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क़िस्सा उर्दू ज़बान का

गोपी चंद नारंग

क़िस्सा उर्दू ज़बान का

गोपी चंद नारंग

MORE BYगोपी चंद नारंग

    उर्दू ज़बान की पैदाइश का क़िस्सा इस लिहाज़ से हिंदुस्तानी ज़बानों में शायद सबसे ज़ियादा दिलचस्प है कि ये रेख़्ता ज़बान बाज़ारों, दरबारों और ख़ानक़ाहों में सर-ए-राह-ए-गुज़र पड़े-पड़े एक दिन इस मर्तबे को पहुँची कि इसके हुस्न और तमव्वुल पर दूसरी ज़बानें रश्क करने लगीं। दक्कन में तो ख़ैर उसे साज़गार माहौल मिला था, और शाहजहाँबाद के उर्दू बोलने वालों ने उर्दू को उर्दूए मुअल्ला का दर्जा तो दे दिया और इसकी अदाओं और घातों पर जान भी देने लगे, मगर फ़ारसी का असर इतना बढ़ा हुआ था कि लोग उर्दू में शे'र कहते हुए कतराते थे।

    मसल मशहूर है कि बड़ या पीपल के पीड़ के नीचे घास भी नहीं उगती। फ़ारसी के साए में यही हल इस नौ-ज़ाईदा ज़बान का था। ये वली के दीवान का फ़ैज़ था कि लोग फ़ारसी छोड़-छोड़ कर उर्दू की तरफ़ मुतवज्जे हो गए। गोया मुद्दतों से ज़बान तैयार थी, बस एक हल्के से नफ़्सियाती सहारे की ज़रूरत थी, वो सहारा वली के अशआर की मक़बूलियत ने फ़राहम कर दिया। कम-ओ-बेश उसी ज़माने में फ़ज़ल अली फ़ज़ली ने कर्बल कथा लिखी। अगर उसकी नस्र का मुक़ाबला उस ज़माने की शायरी की ज़बान से किया जाए तो हैरत होती है कि शे'र की ज़बान तो किसी हद तक मंझ गई थी लेकिन नस्र की राह से काँटे अभी नहीं निकले थे। आम उसूल है कि नस्र पहले बढ़ती है, शायरी बाद में तरक़्क़ी करती है। यहाँ मामला बर-अक्स था। ज़बान तो तैयार थी ही, बँध टूटा तो सबसे पहले तबीअतों को शायरी बहा ले गई, नस्र किनारे पर खड़ी देखती रही। फ़ज़ली कर्बल कथा के दीबाचे में लिखते हैं,

    सबब-ए-तालीफ़ इस मज्मूआ-ए-महमूदा का और बाइस-ए-तस्नीफ़ इस नुस्ख़ा-ए- मसऊदा का कि हर हर्फ़ इसका एक गुलदस्ता बोस्तान-ए-विलायत का है... वाक़िआ-ए-शहादत-ए-शाह-ए-कर्बला का इसमें लिखा है, सुनाता था लेकिन मा'नी उसके निसाअ-ओ-औरात की समझ में आते थे। अक्सर औक़ात बाद किताब-ख़्वानी के सब ये मज़्कूर करते कि सद हैफ़-ओ-सद हज़ार अफ़सोस जो हम कम नसीब इबारत फ़ारसी नहीं समझते और रोने के सवाब से बे-नसीब रहते। ऐसा कोई साहब-ए-शऊर होवे कि किसी तरह मिन-ओ-अन हमें समझावे और हमसे बे-समझों को समझा कर रुलावे।

    इस नस्र में उर्दू के इब्तिदाई दौर की मासूमियत और सादगी तो है लेकिन जुमले फ़ारसी के शिकंजे में जकड़े हुए हैं। दूसरी तरफ़ शे'र की ज़बान में दकनियत या'नी बोलियों के इब्तिदाई असरात थे। मीर ने तो अपने मोहब्बत-आमेज़ लहजे में महज़ इतना कहा था, मा'शूक़ जो अपना था बाशिंदा दकन का था, लेकिन क़ाइम ने जब दावा किया,

    क़ाइम मैं ग़ज़ल तौर किया रेख़्ता वरना

    इक बात लचर सी ब-ज़बान-ए-दकनी थी

    तो दर अस्ल इस एहसास का इज़्हार कर रहे थे जिसका एक ऐसे तारीख़ी दौर में पैदा हो जाना क़ुदरती थी, जब ज़बान के बनने, सँवरने और गढ़ने का अमल जारी था। ये मुबारक काम किसी फ़र्द-ए-वाहिद या अकेले किसी एक शायर का नहीं था, बल्कि इसमें मज़हर, हातिम, मीर, सौदा और क़ाइम-ए-यक़ीन के दौर के सभी उर्दू बोलने और लिखने वाले शरीक थे। उस ज़माने में ज़बान को बे-इंतिहा वुस्अत दी गई और हज़ारों नए लफ़्ज़, नए मसदर, नए मुहावरे, नई तश्बीहें, नए इस्तिआरे ज़बान में दाख़िल हुए और ज़बान कहाँ से कहाँ पहुँच गई। उस दौर में एक तरफ़ अगर कई ठेठ हिन्दी लफ़्ज़ हमेशा के लिए उर्दू में खप गए तो इसके साथ-साथ कई फ़ारसी मुहावरों और फ़िक़्रों के तर्जुमे उर्दू में रच-बस गए। मसलन पैमाना भरना (पैमाना पुर करदन), जामे से बाहर निकलना (अज़ जामा बेरून शुदन), दिल हाथ से जाना (दिल अज़ दस्त रफ़्तन), ख़ुश आना (ख़ुश आमदन), जिगर करना (जिगर करदन)

    उस दौर की शायरी में सिपाहियों, पहलवानों, टप्पे-बाज़ों, महावतों, आतिश-बाज़ों, तवाइफ़ों, बनियों, तबीबों, बावर्चियों, शिकारियों वग़ैरा के बे-शुमार अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। इसके अलावा रज़्म-ओ-बज़्म और शादी ब्याह, मौसमों, फलों, फूलों, परिंदों, जानवरों, ज़ेवरों, कपड़ों, खानों वग़ैरा के सैकड़ों नाम और उनके बारे में ख़ास-ख़ास अलफ़ाज़ उस दौर में उर्दू के सरमाए में दाख़िल हुए और उर्दू लफ़्ज़ियात में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ। फ़ारसी लफ़्ज़ों से जो मस्दर बनाए गए, उन्हीं से कुछ अंदाज़ होगा कि उर्दू में अख़्ज़-ओ-तसर्रुफ़ का कैसा मुहतम बिस्शान सिलसिला जारी रहा। लरज़ से लरज़ना, दाग़ से दाग़ना, फ़रमान से फ़रमाना, ख़रीद से ख़रीदना, ख़र्च से ख़र्चना, बख़्श से बख़्शना, नवाज़ से नवाज़ना, बदल से बदलना, इसी तरह गुज़र करना, अमल करना, ज़हमत करना, ख़राब करना, क़दर करना, तलाश करना, शुमार करना, मिन्नत खींचना, फ़र्ज़ करना, तूमार बाँधना, हामी भरना, सर-ओ-कार रखना। ये और ऐसे सैकड़ों दूसरे माख़ूज़ अफ़्आल हैं जो इस कसरत से इस्तेमाल हुए हैं कि उर्दू के अपने हो गए हैं।

    फ़ारसी अलफ़ाज़ के साथ हिन्दी अलफ़ाज़ का मेल भी उसी दौर में उरूज को पहुँचा। दोराहा, बे-तुका, गाड़ी-बान, बे-ढ़ब, बे-घर, नेक-चलन, शर्मीला-पन, मुँह-ज़ोर, चोर महल, जेब-कतरा, इमामबाड़ा, बे-फ़िकरा, नौ-दौलता, चौराहा, छः-माहा, पच-रंगा, बे-सब्रा, थका-माँदा, बे-कल, बद-चलन, शर्मीला, पान-दान, बे-धड़क, समझदार, सदा-बहार, दीवाना-पन, बे-लाग, दग़ा-बाज़, बसंती-पोश, बेल-दार, फूल-दार, जामा-छींट, मोती महल, मोती मस्जिद। मीर ने जब कहा था,

    बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी सुनिएगा

    करते किसी को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा

    जहाँ से खोलिए इक शे'र-ए-शोर-अंगेज़ निकले है

    क़यामत का सा हंगामा है हर जा मेरे दीवाँ में

    तो शे'री जमाल-ओ-जलाल के ये दावे ज़बान की लिसानी क़ुव्वत, वुस्अत, लोच और तमव्वुल के बग़ैर नामुम्किन थे। लगभग उसी ज़माने में जब दिल्ली की शे'री फ़िज़ाएँ मीर-ओ-सौदा के मुआसिरीन और उनके शागिर्दों की ज़मज़मा-संजियों से गूँज रही थीं, लखनऊ में उर्दू शायरी की तुख़्म-रेज़ी का अमल शुरू हो चुका था। दूसरी तरफ़ क़ुरआन शरीफ़ के उर्दू तराजिम की तरफ़ भी तवज्जो हो चली थी और मर्कज़ी इलाक़ों से दूर उर्दू या हिंदुस्तानी के असर से मुर्शिदाबाद और कलकत्ते की लिसानी फ़िज़ाओं में भी तमव्वुज पैदा होने लगा था। यही वो ज़माना है जब विलियम जोन्ज़ ने संस्कृत, पहलवी, यूनानी, जर्मनी और इतालवी ज़बानों के मुश्तरक जद्द-ए-अम्जद का सुराग़ खोज निकाला और तारीख़ी लिसानियात और बिल-खु़सूस इंडो-यूरोपीयन ख़ानदान की गुमशुदा तारीख़ी कड़ियाँ मिलाई जाने लगीं।

    उसी ज़माने में साम्राज के आलाकार के तौर पर गिलक्रिस्ट ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में उर्दू पर तवज्जोह की। गिलक्रिस्ट ने लुग़त, क़वाइद और ज़बान पर बीसियों किताबें लिखीं और लिखवाईं और फ़ोर्ट विलियम कालेज में हिंदुस्तानी या'नी उर्दू के मुंशी जमा किए। इस तारीख़ी काम का एक पहलू ये है कि अगर यहाँ नस्र की किताबें सादा ज़बान में लिखी जातीं तो उर्दू शायद एक मुद्दत तक अता हुसैन तहसीन की नौ-तर्ज़-ए-मुरस्सा की तर्सीअ और सजाअ-साज़ी की भूल-भुलैयों में गुम रहती। यूँ तो फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हैदर बख़्श हैदरी, शेर अली अफ़सोस, मिर्ज़ा अली लुत्फ़, काज़िम अली जवाँ, मज़हर अली वला, बहादुर अली हुसैनी, निहाल चंद लाहौरी, बेनी नरायन जहाँ और कई दूसरे अदीब थे जिन्होंने उर्दू ज़बान की इल्मी हुदूद को वसीअ किया लेकिन उस दौर की किताबों में जो मोरत्तिबा मीर अमन की बाग़-ओ -बहार ने पाया वो नस्र की किसी किताब को नसीब हुआ।

    उर्दू अगर प्राकृति और अरबी-फ़ारसी अनासिर के दरमियान एक लिसानी तवाज़ुन का नाम है तो मीर अमन ने अपनी ज़बरदस्त लिसानी जीनियस और इंतिहाई मंझे और रचे हुए ज़ौक़-ओ-शुऊर की बदौलत उस लसानी तवाज़ुन के हुस्न का राज़ पा लिया था। बाग़-ओ-बहार की उर्दू सिर्फ़ कौसर-ओ-तस्लीम ही में धुली हुई नहीं ये गंगा और जमुना के आईने में भी अपना चेहरा देखे हुए है,

    अब दमड़ी की ठुड्डियाँ मयस्सर नहीं जो चबा कर पानी पियूँ। दो-तीन फ़ाक़े कड़ाके के खींचे। ताब भूक की ला सका। लाचार बे-हयाई का बुर्क़ा मुँह पर डाल कर ये क़स्द किया, बहन के पास चलिए। लेकिन ये शर्म दिल में आती थी कि क़िब्ला-गाह की वफ़ात के बाद बहन से कुछ सुलूक किया, ख़ाली ख़त लिखा। वो मा-जाई, मेरा ये हाल देख कर, बलाएँ ले और गले मिल कर बहुत रोई। तेल मालिश और काले टिके मुझ पर से सदक़े किए। एक दिन वो बहन कहने लगी, बैरन! तू मेरी आँखों की पुतली और माँ-बाप की मूई मिट्टी की निशानी है। तेरे आने से मेरा कलेजा ठँडा हुआ। जब तुझे देखती हूँ, बाग़-बाग़ होती हूँ। तूने मुझे निहाल किया।

    लेकिन मर्दों को ख़ुदा ने कमाने के लिए बनाया है, घर में बैठे रहना उनको लाज़िम नहीं। जो मर्द निखट्टू होकर घर सेता है, उसको दुनिया के लोग ता'ना मेहना देते हैं। ख़ुसूस उस शहर के लोग। छोटे-बड़े बे-सबब तुम्हारे रहने पर कहेंगे, अपने बाप की दौलत दुनिया खो-खाकर बहनोई के टुकड़ों पर पड़ा। ये निहायत बे-ग़ैरती और मेरी तुम्हारी हँसाई और माँ-बाप के नाम को सबब लाज लगने का है। नहीं तो मैं अपने चमड़े की जूतियाँ बनाकर तुझे पहनाऊँ और कलेजे में डाल कर रखूँ। अब ये सलाह है कि सफ़र का क़स्द करो। ख़ुदा चाहे तो दिन फिरें और इस हैरान और मुफ़्लिसी के बदले, ख़ातिर जम्ई और ख़ुशी हासिल हो।

    इस नस्र से मालूम होता है कि उर्दू ज़बान ने अपने लड़कपन को पीछे छोड़ दिया है और अब इसमें अदाए मतलब की ख़ूबियाँ पैदा हो गई हैं। फ़ोर्ट विलियम कॉलेज के बाद उर्दू नस्र जवान होती हुई मालूम होती है। अंग्रेज़ी ता'लीम और मग़रिबी तहज़ीब की रौशनी की किरणें कलकत्ते से फूटने लगी थीं, लेकिन उधर अवध की तहज़ीब अपने हिसार में बंद थी और ये हिसार भी ऐसा था जिसकी अपनी एक दुनिया थी, अपनी ज़मीन और अपना आसमान। इसके सूरज, चाँद और सितारे आतिश, नासिख़, बहर, सहर, नसीम, वज़ीर, रिंद, सबा, क़लक़ और रजब अली बेग सुरूर थे। तिलिस्म-ए-होश-रुबा, अमीर हमज़ा और बीसियों दूसरी दास्तानों के सिलसिले थे। दरबार तो एक था, लेकिन उसके साये में छोटे-बड़े दरबारियों के कई दायरे थे जिनके असर से मुशायरे, शे'री हुनर-मंदी, फ़न पर क़ुदरत और ज़बाँ-दानी की महारत के सबसे बड़े अखाड़े थे।

    दौलत की फ़रावानी और सर-परस्तों की कसरत ने शायरी को जितना बे-रूह किया, ज़बान को इतनी ही तरक़्क़ी और तौसीअ भी दी क्योंकि सारी तवज्जोह अब लफ़्ज़ और ज़बान पर सर्फ़ होने लगी थी, हिन्दी की चिंदी की गई। मतरुकात के दफ़्तर तैयार किए गए, लेकिन ज़बान का पौद अवध की फ़िज़ाओं में परवान चढ़ता रहा, जहाँ ज़मीन भी ज़र-ख़ेज़ थी और मिट्टी भी नम थी। उस दौर में उर्दू पर अवधी के लोच, नर्मी और घुलावट की ऐसी छूट पड़ी जिस पर उर्दू हमेशा नाज़ करती रहेगी। उस दौर की ज़बान में लिताफ़त, रस और तबियत को बहा ले जाने वाली कैफ़ियत देखनी हो तो ग़ज़ल में नहीं मसनवी और मरसिए में देखनी चाहिए।

    उस दौर की उर्दू में दोनों इंतिहाएँ मिलती हैं। एक तरफ़ नासिख़ की रिवायात, रजब अली बेग सुरूर का फ़साना-ए-अजायब और दया शंकर नसीम की गुलज़ार-ए-नसीम है तो दूसरी तरफ़ मीर हसन, मीर अनीस और मिर्ज़ा शौक़ की बोल-चाल की चाँदनी में धुली हुई ज़बान है, जिसकी सलासत, घुलावट और रवानी की क़सम खाई जा सकती है। उर्दू ज़बान नज़्म और नस्र दोनों में अब इस नुक़्ता-ए-उरूज तक पहुँच गई थी कि मुंतज़िर थी कोई ऐसा बा-कमाल आए कि उसके दोनों साइद सीमें थाम ले और ज़बान उसकी मोहब्बत के बदले उसके सर पर लिसानी ज़र-ओ-जवाहिर से जगमगाता हुआ अज़मत का ऐसा ताज रख दे जिसकी चमक रहती दुनिया तक आँखों को खीरा करती रहे। ऐसे बा-कमाल अज़ीम फ़नकार मिर्ज़ा ग़ालिब थे। उन्होंने जब ये कहा था,

    गंजीना-ए-मा'नी का तिलिस्म इसको समझिए

    जो लफ़्ज़ कि ग़ालिब मिरे अशआर में आवे

    तो बिल-वास्ता तौर ही पर सही वो इस अम्र का इज़्हार कर रहे थे कि उर्दू लफ़्ज़ी और मा'नवी दोनों ए'तिबार से इस सतह तक उठ आई है कि नाज़ुक से नाज़ुक मा'नी और ज़िंदगी के पेचीदा से पेचीदा रिश्तों के एहसासात के इज़्हार पर क़ादिर हो सकती है। नस्र में गुफ़्तगू को और शायरी में सह्र को समोने की मिर्ज़ा में ऐसी बे-पनाह सलाहियत थी कि उनके साथ-साथ उर्दू ज़बान के लिसानी इर्तिक़ा का वो दायरा मंतिक़ी तौर पर मुकम्मल हो गया जो अमीर ख़ुसरो के दौर में बनना शुरू हुआ था। ग़ालिब के बाद अदाए मा'नी की एक ऐसी शाहराह खुल गई जिस पर उर्दू आज तक चल रही है। ग़ालिब की इस तहरीर को देखिए और फ़ैसला कीजिए कि आज की उर्दू की मेयार-बंदी किस ज़बान की बिना पर की जाती है,

    पैंसठ बरस की उम्र है, पचास बरस आलम-ए-रंग-ओ-बू की सैर की। इब्तिदाए शबाब में एक मुर्शिद कामिल ने हमको ये नसीहत की कि हमको ज़ोहद-ओ-वरा मंज़ूर नहीं, हम मानेअ-ए-फ़िस्क़ओ-फ़ुजूर नहीं, पियो, खाओ, मज़े उड़ाओ, मगर ये याद रहे कि मिस्री की मक्खी बनो, शहद की मक्खी बनो। सो मेरा इस नसीहत पर अमल रहा है। किसी के मरने का वो ग़म करे जो आप मरे। कैसी अश्क-अफ़्शानी, कहाँ की मर्सिया-ख़्वानी, आज़ादी का शुक्र बजा लाओ, ग़म खाओ और अगर ऐसे ही अपनी गिरफ़्तारी से ख़ुश हो तो चुन्ना जान सही, मुन्ना जान सही। मैं जब बहिश्त का तसव्वुर करता हूँ और सोचता हूँ कि अगर मग़्फ़िरत हो गई और एक क़स्र मिला और एक हूर मिली। इक़ामत-ए-जाविदानी है और उसी एक नेक-बख़्त के साथ ज़िंदगानी है। इस तसव्वुर से जी घबराता है और कलेजा मुँह को आता है। हे-हे वो हूर अजीरन हो जाएगी, तबियत क्यों घबराएगी। वही ज़मुर्रदीं काख़ और वही तूबा की एक शाख़। चश्म-ए-बद्दूर, वही एक हूर, भाई होश में आओ, कहीं और दिल लगाओ।

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