मुझे भी कुछ कहना है
माहवार रिसाला 'अदब-ए-लतीफ़' लाहौर के सालनामा 1942 ई. में मेरा एक अफ़्साना बा-उनवान 'काली शलवार' शाया हुआ था जिसे कुछ लोग फ़ोह्श समझते हैं। मैं उनकी ग़लत-फ़ह्मी दूर करने के लिए एक मज़मून लिख रहा हूँ।
अफ़साना-निगारी मेरा पेशा है, मैं इसके तमाम आदाब से वाक़िफ़ हूँ। इस से पेशतर इस मौज़ू पर मैं कई अफ़साने लिख चुका हूँ। उनमें से कोई भी फ़ोह्श नहीं। मैं आइन्दा भी इस मौज़ू पर अफ़साने लिखूँगा जो फ़ोह्श नहीं होंगे।
क़िस्सा-गोई हुबूत-ए-आदम से जारी है और मेरा ख़्याल है कि ये क़यामत तक जारी रहेगी। इसकी शक्लें बदलती जाएंगी। लेकिन इन्सान अपने एहसासात दूसरे अज़हान तक पहुंचाने का सिलसिला जारी रखेगा। बेसवाओं पर अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है और बहुत कुछ लिखा जाएगा। हर उस शैय के मुताल्लिक़ लिखा या कहा जाता है जो सामने मौजूद हो। बेसवाएं अब से नहीं हज़ारहा साल से हमारे दरमियान मौजूद हैं। उनका तज़्किरा इल्हामी किताबों में भी मौजूद है। अब चूँकि किसी इल्हामी किताब या किसी पैग़ंबर की गुंजाइश नहीं रही, इसलिए मौजूदा ज़माने में उनका ज़िक्र आप आयात में नहीं बल्कि उन अख़बारों, किताबों या रिसालों में देखते हैं जिन्हें आप ऊद और लोबान जलाए बग़ैर पढ़ सकते हैं और पढ़ने के बाद रद्दी में भी उठवा सकते हैं।
मैं एक ऐसा इन्सान हूँ जो ऐसे रिसालों और ऐसी किताबों में लिखता हूँ और इसलिए लिखता हूँ कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं जो कुछ देखता हूँ, जिस नज़र और जिस ज़ाविए से देखता हूँ, वही नज़र, वही ज़ाविया मैं दूसरों के सामने पेश कर देता हूँ अगर तमाम लिखने वाले पागल थे तो आप मेरा शुमार भी उन पागलों में कर सकते हैं। ''काली शलवार'' का पस-ए-मंज़र एक वैश्या का घर है। ये घर बुए के घर की तरह हैरत-अंगेज़ नहीं। जिसके मुताल्लिक़ अजीब-ओ-ग़रीब बातें मशहूर हैं। दिल्ली में ऐसी औरतों के लिए एक मुक़ाम मुंतख़ब कर के बे-शुमार घर बनाए गए हैं। मेरी सुल्ताना ऐसे ही एक बने बनाए घर में रहती थी। उसने बुए की तरह ये घर ख़ुद नहीं बनाया था वो बुए की तरह रात को जुग्नू पकड़-पकड़ कर अपना घर रौशन नहीं करती थी। रौशनी पैदा करने के लिए बिजली मौजूद थी। और चूँकि ये बिजली मुफ़्त नहीं मिल सकती और ना रहने के लिए मकान ही किराए के बग़ैर मिल सकता है। इसलिए उसे मज़दूरी करनी पड़ती थी। वो अगर ब्याही होती तो उसे ये सब चीज़ें मुफ़्त में मिल जातीं। लेकिन वो ब्याही नहीं थी वो एक औरत थी... और जब औरत को बिजली के पैसे देने पड़े, घर का किराया अदा करना पड़े और जिसके पल्ले ख़ुदा-बख़्श सा आदमी पड़ जाए, जो ख़ुदा पर भरोसा रखे और फ़क़ीर के पीछे मारा मारा फिरे तो ज़ाहिर है कि वो ऐसी औरत नहीं होगी जो हम अपने घरों में देखते हैं।
मेरी सुल्ताना चकले की एक औरत है। उसका पेशा वही है जो चकले की औरतों का होता है। चकले की औरतों को कौन नहीं जानता। क़रीब-क़रीब हर शहर में एक चकला मौजूद है। बद-रु और मोरी को कौन नहीं जानता। हर शहर में बद-रुएं और मोरियां मौजूद हैं जो शहर की गंदगी बाहर ले जाती हैं... हम अगर अपने मरमरीं ग़ुस्लख़नों में बातें कर सकते हैं, अगर हम साबुन और लियोनिडर का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन मोरियों और बद-रुओं का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते, जो हमारे बदन का मैल पीती हैं। अगर हम मंदिरों और मस्जिदों का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन क़हबा-खानों का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते। जहां से लौट कर कई इन्सान मंदिरों और मस्जिदों का रुख करते हैं... अगर हम अफ़ीम, चरस, भांग और शराब के ठेकों का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन कोठों का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते जहां हर क़िस्म का नशा इस्तिमाल किया जाता है।
भंगियों से छूतछात की जाती है। अगर कोई भंगी हमारे घर से गंदगी का टोकरा उठाकर बाहर निकले तो हम अपनी नाक पर रूमाल ज़रूर रख लेंगे। हमें घिन भी आएगी मगर हम भंगियों के वुजूद से तो मुनकिर नहीं हो सकते। इस फ़ज़्ल से तो इनकार नहीं कर सकते जो हर-रोज़ हमारे जिस्म से ख़ारिज होता है। क़ब्ज़, पेचिश, इस्हाल वग़ैरा दूर करने के लिए दवाएं इसीलिए मौजूद हैं कि हमारे जिस्म से फ़ासिद माद्दे का इख़राज ज़रूरी है। गंदगी के निकास के लिए नित नए तरीक़े सोचे जाते हैं इसलिए कि गंदगी हर रोज़ जमा हो जाती है अगर हमारे जिस्म में एक इन्क़िलाब बरपा हो जाये। और उसके अफ़आल बदल जाते हैं तो हम क़ब्ज़, पेचिश और इस्हाल की बातें नहीं करेंगे। या अगर गंदगी के निकास के लिए कोई मेकानिकी तरीक़ा ईजाद हो जाये तो भंगियों का वुजूद बाक़ी ना रहेगा।
हम अगर भंगियों के मुताल्लिक़ बात करें तो यक़ीनन कूड़े कर्कट और गंदगी का ज़िक्र आएगा। अगर हम वैश्याओं के मुताल्लिक़ बात करें तो यक़ीनन उन के पेशे का भी ज़िक्र आएगा। वैश्या के कोठे पर हम नमाज़ या दुरूद पढ़ने नहीं जाते हैं वहां जिस ग़रज़ से हम जाते हैं ज़ाहिर है। वहां हम इसलिए जाते हैं कि वहां हम जा सकते हैं वहां जा कर हम अपनी मतलूबा जिन्स बे रोक-टोक ख़रीद सकते हैं। जब वहां जाने की हमें खुली इजाज़त है। जब हर औरत अपनी मर्ज़ी से वैश्या बन सकती है और एक लाईसेंस लेकर जिस्म फरोशी शुरू कर सकती है जब ये तिजारत कानूनन जायज़ तस्लीम की जाती है तो इसके मुताल्लिक़ हम क्यों बातचीत नहीं कर सकते?
अगर वैश्या का ज़िक्र फ़ोह्श है तो उसका वजूद भी फ़ोह्श है। अगर उसका ज़िक्र ममनूअ है तो इस का पेशा भी ममनूअ होना चाहिए उसका ज़िक्र ख़ुद-ब-ख़ुद मिट जाएगा।
हम वकीलों के मुताल्लिक़ खुले बंदों बात कर सकते हैं। हम नाइओं, धोबियों, कंजड़ों और भटियारों के मुताल्लिक़ बातचीत कर सकते हैं। हम चोरों, उचक्कों, ठगों और रहज़नों के क़िस्से सुना सकते हैं। हम जिनों और परियों की दास्तानें बैठ कर गढ़ सकते हैं हम ये कह सकते हैं कि एक बेल अपने सींगों पर सारी दुनिया उठाए हुए हैं। हम दास्तान-ए-अमीर हमज़ा और क़िस्सा-ए-तोता मैना तसनीफ़ कर सकते हैं। लंधूर पहलवान के गुज़र की तारीफ़ कर सकते हैं। हम अम्र व अयार की टोपी और ज़ंबील की बातें कर सकते हैं हम उन तोतों और मैनाओं के क़िस्से सुना सकते हैं जो हर ज़बान में बातें करते थे। हम जादूगरों के मंत्रों और उनके तोड़ की बातें कर सकते हैं। हम अमल हमज़ाद और कीमियागरी के मुताल्लिक़ जो मन में आए कह सकते हैं। हम डाढ़ियों, पाजामों और सर के बालों की लंबाई पर लड़ झगड़ सकते हैं। हम रौग़न जोश, पुलाओ और क़ोरमा बनाने की नई-नई तरकीबें सोच सकते हैं। हम ये सोच सकते हैं कि सब्ज़-रंग के कपड़े पर किस रंग और किस क़िस्म के बटन सजेंगे... हम वैश्या के मुताल्लिक़ क्यों नहीं सोच सकते। उसके पेशे के बारे में क्यों ग़ौर नहीं कर सकते। उन लोगों के मुताल्लिक़ क्यों कुछ नहीं कह सकते जो उसके पास जाते हैं।
हम एक नौजवान लड़की और एक नौ जवान लड़के का बाहमी रिश्ता मुआशक़ा करा सकते हैं। उनकी पहली मुलाक़ात दातागंज बख़्श के मज़ार में करा सकते हैं। एक दलाल बुढ़िया बीच में ला सकते हैं। जो उन दो बिछड़ी रूहों को बार-बार मिलाती रहे हैं। हम आख़िर में उनके इश्क़ को नाकाम बना सकते हैं। दोनों को ज़हर पिलवा सकते हैं। उन दोनों के जनाज़े, एक उस मुहल्ले से और एक इस मुहल्ले से निकलवा सकते हैं, फिर उन दोनों की क़ब्रें एक मोजज़े के ज़रिये एक दूसरे से मिलवा सकते हैं। और अगर ज़रूरत महसूस हो तो ऊपर से फ़रिश्तों के हाथों से फूलों की बारिश भी करवा सकते हैं... हम वैश्या की ज़िंदगी क्यों बयान नहीं कर सकते। उसे तो फ़रिश्तों और उन फूलों की ज़रूरत नहीं होती। वो अगर मरती है तो दूसरे मुहल्ले से कोई जनाज़ा उसकी मौत का साथ नहीं देता। कोई क़ब्र उसकी क़ब्र से मिलने की ख़्वाहिश नहीं करती।
वैश्या का वुजूद ख़ुद एक जनाज़ा है जो समाज ख़ुद अपने कंधों पर उठाए हुए है वो उसे जब तक कहीं दफ़न नहीं करेगा उसके मुताल्लिक़ बातें होती रहेंगी। ये लाश गली सड़ी सही, बदबूदार सही, मुतअफ़्फ़िन सही, भयानक सही, घिनावनी सही, लेकिन उसका मुँह देखने में क्या हर्ज है... क्या ये हमारी कुछ नहीं लगती। क्या हम उसके अज़ीज़-ओ-अक़ारिब नहीं। हम कभी-कभी कफ़न हटाकर उसका मुँह देखते रहेंगे और दूसरों को दिखाते रहेंगे।
मैंने 'काली शलवार' में ऐसी लाश का मुँह दिखाया है। मुलाहिज़ा हो,
’सड़क की दूसरी तरफ़ माल गोदाम था। जो इस कोने से उस कोने तक फैला हुआ था। दाहिने हाथ को लोहे की छत के नीचे बड़ी बड़ी गांठे पड़ी रहती थीं। और हर क़िस्म के माल-ओ-अस्बाब के ढेर लगे रहते थे। बाएं हाथ को खुला मैदान था। जिसमें बेशुमार रेल की पटड़ियां बिछी हुई थीं। धूप में लोहे की ये पटरियाँ चमकतीं तो सुल्ताना अपने हाथों की तरफ़ देखती, जिन पर नीली-नीली रगें बिल्कुल उन पटरियों की तरह उभरी रहती थीं। उस लंबे और खुले मैदान में हर वक़्त इंजन और गाड़ियां चलती रहती थीं। कभी इधर कभी इधर। इन इंजनों और गाड़ियों की छुक छुक फ़क़ फ़क़ सदा गूँजती रहती थी। सुब्ह सवेरे जब वो उठकर बालकनी में आती तो एक अजीब समां उसे नज़र आता। धुँदलके में इंजनों के मुँह में से गाढ़ा गाढ़ा धुआँ निकलता था। और गदले आसमान की तरफ़ की जानिब मोटे और भारी आदमियों की तरह उठता दिखाई देता था। भाप के बड़े बड़े बादल भी एक शोर के साथ उठते थे और आँख झपकने की देर में हवा के अंदर घुल-मिल जाते थे। फिर कभी-कभी जब वो गाड़ी के किसी डिब्बे को जिसे इंजन ने धक्का देकर छोड़ दिया हो, अकेले पटरियों पर चलता देखती तो उसे अपना ख़्याल आता। वो सोचती कि उसे भी किसी ने ज़िंदगी की पटरी पर धक्का देकर छोड़ दिया है और ख़ुद-ब-ख़ुद जा रही है। दूसरे लोग कांटे बदल रहे हैं और वो चली जा रही है। ना जाने कहाँ। फिर एक दिन ऐसा आएगा, जब इस धक्के का ज़ोर आहिस्ता आहिस्ता ख़त्म हो जायेगा और वो कहीं रुक जाएगी। किसी ऐसे मक़ाम पर जो उसका देखा भाला ना होगा।
ज़हन पढ़ने वालों के लिए इससे अच्छे इशारे और क्या हो सकते हैं। सुल्ताना की ज़िंदगी का अस्ल नक़्शा इन इशारों और कनाइयों से मैंने पेश करने की कामयाबी सई की है। दिल्ली की म्युनिसिपल्टी ने दिल्ली की वैश्याओं के लिए एक ख़ास जगह मुक़र्रर करते वक़्त ये ना सोचा होगा कि माल-गोदाम उनकी ज़िंदगी का अस्ल नक़्शा पेश करता है लेकिन जो साहिब-ए-नज़र हैं वो मकानों और माल-गोदाम को देखकर ''काली शलवार'' जैसे कई अफ़साने लिखेंगे।
इसी लाश का एक बार मैंने यूं भी मुँह दिखाया था। मैं अपने मशहूर अफ़साने 'हतक' का आग़ाज़ इन सतरों से करता हूँ,
‘दिन भर की थकी मान्दी वो अभी अभी अपने बिस्तर पर लेटी थी और लेटते ही सो गई। म्युनिसिपल कमेटी का दारोग़ा सफ़ाई, जिसे वो सेठ जी के नाम से पुकारा करती थी, अभी अभी उसकी हड्डियाँ-पस्लियाँ झिंझोड़ कर शराब के नशे में चूर, घर वापस गया था... वो रात को यहीं पर ठहर जाता मगर उसे अपनी धर्मपत्नी का बहुत ख़याल था जो उससे बेहद प्रेम करती थी।
वो रुपये जो उसने अपनी जिस्मानी मशक़्क़त के बदले उस दारोग़ा से वुसूल किए थे, उसकी चुस्त और थूक भरी चोली के नीचे से ऊपर को उभरे हुए थे। कभी कभी सांस के उतार चढ़ाव से चांदी के ये सिक्के खनखनाने लगते और उसकी खनखनाहट उसके दिल की ग़ैर-आहंग धड़कनों में घुल-मिल जाती। ऐसा मालूम होता कि उन सिक्कों की चांदी पिघल कर उसके दिल के ख़ून में टपक रही है!
उसका सीना अंदर से तप रहा था। ये गर्मी कुछ तो उस ब्रांडी के बाइस थी जिसका अद्धा दरोग़ा अपने साथ लाया था और कुछ उस “ब्यौड़ा” का नतीजा थी जिसका सोडा ख़त्म होने पर दोनों ने पानी मिला कर पिया था।
वो सागवान के लम्बे और चौड़े पलंग पर औंधे मुँह लेटी थी। उसकी बाहें जो काँधों तक नंगी थीं, पतंग की उस काँप की तरह फैली हुई थीं जो ओस में भीग जाने के बाइस पतले काग़ज़ से जुदा हो जाये। दाएं बाज़ू की बग़ल में शिकन-आलूद गोश्त उभरा हुआ था जो बार बार मूंडने के बाइस नीली रंगत इख़्तियार कर गया था जैसे नुची हुई मुर्ग़ी की खाल का एक टुकड़ा वहां पर रख दिया गया है।
ये सुल्ताना की एक बहन सौगंधी की तस्वीर है। उसके पास ख़ुदा बख़्श के बजाय एक ख़ारिश-ज़दा कुत्ता था। ख़ुदा बख़्श सुल्ताना का दिल ना बहला सका। मगर ये ख़्वाहिश-ज़दा कुत्ता सौगंधी के बहुत काम आया। मैं इस अफ़साने की आख़िर में लिखता हूँ।
’’कुत्ता अपनी तुंड मुन्ड दुम हिलाता सौगंधी के पास आया और उसके क़दमों के पास बैठ कर कान फड़फड़ाने लगा तो सौगंधी चौंकी... उसने अपने चारों तरफ़ एक हौलनाक सन्नाटा देखा... ऐसा सन्नाटा जो उसने पहले कभी न देखा था।
उसे ऐसा लगा कि हर शय ख़ाली है... जैसे मुसाफ़िरों से लदी हुई रेलगाड़ी सब स्टेशनों पर मुसाफ़िर उतार कर अब लोहे के शेड में बिल्कुल अकेली खड़ी है। ये ख़लअ जो अचानक सौगंधी के अंदर पैदा हो गया था, उसे बहुत तकलीफ़ दे रहा था। उसने काफ़ी देर तक इस ख़लअ को भरने की कोशिश की। मगर बे-सूद, वो एक ही वक़्त में बेशुमार ख़यालात अपने दिमाग़ में ठूंसती थी मगर बिल्कुल छलनी का सा हिसाब था। इधर दिमाग़ को पुर करती थी, उधर वो ख़ाली हो जाता था।
बहुत देर तक वो बेद की कुर्सी पर बैठी रही। सोच-बिचार के बाद भी जब उसको अपना दिल पर्चाने का कोई तरीक़ा न मिला तो उसने अपने ख़ारिश-ज़दा कुत्ते को गोद में उठाया और सागवान के चौड़े पलंग पर उसे पहलू में लिटा कर सो गई।
कौन है जो ये तस्वीरें देखकर लज़्ज़त हासिल करने के वास्ते इन वैश्याओं के कोठे पर जायेगा। मेरी सुल्ताना और मेरी सौगंधी तन्हाई में देखने वाली तस्वीरें नहीं हैं जिनके इश्तिहार आए दिन अख़बारों में छपते रहते हैं? वो कोई नया जोड़दार आसन पेश नहीं करतीं। वो ईम्साक का कोई ख़ानदानी नुस्ख़ा नहीं बतातीं वो कोई लच्छे-दार आप-बीती नहीं सुनातीं कि शहवानी जज़बात उभर आएं।
मेरा ज़ेर-ए-बहस अफ़साना ''काली शलवार'' अगर आप ग़ौर से पढ़ें तो ज़ैल की बातें आपके ज़हन में आएंगी,
(1) सुल्ताना एक मामूली वैश्या है। पहले अंबाले में पेशा कराती थी। बाद में अपने दोस्त ख़ुदा बख़्श के कहने पर दिल्ली चली आई। यहाँ उसका कारोबार ना चला।
(2) ख़ुदा बख़्श ख़ुदा पर भरोसा करने और फ़क़ीरों की करामात पर ईमान लाने वाला आदमी था।
(3) सुल्ताना का जब कारोबार ना चला तो वो बहुत अफ़्सुर्दा हुई। उसकी अफ़्सुर्दगी में और इज़ाफ़ा हो गया जब ख़ुदा बख़्श फ़क़ीरों के पीछे मारा मारा फिरने लगा।
(4) मुहर्रम सर पर आ गया। सुल्ताना की दूसरी सहेलियों ने काले कपड़े बनवा लिए मगर वो ना बनवा सकी। इसलिए कि उसके पास कुछ नहीं था।
(5) इस मौके पर शंकर आता है। एक आवारागर्द। ज़हानत, हाज़िर जवाबी और ख़ुश गुफ़्तारी के अलावा उसके पास भी कुछ नहीं। वो सुल्ताना के पास आता है और अपनी इन ख़ूबियों के मुआवज़े में उससे वो जिन्स तलब करता है जिसे वो दाम लेकर फ़रोख़्त करती है। सुल्ताना ये सौदा क़बूल नहीं करती।
(6) दूसरी मर्तबा शंकर ख़ुद नहीं आता बल्कि उदास सुल्ताना उसे ख़ुद बुलाती है और उसे अपने ठहरे पानी जैसी ज़िंदगी में एक हादिसे की तरह क़बूल कर लेती है। उससे मिलकर वो ख़ुश होती है। मगर ये एहसास उसका पीछा नहीं छोड़ता कि मोहर्रम के लिए उसके पास एक काली शलवार की कमी है। वो शंकर से कहती है ''मोहर्रम आ रहा है मेरे पास इतने पैसे नहीं कि मैं काली शलवार बनवा सकूं। यहां के सारे दुखड़े तो तुम मुझसे सुन ही चुके हो। क़मीस और दुपट्टा मेरे पास मौजूद था जो मैंने आज रंगवाने के लिए दे दिया है।''
(7) शंकर मोहर्रम की पहली तारीख को सुल्ताना के लिए एक काली शलवार ले आता है... ख़ुदा बख़्श का ख़ुदा और ख़ुदा रसीदा बुज़ुर्गों पर एतिक़ाद काम नहीं आता। लेकिन शंकर की ज़हानत काम आती है। ये अफ़साना पढ़ कर दिल-ओ-दिमाग़ पर क्या असर होता है...? क्या उसका प्लाट या उसका अंदाज़-ए-बयान लोगों को वैश्या की तरफ़ खींचता है? मैं इसके जवाब में कहूँगा हरगिज़ नहीं। इसलिए कि इस मक़सद के लिए नहीं लिखा गया। अगर उसको पढ़ कर ऐसा असर पैदा नहीं होता तो ये अफ़साना अख़लाक़ियात से गिरा हुआ नहीं है, अगर ये अख़लाक़ियात से गिरा हो उन्हें तो ये अफ़साना ऐसा गीत नहीं जिसे ख़त उठाने की ख़ातिर लोग गाएं और बार-बार गाएं। कोई ग्रामोफ़ोन कंपनी उसके रिकॉर्ड नहीं भरेगी। इसलिए कि इसमें जज़्बात उभारने वाले दावरे और ठुमरियां नहीं हैं।
’काली शलवार' जैसे अफ़साने तफ़रीह की ख़ातिर नहीं लिखे जाते। उनको पढ़ कर शहवानी जज़्बात की राल नहीं टपकने लगती... इसको लिख के मैं कोई शर्मनाक फेअल का मुर्तक़िब नहीं हुआ। मुझे फ़ख़्र है कि मैं इसका मुसन्निफ़ हूँ। मैं शुक्र करता हूँ कि मैंने कोई ऐसी मसनवी नहीं लिखी। जिसके अशआर मैं आपकी ख़िदमत में नमूने के तौर पर पेश करता हू,
हाथा-पाई से हाँपते जाना
खुलते जाने में ढाँपते जाना
वो तेरा मुँह से मुँह भिड़ा देना
वो तेरा जेब का लरा देना
वो तेरा प्यार से लिपट जाना
और दिल खोल के चिमट जाना
हौले हौले पुकारने लगना
ढीले हाथों से मारने लगना
मुँह से कुछ कुछ पड़े बके जाना
छूट जाने के गोंतके जाना
थक के कहना ख़ुदा के वास्ते छोड़
नींद आई है अब मुझे ना झिंजोड़
वो तेरा ढीले छोड़ना बे-बस
वो तेरा सुस्त होके कहना बस
बात बाक़ी नहीं रही अब तो
रात बाक़ी नहीं रही अब तो
कहीं तेरी ये बात न बड़ेगी
या यूंही सारी रात न बड़ेगी
मुझमें बाक़ी कुछ अब तो बात नहीं
सुबह भी हो चुकी है रात नहीं
देख अब आगे मार बैठूँगी
यकसूओं को पुकार बैठूँगी
आदमी की जो तारीख़ निकलेगी
मुँह से क्यों कर ना चीख़ निकलेगी
कभी फिर भी तो काम होवेगा
देखियो कौन साथ सोवेगा
शुक्र है कि मैंने अपनी प्यास और भूकी ख़्वाहिशात-ए-नफ़सानी को परचाने के लिए ऐसे अशआर नहीं लिखे,
लब से लब मेरे मिलाए रखना
बाज़ू से वो सर उठाए रखना
वो सीने पे लेट के सताना
मतलब कि सुख़न पे रूठ जाना
वो मुँह में ज़बान की लज़्ज़तें हाय
ज़ाहिर हरकत से रग़तबीं हाय
अपना जो हुआ कुछ और इरादा
जी चाहा कि इस से भी ज़्यादा
वो हाथ को रख के जोश-ए-इनकार
वो करने ना देना बंद-ए-शलवार
वो हाथ को दम-ब-दम झटकना
वो तकिए पर सर को दे पटकना
आहिस्ता लगानी आह लातें
हीला की वो कैसी कैसी बातें
वो हाथ को ज़ोर से छुड़ाना
वो हो के तंग काट खाना
वो नीचे पड़े ही तिलमिलाना
क़ाबू से तड़प के निकले जाना
वो चीं वो ब-जबीं हो के कहना
किन बे-कसियों से रो के कहना
बस तुमको यही शुग़्ल दिन रात
अच्छी नहीं लगती मुझको ये बात
भरता ही नहीं है तेरा जी बस
करता ही नहीं है तू कभी बस
(कुल्लियात-ए-मोमिन... मसनवी-ए-दोयम... मत्बूआ नवल किशोर लखनऊ),
औरत और मर्द के जिन्सी रिश्ते के मुताल्लिक़ अगर इस अंदाज़ में कुछ कहा जाये तो उसे मायूब समझूंगा। इसलिए कि ये हर बालिग़ शख़्स को मालूम है। तन्हाई में जब मर्द और औरत एक बिस्तर पर इस ग़रज़ से लेटते हैं तो इसी क़िस्म की हैवानी हरकात करते हैं। लेकिन वो ऐसी ख़ूबसूरत नहीं होतीं। जैसा कि इन अशआर में ज़ाहिर की गई हैं उनकी हैवानियत को शायरी के पर्दे में छिपा दिया गया। ये लिखने वाले की शरारत है, जो यक़ीनन काबिल-ए-गिरफ़्त है।
अगर मर्द और औरत के इस हैवानी फ़ेअल की फ़िल्म बना कर पर्दे पर पेश की जाये तो मुझे यक़ीन है कि उसको देखकर तमाम सलीम-उद-दिमाग आदमी नफ़रत से मुँह फिर लेंगे। लेकिन जो अशआर मैंने ऊपर नमूने के तौर पर पेश किए हैं। वो इस हैवानी फ़ेअल की एक ग़लत तस्वीर पेश करते हैं।
ऐसी शायरी ''दिमाग़ी जलक़'' है। लिखने वालों और पढ़ने वालों दोनों के लिए उसे मैं मायूब समझता हूँ मेरे अफ़साने ''काली शलवार' में ऐसा कोई ऐब नहीं। मैंने उसमें कहीं भी मर्द और औरत के जिन्सी मिलाप को लज़ीज़ अंदाज़ में पेश नहीं किया। मेरी सुल्ताना से जो अपने गाहकी गोरों को अपनी ज़बान में गालियां दिया करती थी और उनको उल्लू के पट्ठे समझती थी किस क़िस्म की लज़्ज़त या किस क़िस्म के ख़त की तवक़्क़ोअ की जा सकती है। वो एक दुकानदार थी, ठीट क़िस्म की दुकानदार। अगर हम शराब की दुकान पर शराब की बोतलें लेने जाएं तो ये तवक़्क़ोअ नहीं करेंगे कि वो उमर ख़य्याम बना बैठा होगा। या उसको हाफ़िज़ का सारा दीवान अज़बर याद होगा। शराब के ठेकेदार शरबत बेचते हैं, उमर ख़य्याम की रुबाइयाँ और हाफ़ित शीराज़ी के शेअर नहीं बेचते।
मेरी सुल्ताना औरत बाद में है, वैश्या सबसे पहले है क्योंकि इन्सान की ज़िंदगी में उसका पेट सबसे ज़्यादा अहम है। शंकर उससे पूछता है। ''तुम भी कुछ ना कुछ ज़रूर करती होंगी।''
सुल्ताना जवाब देती है। ''झक मारती हूँ।...'' वो ये नहीं कहती कि मैं गंदुम का ब्योपार करती हूँ या सोने चांदी की तिजारत करती हूँ, उसे मालूम है कि वो क्या करती है। अगर किसी टाइपिस्ट से पूछा जाये कि तुम क्या काम करते हो तो वो यही जवाब देगा। ''टाइप करता हूँ।'' मेरी सुल्ताना और एक टाइपिस्ट में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है।
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