं से छूटा है
दी हैं अड़वाड़ें फिर जो हद से ज़ियाद
चल सुतूँ से मकान दे है याद
कंगनी दीवार की निपट बे-हाल
पिद्ड़ी का बोझ भी सके न सँभाल
अच्छे होंगे खँडर भी इस घर से
बरसे है इक ख़राबी घर दर से
उखरे-पुखड़े किवाड़ टूटी वसीद
ज़ुल्फ़ी ज़ंजीर एक कुहना हदीद
(वसीद - चौखट, ज़ुल्फ़ी ज़ंजीर-दरवाज़े की कुंडी)
जी तो चाहता है पूरी मसनवी नक़्ल कर डालूँ लेकिन तवालत माने है। ‘वसीद’ और ‘हदीद’ क़ाफ़ियों की दाद तो सामने की बात है। टूटे-फूटे घर का इससे बेहतर बयान, और वो भी मज़ाहिया, उर्दू शाइ'री में तो न मिलेगा। मा'मारी इस्तिलाहात से वाक़फ़ियत का ये आ'लम है कि लगता है मुहंदिस की किताब सामने खुली रखी है। मसनवी ‘दर मज़म्मत-ए-बर्शगाल कि बाराँ दर-आँ साल बिसयार-शुदा बूद’ महज़ एक उ'म्दा नज़्म नहीं, इस्तिआ'रों, नए अल्फ़ाज़ और अनोखे पैकरों का शाहकार है। चंद मुतफ़र्रिक़ शे'र दर्ज करता हूँ,
ले ज़मीं से है ता-फ़लक ग़र्क़ाब
चश्मा-ए-आफ़ताब गिर्दाब
ख़ुश्क बन अब की बार सब्ज़ हुए
मूश-ए-दश्ती के ख़ार सब्ज़ हुए
(मूश-ए-दश्ती - साही)
लड़कों ने की ज़माना-साज़ी है
ख़ाक-बाज़ी अब आब-बाज़ी है
(ख़ाक-बाज़ी - रेत या मिट्टी में कुछ छुपा कर ढूँढने का खेल, आब-बाज़ी - तैराकी)
आदमी हैं सो कब निकलते हैं
मर्दुम-ए-आबी फिरते चलते हैं
कुत्ते डूबे गए कहाँ हैं अब
सग-ए-आबी ही हैं, जहाँ हैं अब
(सग-ए-आबी - Beaver)
ग़र्क़ है चिड़िया और गिलहरी है
ख़ुश्की का जानवर भी बहरी है
जैसा कि मैंने अभी कहा, ये चंद मुतफ़र्रिक़ अशआ'र मसनवी के शुरू' में हैं। इनसे पूरी नज़्म की ख़ूबसूरती, ज़राफ़त, तहर्रुक, तनव्वो' और बारिश की कसरत का लम्सी एहसास नहीं हो सकता। पूरी मसनवी पढ़िए तो आपको लगेगा कि आप ख़ुद पानी में भीग गए हैं, लेकिन इन चंद अशआ'र से ये तो कोई भी देख सकता है कि जानवरों से ‘मीर’ का शग़फ़ यहाँ भी वाज़ेह है। चंद और शे'र नक़्ल किए बग़ैर यहाँ चारा नहीं, उनमें अश्या का देखिए,
शे'र की बहर में भी है पानी
बहती फिरती है अब ग़ज़ल-ख़्वानी
लाई बारंदगी की चालाकी
आब-ए-ख़ुश्क-ए-गुहर पे नम-नाकी
है ज़राअ'त जो पानी ने मारी
हो गई आब-ख़िस्त तरकारी
आब हैगा जहाँ के सर-ता-सर
ख़ौफ़ से सूखता है मेवा-ए-तर
पानी आ'लम के ता-ब-सर हैगा
ख़ुश्क मग़्ज़ों का मग़्ज़ तर हैगा
ख़िज़्र क्योंकर के ज़ीस्त करता है
आब-ए-हैवाँ में पानी मरता है
ये आख़िरी शे'र तो तहसीन और तज्ज़िए' से बे-नियाज़ है, जैसे किसी बुलंद आबशार की ख़ूबसूरती और मौसीक़ियाती शान अल्फ़ाज़ की मोहताज नहीं होती।
‘मीर’ के तक़रीबन हम-उ'म्र या उ'म्र में कुछ बड़े हम-अ'स्रों में नज़ीर की इस्तिसनाई हैसियत को नज़र-अंदाज करें तो सौदा, दर्द, क़ाएम, ‘मीर’ सोज़ हैं। क़ाएम के सिवा किसी के यहाँ जानवरों और मौसमों का ज़िक्र नहीं। और क़ाएम की भी बस एक मुख़्तसर मसनवी मौसम-ए-सर्मा के बारे में है जिसमें मज़मून आफ़रीनी बहर-हाल बहुत ख़ूब है।
‘मीर’ के वो मुआ'सिर जो ‘मीर’ से उ'म्र में छोटे थे, उनमें मुसहफ़ी और जुरअत नुमायाँ हैं। जुरअत ने एक ज़बरदस्त हज्वोया शहर-आशोब ज़रूर लिखा है जिसके हर बंद में चिड़ियों या जानवरों का ज़िक्र है। लेकिन वो सिफ़त इस हज्व में लुज़ूम-ए-माला-यल्ज़म का हुक्म रखती है, या'नी चिड़ियों और जानवरों के नाम लेना हज्व के नफ़्स-ए-मतलब के लिए ज़रूरी न था। ये और बात है कि इस इल्तिज़ाम ने जुरअत की हज्व को नई और अनोखी शान बख़्श दी है। लेकिन इसे ‘जानवरों के बारे नज़्म’ नहीं कहा जा सकता।
फ़ारसी में शेख़ अत्तार की शाहकार मसनवी ‘मंतिक़-उल-तीर’ तक़रीबन सारी की सारी चिड़ियों की ज़बान से है। लेकिन अत्तार की मसनवी और उनके बा'द मौलाना रुम की मसनवी में जानवरों के बारे में ख़ाल-ख़ाल हिकायतें भी इसलिए ‘मीर’ की तरह की नज़्में नहीं हैं कि उन्हें किसी और मतलब के अदा करने, मसलन सबक़-आमोज़ी, या मिसाल-ओ-तमसील के लिए नज़्म किया गया है। फ़ारसी ही में अनवरी और उ'बैद ज़ाकानी ने जानवरों के बारे में हिकायतें या हिकायत-नुमा नज़्में कही हैं। अनवरी की नज़्में तंज़ और ज़राफ़त और मुख़्तसर लफ़्ज़ों में बात पूरी करने के फ़न का उ'म्दा नमूना हैं। उ'बैद ज़ाकानी की फ़ुहशियात से क़त’-ए-नज़र करें तो उसके यहाँ कुछ ठिठोल, कुछ तंज़िया लतीफ़े ज़रूर हैं लेकिन उसे जानवरों से कुछ मुहब्बत नहीं, जानवर उसके लिए अपनी बात कहने का मौक़ा' फ़राहम करते हैं और बस।
फ़्रांसीसी में हम बोदलियर (Charles Baudelaire) का ज़िक्र कर चुके हैं। फ़्रांसीसी शाइ'र ज़ाँ-दिला फ़ौनतेन (Jean de la Fontaine, 1621-۔1695) दुनिया का शायद वाहिद शाइ'र है जिसका बहुत सा कलाम जानवरों की कहानियों पर मबनी है। उसकी नज़्में ब-ज़ाहिर बच्चों के मेया'र की मा'लूम होती हैं लेकिन उसकी लतीफ़ ज़राफ़त, बारीक नुक्ता-संजी और नुक्ता-आफ़रीनी, बरहमी और तंज़ की तेज़ी से उसकी नज़्मों का ख़ाली होना, ये सिफ़ात ऐसी हैं कि उसकी हर नज़्म एक शाहकार का दर्जा रखती है।
अक्सर नज़्में तो इस क़दर लतीफ़ हैं कि अंग्रेज़ी में भी उनका तर्जुमा बे-मज़ा लगता है। लेकिन ये नज़्में उस सिन्फ़ की हैं जिसे अंग्रेज़ी में Fable कहते हैं। इसमें जानवरों को इंसानों की तरह बातचीत करते दिखाया जाता है। ये नज़्में दर-अस्ल हयात-ए-इंसानी के बारे में तमसीलें हैं, जानवरों के बारे में नज़्में नहीं हैं।
मुसहफ़ी के यहाँ अलबत्ता बा'ज़ मसनवियाँ जानवरों और अश्या और मौसमों के बारे में हैं। बल्कि यूँ कहें कि उनकी एक मसनवी अजवाइन की मद्ह में है जो बहुत ख़ूब है। इसके सिवा जानवरों के बारे में कुछ मसनवियाँ हैं जो ज़ियादा-तर उन्होंने अपने घर में काम करने वाली औरत बी-बोलन की ख़ातिर कही हैं। कुछ मसनवियाँ और भी हैं जो मौसमों के बारे में हैं। एक मसनवी खटमलों पर है। मुसहफ़ी के दीवान-ए-दुवुमदोम की इस मसनवी से चंद अशआ'र नक़्ल करता हूँ, क्योंकि ‘मीर’ ने भी खटमलों का ज़िक्र किया है। मुसहफ़ी कहते हैं,
आख़िर-ए-शाम से हो शब बेदार
खेलता हूँ मैं खटमलों का शिकार
मारे जो मोटे मोटे चुन-चुन कर
छींट का थान बन गई चादर
घिसे दीवार पर जो कर के तलाश
कर दिया घर को ख़ाना-ए-नक़्क़ाश
नहीं मरते हैं तो भी ये बदज़ात
क्या इन्होंने पिया आब-ए-हयात
इसमें कोई शक नहीं कि ज़राफ़त, झुँझलाहट, बेचैनी की मज़मून आफ़रीनी, हर चीज़ के इज़हार के लिए ये शे'र उस वक़्त तक आ'ला नमूना क़रार दिए जा सकते हैं जब तक आपने ‘मीर’ को न पढ़ा हो। अब ‘मीर’ की मसनवी ‘दर-हज्व-ए-ख़ाना-ए-ख़ुद’ के ये मुतफ़र्रिक़ शे'र मुलाहिज़ा करें,
जिन्स-ए-आ'ला कोई खटोला खाट
पाए पट्टी रहे हैं जिनके फाट
खटमलों से सियाह है सो भी
चैन पड़ता नहीं है शब को भी
शब बिछौना जो मैं बिछाता हूँ
सर पे रोज़-ए-सियाह लाता हूँ
कीड़ा एक एक फिर मकौड़ा है
साँझ से खाने ही को दौड़ा है
एक चुटकी में एक छँगली पर
एक अँगूठा दिखावे उँगली पर
गरचे बहुतों को मैं मसल मारा
पर मुझे खटमलों ने मल मारा
और भी शे'र हैं लेकिन तवालत के ख़ौफ़ से नज़र-अंदाज करता हूँ। इसमें कोई शक नहीं कि ‘मीर’ के यहाँ ख़ुश-तबई' और तबाई' ज़ियादा है और मुनासिबत-ए-अल्फ़ाज़ भी मुसहफ़ी से बढ़ी हुई है। लेकिन इन मुआ'मलात में ‘मीर’ के हरीफ़ मुसहफ़ी बहर-हाल हैं। अब ‘मीर’ के ‘शिकार नामा-ए-अव्वल’ से बरसात और सर्दी के जो शे'र में ऊपर नक़्ल कर आया हूँ, उन्हें ज़हन में लाइए और मुसहफ़ी को सुनिए। (दीवान-ए-दुवुम)
लुज़ूम तुर्फ़ा सर्दी है इन दिनों या-रब
जिसके डर से गलीम-पोश है शब
संग-ओ-आहन जो अब बहम हों दो-चार
बर्फ़ उनसे झड़े बजाए शरार
देखियो शिद्दत-ए-शब-ए-सुर्समा
बिन बुझाए चराग़ है ठंडा
जिस तरफ़ देखो आग की है पुकार
आग क्या इक ख़ुदा का है दीदार
हम देख सकते हैं कि मुसहफ़ी के इन शे'रों में मज़मून-आफ़रीनी, बल्कि ख़याल-बंदी बहुत ख़ूब है, लेकिन सर्दी का वो एहसास नहीं जो ‘मीर’ के दो ही शे'रों में जाग उठता है,
फिरे बाद से लोग मुँह ढाँपते
जिगर छातियों में रहे काँपते
रहा ऐसी सर्दी में कीधर शिकार
हुए लोग ख़ेमों के अंदर शिकार
क़ाएम चाँदपुरी की मसनवी ‘दर-हज्व-ए-शिद्दत-ए-सुर्मा’ में भी मज़मून-आफ़रीनी मुसहफ़ी जैसी है,
इन दिनों चर्ख़ पर नहीं है महर
गोद में काँग्ड़ी रखे है सिपहर
पानी पर जिस जगह कि काई है
सब्ज़ वो शाल की रज़ाई है
बस क़ि यख़-बस्ता बहर बीच है आब
बर्फ़ की है रकाबी हर गिर्दाब
ये शे'र भी मुसहफ़ी के अशआ'र की तरह पर-लुत्फ़ हैं लेकिन महसूसात की जगह ख़याल, या'नी कैफ़ियत के इंबिसात की जगह अ'क़्ल का फैलाव है। ख़याल-बंदी में इंबिसात और फ़रहत मुम्किन है, लेकिन ग़ज़ल में। ‘ग़ालिब’, नासिख़, आतिश, ज़ौक़, शाह नसीर, नसीम देहलवी, अमान अली सहर लखनवी वग़ैरह के अशआ'र इसकी दलील हैं। लेकिन जहाँ बराह-ए-रास्त महसूसात का मुआ'मला हो, और वो भी रोज़मर्रा ज़िंदगी के मनाज़िर और तजुर्बात के बयान में, वहाँ ख़याल-बंदी तअ'क़्क़ुलाती लुत्फ़ तो पैदा करती है लेकिन कैफ़ियत और जज़्बाती इंबिसात कम हो जाते हैं।
जैसा कि मैंने ऊपर बयान किया, ‘मीर’ के अशआ'र में जानवर जब रोज़ाना ज़िंदगी का हिस्सा बन कर आते हैं तो उनमें इंसानी सिफ़ात और ख़साइस का भी रंग आ जाता है। जानवरों के बयान में ‘मीर’ के इत्तिबा' में मुसहफ़ी कुछ बहुत दूर नहीं जा सके हैं। लेकिन वो जानवर को कार-आमद शय भी समझते हैं, या'नी जानवर में अगर कुछ शख़्सियत या इंसान-पन है तो भी वो इंसान के लिए कार-आमद होने की सत्ह से बरतर नहीं है। मसलन अपनी मसनवी ‘दर-सिफ़त-ए-बुज़’ (दीवान चहारुम) में मुसहफ़ी यूँ रत्ब-उल-लिसान होते हैं,
हर अदा में है उसकी महबूबी
बुज़ में देखी नहीं ब-ईं ख़ूबी
क्या शुजाअ'त की इसके लिक्खूँ बात
है मुक़ाबिल वो शेर के दिन रात
लेकिन मसनवी के ख़त्म होते-होते मुसहफ़ी अपना ‘इंसान-पन’ ज़ाहिर ही कर देते हैं। फ़रमाते हैं,
मिस्ल-ए-पूर-ए-ख़लील ला-सानी
मुस्तइद है बरा-ए-क़ुर्बानी
है फ़िदाए वो ख़ंजर-ए-तस्लीम
ज़ब्ह होने से इसको क्या है बीम
बेशक दोनों शे'र अच्छे हैं। लेकिन जिसकी हर अदा में महबूबी हो, उसकी गर्दन कटने की बात करने, बल्कि गर्दन कटने की तवक़्क़ो' रखने को ‘इंसान-पन’ न कहें तो क्या कहेंगे? अब मुसहफ़ी के बर-ख़िलाफ़ ‘मीर’ को देखिए, मसनवी “दर-बयान-ए-बुज़' में कहते हैं,
कहते हैं जो ग़म न दारी बुज़-बख़र
सो ही ली मैं एक बकरी ढूँढ कर
शे'र ज़ोर-ए-तब्अ' से कहता हूँ चार
दुज़्दी बुज़-गीरी नहीं अपना शिआ'र
(बुज़-गीरी - चोरी, मकर-ओ-हीला करना)
दुज़्द है शाइस्ता ख़ूँ-रेज़ी का याँ
बल्कि बाबत है बुज़-आवेज़ी का याँ
(बुज़-आवेज़ी - ज़ब्ह करके उल्टा लटकाना, जिस तरह क़स्साब करते हैं)
मैं पढ़ूँ हूँ उसके आगे शे'र गह
अपने हाँ गोया बुज़-ए-अख़्फ़श है यह
नज़्म की उठान देखिए, मैंने एक बकरी ख़रीदी है, चुराई नहीं। चोरी, हीलागरी अपना शिआ'र नहीं। बल्कि मेरी नज़र में तो चोर वाजिब-उल-क़त्ल है, बल्कि इस लाएक़ है कि उसे बकरे की तरह ज़ब्ह कर के उल्टा लटकाया जाए। मैं उसके सामने अपने शे'र पढ़ता हूँ, जिस तरह अख़्फ़श के बारे में कहते हैं कि वो अपनी किताब के औराक़ अपने बकरे को सुनाता, और जब बकरा सर हिला देता तब वो उन औराक़ को किताब में बाक़ी रखता। अगला शे'र सुनिए,
बकरों की दाढ़ी के तईं जाने हैं सब
तक्का रेशमी बकरी की है बुल-अ'जब
(तक्का - बकरा)
अब अल्फ़ाज़ मुलाहिज़ा हों, बुज़-गीरी, बुज़-आवेज़ी, तक्का-रेशमी, ऐसे अल्फ़ाज़ मुसहफ़ी तो क्या सौदा को भी न सूझ सकते होंगे। अब सरापा देखिए,
रंग सर से पाँव तक उसका सियाह
चिकनी ऐसी जिस पे कम ठहरे निगाह
चार पिस्तान उसके आए दीद में
दो-जहाँ होते हैं दो हैं जीद में
(जीद - गर्दन)
‘दीद’ का क़ाफ़िया ‘जीद’ मौलाना रुम जैसे मसनवी-निगार को सूझता तो वो भी ख़ुश होते। ख़ैर, उसके दो बच्चे हुए और बड़े नाज़ से पाले पोसे गए।
ज़ोर-ओ-क़ुव्वत से हरीफ़ों के हैं ढींग
आहू-ए-जंगी को दिखलाते हैं सींग
(ढींग-लंबा, ज़ोर-आवर, जंगी - बे-वज्ह झगड़ने वाला)
टक्कर उनकी क्या जिगर मेंढा उठाए
क़ूच-ए-सर-ज़न सामने हरगिज़ न आए
तीस उनकी धाक सुनकर मर गया
ग़म गौज़नों को उन्हों का चर गया
(तीस - अव्वल मफ़्तूह बकरा या नर आहू जो अपने गले का निगहबान होता है)
इन ख़ूबियों के बा-वजूद ‘मीर’ को उनका ज़ब्ह होना गवारा है, क्योंकि उनकी ख़ूबियाँ सब जानवराना हैं। बकरी के ज़ब्ह होने का अलबत्ता कोई मज़कूर नहीं। और उन बकरों के लिए भी वो ये कहते हैं कि अब मैंने उनके पास जाना छोड़ दिया है, काश वो इस तरह मेरी आग़ोश के परवर्दा न होते,
पास जाना उनके अब मसदूद है
ज़ब्ह करने को हर इक मौजूद है
‘मीर’ के बर-ख़िलाफ़ मुसहफ़ी की बकरी, जैसा कि हम देख चुके हैं, मुस्तइद है बरा-ए-क़ुर्बानी
मुसहफ़ी का मेंढा भी बेचारा इसी तक़दीर का मारा हुआ है।
मसनवी ‘क़ूच कि ब-ज़बान-ए-हिन्दी मेंढा मी गोयंद’ (दीवान चहारुम) में मुसहफ़ी कहते हैं कि उसमें सब ख़ूबियाँ हैं, वो भी बचपन से मुसहफ़ी के घर में पला हुआ है और आज़ाद फिरता है। मुसहफ़ी उसकी पैदाइश को ‘नुज़ूल फ़रिश्त-ए-रहमत’ क़रार देते हैं। लेकिन उसकी तक़दीर ये है कि,
है ये वस्फ़-ए-दोयम कि ये हैवाँ
नहीं करता ब-वक़्त-ए-ज़ब्ह फ़ुग़ाँ
या'नी शिकवे के लब हैं इसके बंद
नहीं बाँग इसकी बुज़ की तरह बुलंद
है ज़ि-बस वाक़िफ़-ए-मक़ाम-ए-रज़ा
जी से आ'शिक़ है इसकी तेग़-ए-क़ज़ा
बिचारे मेंढे में इंसानी सिफ़त सिर्फ़ एक है,
इसने आप अपना ख़ूँ किया है बहल
मुसहफ़ी की मुसम्मात बोलन ने तोता पाला तो वो भाग निकला, या'नी बे-वफ़ा साबित हुआ। दूसरी मसनवी में जो तोता है, वो भी बी बोलन ने पाला था और वो मसनवी के इख़्तिताम तक मौजूद था लेकिन उसमें तोते की जितनी तौसीफ़ है, वो उसकी जानवराना हैसियत को पेश-ए-नज़र रखकर नज़्म की गई है। (दोनों मसनवियाँ दीवान चहारुम में हैं।) इसके बर-ख़िलाफ़, ‘मीर’ ने जो मुर्ग़ा पाला था, वो आ'म मुर्ग़ों से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ जिगरदार था,
ब-जुज़ किनारा न सीमुर्ग़ को बिना चारा
कि फ़ील-ए-मुर्ग़ को बकरी की तरह से मारा
ख़ुसूमत उसकी थी यक-माद्दा सग से शाम-ओ-सहर
कभू वो लात उसे मारता कभू शहपर
क़ज़ा जो पहुँची थी नज़दीक वो भी झुँझलाई
हरीफ़ हो के दिलेराना सामने आई
बिल-आख़िर मुर्ग़ा मौत के घाट उतर ही गया। लेकिन उसके ग़म में,
हवा के मुर्ग़ हुए दाग़ उसके मातम से
सियाह-पोश रहे ताइर-ए-हरम ग़म से
वहाँ जो नौहा-ए-मुर्ग़ान-ए-क़ुद्स बाज़ हुआ
कि मुर्ग़-ए-क़िबला-नुमा का भी दिल-गुदाज़ हुआ
ख़ुरूस-ए-अ'र्श ही उस बिन नहीं है सीना-फ़िगार
(ख़ुरूस-ए-अ'र्श - वो मुर्ग़ा जो आसमान पर क़याम-पज़ीर है और सबसे पहली बाँग-ए-सहर वही देता है। दूसरे मुर्ग़े उसकी बाँग सुनकर पुकारना शुरू' करते हैं।)
हज़ार मुर्ग़ का अब घर ख़ुरूस पर है बार
(ख़ाना-बर-ख़ुरूस बार बूदन - वीरान होना)
मसनवी का आख़िरी शे'र है,
ख़मूश ‘मीर’ तुझी को नहीं ये रंज-ओ-तअ'ब
कबाब आतिश-ए-ग़म में हैं मुर्ग़-ओ-माही-ओ-सब
इस जंग-जू मुर्ग़े के बयान में मुनासिबात-ए-लफ़्ज़ी की कसरत का ज़िक्र न कर के मैं सिर्फ़ ये अ'र्ज़ करता हूँ कि इस चौबीस शे'र की मसनवी में इकत्तीस जानवरों के नाम या उनके तलाज़िमे आए हैं, ख़ुरूस, ख़ुरूस-ए-अ'र्श, मुर्ग़-सअंदाज़ करना, मुर्ग़-ए-मुसल्ला, मुर्ग़-ए-ख़याल, मुर्ग़-ए-ज़र्रींबाल, मुर्ग़-ए-आतिश-ए-ख़ार, बत्तख़, मुर्ग़-ए-सब्ज़वार, क़ाज़, कुलंग, शुतर-दिली, शुतुरमुर्ग, मुर्ग़ा, हवासिल, सीमुर्ग़, फ़ीलमुर्ग़, बकरी, गुर्बा, सग, माद्दा-सग, हुद-हद, हवा के मुर्ग़, ताइर-ए-हरम, मुर्ग़ान-ए-क़ुद्स, मुर्ग़-ए-क़िब्ला-नुमा, मुर्ग़-ए-क़फ़स, तुयूर, मुर्ग़-ए-दस्त-आमोज़, मुर्ग़-ए-जाँगी, माही।
भला सोचिए, क्या सौदा, क्या नज़ीर, क्या क़ाएम, क्या जुरअत, क्या मुसहफ़ी, इनमें से किस को मुनासिबात-ए-लफ़्ज़ी, रिआ'यत-ए-लफ़्ज़ी-ओ-मा'नवी, मअ'नी के वफ़ूर, और नादिर अल्फ़ाज़ पर इस क़दर दस्तरस है।
इस बात को तो अलग ही रखिए कि जानवरों के तईं ‘मीर’ का रवैया किस क़दर रौशन-दिलाना और यक-दर्दी (Empathy) से किस क़दर भरपूर है। सिर्फ़ शिकार-नामों में ‘मीर’ ने जानवरों को महज़ शिकार, या इंसानी इक़्तिदार और अहलियत के सामने सैद-ए-ज़बूँ दिखाया है और उनकी मौत या बे-घरी पर किसी ना-पसंदीदगी या रंज का इज़हार नहीं किया है।
लेकिन शिकार-नामा फिर शिकार-नामा है। वहाँ जानवरों का क़त्ल-ए-आ'म तो लाज़िम ही है, बल्कि ये उसकी रुसूमियात में दाख़िल है। लिहाज़ा ‘मीर’ यहाँ अपने जज़्ब-ए-यक दर्दी को मुअ'त्तल रखते हैं। अभी तो आप ये देखिए कि दिहात हो या शहर, ‘मीर’ की नज़र जानवरों और उनकी हरकतों पर बे-मुहाबा पड़ती है और उनके यहाँ जानवर, इंसान, अश्या, ये सब एक साथ दिखाई देते हैं। ‘तसंग-नामा’ में कुत्तों, इंसानों, और अश्या के बारे में मु'जिज़ कलामियाँ देखिए,
पानी-पानी था शोर से तूफ़ान
देख दरिया को सूखती थी जान
हम-रह-ए-मौज सैंकड़ों गिर्दाब
साथ थी सद तरी के चश्म-ए-हुबाब
नाव में पाँव हमने बारे रखा
ख़ौफ़ को जान के किनारे रखा
जज़्र-ओ-मद सब हवास खोता था
ख़िज़्र का रंग सब्ज़ होता था
मुनासिबत और इस्तिआ'रों को कहाँ तक वाज़ेह करूँ, यहाँ तूफ़ान (ब-मअ'नी सैलाब) पानी-पानी होता है, दरिया को देखकर जान सूखती है, हबाब की आँख तर है, यहाँ पर लोग डूब कर जान देने के ख़ौफ़ को दरिया किनारे रखते हैं, या जान-बूझ कर ख़ौफ़ को किनारे पर रखते और जान का ख़तरा मोल लेते हैं। यहाँ पानी के ख़ौफ़ और sea sickness या'नी ना-ख़ुशी दरिया के बाइ'स हज़रत-ए-ख़िज़्र (ख़िज़्र के मअ'नी सब्ज़ हैं) को गिरानी-सर और मतली है और उनका रंग सब्ज़ पड़ गया है, या'नी सियाही माइल हो गया है।
लेकिन इस बात को मलहूज़ रखें कि ये तजुर्बे इंसानी हैं, या'नी मुतकल्लिम के हैं, या'नी यहाँ इंसानी एहसास का बयान है, ‘हक़ीक़त’ यहाँ बहुत अहम नहीं। ख़ैर, अब दरिया के पार का मंज़र देखते हैं,
सो न जागह थी ने मकान-ए-मबीत
चार दूकानें एक फूटी मसीत
(मबीत - रात गुज़ारने के लाएक़)
जा के हैराँ हुए किधर जावें
सर घुसेड़ें जो टुक जगह पावें
तग-ओ-दव हर तरफ़ लगे करने
तिस-पे पड़ते थे मींह के भरने
(भरने पड़ना - ज़ोर की बारिश होना)
कोई मैदाँ में कोई छप्पर में
कोई दर में कोई किसू घर में
घर मिला साहिबों को ऐसा तंग
जिससे बैत-उल-ख़ला को आवे नंग
मेरा ख़याल था कि मैं अश्या का ज़िक्र करूँगा कि ‘मीर’ की निगाह कितनी बारीक है, लेकिन ये कहे बग़ैर नहीं रहा जाता कि घर के लिए बैत-उल-ख़ला का लफ़्ज़ लाना, जिसके लुगवी मअ'नी हैं, ‘तन्हाई का घर’, और फिर ‘नंग’ का लफ़्ज़ रखना, कि ‘बैत-उल-ख़ला’ में लोग कपड़े उतारते हैं, ज़बान पर ऐसी ख़ल्लाक़ाना क़ुदरत का मुज़ाहिरा है कि इस पर शेक्सपियर भी रश्क करता। ख़ैर, अब अश्या को देखिए, मकान ब-मअ'नी जगह, और मकान ब-मअ'नी घर, चार या'नी बहुत कम, दूकानें, मस्जिद (लफ़्ज़ ‘मसीत’ दाद से मुस्तग़नी है), वो भी टूटी फूटी, सर घुसेड़ने के लिए जगह, बारिश की भरन, मैदान, दर, छप्पर, इन चंद छोटी-मोटी बातों में सारा मंज़र बयान हो गया है। अब ज़रा इस बस्ती के कुत्तों से मिल देखिए,
कुत्तों के चारों और रस्ते थे
कुत्ते ही वाँ कहे तो बसते थे
दो कहीं हैं खड़े कहीं बैठे
चार लोगों के घर में हैं पैठे
एक ने फोड़े बासन एको ने
खोद मारे घरों के सब कोने
गल्ला-गल्ला घरों में फिरने लगे
रोटी टुकड़े की बू पे गिरने लगे
एक ने आ के देगचा चाटा
एक आया सो खा गया आटा
एक ने दौड़ कर दिया फोड़ा
फिर पिया आ के तेल अगर छोड़ा
बाहर अंदर कहाँ कहाँ कुत्ते
बाम-ओ-दर छत जहाँ-तहाँ कुत्ते
झड़झड़ावे है कान को कोई
रोवे है अपनी जान को कोई
यक-तरफ़ है चीड़ चीड़ की सदा
या'नी कुत्ता है चक्की चाट रहा
एक छन्ने को मुँह में ले आया
एक चूल्हे को खोदता पाया
एक के मुँह में हांडी है काली
एक ने चलनी चाट है डाली
तेल की कुप्पी एक ले भागा
एक चिकने घड़े से जा लागा
कुत्तों को फ़िलहाल नज़र-अंदाज कीजिए, लेकिन पतरस का मज़मून ‘कुत्ते’ ज़रूर ज़हन में लाइए कि पतरस और ‘मीर’ एक ही रिश्ते में पिरोए हुए हैं। अब अश्या को शुमार कीजिए, रस्ते, घर, बासन, घरों के कोने, रोटी, टुकड़ा, देगचा, आटा, दिया, तेल, बाम, दर, छत, झड़झड़ाता हुअ कान, चक्की, छन्ना, चूल्हा, काली हांडी, चलनी, तेल की कुप्पी, चिकना घड़ा।
इन अशआ'र में कई तरह की चालाकियाँ भी हैं, मसलन हरकी और सुमई' पैकरों की फ़रावानी, तजनीस-ए-हर्फ़ी, तजनीस-ए-सूती वग़ैरह, लेकिन इन पर गुफ़्तगू का मौक़ा' इस वक़्त नहीं, सिर्फ़ इशारा काफ़ी है। यहाँ इस बात पर ग़ौर करें कि बारह शे'र और इक्कीस अश्या, और सबकी सब मा'मूली घरेलू चीज़ें। और दूसरी बात ये कि ज़राफ़त के साथ हल्की सी झुँझलाहट या बेज़ारी ज़रूर है, लेकिन कुत्तों के ख़िलाफ़ कोई कीना या बरहमी नहीं। कम-ओ-बेश ऐसा अंदाज़ है गोया किसी ढीट बच्चे की शरारतें बयान हो रही हों। कुछ ऐसा ही अंदाज़ पतरस के मज़मून में भी है। ये फ़ैसला नक़्क़ादान-ए-फ़न पर छोड़ता हूँ कि ‘मीर’ जदीद हैं या पतरस क़दीम।
अब मसनवी ‘कद-खु़दाई बिशन सिंह’ से कुछ बहारिया अशआ'र पर अपनी बात ख़त्म करता हूँ,
चल हवाई से शोला-ख़ेज़ी देख
आसमाँ की सितारा-रेज़ी देख
मुत्तसिल छूटते जो हैंगे अनार
राह-ओ-रस्ते हुए हैं बाग़-ओ-बहार
इ'श्क़ है ताज़ा-कार आतिश-बाज़
फूल गुल में है रंग-रंग ए'जाज़
देख सनअ'त-गरी-ए-सनअ'त-गर
गुल-ए-काग़ज़ है ग़ैरत-ए-गुल-ए-तर
पैकर, इस्तिआ'रा, मुनासिबत-ए-अल्फ़ाज़, छोटी छोटी अश्या से शग़फ़ और उनको बड़ी चीज़ बना देना (मसलन इ'श्क़ को ‘आतशबाज़’ कहना, कि आतशबाज़ी मा'मूली बात है और इ'श्क़ बड़ी बात, लेकिन यहाँ इनका जोड़ किस क़दर ख़ूबसूरत है, ये कहने की ज़रूरत नहीं।)
जानवर, अश्या, ज़िंदगी से शग़फ़, ज़बान पर ऐसी महारत कि हद-ए-सेहर को भी पार कर जाए, इन सब बातों में शेक्सपिअर और ‘मीर’ हम-पल्ला हैं।
मसनवी के अ'लावा दीगर अस्नाफ़ में भी ‘मीर’ के यहाँ बहुत कुछ है। हज्वें और ख़ुद-नविश्ती नज़्में भी हमारी तवज्जोह की तालिब हैं। नादिर अल्फ़ाज़ (ख़्वाह फ़ारसी अ'रबी, ख़्वाह उर्दू) की जल्वा-गरी देखना हो तो मरसिए मुलाहिज़ा हों। जुज़इयात से ‘मीर’ का शग़फ़ भी हर जगह नुमायाँ है। लेकिन मेरी गुफ़्तगू यूँही बहुत तवील हो चुकी है। अभी तो बहुत कुछ कहने को बाक़ी था, लेकिन कहाँ तक? ‘मीर’ कोई ऐसे वैसे शाइ'र तो हैं नहीं जो चंद सफ़्हों में तमाम हो जाएँ। सुना है कि ग़ालिब के बारे में मीरन साहब कहते थे कि ये कलाम कोई क़ुरआन-ओ-हदीस नहीं कि जब चाहो फ़र-फ़र सुना दो। इस कलाम को सुनाने के लिए बा-वज़ू होना और यक-सू होना शर्त है। क्यों न हो, ब-क़ौल-ए-‘मीर’ (दीवान पंजुम),
इस सनाए' का इस बदाए' का
कुछ तअ'ज्जुब नहीं ख़ुदाई है
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