साहेब-ए-ज़ौक़ क़ारी और शे'र की समझ
क्या कोई क़ारी सही मअनी में साहिब-ए-ज़ौक़ हो सकता है? मुझे अफ़सोस है कि इस सवाल का जवाब नफ़ी में है। क्या किसी ऐसे क़ारी का वुजूद मुम्किन है जिसकी शे’र फ़हमी पर हम सबको, या अगर हम सबको नहीं तो हम में से बेशतर लोगों को एतमाद हो? मुझे अफ़सोस है कि इस सवाल का भी जवाब नफ़ी में है। इसका मतलब ये भी नहीं कि क़ारी साहिब-ए-ज़ौक़ होता ही नहीं, या हर क़ारी की शे’र फ़हमी नाक़ाबिल-ए-एतमाद होती है। इसका मतलब ये भी नहीं कि शायर क़ारी के वुजूद या क़ारी के वुजूद की ज़रूरत का मुनकिर हो सकता है।
इसका मतलब ये भी नहीं कि चूँकि ऐनी हैसियत से साहिब-ए-ज़ौक़ और साहिब-ए-फ़हम क़ारी का वुजूद फ़र्ज़ी नहीं तो मुश्तबहा ज़रूर है, लिहाज़ा शे’र फ़हमी की तमाम कोशिशें बेकार हैं। इसका मतलब सिर्फ़ ये है कि मुश्किल या मुबहम या नापसंदीदा शायरी को मतऊन करते वक़्त हम साहिब-ए-ज़ौक़ या समझदार पढ़े लिखे क़ारी के जिस तसव्वुर का सहारा लेते हैं वो फ़र्ज़ी है। ये शिकायत कि फ़ुलां नज़्म या फ़ुलां शायर ख़राब है या नापसंदीदा है क्योंकि वो पढ़े लिखे या साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी की गिरफ़्त में नहीं आती, ग़ैर मंतक़ी शिकायत है और ये दलील कि चूँकि पढ़े लिखे लोगों को भी फ़ुलां नज़्म से लुत्फ़ अंदोज़ होने के लिए शरह की ज़रूरत पड़ती है, लिहाज़ा फ़ुलां नज़्म ख़राब है या नापसंदीदा है, सिरे से कोई दलील है ही नहीं।
इन मसाइल की तफ़सील में जाने से पहले दो-चार बुनियादी बातों की वज़ाहत ज़रूरी है। अव्वल तो ये तन्क़ीदी आले के तौर पर ज़ौक़ बिल्कुल बेकार और नाक़ाबिल-ए-एतबार है लेकिन एक ग़ैर तन्क़ीदी आले के तौर पर ज़ौक़ इंतहाई कारा॓मद चीज़ है। तन्क़ीद की दुनिया में ज़ौक़ का एतबार इसलिए नहीं है कि ज़ौक़ हमें हुस्न का एक उमूमी इल्म तो बख़्शता है लेकिन ये नहीं बताता कि फ़ुलां फ़न पारे में हुस्न क्यों है, ज़ौक़ ये तो बता सकता कि,
दर-ए-दश्त जुनून-ए-मन जिब्रील ज़बूँ सैदी
यज़्दाँ ब-कमंद आवर ऐ हिम्मत-ए-मर्दाना
और
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
अगरचे तक़रीबन हम मफ़हूम शे’र हैं लेकिन फ़ारसी शे’र उर्दू शे’र से बहुत ज़्यादा ख़ूबसूरत है। लेकिन ज़ौक़ ये नहीं बता सकता कि फ़ारसी शे’र की ख़ूबसूरती कहाँ है और क्यों है, यानी ज़ौक़ अगर बहुत ही सही हो तो वो इतना तो कर देगा कि आप अच्छी और ख़राब, मामूली और ग़ैरमामूली वग़ैरा शायरी को अलग कर सकेंगे। लेकिन तजज़िए के अमल से बेबहरा होने की वजह से ज़ौक़ अपनी तमाम सेहत और सलीम उल तबई के बावुजूद क्यों और कैसे का जवाब देने पर क़ादिर नहीं होता। ज़ौक़ की बेएतिबारी की दूसरी वजह ये है कि मुख़्तलिफ़ पस मंज़री हरकात और अवामिल का पाबंद होने की वजह से वो हमेशा सही फ़ैसला नहीं कर पाता।
अगर ऐसा होता तो दुनिया के मुख़्तलिफ़ शोअरा की अपने अपने ज़माने में साहिब-ए-ज़ौक़ लोगों के हाथों वो दुर्गत न बनती जो बनती आई है। नक़्क़ाद बेज़ौक़ या बदज़ौक़ नहीं होता, लेकिन वो महज़ अपने ज़ौक़ पर भरोसा नहीं करता। मुम्किन है कि वो अपने तरीक़ा-ए-कार में ज़ौक़ को एक आग़ाज़ी जगह देता हो लेकिन ज़ौक़ की पैदा-कर्दा या अता कर्दा आग़ाज़ी आगाह को वो उस वक़्त तन्क़ीदी फ़ैसले की शक्ल देता है जब वो आगाही उसूल-ए-नक़द की भी रोशनी में दुरुस्त साबित होती है। अगर ऐसा न हो तो क़ारी और नक़्क़ाद में कोई फ़र्क़ न रह जाये।
शे’र फ़हमी एक तन्क़ीदी अमल है, इसकी सबसे बड़ी ख़ूबी या क़ुव्वत ये है कि ये ज़ौक़ के पैदा-कर्दा रद्द-ए-अमल के बाद बरु-ए-कार आता है, मसलन जब मेरा ज़ौक़ मुझे बताता है कि दर-ए-दश्त जुनून-ए-मन... बेहतर शे’र है तो मैं शे’र फ़हमी की कोशिश करता हूँ और नतीजे के तौर पर मुझे महसूस या मालूम होता है कि मौज़ू की तक़रीबन वहदत के बावुजूद ख़ुदी को कर बुलंद इतना... मअनी के एतबार से कमतर है। इसलिए मैं उसे कमतर शे’र समझने में हक़ बजानिब था।
ये बात मल्हूज़-ए-ख़ातिर रखिए कि तन्क़ीदी अमल से मेरी मुराद नक़्क़ाद का अमल नहीं है यानी शे’र फ़हमी एक तन्क़ीदी अमल तो है लेकिन नक़्क़ाद का अमल महज़ शे’र फ़हमी नहीं है। शे’र फ़हमी नक़्क़ाद के अमल का एक छोटा सा हिस्सा है, उतना छोटा कि अक्सर तन्क़ीदों में इसकी कारफ़रमाई के अलामात ज़ेर-ए-ज़मीं ही रहते हैं। मसलन ग़ालिब पर कोई आला दर्जे का तन्क़ीदी मज़मून उस वक़्त जन्म लेता है जब नक़्क़ाद अपने ज़ौक़ और अपनी शे’र फ़हमी की सलाहियत को पूरी तरह इस्तेमाल करके कुछ उमूमी या ख़ुसूसी नताइज तक पहुंच चुका होता है और फिर हमें इन नताइज से मुत्तला करना शुरू करता है।
ये बात दुरुस्त है कि कुछ तन्क़ीदें जो इसी मख़्सूस मक़सद के लिए लिखी जाती हैं, महज़ शे’र फ़हमी तक महदूद रहती हैं। लेकिन नक़्क़ाद का उमूमी अमल शे’र फ़हमी से वसीअ-तर मैदान पर हाथ मारता है। बुनियादी नुक्ता ये है कि हमारा ज़ौक़ अक्सर हमें बताता है कि फ़ुलां फ़न-पारा अच्छा या बुरा है। लेकिन हम जब शे’र फ़हमी की मंज़िल से गुज़रते हैं तो पता लगता है कि ज़ौक़ की फ़राहम कर्दा इत्तिला वाक़ई दुरुस्त थी या नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि ज़ौक़ ने हमें बताया हो कि ये शे’र बहुत अच्छा है लेकिन शे’र फ़हमी के बाद मालूम हुआ हो कि शे’र निहायत मामूली था। इसी तरह ये भी हो सकता है कि हमारे ज़ौक़ ने किसी शे’र को बहुत ख़राब कहा हो लेकिन शे’र फ़हमी के बाद इस इत्तिला की तरदीद हो गई हो। ये भी हो सकता है कि शे’र फ़हमी ने ज़ौक़ की फ़राहम कर्दा इत्तिला की तौसीक़ व तस्दीक की हो। ऊपर मैंने जो ये कहा है कि नक़्क़ाद का उमूमी अमल शे’र फ़हमी से वसीअ-तर मैदान में हाथ मारता है तो इसका मतलब दरअसल ये है कि नक़्क़ाद हमें शे’र फ़हमी के अमल के लिए पहले से ज़्यादा बासलाहियत बना देता है।
आगे बढ़ने के पहले एक बात की तरफ़ और इशारा कर दूं, अभी मैंने कहा कि इक़बाल के महूला बाला शे’र मौज़ू के एतबार से तक़रीबन एक हैं, लेकिन एक बेहतर है और एक कमतर, क्योंकि बेहतर शे’र मअनी के एतबार से बेहतर है। इसका मफ़हूम ये निकलता है कि मौज़ू की वहदत के बावुजूद फ़न पारों में मअनी की कमी ज़्यादती या मअनी की कमतरी बेहतरी मुम्किन है। इस सिलसिले में अपने मारूज़ात में किसी और मज़मून में पेश करूँगा।
फ़िलहाल यही कहना है कि शे’र फ़हमी का मसला पैदा ही इस वजह से होता है कि मौज़ू के एतबार से वाहिद होने के बावुजूद दो फ़न पारों में मअनी का फ़र्क़ लाज़िम हो जाता है। अगर ऐसा न हो तो छोटे बड़े, मामूली, ग़ैरमामूली शे’र की तफ़रीक़ तो बाद की बात है, शे’र फ़हमी की ज़रूरत ही बाक़ी न रहेगी। बस ये कहना काफ़ी होगा कि फ़ैज़ की नज़्म 'ये दाग़-दाग़ उजाला ये शब गज़ीदा सह्र’ और साहिर की नज़्म 'नशेब-ए-अर्ज़ पे ज़र्रों को मुश्तइल पाकर’ तुलूअ आज़ादी के बाद दानिशवरों के ज़ेहन में पैदा होने वाली मायूसी की तस्वीर पेश करती है। बस मुआमला ख़त्म हुआ।
लेकिन ज़ाहिर है कि ये कह देने से तन्क़ीद तो कुजा बयान यानी Description का भी हक़ नहीं अदा होता। दोनों नज़्में हम मौज़ू हैं। दोनों तक़रीबन एक ही ज़माने में कही गई हैं, लेकिन दोनों नज़्में मुख़्तलिफ़ हैं, इसलिए कि दोनों के मअनी में मुकम्मल मुमासिलत नहीं है। कोई दो शे’र या दो नज़्में या दो फ़न पारे मुकम्मल तौर पर मुमासिल व मुशाबा नहीं हो सकते। किसी फ़न पारे का मुकम्मल मुमासिल वही फ़नपारा हो सकता है। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह किसी इंसान का मुकम्मल हमशक्ल वही इंसान हो सकता है, कोई दूसरा इंसान नहीं, हत्ता कि इसकी तस्वीर भी नहीं, लिहाज़ा शे’र फ़हमी वुजूद में आती है ये समझने और समझाने के लिए कि मुख़्तलिफ़ फ़नपारों में क्या मअनी हैं और वो आपस में एक दूसरे से किस तरह और किस दर्जा मुख़्तलिफ़ हैं। इन तौज़ीहात की रोशनी में ये कहा जा सकता है कि,
(1) बाज़ौक़ क़ारी वो है जो हमेशा नहीं तो अक्सर-ओ-बेशतर अच्छे और ख़राब फ़नपारों में फ़र्क़ कर सके।
(2) इसका मतलब ये है कि ऐसा क़ारी हत्तलइमकान तअस्सुबात, पसमंज़री मजबूरियों और ना वाक़फ़ियतों का शिकार न होगा।
(3) शे’र फ़हम क़ारी वो है जो ज़ौक़ की बहम कर्दा इत्तिला को परख सके।
(4) इसका मतलब ये है कि शे’र फ़हम क़ारी ज़ौक़ पर मुकम्मल एतमाद नहीं करता।
(5) इसका मतलब ये भी है कि शे’र फ़हमी का कमाल ये है कि क़ारी उन फ़नपारों से भी लुत्फ़ अंदोज़ हो सके जो उसे पसंद नहीं आते या जिन्हें उसके ज़ौक़ ने ख़राब क़रार दिया था।
(6) बाज़ौक़ और शे’र फ़हम क़ारी में सबसे अहम क़दर मुश्तर्क ये है कि दोनों की ज़बान फ़हमी के मरहले में कोई मुश्किल नहीं होती। ज़ाहिर है कि जब तक आप शे’र के अलफ़ाज़ न समझेंगे आपका ज़ौक़ मुतहर्रिक न हो सकेगा और न ही आप शे’र फ़हमी शुरू कर सकेंगे, लिहाज़ा क़ारी साहिब-ए-ज़ौक़ हो या शे’र फ़हम या दोनों, उसका पढ़ा लिखा होना ज़रूरी है।
आप ग़ौर फ़रमाएं कि ये शराइत मैंने अपनी मर्ज़ी से नहीं आइद किए हैं। ज़ौक़ और शे’र फ़हमी के तवाम तसव्वुरात का तक़ाज़ा यही है कि साहिब-ए-ज़ौक़ और शे’र फ़हम हो तो ऐसा हो, लेकिन मैंने जो शुरू में कहा है कि सही मअनी में साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी का वुजूद मुम्किन नहीं है और न ही किसी ऐसे क़ारी का वुजूद मुम्किन है जिसकी शे’र फ़हमी पर बेशतर लोगों को एतमाद हो, तो उस मअनी में नहीं कि मुंदर्जा बाला शराइत ऐसे हैं जिनका पूरा होना किसी इंसान के लिए अमलन-ओ-अक़लन मुहाल है।
मैं फ़र्ज़ किए लेता हूँ कि ऐसे इंसान का वुजूद अक़लन और अमलन मुम्किन है, जिसमें वो तमाम ख़वास मौजूद हों जिनका मैंने ऊपर ज़िक्र किया है। लेकिन फिर भी ये नतीजा निकालता हूँ कि ऐनी हैसियत से साहिब-ए-ज़ौक़ और शे’र फ़हम क़ारी का वुजूद मुम्किन नहीं है, और इस नतीजे के बाद ये दावा करता हूँ कि जब लोग साहिब-ए-ज़ौक़ और शे’र फ़हम क़ारी के हवाले से किसी फ़न पारे की तारीफ़ या तन्क़ीस करते हैं तो दरअसल अपना और सिर्फ़ अपना हवाला देते हैं। ये लोग शायरी के इबहाम के ख़िलाफ़ एहतिजाज करते हैं और कहते हैं कि शायरों ने क़ारी को बिल्कुल नजरअंदाज़ कर दिया है। उन्हें अगर ऐसी शायरी करना है तो उसकी शरह और पर्चा तरकीब-ए-इस्तेमाल भी साथ ही साथ क्यों नहीं शाये कराते।
दरहक़ीक़त ये लोग इन शोअरा से भी ज़्यादा इबहाम और इशकाल के क़ाइल हैं जिनके ये शाकी रहते हैं क्योंकि उनकी नज़र में सिर्फ़ वही नज़्म मुबहम या मुश्किल या ख़राब है जिसे वो ख़राब या मुबहम या मुश्किल कहें। वो हज़ारों की इस अक्सरियत को जो ऐसी बहुत सी नज़्मों को मुबहम या मुश्किल या सिरे से मुहमल और नाक़ाबिल-ए-फ़हम कहती हैं, जो उनकी (यानी एहतिजाज कुनन्दगान की) समझ में आजाती हैं, बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
मेरा दूसरा दावा ये है कि किसी शायर का मिसाली क़ारी सिर्फ़ वो शायर ही हो सकता है, कोई दूसरा शख़्स मिसाली शे’र फ़हम हो ही नहीं सकता, लिहाज़ा वो लोग जो किसी मिसाली क़ारी के हवाले से कहते हैं कि फ़ुलां नज़्म उसकी भी समझ से बालातर है, इसलिए वो नज़्म यक़ीनन ख़राब यानी मअनी से आरी होगी, दरअसल एक नामुमकिन बात कहते हैं, क्योंकि अपने कलाम का मिसाली क़ारी अगर ख़ुद शायर ही है तो ज़ाहिर है उस मिसाली क़ारी के लिए वो कलाम बेमानी न होगा, लिहाज़ा ये तमाम दावे कि फ़ुलां नज़्म को एक मिसाली क़ारी भी, जो इंतहाई आलिम, शे’र फ़हम और बाज़ौक़ है, नहीं समझ सकता और उन दावों से ये नतीजा निकालना कि फ़ुलां नज़्म यक़ीनन बेमानी है, ग़ैर तन्क़ीदी और लातायल-ए-आमाल हैं।
मैं इस बात का इआदा करना चाहता हूँ कि मेरा मतलब ये हरगिज़ नहीं है कि अगर ऐनी हैसियत से साहिब-ए-ज़ौक़ का वुजूद नहीं है या अगर शायर का मिसाली क़ारी ख़ुद शायर ही हो सकता है तो फिर शे’र से लुत्फ़ अंदोज़ होने, उसको पसंद नापसंद करने, उसकी तफ़हीम व तजज़िया करने के तमाम उसूल-ओ-आमाल बेमानी या फ़ुज़ूल या लाहासिल हैं। मैं सिर्फ़ ये कह रहा हूँ कि शायरी को मतऊन करने वालों ने साहिब-ए-ज़ौक़ और साहिब-ए-फ़हम क़ारी के जिन तसव्वुरात Concepts का सहारा लेकर उसे मतऊन किया है, वो तसव्वुरात ही सिरे से ग़ैर तन्क़ीदी और फ़र्ज़ी हैं, वर्ना ऐसा नहीं है कि अच्छे बुरे शे’र की तमीज़ या शे’र की तफ़हीम मुम्किन नहीं है।
दरअसल ये है कि लोगों ने शायरी और ख़ासकर जदीद शायरी को लानत मलामत करने के लिए अपनी ना-रसाइयों और कम फ़हमियों को Rationalize करना चाहा है। ये तो कह नहीं सकते कि फ़ुलां नज़्म मेरी समझ में नहीं आती, इसमें मेरा ही क़सूर होगा, लिहाज़ा फ़ौरन एक फ़र्ज़ी ज़ौक़ या साहिब-ए-फ़हम पढ़े लिखे क़ारी का तसव्वुर गढ़ लिया और उसके हवाले से कह दिया कि जब नज़्म ऐसे ऐसे जय्यद लोगों की समझ से बाहर है तो क़सूर नज़्म ही का होगा, हम तो बरी उज़्ज़िम्मा हैं। ये मुम्किन है कि बा’ज़ नज़्में मुहमल हों, ये मुम्किन है कि बहुत सारी जदीद शायरी जिसे लोग ख़राब क़रार देते हैं वाक़ई ख़राब या मुहमल हो, लेकिन उसकी दलील ये नहीं हो सकती कि साहिब-ए-ज़ौक़ और पढ़े लिखे क़ारी उसे ख़राब कहते हैं, इसकी दलील अगर होगी तो ये कि तन्क़ीद के मेयार व उसूल की रोशनी में ये ख़राब या मुहमल ठहरती है।
साहिब-ए-ज़ौक़ और साहिब-ए-फ़हम क़ारी के हवाले से शे’र को परखने वालों का तजज़िया किया जाये तो उनके रवय्ये के तीन पहलू आसानी से दिखाई देते हैं,
(1) ये लोग उस क़ारी को नज़रअंदाज़ कर देते हैं जिसका मेयार उनसे पस्त तर होता है।
(2) ये लोग उस शायरी को क़बूल कर लेते हैं जो उनकी समझ में आजाती है और
(3) ये लोग उस शायरी को मतऊन करते हैं जो उनकी समझ में नहीं आती।
इस तजज़िया में पहली सूरत-ए-हाल सबसे ज़्यादा अहम है क्योंकि इसी से इस बात का सबूत मिलता है कि हर शख़्स साहिब-ए-ज़ौक़ और साहिब-ए-फ़हम क़ारी का इन्फ़िरादी तसव्वुर रखता है और ये तसव्वुर बऐनही उस शख़्स की सलाहियत, शे’र फ़हमी और इल्मी सतह का नक़्श होता है, मसलन एक शख़्स निदा फ़ाज़ली के इस शे’र को शरह तलब लिहाज़ा नाक़ाबिल-ए-क़बूल गर्दानता है,
सूरज को चोंच में लिए मुर्ग़ा खड़ा रहा
खिड़की का पर्दा खींच दिया रात हो गई
वो कहता है कि कोई भी साहिब-ए-ज़ौक़ या साहिब-ए-फ़हम क़ारी इस शे’र को नहीं समझ सकता, लेकिन वो ग़ालिब के शे’र,
नींद उसकी है दिमाग़ उसका है रातें उसकी हैं
जिसके बाज़ू पर तिरी ज़ुल्फ़ें परेशां हो गईं
के बारे में ये बात नहीं कहता। उसे इस बात की कोई शिकायत नहीं होती कि ग़ालिब ने लफ़्ज़ “परेशां” जिस मअनी में इस्तेमाल किया है वो आम मफ़हूम से मुख़्तलिफ़, लिहाज़ा शरह तलब है। ज़ाहिर है कि हज़ारहा क़ारी ऐसे होंगे जिनके लिए लफ़्ज़ “परेशां” के निस्बतन ग़ैर मामूला इस्तेमाल की वजह से ग़ालिब का ये शे’र नाक़ाबिल-ए-फ़हम होगा। नरेश कुमार शाद की शरह ग़ालिब में ऐसी कई मिसालें नज़र आती हैं जहां उन्होंने लफ़्ज़ के ग़ैर मामूला इस्तेमाल को न समझ कर शे’र का मतलब ख़ब्त कर दिया है। इस हद तक तो नहीं लेकिन इसकी मिसालें दूसरों के यहां भी तलाश की जा सकती हैं।
कमाल अहमद सिद्दीक़ी ने नुस्ख़ा-ए-अमरोहा की तन्क़ीद में एक जगह मुंदर्जा ज़ैल मिसरा, अफ़सान-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार सर कर... के बारे में लिखा है कि ये मिसरा ग़ालिब का नहीं हो सकता क्योंक अफसान सर करना मुहमल है, ग़ालिब ऐसा मुहमल महावरा कहाँ लिख सकते थे। ज़ुल्फ़ सर करना सुना है, अफसान सर करना किसने सुना है? हक़ीक़त ये है कि सर कर दिन ब मअनी आग़ाज़ कर्दन फ़ारसी का मशहूर मुहावरा है। अब जिन लोगों को ये मुहावरा मालूम है वो इस मिसरा को मुहमल न कहेंगे, लेकिन जिनको नहीं मालूम है, मुम्किन है कि वो उसे मुहमला कह दें। यानी दोनों सूरतों में उन लोगों का ख़्याल नजरअंदाज़ हो जाये जो उस मख़्सूस गिरोह में शामिल नहीं हैं। जिस शख़्स को सर कर्दन का मुहावरा मालूम है, वो उसकी शरह न तलब करेगा लेकिन वो ये भूल जाएगा कि ऐसे भी लोग होंगे जिन्हें इस मुहावरे की ख़बर न होगी। उनके लिए मिसरा “अफसान-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार सर कर” भी मुहमल हो सकता है।
अब फ़र्ज़ कीजिए कि इस मिसरे की रोशनी में ग़ालिब की मुहमलियत का मसला दो शख्सों के सामने दरपेश है। दोनों साहिब-ए-ज़ौक़ और साहिब-ए-फ़हम क़ारी के नज़रिए पर ईमान रखते हैं। उनमें से एक जो सर कर्दन से नावाक़िफ़ है, झट कह देगा कि ग़ालिब निहायत मोहमलगो थे क्योंकि साहिब-ए-ज़ौक़ लोग भी अफ़सान-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार सर कर को नहीं समझ पाते कि ये है क्या बला? दूसरा कहेगा आप ग़लत कहते हैं। साहिब-ए-ज़ौक़ लोगों की नज़र में ग़ालिब बिल्कुल मोहमलगो नहीं थे। ये मिसरा बिल्कुल साफ़ है। दोनों के नताइज भी ग़लत हैं और दलायल भी।
लेकिन मैंने ग़ालिब की मिसाल शायद ग़लत रखी है। इबहाम के दिफ़ा में जो कुछ कहा जाता है उसमें ग़ालिब का तज़्किरा ज़रूर होता है। मैं इबहाम का दिफ़ा नहीं कर रहा हूँ। मैं तो साहिब-ए- ज़ौक़ और साहिब-ए-फ़हम या पढ़े लिखे क़ारी जैसी इस्तलाहों की फ़ज़ूलियत साबित कर रहा हूँ। लेकिन आपको ख़्याल गुज़र सकता है कि ग़ालिब के कलाम से मिसाल देकर तो कोई कुछ भी साबित कर सकता है, लिहाज़ा दूसरी मिसालों पर ग़ौर कीजिए। हमारा नुक्ता-चीं जो साहिब-ए-ज़ौक़ व फ़हम क़ारी के हवाले से कहता है कि अहमद हमेश की नज़्में नाक़ाबिल-ए-फ़हम लिहाज़ा नाक़ाबिल-ए-क़बूल हैं और उनको क़बूल करना तो बड़ी बात है, उन पर ग़ौर करने से पहले उनकी शरह मांगता है। मोमिन के इस शे’र को ख़ुशी ख़ुशी क़बूल करता है,
तुम मरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
और कहता है साहिब इस तरह की साफ़, सादा और ख़ूबसूरत शायरी हो तो क्या ख़ूब है, कोई साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी इस शे’र को नाक़बूल नहीं कर सकता। लेकिन वो ये भूल जाता है कि बहुत क़ारी ऐसे होंगे जिनके लिए इस शे’र का क़ौल मुहाल बिल्कुल नाक़ाबिल-ए-फ़हम होगा। वो कहेंगे ये क्यूँ-कर मुम्किन है कि जब कोई भी मौजूद न हो तो माशूक़ मौजूद हो। माशूक़ तो वहां था ही नहीं, वो कहाँ से आ पड़ा? वो गोया की ज़ू माअनवियत पर भी परेशां होंगे और सोचेंगे कि “गोया” गुफ़्तन का इस्म-ए-फाइल हो, या बमानी जैसे हो?
वो लोग इस शे’र की शरह तलब करने में हक़ बजानिब होंगे। लेकिन हमारा साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी ऐसे लोगों के तक़ाज़ों को नज़रअंदाज़ कर जाएगा चूँकि उसके लिए ये शे’र सहल-उल-फ़हम है। लिहाज़ा उसे उन लोगों की कोई फ़िक्र नहीं होती जो उसके मअनी समझने में बहक सकते हैं। वो ये भूल जाता है कि इस तरह अगर हर शख़्स अपने अपने मेयार से शरह मांगता रहा तो तारीफ़ उस ख़ुदा की जिसने जहां बनाया... की भी शरह शायर पर लाज़िम आएगी।
इस सिलसिले को ज़रा और फैलाइए तो और भी ज़्यादा मुश्किल सूरत-ए-हाल सामने आती है। सब ''साहिब-ए-ज़ौक़” क़ारी हर बात पर तो मुत्तफ़िक़ नहीं हो सकते और न सब लोग हर बात पर मुत्तफ़िक़ हो सकते हैं, लिहाज़ा हर शख़्स अपने अपने साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी के मेयार से मुख़्तलिफ़ नज़्मों, अशआर की शरह तलब करेगा या उन्हें मुहमल और नाक़ाबिल-ए-क़बूल ठहराएगा। अंजामकार ये होगा कि शायरी का तक़रीबन तमाम सरमाया नाक़ाबिल-ए-क़बूल, शरह तलब और मुहमल है। आप ये नहीं कह सकते कि फ़ुलां बहुत बड़े नक़्क़ाद ने फ़ुलां नज़्म को मुहमल कहा है लिहाज़ा हम भी उसे मुहमल कहेंगे। अव्वल तो हर बड़े नक़्क़ाद की एक राय के मुक़ाबले में किसी दूसरे बड़े नक़्क़ाद की राय पेश की जा सकती है। लेकिन पते की बात ये है कि कोई भी नक़्क़ाद ऐसा नहीं है जिसकी हर बात से आप सौ फ़ीसदी मुत्तफ़िक़ हों।
फिर क्या वजह है कि किसी मख़्सूस नज़्म या किसी मख़्सूस शायर या किसी मख़्सूस क़िस्म की शायरी के बारे में उस नक़्क़ाद की नुक्ताचीनी को आप सनद ठहरा देते हैं? मसलन एक नक़्क़ाद कहता है कि इफ़्तिख़ार जालिब या आदिल मंसूरी मोहमलगो हैं। आप भी कह उठते हैं कि हाँ साहिब, बिल्कुल मोहमलगो हैं, फ़ुलां नक़्क़ाद ने कहा है। लेकिन वही नक़्क़ाद एक और जगह कहता है कि (मसलन) रविश सिद्दीक़ी (मसलन) सरदार जाफ़री से बड़े शायर हैं, तो आप इस बात से फ़ौरन इनकार कर देते हैं, ऐसा क्यों होता है?
तीसरी बात ये है कि हमारी बहस नक़्क़ादों की रायों और फ़ैसलों के बारे में नहीं है बल्कि उस पुरअसरार नक़ाबपोश शख़्सियत के बारे में है जिसे आप बाज़ौक़, बासलाहियत क़ारी कहते हैं। वो पुरअसरार नक़ाबपोश शख़्सियत आप ख़ुद हैं क्योंकि उस शख़्सियत के हवाले से जो भी बातें आप कहते हैं वो उन लोगों को नज़रअंदाज़ कर देती हैं जो आपसे कमतर या बेहतर शे’र फ़हम या ज़बां शनास हैं।
मसलन ये बात मैंने कहीं नहीं सुनी या पढ़ी कि गुलज़ार-ए-नसीम एक मुहमल नज़्म है, हालाँकि इसमें कोई शुबहा नहीं कि गुलज़ार-ए-नसीम में सदहा मिसरे ऐसे हैं जिनको समझने के लिए मख़्सूस क़िस्म का इल्म दरकार है। लेकिन चूँकि नुक्ताचीं हज़रात अपने दर्सी मुताले की बदौलत इस नज़्म से कम-ओ-बेश वाक़िफ़ हैं, लिहाज़ा उन लोगों को पसेपुश्त डालते हुए, जो इस इल्म से बे-बहरा हैं, नज़्म को क़बूल कर लेते हैं। उन नुक्ताचीं हज़रात के ज़ेहन में साहिब-ए-ज़ौक़ व फ़हम क़ारी का जो तसव्वुर है वो उन लोगों के तसव्वुर से यक़ीनन मुख़्तलिफ़ होगा जो गुलज़ार-ए-नसीम की लफ़्ज़ी पेचीदगियों के सामने सिपर डालने पर मजबूर हैं। वो लामुहाला ये कहेंगे कि साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी की नज़र में गुलज़ार-ए-नसीम मुश्किल और शरह तलब है।
इस हक़ीक़त को एक और तरह से देखिए। इफ़्तिख़ार जालिब के बारे में आम तौर पर कहा जाता है कि बाज़ौक़ लोगों की नज़र में उनकी बेशतर शायरी मुहमल या नाक़ाबिल-ए-क़बूल है। बेशतर मैंने इसलिए कहा कि यही बाज़ौक़ हज़रात उनकी नज़्म “धुंद” को क़बूल कर लेते हैं और कहते हैं कि ये उर्दू की अच्छी नज़्मों में से है। ये सही है कि “धुंद” के उस्लूब में इतनी अजनबियत नहीं है जितनी (मसलन) “क़दीम बंजर” में है। लेकिन इसमें कोई शुबहा नहीं कि बहुत से लोगों की नज़र में (और उन बहुत से लोगों में नक़्क़ाद भी शामिल हैं) “धुंद” भी एक नाक़ाबिल-ए-फ़हम नज़्म है। अब हमारा फ़र्ज़ी “बाज़ौक़ क़ारी” क्या कह सकता है? कुछ “बाज़ौक़ क़ारी” अपनी ही शक्ल की दूसरी मूर्ती बना लेते हैं जो “धुंद” को नाक़ाबिल-ए-फ़हम कहती है। दूसरे बाज़ौक़ क़ारी उन सबको नज़रअंदाज़ कर देते हैं। “धुंद” की शरह नहीं तलब करते लेकिन “क़दीम बंजर” को लानत मलामत करते हैं।
बात बिल्कुल साफ़ है। हर “बाज़ौक़ क़ारी” अपनी रसाई या नारसाई की रोशनी में ज़ौक़ और शे’र फ़हमी की हदबंदी करता है। जब मैंने “नए नाम” के लिए “तरसील की नाकामी का अलमिया” के उनवान से एक मुफ़स्सिल दीबाचा लिखा, जिसमें जदीद शोअरा के इबहाम व अशकाल के मसले से बहस की गई थी तो एक बहुत पढ़े लिखे और बाज़ौक़ क़ारी के मेयार की रोशनी में शे’र को परखने वाले नक़्क़ाद ने लिखा कि ये सारा दीबाचा बेकार ही गया क्योंकि इस इंतखाब में सिर्फ़ दो शायर (मुराद ग़ालिबन अहमद हमेश और इफ़्तिख़ार जालिब से थी) ऐसे हैं जिनके यहां तरसील की नाकामी का अलमिया दिखाई देता है।
इसके बरख़िलाफ़ सीप कराची में तब्सिरा करते हुए एक दूसरे “बाज़ौक़ क़ारी” के मेयार परस्त नक़्क़ाद ने उस मजमूए में शामिल दर्जनों शायरों के यहां यही अलमिया देखा। तीसरी तरफ़ यूनीवर्सिटीयों में उर्दू पढ़ाने वाले कई असातिज़ा ने मुझसे कहा (और लिखा भी) कि “नए नाम” की बेशतर नज़्में फ़हम-ओ-इफ़हाम से मावरा हैं। ये असातिज़ा भी “बाज़ौक़ क़ारी” के डंडे से सबको हांकते रहते हैं। चौथी तरफ़ एक और प्रोफ़ेसर हैं जो हसन शहीर की नज़्मों को सच्ची जदीदियत की मिसाल समझते हैं और “नए नाम” में शामिल बेशतर शायरों से घबराते हैं।
इन मुसलसल मिसालों से यही साबित होता है कि बाज़ौक़ और शे’र फ़हम क़ारी का तसव्वुर एक इन्फ़िरादी तसव्वुर है और उसकी असल दरहक़ीक़त ख़ुद उस शख़्स की ज़ात है जो उस तसव्वुर के हवाले से गुफ़्तगु करता है।
अगर बफ़र्ज़-ए-मुहाल ये तस्लीम भी कर लिया जाये कि ऐसा नहीं है, तो भी बाज़ौक़ क़ारी का ऐनी तसव्वुर क़ायम करने में एक बड़ी क़बाहत ये है कि इसकी वजह से ख़ुद शायर का तसव्वुर मुश्तबहा हो जाएगा। मसलन अगर बाज़ौक़ क़ारी के ख़्याल की रोशनी में कहा जाये कि कोई शायर मोहमलगो है या बहुत ख़राब है तो लामुहाला ये सवाल उठेगा कि ऐसा शायर बाज़ौक़ है कि नहीं। ज़ाहिर है जिस शायर की शायरी बाज़ौक़ क़ारी के मेयार से फ़िरोतर ठहरती है, वो कुल्लियतन नहीं, तो यक़ीनन इस हद तक जिस हद तक उसका कलाम ज़ौक़ के मेयार से फ़िरोतर है, बेज़ौक़ या बदज़ौक़ ठहरेगा। अब फ़र्ज़ कीजिए वही शायर आइन्दा ज़माने के बाज़ौक़ क़ारी की नज़र में अच्छा शायर ठहरता है। सवाल ये उठेगा कि जो शायर पहले ज़माने में बदज़ौक़ या बेज़ौक़ साबित हो चुका है, अब अच्छा शायर क्यूँ-कर हो सकता है?
लेकिन इससे ज़्यादा मुश्किल सूरत-ए-हाल ये होगी कि मुम्किन है जिस शायर को चार बाज़ौक़ क़ारी ख़राब शायर यानी बदज़ौक़ या बेज़ौक़ मानते हैं, एक बाज़ौक़ क़ारी उसे अच्छा शायर यानी बाज़ौक़ व ख़ुश ज़ौक़ भी मानता हो, ये भी मुम्किन है कि तन्क़ीदी महाकमे किए जाएं तो पता लगे कि वो शायर वाक़ई बहुत अच्छा था। इस क़िस्म की मुश्किल बज़ाहिर तो महज़ ख़्याली मालूम होती है लेकिन इसकी वाक़ईत उस वक़्त क़ायम हो जाती है जब हम बाज़ौक़ क़ारी के तसव्वुर को ऐनी तसव्वुर मान लेते हैं। इस तरह हर शायर का वुजूद किसी फ़र्ज़ी बाज़ौक़ क़ारी का मुहताज होता है और तजरीदी सतह पर शे’र के हुस्न या शायराना हैयत के वुजूद का कोई मेयार नहीं रह जाता। तन्क़ीदी नज़रिया तो ये बताता है कि मुम्किन है कि शायर को सारे ही बाज़ौक़ क़ारी ख़राब कहते हों लेकिन वो अच्छा हो या किसी शे’र को सारे ही बाज़ौक़ क़ारी अच्छा कहते हों लेकिन वो ख़राब हो।
एक ऐसी इंतहाई सूरत-ए-हाल भी मुम्किन है कि किसी शे’र का पढ़ने वाला कोई न हो लेकिन फिर भी वो अच्छा शे’र हो और अगर शे’र को एक तसव्वुराती हैयत Concepts की शक्ल में समझा जाये तो ये भी मुम्किन है बल्कि ज़रूरी है कि शे’र अपनी ख़ूबी के लिए किसी क़ारी का मुहताज न हो, बल्कि फ़ीनफ्सिही ख़ूबसूरत हो। शे’र की ख़ूबसूरती को पहचानने, परखने और बयान करने के लिए कुछ उसूल तो मुतसव्वर हो सकते हैं लेकिन मैं किसी ऐसी सूरत-ए-हाल का तसव्वुर नहीं कर सकता जिसमें शोअरा का हुस्न अपने वुजूद के लिए बाज़ौक़ क़ारी का मुहताज हो।
ज़ौक़ की एतबारियत उस वक़्त और भी मुश्तबहा हो जाती है जब हम किसी भी शायर का कलाम पढ़ते वक़्त अच्छे बुरे अशआर की एक ख़ुद कार तफ़रीक़ करते चलते हैं। अगर कोई शायर अच्छा है तो बाज़ौक़ क़ारी के नज़रिए की रू से उससे ख़राब शे’र सरज़द हो ही नहीं सकता। क्योंकि अच्छा शायर बाज़ौक़ भी होगा और जब वो बाज़ौक़ क़रार पाया तो ख़राब शे’र सरज़द होने के मअनी हैं कि वो दर्जा-ए-ज़ौक़ से गिर गया। दर्जा-ए-ज़ौक़ से गिर जाने के मअनी हुए कि ज़ौक़ क़ायम-ओ-दाइम शैय नहीं है बल्कि कामयाब-ओ-नाकाम होती रहती है और अगर ज़ौक़ कामयाब-ओ-नाकाम होता रहता है तो फिर उसकी एतबारियत कहाँ रही?
बाज़ौक़ क़ारी का नज़रिया क़ायम करने वाले हज़रात के दलायल-ओ-ख़्यालात तो ये ज़ाहिर करते हैं कि बाज़ौक़ क़ारी की क़ुव्वत-ए-फै़सला ग़लती कर ही नहीं सकती। अगर ऐसा है तो उनके मेयार से अच्छा शायर (जो लामुहाला बाज़ौक़ ठहरेगा) कभी ख़राब शे’र नहीं कह सकता। लेकिन ज़ाहिर है कि अच्छे से अच्छे शायरों ने लचर और लगो शे’र भी कहे हैं। तो फिर यही कहना पड़ता है कि ऐसे ज़ौक़ का तसव्वुर मुहाल है जो ग़लती न करे, लिहाज़ा ये भी कहना पड़ेगा, ऐनी हैसियत से बाज़ौक़ क़ारी का भी वुजूद मुम्किन नहीं है।
बाज़ौक़ क़ारी की ऐनी हैसियत के साथ एक झगड़ा और भी है। ज़माने के साथ ज़ौक़ बदलता रहता है, ये बात हम सब जानते हैं। ज़माना के साथ बदलते जाना या उसके हेत-ए-इख़्तियार में कुछ कमी बेशी होना अगरचे ज़ौक़ की मुस्तक़बिल एतबारियत के ख़िलाफ़ एक मज़बूत दलील है। लेकिन ये इतनी अहम नहीं है जितनी ये दलील कि ज़ौक़ में तब्दीलियां ग़ैर शायराना या ग़ैर तन्क़ीदी तसव्वुरात की मर्हूने मिन्नत होती हैं। बहुत से मौज़ूआत या जज़्बाती कैफ़ियात जो आज भोंडे या बदमज़ाक़ से मालूम होते हैं या बहुत से असालीब इज़हार जो आज संजीदा शायरी में मुतसव्वर भी नहीं हो सकते, एक ज़माना हुआ बहुत मक़बूल थे। हाली बहुत बड़े नक़्क़ाद सही लेकिन उन्होंने भी कंघी, चोटी, क़ासिद, बुलबुल, रश्क, माशूक़ की ज़ुल्म कोशी, आशिक़ की ईज़ा पसंदी वग़ैरा को शायरी से बाहर करने के लिए कोई अदबी या शायराना दलील नहीं रखी थी, यानी उन्होंने ये नहीं कहा था कि उन मज़ामीन या उन असालीब में शे’री नुक़्ता-ए-नज़र से फ़ुलां फ़ुलां बुराइयां हैं।
उर्दू के शायरों ने कुछ तो हाली के असर से, कुछ अंग्रेज़ी तालीम की रोशनी में, कुछ तरक़्क़ी-पसंद नज़रियात के ज़ेर-ए-साया और इस तरह के बहुत से ग़ैर महसूस और महसूस दबावों (Pressures) मैं आकर बा’ज़ मज़ामीन को भोंडा और बद-मज़ाक़ी पर मबनी कह दिया और बा’ज़ को रहने दिया। मसलन आप ये ग़ौर करें कि मुंदर्जा ज़ैल मज़ामीन में क्या ख़राबी है, माशूक़ की ज़ुल्म कोशी, आशिक़ की ईज़ा पसंदी, आशिक़ का ज़ोफ़, माशूक़ बहैसियत क़ातिल, माशूक़ बहैसियत कमसिन लौंडा (या लौंडिया), माशूक़ बहैसियत शाहिद बाज़ारी, दरबान की बे-एतिनाई, रक़ीब की चालबाज़ी और आशिक़ दुश्मनी वग़ैरा। इन मज़ामीन में भी वही फ़िज़ा है जो मुंदर्जा ज़ैल मज़ामीन में है, कारवां, मंज़िल, मुसाफ़िर, आशिक़ बहैसियत बुलबुल, माशूक़ बहैसियत फूल, नामा-बर और आशिक़ के रिश्ते, माशूक़ बहैसियत रहज़न, दुनियावी दोस्त बहैसियत रहज़न, आशिक़ या इंसान बहैसियत ताइर, नशेमन तूफ़ान, साहिल, बिजली, माशूक़ बहैसियत बहार, दुनिया बहैसियत ख़िज़ां।
दोनों तरह के मज़ामीन में तरह तरह की नाज़ुक ख़यालियां मुम्किन हैं, दोनों तरह के मज़ामीन से न सिर्फ़ उर्दू शायरी भरी हुई है बल्कि दोनों ही तरह के मज़ामीन उर्दू शायरी के बेहतरीन सरमाया में पिरोए हुए हैं। दोनों फ़ेहरिस्तों में दर्ज कर्दा मज़ामीन में कोई ऐसा नहीं है जिसे ग़ालिब या दर्द या सौदा या मीर ने मुतअद्दिद बार न बाँधा हो लेकिन अंधे ज़ौक़ की जादूगरी देखिए कि पहली सफ़ के मज़ामीन तो आज बद-मज़ाक़ी का नमूना ठहरते हैं और दूसरी सफ़ के मज़ामीन को ज़्यादातर लोग आज भी अपनी शायरी में आज़ादी से इस्तेमाल कर लेते हैं। इस पर तुर्रा ये कि ग़ालिब और मीर और दर्द और सौदा तो क्या, पिछले ज़माने के दर्जा दोम व सोम के भी शोअरा के यहां जब ये मज़ामीन नज़र आते हैं तो हम नाक भों नहीं चढ़ाते, लाहौल नहीं पढ़ते, बल्कि जो शे’र हमें अच्छे मालूम होते हैं, हम उन्हें लुत्फ़ लेकर पढ़ते, पढ़ाते और दूसरों को सुनाते हैं।
अगर बाज़ौक़ क़ारी या बाज़ौक़ शायर अपने मेयार और फ़ैसलों में तन्क़ीदी आगाही से काम लेता होता तो ये बात हरगिज़ न होती। अगर हम ज़ौक़ को मोतबर समझते हैं तो फिर ये मानना पड़ेगा कि मीर व ग़ालिब वग़ैरा के वो अशआर जिनमें रश्क या ज़ोफ़ के मज़ामीन हैं और जो हमें अच्छे भी लगते हैं, किसी ऐसे ज़ुमरे में आते हैं जिन पर ज़ौक़ के फ़ैसलों का इतलाक़ नहीं हो सकता। अव्वल तो ये नतीजा ही सिरे से मुहमल है लेकिन अगर उसे दुरुस्त मान लिया जाये तो या तो ये कहना पड़ेगा कि ऐसा ज़ौक़ इंतहाई नामोतबर है जो मुख़्तलिफ़ किस्म के अशआर के एक बड़े गिरोह को अपनी गिरफ़्त से आज़ाद कर देता है या फिर ये कि आज जिस साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी के हवाले से आप जदीद शायरी को सब व शीतम का निशाना बना रहे हैं वो चूँकि पुराने अशआर के एक बड़े गिरोह के बारे में ग़लत है, लिहाज़ा नए अशआर के भी एक बड़े गिरोह के बारे में ग़लत हो सकता है। दोनों में बुनियादी बात यही रहती है कि साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी एक फ़र्ज़ी या ग़ैरकतई और ग़ैर तन्क़ीदी तसव्वुर है।
आप कह सकते हैं कि क़दीम सरमाए के बहुत से अशआर ऐसे हैं जिनमें फ़िर्क-ए-अव्वल के मज़ामीन इस्तेमाल हुए हैं और वो अशआर निहायत लचर हैं। इससे साबित होता है कि फ़िर्क-ए-अव्वल के मज़ामीन को नापसंद या मुस्तर्द करके ज़ौक़ ने ग़लती नहीं की है। जवाब में कहा जा सकता है क़दीम सरमाए में बहुत से अशआर ऐसे भी हैं जिनमें फ़िर्क-ए-दोम के मज़ामीन इस्तेमाल हुए हैं और वो अशआर भी निहायत लचर हैं तो फिर साबित क्या होता है?
साबित तो दरअसल ये होता है कि शे’र की ख़ूबी या ख़राबी उसके मज़मून पर नहीं बल्कि बा’ज़ और ही चीज़ों पर मुनहसिर होती है और ज़ौक़ ने जिन मज़ामीन को बिरादरी बाहर किया है उन्हें अदबी दलायल की रोशनी में ख़राब नहीं साबित किया जा सकता, मसलन माशूक़ की ज़ुल्म कोशी, उसी की तलवार, बंदूक़, ख़ंजर, दुशना, दरिया-ए-ख़ूँ, आशिक़ की सख़्त-जानी वग़ैरा को आप इसलिए मतऊन करने लगे कि इन मज़ामीन से इश्क़ या माशूक़ की तौहीन का पहलू निकलता है। इन मज़ामीन में वो मतानत, संजीदगी, सादगी और असलियत नहीं है जिसका हम शायरी से तक़ाज़ा करते हैं। ज़ाहिर है कि सादगी, संजीदगी या असलियत वग़ैरा तक़ाज़े शायराना या तन्क़ीदी तक़ाज़े नहीं हैं। ये ऐसी इस्तलाहें नहीं हैं जिनका शायरी या शे’रों पर इतलाक़ हो सके। मसलन ग़ालिब का शे’र,
बहार हैरत-ए-नज़ारा-ए-सख़्त जानी है
हिनाए पाए अजल ख़ून-ए-कुश्तगां तुझसे
अगरचे माशूक़ की ख़ूँरेज़ी, आशिक़ की सख़्त जानी वग़ैरा के बारे में है लेकिन ये न ग़ैरसंजीदा है और न संजीदा, महज़ शे’र है। इसको पढ़ कर न हंसी आती है न रोना आता है। दूसरी शक्ल ये है कि जब इश्क़ या आशिक़ या माशूक़ की तौहीन के मज़ामीन पर मबनी सैकड़ों क़दीम अशआर को आप क़बूल कर सकते हैं तो आज क्या ख़राबी पैदा हो गई है, सिवाए इसके कि आपके समाजी मेयार बदल गए हैं, इसलिए आपने इन मज़ामीन को मुस्तर्द कर दिया है वर्ना अदबी मेयार से उन मज़ामीन में अब भी वही खूबियां या ख़राबियां हैं जो पहले थीं।
ये दुरुस्त है कि क़दीम साहिब-ए-ज़ौक़ लोगों (मसलन ग़ालिब या मीर) को हम जिस क़िस्म के अशआर पसंद करते देखते हैं उनमें से अक्सर को हम (यानी नक़्क़ाद) नापसंद या पसंदीदा भी कह सकते हैं। लेकिन इसकी वजहें तन्क़ीदी होंगी, न ये कि चूँकि रश्क के मज़ामीन को अब साहिब-ए-ज़ौक़ लोगों ने तर्क कर दिया है लिहाज़ा हम भी उन अशआर को नापसंदीदा कहने पर मजबूर हैं जिनमें रश्क का मज़मून बरता गया है। साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी महज़ एक अफ़सानवी या ज़ाती हक़ीक़त है। इसमें कोई मारुज़ी हैसियत नहीं। ये साबित करने के लिए अब ज़्यादा बहस की ज़रूरत शायद नहीं रह गई लेकिन एक-आध बातें और भी इस सिलसिले में गौरतलब हैं।
मैं ये न कहूँगा कि साहिब-ए-ज़ौक़ चाहे कितना ही सलीम उततबा क्यों न हो, मुरूर अय्याम के साथ बदलता रहता है। ज़माने का फ़ैशन बदले या न बदले लेकिन कोई भी शख़्स इसी एक जगह नहीं रुका रह सकता जहां वो पहले था। नौ उमरी में पसंद कुछ और होती है, नौजवानी में कुछ और। इस तरह रोज़ ब रोज़ हासिल होने वाले तजुर्बे, इल्म और फ़िक्री सलाहियतों के इर्तिक़ा या ज़वाल के साथ साथ ज़ौक़ भी बदलता रहता है। हम में से कम ऐसे होंगे जिन्होंने अख़्तर शीरानी या मजाज़ की नज़्मों पर अपनी नौ उम्री के दिनों में सर न धुन्ना हो और आज वो इन नज्मों की तहसीन करते शरमाते न हों। अगर वक़्त के साथ साथ ज़ेहनी रिस्पांस बदलता रहता है तो फिर ज़ौक़-ए-सलीम की वक़त क्या रह जाती है? कुछ भी नहीं सिवाए इसके कि किसी भी मुक़र्ररा वक़्त या ज़माने में जो ज़ौक़ और पसंद मेरी है, मैं इसी को अपने मफ़रूज़ा साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी के सर थोप देता हूँ।
लेकिन जो दलील मैं पेश करना चाहता हूँ वो ये नहीं है। मुम्किन है आप कह दें कि अग़्लब न सही मुम्किन तो है कि साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी का ज़ौक़ एक ग़ैर तग़य्युर-पज़ीर हक़ीक़त हो, मुम्किन है कि आप कह दें कि अग़्लब न सही मुम्किन तो है कि ऐनी ज़ौक़-ए-सलीम का मालिक, ज़माने के तग़य्युरात, इल्म-ओ-मुताला-ओ-तजुर्बा में इज़ाफे़ और उम्र गुज़रने के बावजूद न बदले, लिहाज़ा मैं ये कहना चाहता हूँ कि ज़ौक़ या मज़ाक़-ए-सलीम को मेयार बनाकर आप अच्छे बुरे की तमीज़ कर ही नहीं सकते। यानी नज़री Theoretical सतह पर ये मुम्किन ही नहीं है कि आप किसी भी शख़्स या अश्ख़ास के किसी भी गिरोह के मज़ाक़-ए-सलीम को अपना हवाला बनाकर शे’री हुस्न-ओ-कबह के मेयार मुक़र्रर कर सकें।
इसकी वजह ये है कि ज़ौक़ या मज़ाक़-ए-आम या फ़ैशन या रस्म-ओ-रिवाज चाहे कितने ही बदल जाएं, यहां तक कि ये भी मुम्किन है कि वक़्ती जरूरतों के पेश-ए-नज़र कुछ लोग, बहुत से लोग या सब लोग शे’री हुस्न के मेमयारों में भी कुछ रद्दोबदल करने की सई कर डालें, लेकिन तजरीदी Abstract और नज़री सतह पर शे’री हुस्न के मेयार अगर बिल्कुल नहीं तो तक़रीबन ग़ैर तग़य्युर पज़ीर होते हैं यानी ग़ैर तग़य्युर पज़ीरी की जिस क़दर का ताज आप मज़ाक़-ए-सलीम या ज़ौक़ के सर पर रख रहे थे, दरअसल शे’री हुस्न के नज़री मेयारों के सर पहले ही रखा हुआ है, मसलन इन अशआर पर ग़ौर कीजिए,
अपनी शिकार गाह जहां में है आरज़ू
हम सामने हों और तुम्हारी रिफल चले
आतिश
आशिक़ को जब दिखाई फ़िरंगी पिसर ने तोप
पाया न कुछ वो कहने कि बस फ़ेर हो गई
बहादुर शाह ज़फ़र
ज़ाहिर है कि मुशायरे या किसी भी संजीदा महफ़िल में ये अशआर सुनाते वक़्त आतिश या ज़फ़र को शर्म तो न आई होगी। मुम्किन है लोग ख़ुश दिली से हंस पड़े हों लेकिन तमस्खुर या ठट्ठे का कोई मुक़ाम नहीं था। ये भी दुरुस्त है कि आतिश और ज़फ़र के हमअसर अगर इन दो साहिबान को काबिल-ए-ज़िक्र शायर समझते होंगे तो उन या उन जैसे दूसरे अशआर के बलबूते पर तो न समझते होंगे। फिर भी साहिब-ए-ज़ौक़ शायरों और सुनने वालों ने इन अशआर को क़बूल तो किया ही। वर्ना ये उनके दीवान में क्यों होते? लिसानी उसूल का सहारा लीजिए तो आप कह सकते हैं कि साहिब ये अशआर तो ज़बान का इंतहाई तरक़्क़ी पसंदाना इस्तेमाल कर रहे हैं, क्योंकि अंग्रेज़ी अलफ़ाज़ Rifle और Fire को जो कुछ ही दिन पहले इन साहिबान के माहौल में दाख़िल हुए होंगे, इन अशआर में बिराजमान हैं लेकिन इन सब बातों के बावुजूद दोनों शे’र इंतहाई पस्त और लचर हैं। उनकी पस्ती की वजह जानने के लिए हमअसर साहिबान-ए-ज़ौक़ की दुहाई देना फ़ुज़ूल होगा। वजह ज़ाहिर है, साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी (अगर ऐसी कोई चीज़ है) शे’र की ख़ूबी या ख़राबी नहीं मुतय्यन करता।
पिछले कई सफ़्हों की बहस में बाफ़हम और पढ़े लिखे क़ारी का ज़िक्र मैंने नहीं किया है। इसकी वजह ये नहीं है कि ज़ौक़ और फ़हम का जो फ़र्क़ मैंने शुरू में बयान किया था, अब उसे नजरअंदाज़ कर गया हूँ। मैंने मज़मून के शुरू में कहा था कि किसी ऐसे क़ारी का वुजूद नहीं है, जिसकी शे’र फ़हमी पर हम सबको हमेशा एतमाद हो। बाद में, मैंने ये भी कहा था कि जिस तरह किसी फ़न पारे का हू बहू मुमासिल सिर्फ़ वही फ़नपारा हो सकता है, उसी तरह किसी फ़न पारे का मिसाली क़ारी सिर्फ़ शायर ही हो सकता है। इसकी थोड़ी बहुत तफ़सील मैंने बयान की थी। अब कुछ ही बातें और कहूँगा। सबसे पहले तो ये सोचना है कि पढ़े लिखे क़ारी से क्या मुराद है? जैसा कि मैंने बाज़ौक़ और साहिब-ए-फ़हम क़ारी के ख़साइस बताते वक़्त कहा था, पढ़ा लिखा होना बाज़ौक़ और साहिब-ए-फ़हम क़ारी के दरमियान क़दर मुश्तर्क है, इसलिए ये शर्त बक़िया शराइत के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा अहम है।
ज़ाहिर है कि हम कॉलेज या यूनीवर्सिटी की डिग्री को पढ़ा लिखा होने का मेयार नहीं क़रार दे सकते। इसकी दो वजहें हैं, अव्वल तो ये कि कॉलेज या यूनीवर्सिटी की डिग्री बहुत कम लोगों के पास है और शे’र पढ़ने वाले बहुत ज़्यादा हैं, ये भी मुम्किन है कि डिग्री याफ़्ता शख़्स को शे’र के मुताले से कोई दिलचस्पी न हो लेकिन ग़ैर डिग्री याफ़्ता को हो। ये भी मुम्किन है कि डिग्री याफ़्ता शख़्स डिग्री के बावजूद कोरा हो और ग़ैर डिग्री याफ़्ता शख़्स अदब के बारे में बहुत जानता हो।
दूसरी वजह ये है कि अगर डिग्री को पढ़ा लिखा यानी साहिब-ए-फ़हम होने का मेयार ठहराया जाएगा तो ये भी सवाल उठेगा कि कौन सी डिग्री? बी.ए, एम.ए, पीएच.डी, डी.लिट, डबल एम.ए, डबल पीएच.डी वग़ैरा सैकड़ों डिग्रियां हैं। मुम्किन है कोई शख़्स किसी डिग्री को कम समझे, किसी को नाक़ाबिल-ए-एतिना समझे, फिर ये भी सवाल उठ सकता है कि डिविज़न कौन सा हो। फ़र्स्ट, सेकंड, थर्ड। अगर डिविज़न तै भी कर लिया तो लामुहाला ज़्यादा नंबर वाला ज़्यादा पढ़ा लिखा शख़्स ठहरेगा। तब दूसरा शख़्स कह सकता है कि साहिब फ़ुलां की डिग्री तो फ़ुलां यूनीवर्सिटी की अता कर्दा है। वो यूनीवर्सिटी निहायत मामूली है वग़ैरा। इस तरह डिग्री के मेयार पर पढ़ा लिखा होने का क़ज़िया नहीं तै हो सकता।
अच्छा अगर डिग्री की बुनियाद पर पढ़े लिखे शख़्स की हदबंदी नहीं हो सकती तो मुताला की बुनियाद पर तो हो सकती होगी? पुराने अरब आलिमों का ख़्याल था कि जिस शख़्स को असातिज़ा के दस हज़ार शे’र याद न हों वो ख़ुद शायर होने का अह्ल नहीं है तो क्या हाफ़िज़े की क़ुव्वत को फ़हम का मेयार ठहराया जा सकता है? ज़ाहिर है कि नहीं, और अगर ठहरा भी दें तो किस बोर्ड का फ़ैसला इस सिलसिले में क़ाबिल-ए-क़बूल होगा? वो लोग जो पढ़े लोगों के हवाले से किसी शायर को लॉन तान करते हैं क्या किसी ऐसे बोर्ड के मेंबर हैं जिसने दस दस हज़ार शे’र ज़बानी सुनकर कुछ लोगों को पढ़ा लिखा होने का ख़िताब अता किया है? और क्या ये ज़रूरी है कि जिस शख़्स को दस या पाँच हज़ार शे’र याद हों, उसका मुताला भी निहायत सही और मोतबर हो? मुम्किन है उसने दीवान-ए-ग़ालिब से वही शे’र याद किए हों जो सबसे लगो हैं। आप कहेंगे हाफ़िज़ा और मुताला हम-मअनी नहीं कहे जा सकते। इसलिए आइए मुताला की तारीफ़ दुबारा मुतअय्यन करें।
फ़र्ज़ कीजिए हम क़ारियों को तीन गिरोहों में बांट दें। (1) वाजिबी पढ़े लिखे, (2) औसत पढ़े लिखे, (3) पढ़े लिखे। आप कहेंगे, ज़ाहिर है कि ऐसे तो होते ही होंगे जो उनमें से किसी गिरोह में फिट हो सकें। लेकिन वो किस तरह के लोग होते होंगे? फ़र्ज़ कीजिए हमने कहा वो शख़्स वाजिबी पढ़ा लिखा है जिसने इस्माईल मेरठी, हामिद उल्लाह अफ़सर, दुर्गा सहाय सरवर और शाकिर मेरठी से ज़्यादा कुछ नहीं पढ़ा। तो क्या वाक़ई ऐसे शख़्स का वुजूद अमलन मुम्किन है जिसने दाग़, अमीर मीनाई, नज़ीर, मुसहफ़ी, इंशा वग़ैरा का कोई शे’र न पढ़ा हो? और क्या वो शख़्स भी वाजिबी पढ़ा लिखा कहलाएगा जिसने इस्माईल मेरठी और दुर्गा सहाय सरवर का सारा कलाम बग़ौर पढ़ा हो? इसी तरह औसत पढ़े लिखे से हम क्या मुराद लेंगे? शायद ये कि वो ग़ालिब और मोमिन के पेचीदा अशआर, ज़ौक़ और सौदा के क़साइद न समझ सकता होगा, लेकिन उनके बक़िया अशआर उसने पढ़े होंगे और समझे भी होंगे।
फिर उस शख़्स को क्या कहेंगे जिसने मुनीर शिकोहाबादी, ज़ामिन अली जलाल, मुज़फ़्फ़र अली असीर, रासिख़ अज़ीमाबादी, क़ायम चांदीपुरी वग़ैरा को ख़ूब पढ़ा हो। लेकिन इक़बाल, जोश, फ़ैज़ वग़ैरा को न पढ़ा हो? क्या वो शख़्स जिसने मुसद्दस हाली तो नहीं पढ़ी है लेकिन मीर अनीस के मरसिए पढ़े हैं, जिसने नज़ीर अकबराबादी को पढ़ा है लेकिन मोमिन को नहीं पढ़ा है, जिगर से वाक़िफ़ है लेकिन फ़ानी को नहीं जानता, औसत पढ़ा लिखा कहलाएगा, ज़ाहिर है कि नहीं? इसी तरह पढ़ा लिखा शख़्स कौन होगा? जिसने इक़बाल, ग़ालिब, सौदा, मीर, अनीस, फ़ैज़, दर्द वग़ैरा सबको ख़ूब पढ़ा हो? लेकिन उसने यगाना को न पढ़ा हो? फ़िराक़ को न पढ़ा हो? दया शंकर नसीम को न पढ़ा हो? आप कहेंगे ये मुम्किन ही नहीं है कि किसी शख़्स ने इक़बाल, ग़ालिब, दर्द, सौदा, मीर, अनीस को पढ़ा हो लेकिन आख़िर उल ज़िक्र शोअरा को न पढ़ा हो तो बात फिर इमकान पर आ गई, यानी आपने बा’ज़ चीज़ों को मुम्किन यक़ीन कर लिया और बा’ज़ को नामुमकिन गरदाना, लेकिन फ़ैसला क्या हुआ?
पढ़े लिखे आदमी का जो मेयार आप मुक़र्रर कर रहे हैं, या तो वो इतना बुलंद और वसीअ है कि इस पर कोई पूरा नहीं उतर सकता (शायद एक दो प्रोफ़ेसर साहिबान उतरें तो उतरें) या फिर इतना ग़ैरकतई कि उसकी हदबंदी ही नहीं हो सकती। क्या आप किसी ऐसे शख़्स का तसव्वुर कर सकते हैं जो जिगर पर नाक भों चढ़ाता है। यगाना से वाक़िफ़ न हो, ग़ालिब के सिर्फ़ एक ही दो शे’र उसे याद हों, इस्माईल मेरठी और शाकिर मेरठी का माहिर हो, मुशायरे के शायरों को जानता हो लेकिन सबको पसंद न करता हो। ऐसा शख़्स यक़ीनन एक तरह का वाजिबी पढ़ा लिखा शख़्स होगा लेकिन उसका वुजूद हवा में हो तो हो ज़मीन पर नहीं रह सकता।
मेरा मतलब ये है कि पढ़ा लिखा होने का मेयार मुक़र्रर करने में दो क़बाहतें हैं। अव्वल तो ये कि उस मेयार पर लोगों को कसने और परखने के वसाइल हमारे पास नहीं हैं। अगर हम मुताला की मुफ़स्सिल तरीन फ़ेहरिस्त बना भी दें तो उस फ़ेहरिस्त की रोशनी में लोगों को जांच नहीं सकते, लिहाज़ा हमारा मेयार फ़र्ज़ी और तसव्वुराती ही रहेगा। दूसरी और उतनी ही बड़ी क़बाहत ये है कि ऐसा मेयार वज़ा करना ही नहीं है जिसकी रू से हम किसी शख़्स को पढ़ा लिखा या जाहिल कह सकें, तो जब पढ़ा लिखा होने का मेयार वज़ा ही नहीं हो सकता या अगर वज़ा भी हो सकता है तो उसका इतलाक़ और उसकी रोशनी में लोगों का इम्तिहान नहीं हो सकता तो फिर उस दावा का क्या मतलब है कि पढ़े लिखे लोगों की नज़र में फ़ुलां क़िस्म की शायरी नाक़ाबिल-ए-क़बूल, नाक़ाबिल-ए-फ़हम या ग़ैर मुस्तहसिन है? लोगों को अक्सर ये कहते हुए सुना गया है कि साहिब शायरी कम से कम ऐसी हो कि पढ़े लिखे लोग उसे समझ सकें। क्या मुसीबत है कि पढ़े लिखे लोग, साहिब-ए-फ़हम लोग भी ऐसी शायरी के सामने सिपर डाल देते हैं? अगर पढ़ा लिखा क़ारी भी इतना ही बड़ा अफ़साना है जितना साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी, तो फिर इन बातों की असल क्या है?
ज़ाहिर है कि उनकी भी असल वही है जो साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी की है। यानी जिस तरह हम लोग अपने ज़ौक़ की रोशनी साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी का अफ़साना गढ़ते हैं, उसी तरह अपने मुताले और फ़हम की रोशनी में पढ़े लिखे और साहिब-ए-फ़हम क़ारी का मफ़रूज़ा दरयाफ़्त करते हैं। जो नज़्में हमारी समझ में नहीं आतीं, हम उनके बारे में कह देते हैं कि पढ़े लिखे और साहिब-ए-फ़हम लोग भी उन्हें समझ नहीं पाते। इसी वजह से हमारे महूला बाला नक़्क़ाद को सिर्फ़ इफ़्तिख़ार जालिब और अहमद हमेश के बारे में साहिब-ए-फ़हम और पढ़े लिखे क़ारी के हवाले से कहना पड़ा कि ये नज़्में साहिब-ए-फ़हम क़ारी की दस्तरस से बाहर हैं। इसी मफ़रूज़े को दूसरी तरह यूं बयान किया जाता है कि साहिब जब हम मीर-ओ-ग़ालिब, अनीस-ओ-इक़बाल को समझ लेते हैं तो क्या वजह है कि फ़ुलां साहिब की नज़्में नहीं समझ सकते?
इस इस्तिफ़हाम की एक शक्ल ये भी हो सकती है कि वो वाजिबी पढ़ा लिखा शख़्स जिसने सिर्फ़ हामिद उल्लाह अफ़सर का कलाम पढ़ा हो, ये पूछे कि साहिब जब मैं हामिद उल्लाह अफ़सर को पूरी तरह समझ लेता हूँ तो फ़ुलां मसलन दाग़ का कलाम मेरी समझ में क्यों नहीं आता? दोनों सूरतों में ग़लतफ़हमी एक ही तरह की है। जिस चीज़ (यानी फ़हम शे’र) को हमने एक शायर के ताल्लुक़ से मश्क़-ओ-मज़ावलत के ज़रिए हासिल किया है, हम दूसरे शायर के ताल्लुक़ से ख़ुद ब-ख़ुद नहीं हासिल कर सकते। अफ़सर मेरठी के कलाम पर हमने थोड़ी बहुत मश्क़ की तो हमें उसकी फ़हम हासिल हुई। दाग़ हो या आदिल मंसूरी, उनके कलाम के साथ भी उसी तरह मश्क़ करनी पड़ेगी तो उनकी फ़हम भी हासिल होगी। दूसरी सूरत में हम हमेशा अपने मेयार को ग़ैर शऊरी तौर पर सामने रखकर एक फ़र्ज़ी तसव्वुर के हवाले से किसी मख़्सूस शायर या मख़्सूस तरह की शायरी को मतऊन करते रहेंगे।
शे’र की समझ का मुआमला दरअसल उतना सादा नहीं जितना बज़ाहिर दिखाई देता है। सबसे पहला मरहला तो वही है जिसकी तरफ़ मैं शुरू में इशारा कर चुका हूँ। यानी ये कि हम अक्सर अपने ज़ौक़ या पसंद की बिना पर किसी नज़्म या शे’र से लुत्फ़ अंदोज़ होते हैं, लेकिन उसके मतालिब हम पर पूरी तरह वाज़ेह नहीं हुए होते। ये भी मुम्किन है कि मतालिब पूरी तरह कभी वाज़ेह न हों। पूरी तरह तो बड़ी बात है, ये भी मुम्किन है कि किसी नज़्म या शे’र के मतालिब इत्मीनान बख़्श तरीक़े से भी हम पर वाज़ेह न हों लेकिन फिर भी नज़्म या शे’र की मजमूई कैफ़ियत हमारे लिए मानी-ख़ेज़ हो। मैं उन बहसों में इस वक़्त न जाऊँगा बल्कि सादा सी बात कहूँगा कि शे’र फ़हमी के दो पहलू मुम्किन हैं,
(1) अव्वलन ये कि हम नज़्म या शे’र के अंदर पिनहां-ओ-पैदा तमाम मतालिब समझ लें।
(2) सानियन ये कि हम नज़्म या शे’र के ज़रिए उन तमाम कैफ़ियात और मआनी और तजुर्बात से आगाह हो जाएं जो उसकी तख़लीक़ के वक़्त शायर के ज़ेहन में थे या जिनको शायर ने ब ख़्याल ख़ुद नज़्म या शे’र में रखा है।
पहली शक्ल तो बिल्कुल ज़ाहिर है कि नामुमकिन है। इसकी कई वजहें हैं। सबसे बड़ी वजह ये है कि किसी भी शख़्स का ज़ेहन उन मुम्किना मतालिब का हाता नहीं कर सकता जो किसी शे’र या नज़्म में बंद हैं। हम सब जानते हैं कि मुख़्तलिफ़ अशआर की मुख़्तलिफ़ शरहें वक़तन फ़वक़तन होती रही हैं और आइन्दा होती रहेंगी। बाद में आने वाले शारह का मुताला और ज़ेहनी रुजहान पिछले अदवार का मजमूआ, तजुर्बा और इल्म ख़ुद उस शायर के कलाम पर मुख़्तलिफ़ तन्क़ीदें, ये सब मिलकर उस शायर के कलाम पर नई रोशनी डालते रहते हैं।
दूसरी वजह ये है कि हर शख़्स हर शे’र को मुख़्तलिफ़ ज़मानों और सूरत-ए-हाल में मुख़्तलिफ़ तरह से देखता है। शे’र के लफ़्ज़ी मअनी न बदलें लेकिन पढ़ने वाले की सूरत-ए-हाल के एतबार से उसकी माअनवियत यानी Signification बदलती जाती है। ये सूरत उस वक़्त भी मौजूद रहती है जब शे’र के अलफ़ाज़ ख़ासी हद तक वाज़ेह हों। (ख़ासी हद तक मैंने इसलिए कहा कि शे’र के अलफ़ाज़ मुकम्मल तौर पर वाज़ेह हो ही नहीं सकते) मसलन ये निहायत सादा शे’र देखिए,
आज मैंने उनके घर भेजा कई बार आदमी
जब सुना तो ये सुना बैठे हैं दो-चार आदमी
अकबर इलाहाबादी
लफ़्ज़ी मअनी के बारे में किसी क़िस्म का शुबहा शायद कभी नहीं हो सकता लेकिन उसकी माअनवियत के चंद पहलू हस्ब-ए-ज़ैल हैं,
(1) ये शे’र उर्दू शायरी के रिवायती माशूक़ के बारे में है जिसके सैकड़ों चाहने वाले हैं। शायर भी उनमें से एक है लेकिन उसको बारयाबी हासिल नहीं है।
(2) ये शे’र हमारे आपके ज़माने के अफ़सर के बारे में है जिसको साहिब-ए-ग़रज़ हर वक़्त घेरे रहते हैं।
(3) ये शे’र किसी भी साहिब-ए-सर्वत आदमी के बारे में है।
(4) ये शे’र लीडर या मिनिस्टर क़िस्म के किसी शख़्स के बारे में है।
(5) ये शे’र किसी दोस्त के बारे में तंज़िया कहा गया है।
(6) ये शे’र किसी हमपेशा के जज़्ब-ए-रक़ाबत का इज़हार है। मुतकल्लिम (मसलन) डाक्टर है लेकिन उसकी प्रैक्टिस नहीं चलती। “उन” से मुराद कोई बिज़नेस Rival है।
(7) लफ़्ज़ “आज” पर ज़ोर दीजिए तो ये शे’र सिर्फ़ एक मख़्सूस दिन की सूरत-ए-हाल का नक़्शा पेश करता है।
मुंदर्जा बाला माअनवियतों में से कोई एक या एक से ज़्यादा मुख़्तलिफ़ लोगों के लिए मुख़्तलिफ़ सूरत-ए-हाल में दुरुस्त साबित हो सकती है। ये मुम्किन है कि और भी माअनवियतें हों जिन पर मेरी नज़र न गई हो। ये हाल तो उस शे’र का है जिसके लफ़्ज़ी मअनी में किसी क़िस्म के इख़्तिलाफ़ या तग़य्युर का इमकान बहुत ही कम है और जिसमें शे’रपन बहुत कम दर्जे में है। लेकिन मुम्किन है कि आप कहें कि फ़ारूक़ी साहब ने जान-बूझ कर ऐसा शे’र छांटा है जिसमें ज़ाहिरी ग़ैर पेचीदगी के बावजूद इतने तरह के मतालिब निकल सकें, लिहाज़ा एक और शे’र लीजिए। इसके भी मअनी में इख़्तिलाफ़-ए-राय की गुंजाइश बहुत कम है,
सफ़र है शर्त मुसाफ़िर-नवाज़ बहतेरे
हज़ारहा शजर सायादार राह में है
आतिश
ठीक है, इस्तिआरों के बारे में कोई बहस न होगी। अगर वो भी हो तो कई मअनी निकल सकते हैं, लेकिन मैं सिर्फ़ Signification से बहस करूँगा, जो बहरहाल मअनी से कमतर दर्जे की चीज़ है।
(1) ये शे’र भी लोगों या उन लोगों के बारे में कहा गया है (या उनके रवय्ये की तर्जुमानी करता है) जो जेब में चंद रुपये डाल कर दुनिया की सैर को निकल खड़े होते हैं।
(2) ये शे’र Adventure की तरग़ीब देता है।
(3) ये शे’र इंसान की बुनियादी भलमनसाहट और मेहमान-नवाज़ी की तारीफ़ करता है।
(4) ये शे’र इंसानों के हालात पर एतमाद करना सिखाता है, यानी ये कहता है कि अजनबी राहों से मत घबराओ, लोगों पर एतमाद रखो।
(5) ये शे’र एक ऐसे मुल्क के बारे में है जहां के बादशाह (मसलन) शेर शाह ने लंबी लंबी सड़कों पर दो-रूया दरख़्त लगवा रखे हैं।
(6) ये शे’र पैग़ाम-ए-अमल देता है वग़ैरा।
इन मिसालों की रोशनी में ये कहना ग़लत न होगा कि कोई ऐसी सूरत मुम्किन नहीं है कि एक शख़्स एक वक़्त में किसी शे’र के सारे मतालिब यानी मअनी Meaning और माअनवियत Signification को समझ ले। लेकिन मुआमला यहीं तक नहीं रहता। हक़ीक़त तो ये है कि किसी चीज़ के बारे में हमारा इल्म मुकम्मल नहीं हो सकता। इस मसले को रसल ने बड़ी ख़ूबी से वाज़ेह किया है। उसने तो यहां तक कहा है कि (मसलन) ग़ालिब के बारे में पूरा इल्म सिर्फ़ ग़ालिब ही के लिए मुम्किन था। इसको दो तरह से समझा जा सकता है। अव्वल तो ये कि किसी शैय का ऐनी Ideal इल्म दरअसल वो इल्म है जो उस शैय के बारे में तमाम लोगों के इल्म का मजमूआ है।
मसलन में और आप एक सुर्ख़ गेंद देखते हैं। अब उसकी दो शक्लें हैं। या तो हमको एक सुर्ख़ एहसास होता है या हम सुर्ख़ी का एहसास करते हैं। दोनों सूरतों में हमारा इल्म हमारे ही हवास की फ़राहम कर्दा इत्तिला Sense Data पर मुनहसिर है। ज़ाहिर है कि आपके Sense Data का इल्म मुझको नहीं है और मेरे हवासी इत्तिलाआत Sense Data का इल्म आपको नहीं है। इस तरह सुर्ख़ गेंद की सुर्ख़ी या मेरे सुर्ख़ एहसास के बारे में मेरा इल्म सिर्फ़ मेरे ही Data तक महदूद है। अगर उसी गेंद को लाखों आदमियों ने देखा तो उनके लाखों Sense Data होंगे। ये इत्तिलाआत एक दूसरे से मुशाबह तो हो सकते हैं लेकिन बिल्कुल हू बहू हो एक नहीं हो सकते, क्योंकि सब लोग अलग अलग शख़्सियतों, सलाहियतों और कुव्वतों के मालिक हैं।
इस तरह किसी शैय या किसी मुक़द्दमे proposition को पूरी तरह जानने का मफ़हूम सिर्फ़ ये है कि में इस शैय को अपने इल्म की रोशनी में जानता हूँ और ज़ाहिर है कि ये इल्म चूँकि सिर्फ़ मेरा है इसलिए महदूद है।“शजर सायादार” एक शैय है और ''हज़ारहा शजर सायादार राह में है” एक मुक़द्दमा Proposition۔ उनका उमूमी मफ़हूम हम सब के पास है, लेकिन उनका मुकम्मल मफ़हूम किसी के पास नहीं है। ये भी मुम्किन है कि “शजर सायादार” मफ़हूम रखता हो लेकिन किसी के लिए हक़ीक़ी न हो और किसी के लिए बिल्कुल हक़ीक़ी हो या जुज़वी तौर पर हक़ीक़ी हो। दूसरी तरफ़ ये मसला है कि मसलन मैंने कहा, ''ग़ालिब एक अच्छा शायर है।” इस मुक़द्दमे में अच्छा और शायर का तज्ज़िया फ़िलहाल मुल्तवी करके लफ़्ज़ ग़ालिब पर तवज्जो सर्फ़ कीजिए। सबसे पहले तो ये तस्लीम करना पड़ेगा कि कोई शख़्स ग़ालिब नाम का है जिस पर “अच्छा शायर” की तारीफ़ मुंतबिक़ हो सकती है।
हम ये भी फ़र्ज़ कर लेते हैं कि ये तारीफ़ सिर्फ़ और सिर्फ़ इस ग़ालिब पर मुंतबिक़ हो रही है जिसका पूरा नाम असदुल्लाह ख़ां था, जो बल्ली मारों में रहता था और जो 1869 ई. में फ़ौत हुआ। लेकिन इस के बाद मुआमला मुश्किल हो जाता है जब मैंने कहा कि “ग़ालिब एक अच्छा शायर है।” तो मुम्किन है मेरे ज़ेहन में ग़ालिब की वो ग़ज़ल रही हो जिसका मतला है “ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है।” और आपने जब मेरे बयान की तसदीक़ की तो आपके ख़्याल में ग़ालिब का वो क़सीदा आया हो जिसका मतला है “दह्र जुज़ जलव-ए-यकताई माशूक़ नहीं।” दोनों ग़ालिब एक ही हैं लेकिन आपके ज़ेहन में ग़ालिब की जो तारीफ़ है वो मेरी तारीफ़ से मुख़्तलिफ़ है। ये इख़्तिलाफ़ अगर सैकड़ों आदमियों पर फैलाया जाये तो मसले की वुसअत साफ़ नज़र आने लगती है। ये मुम्किन ही नहीं है कि जब मैंने कहा कि ग़ालिब एक अच्छा शायर है, मेरे ज़ेहन में ग़ालिब का हर क़सीदा, हर ग़ज़ल, हर रुबाई रही हो और आपने जब तसदीक़ की हो तो आपका भी यही हाल हो।
हम लोग एक दूसरे की बात इसलिए समझ लेते हैं कि हम लोगों के Sense Data एक दूसरे के मुशाबेह हो सकते हैं, या हमें इल्म रहता है कि हर शैय के बारे में एक बिल्कुल सही मुक़द्दमा भी मौजूद है जो पूरी हक़ीक़त को मुहीत है और हमारे मुक़द्दमात इस सही मुक़द्दमे का एक हिस्सा हैं। रसल कहता है, ''मुख़्तलिफ़ क़िस्म के Descriptions (बयान+रूदाद) के बावजूद जो चीज़ एक दूसरे की बात समझना हमारे लिए मुम्किन बनाती है वो ये है कि हम जानते हैं कि असल शैय के बारे में एक सच्चा मुक़द्दमा है और हम अपने बयान + रूदाद को कितना ही मुख़्तलिफ़ क्यों न कर दें (बशर्ते कि वो बयान + रूदाद दुरुस्त हो) जिस मुक़द्दमे का हम ज़िक्र कर रहे हैं वो एक ही है।”
इस मोशिगाफ़ी का नतीजा ये निकला कि ऐनी हैसियत से किसी चीज़ का मुकम्मल इल्म हासिल नहीं हो सकता। हाँ, अगर आप हवासी इत्तिलाआत Sense Data के बजाय वजदानी इल्म वग़ैरा का हवाला दें तो और बात है लेकिन शे’र फ़हमी की दुनिया में वजदानी इल्म नहीं काम आता। यहां तो शजर सायादार और मुसाफ़िर नवाज़ और राह की तफ़सीर इस तरह करनी होगी कि शे’र हमारे लिए बामानी हो सके। विट गंसटाइन ने इस सिलसिले में एक अच्छा नुक्ता निकाला था कि अगरचे ज़्यादातर अलफ़ाज़ की क़तई तारीफ़ यानी ऐसी तारीफ़ जो ख़ुद कफ़ील हो, मुम्किन नहीं है। लेकिन दूसरे अलफ़ाज़ के ज़रिए उनकी वज़ाहत की जा सकती है। तफ़हीम-ए-शे’र भी यही करती है। अपनी हदों के बावजूद हम सब अपनी अपनी तौफ़ीक़ भर अशआर को समझते और समझाते हैं, रसल का सच्चा मुक़द्दमा True Proposition हमारे काम आता है लेकिन कोई भी तफ़हीम किसी शे’र की मुकम्मल तरीन तफ़हीम नहीं हो सकती।
शे’र फ़हमी की दूसरी सूरत ये थी कि हम नज़्म या शे’र के ज़रिए उन तमाम कैफ़ियात और मआनी और तजुर्बात से आगाह हो जाएं जो उसकी तख़लीक़ के वक़्त शायर के ज़ेहन में थे या जिनको शायर ने बख़्याल ख़ुद नज़्म या शे’र में रखा है। ज़ाहिर है कि जब हम उन तमाम मौजूद और गैरमौजूद लोगों के निकाले हुए मतालिब से आगाह नहीं हो सकते जो शे’र को पढ़ चुके हैं, पढ़ रहे हैं, या पढ़ेंगे, तो फिर मुकम्मल शे’र फ़हमी उसको कहेंगे कि कम से कम शायर के इंदिया से तो हम आगाह हो जाएं। ज़ाहिर है कि ये भी नामुमकिन है क्योंकि आपस में गुफ़्तगु करते वक़्त हम एक दूसरे के मुक़द्दमात के तमाम मआनी को नहीं समझ पाते या उनसे आगाह ही नहीं होते तो शायर के तमाम मुक़द्दमात को क्या समझेंगे जो हमारे सामने है ही नहीं।
शायर तो अपनी कह चुका। अब हम उसे कहाँ ढूंडते फिरें कि तू ने जब “शजर सायादार” कहा था तो तेरे ज़ेहन में किस क़िस्म का Sense Data था। क्योंकि शजर सायादार का मफ़हूम सिर्फ़ यही नहीं है कि छाँव वाला पेड़, बल्कि असल मफ़हूम (यानी शायर के ज़ेहन का मफ़हूम) उस दरख़्त या उन दरख़्तों की तफ़सील में है जो ये फ़िक़रा बनाने या नज़्म करते वक़्त शायर के ज़ेहन में थी। सायादार दरख़्त नीम भी हो सकता है और देवदार भी। मुख़्तलिफ़ दरख़्तों के साथ मुख़्तलिफ़ इंसलाकात होंगे। अगर शायर का इंदिया वाक़ई समझना है तो उनको समझिए। मुम्किन है इस बहस को आप बाल की खाल निकालने की मश्क़ कहें। “शजर सायादार” एक पैकर है, इसलिए उसकी तफ़हीम में इस क़िस्म के मबाहिस उठ सकते हैं। एक ऐसा शे’र लीजिए जिसमें कोई पैकर नहीं है। इक़बाल की नज़्म “हक़ीक़त-ए-हुस्न” का पहला शे’र है,
ख़ुदा से हुस्न ने इक रोज़ यूं सवाल किया
जहां में क्यों न मुझे तो ने लाज़वाल किया
शे’र का ज़ाहिरी मफ़हूम समझने में किसी को कोई मुश्किल नहीं हो सकती, लेकिन जब आप शायर के इंदिया की बात करेंगे तो इन सवालों का जवाब ज़रूरी हो जाएगा।
“एक रोज़” क्यों है, “एक रात” क्यों नहीं है?
“यूं” की जगह “ये” क्यों नहीं कहा?
“जहां” में लाज़वाल होने की तमन्ना से क्या मुराद है। क्या जहां यानी दुनिया-ए-फ़ानी के अलावा दूसरी दुनिया में हुस्न पहले ही से लाज़वाल है, अगर हाँ तो दुनियाए बाक़ी में हर चीज़ लाज़वाल है और दुनिया-ए-फ़ानी में हर चीज़ ज़वालपज़ीर है, हुस्न ही की तख़सीस क्यों?
(4) यह मिसरा इस तरह क्यों न लिखा गया, जहां में तू ने मुझे क्यों न लाज़वाल किया? यानी ताकीद बजाय “तू” के “क्यों” क्यों नहीं है?
बा’ज़ सवालात बज़ाहिर मज़हकाख़ेज़ हैं। बा’ज़ के जवाब की कोई ज़रूरत नहीं है। शे’र का मतलब साफ़ है। लेकिन जब तक इन सवालों के जवाब न मिलेंगे शायर के इंदिया (यानी वो कैफ़ियात जो शे’र कहते वक़्त शायर के ज़ेहन में थीं) की वज़ाहत नहीं हो सकती। अगर इस शे’र को वाक़ई कोई समझ सकता है तो इक़बाल ही समझ सकते हैं, लिहाज़ा ये तसव्वुर कि हम शे’र पढ़ कर इन तमाम तजुर्बात-ओ-कैफ़ियात की मुकम्मल तख़लीक़ कर सकते हैं, जिनसे शायर शे’र कहते वक़्त दो-चार था, महज़ फ़र्ज़ी और मुहमल है। हम ज़्यादा से ज़्यादा ये कर सकते हैं कि इन कैफ़ियात से मिलती-जुलती कैफ़ियात हासिल कर लें और उनसे कमाहक़ा लुत्फ़ अंदोज़ हो लें।
आप कह सकते हैं कि उन शेरों का क्या बनेगा जिनकी शरह शायर ने ख़ुद की है। इसका जवाब बिल्कुल साफ़ है। अव्वल तो शायर की शरह कोई सनद नहीं है। इस मअनी में कि अगर इस शे’र में और भी मअनी निकल सकते हैं तो ज़रूर निकाले जाऐंगे। शायर ने उनका तज़्किरा किया हो या न किया हो, लेकिन ज़्यादा अहम बात ये है कि शायर ने अपनी शरह में महज़ अपना मुद्दा बयान कर दिया है। ये तो बताया नहीं है कि वो तमाम कैफ़ियात क्या थीं जिसके नतीजे में ये शे’र हुआ है। ये और बात है कि बताया नहीं है कि वो तमाम कैफ़ियात क्या थीं जिसके नतीजे में ये शे’र हुआ है। ये और बात है कि शायर या किसी और शारह की बयान कर्दा शरह पढ़ कर मुम्किना हद तक हम पर भी वो महसूसात और कैफ़ियात तारी हो जाएं, वर्ना शारह महज़ शारह है चाहे वो ख़ुद शायर क्यों न हों। अगर शे’र फ़हमी का मेयार ये है कि हम ख़ुद को शायर से अतम व अकमल दर्जे पर Identify कर लें तो ये मेयार या तो नामुमकिन है या फ़र्ज़ी है।
मज़मून ख़त्म करने के पहले मैं चंद बातों का इआदा करना ज़रूरी समझता हूँ, (1) मेरा मुद्दाआ ये हरगिज़ नहीं है कि लोग साहिब-ए-ज़ौक़ नहीं होते। मेरा मुद्दआ सिर्फ़ ये है कि ज़ौक़ का एक इन्फ़िरादी और ज़ाती मेयार है, इसकी कोई मारुज़ी हैसियत नहीं। जो लोग साहिब-ए-ज़ौक़ क़ारी के हवाले से किसी शायर को मतऊन करते हैं वो दरअसल सिर्फ़ अपना हवाला देते हैं।
(2) मेरा मुद्दआ ये भी नहीं है कि शे’र को समझना मुम्किन नहीं है। मेरी मुद्दआ सिर्फ़ ये है कि शे’र में इन मआनी के अलावा जो ज़्यादातर लोगों में मुश्तर्क होते हैं, बहुत से मअनी और भी होते हैं और किसी भी शे’र को तमाम-ओ-कमाल समझना (यानी उस शे’र के तमाम मुम्किना मतालिब पर हावी हो जाना) किसी एक शख़्स के लिए एक वक़्त में मुम्किन नहीं है।
(3) मेरा मुद्दआ ये भी नहीं है कि हर वो शे’र जो समझ में नहीं आता अच्छा ही होता है। मेरा मुद्दआ सिर्फ़ ये है कि ये कहना कि फ़ुलां शे’र या नज़्म साहिब-ए-फ़हम क़ारी की समझ में नहीं आती लिहाज़ा ऐसी शायरी बेकार है, ग़लत है। क्योंकि साहिब-ए-फ़हम क़ारी महज़ एक फ़र्ज़ी तसव्वुर है। ये एक इन्फ़िरादी मेयार है, इसकी कोई मारुज़ी हैसियत नहीं। जो लोग साहिब-ए-फ़हम क़ारी का हवाला देते हैं, वो दरअसल सिर्फ़ अपना हवाला देते हैं।
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