सज्जाद ज़हीर-तरक़्क़ी-पसन्द तहरीक और दौर-ए-असीरी
सज्जाद ज़हीर-तरक़्क़ी-पसन्द तहरीक और दौर-ए-असीरी
इंद्रभान भसीन इंद्र
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ये अदबी तहरीक उस ज़माने की उपज है जब पूरी दुनिया में साम्राज्यित और सरमायादारी के ख़िलाफ़ एक सिरे से दूसरे सिरे तक इंक़लाबियत की लहर दौड़ रही थी। हिन्दुस्तान में भी हमारे सियासी रहनुमा मुल्क को ग़ैर-मुल्की ग़ुलामी से आज़ाद कराने में सरगरदाँ थे। स्वदेशी और अदम तआ’वुन की मुहिमें पूरे ज़ोरों पर थीं। इस माहौल का बहुत गहरा असर अमीर घरानों के उन बच्चों पर हुआ जो बर्तानिया में आला ता’लीम हासिल करने की गरज़ से ज़ेर-ए-ता’लीम थे। ऐसे तालिब-ए-इल्मों में सय्यद सज्जाद ज़हीर का नाम सर-ए-फ़ेहरिस्त है। सज्जाद ज़हीर को घर वाले बचपन से ही बन्ने मियाँ कहते थे। मगर अदबी और सियासी हल्क़ों में वो बन्ने भाई के नाम से जाने जाते थे।
सज्जाद ज़हीर सर्वज़ीर हसन की सात औलादों में से छटे नम्बर पर थे। अपने ज़माने में सर्वज़ीर हसन एक माने हुए वकील थे और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के चीफ़ जज के ओहदे पर भी फ़ाइज़ हुए थे। वो जवाहर लाल नेहरू के वालिद पंडित मोती लाल नेहरू के ख़ास दोस्त थे और उनका शुमार लखनऊ के ख़ास रईसों में होता था। उनके घर पर हुकूमत के बड़े-बड़े अफ़सरों, सियासी लीडरों और शह्र के चुनिन्दा सरमायादारों का आना-जाना लगा रहता था और वक़्तन-फ़वक़्तन दावतों का बड़े पैमाने पर एहतेमाम होता था। उनकी वलिदा सकीना अल फ़ातिमा जिन्हें प्यार से लोग सिक्कन बीबी कहते थे निहायत पाकबाज़ और मज़हब की पाबंद औरत थीं लेकिन पर्दे के ख़िलाफ़ थीं और निस्वानी ता’लीम के हक़ में थीं।
सज्जाद ज़हीर की परवरिश ऐसे माहौल में हुई जहाँ किसी के ऊपर कोई पाबन्दी आयद नहीं की जाती थी और हर शख़्स को अपने तरीक़े से सोचने का हक़ हासिल था। यही एक सब से बड़ी वज्ह थी कि सर्वज़ीर जैसे अमीर बाप का बेटा इश्तिराकियत की तरफ़ राग़िब हो गया और महलों पर झोंपड़ों को तरजीह दी।
लन्दन में जो लोग ता’लीम हासिल कर रहे थे वो उन तमाम तब्दीलियों से पूरी तरह वाक़िफ़ थे जो हर मुल्क कि सियासत में वाक़े हो रही थीं। उन्होंने महसूस किया कि मुल्क की आज़ादी कि लिए सिर्फ़ सियासी सरगर्मियाँ ही काफ़ी नहीं बल्कि ये भी ज़रूरी है कि तमाम अदीब इसमें शिर्कत करें। इसलिए उन्होंने तमाम अदीबों को एक ही परचम तले इकट्ठा करने का बीड़ा उठाया और इस काम को सर-ए-अन्जाम देने के लिए 1935 ई॰ में एक अदबी हल्क़ा क़ायम किया जिसमें सज्जाद ज़हीर के अलावा मुल्क राज आनन्द, डॉक्टर ज्योती घोष, प्रमोद सेन और डॉक्टर मोहम्मद दीन तासीर वग़ैरह शामिल थे। इन सब ने मिल कर फ़ैसला किया, कि हिन्दुस्तानी अदीबों और शाइ’रों की एक अन्जुमन बनाई जाए जिसमें हर ज़बान के लोग हिस्सा लें। इस मौज़ू पर ग़ौर करने के लिए शुरू’-शुरू’ में सब लोग सज्जाद ज़हीर के कमरे में ही इकट्ठे होते थे जहाँ उन्होंने एक अन्जुमन की तश्कील की जिसका नाम हिन्दुस्तानी तरक़्क़ी-पसन्द अदीबों कि अन्जुमन या’नी Indian Progressive Writers Association. रखा। इस अन्जुमन के सबसे पहले सदर मुल्क राज आनन्द थे जो बा’द में अँग्रज़ी ज़बान के अदीब और नॉवल-निगारी के लिहाज़ से बहुत मश्हूर हुए। उनका पहला बाक़ायदा जल्सा लन्दन में नॉन किंग रेस्तराँ की Basement में हुआ। उन लोगों ने मिलकर अन्जुमन तरक़्क़ी-पसन्द मुसन्निफ़ीन का एक मुसव्वदा भी तय्यार किया जिस की एक-एक नक़्ल हिन्दुस्तान के नौजवान और उभरते हुए अदीबों को इर्साल की जो तवील बहस-ओ-मुबाहिसे के बा’द 1936 ई॰ में अन्जुमन तरक़्क़ी पसन्द मुसन्निफ़ीन कि पहली कुल हिन्द कॉन्फ़्रेंस में पास हो गया। ये कॉन्फ़्रेंस लखनऊ में हुई थी और इसकी सदारत उर्दू के मश्हूर अदीब मुंशी प्रेमचन्द ने की थी।
अन्जुमन तरक़्क़ी-पसन्द मुसन्निफ़ीन शुरू’ में तो चन्द नौजवानों तक ही महदूद थी लेकिन 1935 ई॰ में उन नौजवानों को पैरिस में होने वाले तमाम दुनिया के अदीबों की कांफ़्रेंस में शामिल होने का मौक़ा मिला। इस कॉन्फ़्रेंस का नाम था। World Congress of the Writers for defence of Culture इस में शामिल होने वालों में कई शोहरा-ए-आफ़ाक़ हस्तियाँ थीं जिन में रोमेन रोलाँ, मैक्सिम गोर्की, आन्द्रे मार्लो वग़ैरह के नाम ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। ये कॉन्फ़्रेंस बहुत कामयाब रही जिस में ये फ़ैसला हुआ कि तरक़्क़ी-पसन्द अदीबों को इज्तिमाई’ तौर पर पूरी दुनिया के मफ़ाद और तहफ़्फ़ुज़ के लिए रुजअत पसन्द ताक़तों का मुक़ाबला करना चाहिए। इस कॉन्फ़्रेंस में सज्जाद ज़हीर और उनके चन्द साथियों ने बतौर Observer हिस्सा लिया था। उस कॉन्फ़्रेंस ने सज्जाद ज़हीर को बहुत मुतअ’स्सिर किया और उन्होंने तरक़्क़ी-पसन्द तन्ज़ीम को फ़आल बनाने का पक्का इरादा कर लिया।
जब सज्जाद ज़हीर हिन्दुस्तान वापस लौटे तो सर्वज़ीर हसन लखनऊ छोड़ कर इलाहाबाद आ गए थे जहाँ उन्होंने सकूनत इख़्तेयार कर ली थी। इसलिए सज्जाद ज़हीर भी सीधे इलाहाबाद ही गए लेकिन उन दिनों लखनऊ में काँग्रेस का एक सालाना इज्लास होने वाला था। इसलिए सब कि राय हुई कि पहली कुल हिन्द कॉन्फ़्रेंस लखनऊ में की जाए ताकि काँग्रेस कि कॉन्फ़्रेंस में शरीक होने वाले कुछ लोग अन्जुमन कि कॉन्फ़्रेंस में भी हिस्सा ले सकें। ये भी राय हुई कि इस कॉन्फ़्रेंस कि सदारत की ज़िम्मेदारी मुंशी प्रेमचन्द को सौंपी जाए। इब्तेदाई माज़रत के बा’द मुंशी जी ने ये ज़िम्मेदारी क़ुबूल कर ली। पहली कुल हिन्द कॉन्फ़्रेंस बेहद कामयाब साबित हुई। क्योंकि ये हिन्दुस्तान की अपनी क़िस्म की पहली कॉन्फ़्रेंस थी जिसमें न सिर्फ़ उर्दू ज़बान के अदीब शामिल हुए बल्कि दूसरी ज़बानों के अदीबों ने भी एक मुश्तरका प्लेटफ़ार्म पर इक्ट्ठे होकर मुकम्मल इत्तिहाद और तआ’वुन का सुबूत दिया। कॉन्फ़्रेंस में वो मंशूर जो सज्जाद ज़हीर और डॉक्टर अब्दुल अलीम और महमूद ने तैयार किया था पेश किया गया और बिल-इत्तेफ़ाक़ पास हुआ। लेकिन इस कॉन्फ़्रेंस में सब कि तवज्जोह का बाइस मुंशी प्रमचन्द का सदारती ख़ुत्बा था जो एक यादगार बन के रह गया है। ये ख़ुत्बा सलीस उर्दू में लिखा हुआ था जिसे सामईन ने हमा-तन-गोश हो कर सुना। अपने सदारती ख़ुत्बे में मुंशी जी ने अलावा अज़ीं ये भी कहा था कि।
“जिस अदब से हमारा ज़ौक़ सही बेदार न हो, रूहानी और ज़ेह्नी तस्कीन न मिले हम में वो क़ुव्वत और हरारत पैदा न हो, हमारा जज़्ब-ए-हुस्न न जागे, जो हम में सच्चा इरादा और मुश्किलात पर फ़तह पाने के लिए सच्चा इस्तिक़लाल न पैदा करे, वो आज हमारे लिए बेकार है। उस पर अदब का इतलाक़ नहीं हो सकता।”
सज्जाद ज़हीर ने अपनी किताब ‘रोशनाई’ में इस ख़ुत्बे का तज़किरा करते हुए लिखा है कि हमारे मुल्क में तरक़्क़ी-पसन्द अदबी तहरीक कि ग़र्ज़-ओ-ग़ायत के मुतअ’ल्लिक़ इससे बेहतर कोई चीज़ नहीं लिखी गई। कॉन्फ़्रेंस के इख़्तेताम पर उसकी ख़ूबियों और ख़ामियों का जायज़ा लिया गया। मुंशी जी ने मुश्फ़िक़ाना अन्दाज़ में सज्जाद ज़हीर, रशीदा जहाँ वग़ैरह को मुस्कुराते हुए मश्वरा दिया कि वो इंकिलाब कि तरफ़ इतनी तेज़-रफ़्तारी से न दौड़ें क्योंकि अगर उन्हें ठोकर लग गई और वो गिर पड़े तो उन्हें संगीन चोट भी आ सकती है। इस पर सब लोग ज़ोर-ज़ोर से हँस पड़े और कॉन्फ़्रेंस अपने इख़्तिताम को पहुँची।
1939 ई॰ में जब दूसरी आलमी जंग-ए-अज़ीम शुरू’ हुई तो हुकुमत ने कम्युनिस्ट पार्टी पर पाबन्दी लगा दी। उस वक़्त सज्जाद ज़हीर कम्युनिस्ट पार्टी के कुल वक़्ती कारकुन थे। उन्होंने हुकूमत के ख़िलाफ़ शरर-अंगेज़ तक़रीरें कीं और गिरफ़्तार कर लिए गए। उन्हें लखनऊ सेन्ट्रल जेल में रखा गया। कुछ अर्से बा’द अली सरदार जाफ़री भी गिरफ़्तार हो गए और उन्हें मुलहक़ा डिस्ट्रिक्ट जेल में रखा गया जहाँ बन्ने भाई के बड़े भाई डॉक्टर हुसैन ज़हीर और काँग्रेसी लीडर चन्द्रभान गुप्ता पहले से नज़रबन्द थे। लखनऊ सेन्ट्रल जेल में सज्जाद ज़हीर कोई दो साल नज़रबन्द रहे। उन्हें 11 मार्च 1940 ई॰ को गिरफ़्तार किया गया था और 16 मार्च 1942 ई॰ को गैर मशरूत तरीक़े से रिहा कर दिया गया।
रिहाई के बा’द सज्जाद ज़हीर ने बम्बई में सकूनत इख़्तेयार कर ली थी जहाँ रज़िया और बच्चों समेत 94 वालकेश्वर रोड पर सीकरी भवन में रहते थे। उस वक़्त कम्युनिस्ट पार्टी का दफ़्तर खेतवाड़ी में था जहाँ से पार्टी का रिसाला “क़ौमी जंग” शाया होता था और ‘नया अदब’ भी वहीं से निकलता था। नया अदब के एडीटर सिब्त-ए-हसन थे। उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रटरी पी. सी. जोशी थे। उन्होंने सरदार जाफ़री को बम्बई जाकर, क़ौमी जंग के इदारती अमले में काम करने की दा’वत दी। तब तक बन्ने भाई बम्बई नहीं पहुँचे थे। चुनाँचा 21 जून 1942 ई॰ को वहाँ से ‘क़ौमी जंग’ का पहला शुमारा निकला। मजाज़ लख़नवी, अली सरदार जाफ़री को तरक़्क़ी-पसन्द तहरीक का ज़फ़र अली ख़ान कहते थे। ज़फ़र अली ख़ान लाहौर से शाया होने वाले एक बहुत मक़बूल रिसाले ज़मींदार के मालिक थे और अपने इदारिए में उन्होंने काफ़ी शोहरत हासिल कि थी।
सरदार जाफ़री लिखते हैं कि 1942 ई॰ से 1948 ई॰ का ज़माना या’नी जब तक बन्ने भाई बम्बई में रहे तरक़्क़ी-पसन्द अदीबों कि तहरीक का सुनहरा दौर था। सब लोग पार्टी कम्यून में रहते थे और वहीं खाते भी थे। सब की माहाना उजरत सिर्फ़ चालीस रुपए होती थी जिस से वो अपने ज़ाती इख़राजात पूरे करते थे। वहीं से ये सब लोग मज़ामीन लिखते थे और ख़ुद प्रेस ले जाकर छपवाते थे और जब अख़बार छप जाता तो सारी टीम अख़बार फ़रोश बनकर सड़कों पर जा खड़ी होती और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ कर अख़बार बेचा करती थी। पार्टी कम्यून के लागों का इस क़िस्म का इत्तिहाद देखकर लोगों पर गहरा असर पड़ता जिसकी ख़बर पूरे मुल्क में दूर-दूर तक फैल गई। नतीजे के तौर पर जो लोग पार्टी से बा-ज़ाब्ता तौर पर जुड़े हुए नहीं थे उनका भी कम्यून में आना जाना शुरू’ हो गया। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जो उन दिनों फ़ौज में भरती हो गए थे वो भी एक दिन के लिए आए। जोश मलीहाबादी और सुमित्रानन्दन पन्त तो अक्सर आने लगे थे। कुछ अर्से के लिए मजाज़ भी आए और अख़बार में काम भी किया।
वालकेश्वर रोड पर वाक़ेअ सिकरी भवन में तरक़्क़ी-पसन्द अदीबों के हर हफ़्ते जलसे होते थे जिस में नज़्में, कहानियाँ और मज़ामीन पढ़े जाते थे, उन पर तनक़ीद होती थी जिसका ख़ुलासा उर्दू अख़बार में बा-क़ायदगी से शाया होता था। इन हफ़्तावार जलसों की रुदाद को हमीद अख़्तर ने क़लम-बन्द किया है जो ‘रुदाद-ए-अन्जुमन’ के नाम से किताबी सूरत में शाया हुई है।
उस ज़माने में उर्दू के बुलन्द पाया अदीबों ने बम्बई और पूना में रिहाइश इख़्तेयार कर ली थी जो बाक़ायदगी से तहरीक की अदबी महफ़िलों में शरीक होते थे। उनमें कृष्ण चन्द्र, ख़्वाजा अहमद अब्बास, इस्मत चुग़ताई, मजाज़, मजरूह सुल्तान पुरी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, सिब्त-ए-हसन, जोश मलीह आबादी, साग़र निज़ामी वग़ैरह के नाम ख़ास तौर पर काबिल-ए-ज़िक्र हैं। उनके अलावा कुछ और लोग भी अक्सर उन जल्सों में हिस्सा लेते थे मसलन पतरस बुख़ारी और जिगर मुरादाबादी जब बम्बई में होते तो तहरीक के जल्सों में ज़रूर शामिल होते थे। सरदार जाफ़री कहते हैं कि उन दिनों अदबी दुनिया में अन्जुमन तरक़्क़ी-पसन्द मुसन्निफ़ीन का बम्बई में दौर-दौरा था। बन्ने भाई अन्जुमन के जनरल सेक्रेटरी थे और सुल्ताना जो बा’द में सुल्ताना जाफ़री बन गईं। बन्ने भाई की पी. ए. थीं। क़ौमी जंग के एडिटर भी बन्ने भाई ही थे। ये सब लोग दिन भर पार्टी के लिए पार्टी के दफ़्तर में काम करते थे और शाम को फ़ारिग़ होकर फ़न और अदब पर तबादला-ए-ख़्याल करते थे।
कम्यून में काम करने वाले लोगों की एक ख़ास ख़ूबी उनका बेग़रज़ काम करने का जज़्बा था जो दूसरों को बहुत मुतअस्सिर करता था। रिफ़अ’त सरोश कहते हैं कि अक्सर लोग खाते-पीते घरानों के चश्म-ओ-चिराग़ थे मगर बड़े पैमाने पर इन्सानियत की ख़िदमत का जज़्बा और जब्र-ओ-इस्तेहसाल से पाक मुआशरा क़ायम करने की लगन उन्हें हिन्दुस्तान के गोशे-गोशे से उस कम्यून में खींच लाई थी जहाँ एक सख़्त इन्तिज़ाम के तहत राहिबाना ज़िन्दगी गुज़ारते थे। वो लोग सादा खाते थे और इल्मी और सियासी मशाग़िल में ज़िन्दगी गुज़ारते थे। मुल्क और इन्सानियत के बेहतर मुस्तक़बिल के ख़्वाब देखते थे जो उनका वाहिद मक़्सद भी था। उनकी बे-लाग अदायगी-ए-फ़र्ज़ का सुबूत इससे ज़ियादा और क्या हो सकता है कि ‘क़ौमी जंग’ के इदारती अम्ला के लोग ख़ुद सड़क पर जाकर फेरी वालों की तरह आवाज़ लगाकर भिंडी बाज़ार और उसके गिर्द-ओ-नवाह में अपना अख़बार बेचते थे।
बम्बई में जो लोग तरक़्क़ी-पसन्द तहरीक से वाबस्ता थे उन में बन्ने भाई की पोज़िशन वाहिद और मुंफ़रिद थी। उनकी शख़्सियत में एक ख़ास कशिश थी। कहते हैं वो जिस के कंधे पर हाथ रख देते थे वो शख़्स उन्हीं का होकर रह जाता था। अपने कुंबे को छोड़ कर या तो सज्जाद ज़हीर का बन कर रहता था या पार्टी का कुल वक़्त कारकुन बन जाता था।
जिस मकान में बन्ने भाई का क़ियाम था वो वालकेश्वर रोड पर वाक़े था। अगरचे वो उमरा का रिहाइशी इलाक़ा था लेकिन जिस मकान में बन्ने भाई रहते थे वो बहुत पुराना मकान था जिस में कोई फ़र्नीचर नहीं था। सिर्फ़ दो तीन गद्दे, चन्द चादरें, कुछ बर्तन और बान के बने हुए तीन मुंढे थे जिन में एक मुंढा तो मुस्तक़िल तौर पर बन्ने भाई के कमरे में ही रहता था जहाँ वो मुतालअ करते थे। पास ही एक मा’मूली सी मेज़ रखी रहती थी जिस पर उनकी किताबें, काग़ज़ात और लिखने का सामान पड़ा होता था। वो दिन में तक़रीबन तीन घंटे मुतालअ में सर्फ़ करते थे और तीन घंटे लिखने में। उसके अलावा वो पार्टी के दफ़्तर में कोई पाँच घंटे गुज़ारते थे उसी दौरान वो पार्टी के हफ़्तावार अख़बार ‘क़ौमी जंग’ की इदारात कि ज़िम्मेदारी संभालते थे।
बन्ने भाई का रिहाइशी मकान उनके किसी अमीर दोस्त का था जिसने ज़िद कर के बन्ने भाई को वहाँ रहने पर मजबूर किया था। ये बहुत मा’मूली क़िस्म का मकान था मगर बन्ने भाई बिला किसी शिकवे शिकायत के उस में बीवी बच्चों के साथ बहुत आराम से रहते थे। वो उस इमारत के निचले हिस्से में रहते थे। जो फ़्लैट उन्हें मिला हुआ था उसमें दो कमरे थे और एक बावर्ची ख़ाना था। उनमें जो बड़ा कमरा था उसमें एक तख़्त दो तीन पुरानी कुर्सियाँ थीं और एक दरी बिछी रहती थी। दीगर सामान कि वज़ाहत ऊपर दी जा चुकी है। ये बड़ा कमरा सड़क पर खुलता था और हवादार भी था। लेकिन दूसरे कमरे में न हवा का गुज़र था न रौशनी का बल्कि दिन को भी उसमें अंधेरा ही छाया रहता था। ये तारीक कमरा बन्ने भाई उनकी बीवी रज़िया और उनकी दो बच्चियों के सोने का कमरा था। सिब्त-ए-हसन उसी मकान में चन्द हफ़्ते बन्ने भाई के साथ रहे थे। वो कहते हैं कि उस फ़्लैट की एक तरफ़ थोड़ी सी खुली जगह थी जिसके बा’द कुछ कोठड़ियाँ थीं जिनमें यूपी के भैया लोग रहते थे। ये लोग जब रहने के काम से फ़ारिग़ हो कर बैठते तो ढोलक पर बिरहा और भजन गाते या कभी-कभी रामायण की चैपाईयाँ पढ़ते थे और वो समाँ देखने से बनता था। उस वक़्त बन्ने भाई के चेहरे पर एक अजीब सी ख़ुशी दौड़ी हुई दिखाई देती थी। वो सब काम छोड़ कर उनका गाना सुनते थे। अलबत्ता रज़िया वक़्तन-फ़-वक़्तन गायकी से बेज़ार हो जाती थीं।
जैसा कि कहा गया है वो दौर बम्बई में तरक़्क़ी-पसन्द अदब का सुनहरा दौर था। हिन्दुस्तान के माने हुए अदीब बम्बई में इकट्ठे हो गए थे। उन दिनों मराठी और गुजराती तरक़्क़ी-पसन्द अदीबों का मरकज़ भी बम्बई था। उर्दू अदीबों के जलसे आम तौर पर बन्ने भाई के सीकरी भवन वाले फ़्लैट में ही होते थे। मगर कभी कभार ख़्वाजा अहमद अब्बास और कृष्ण चन्द्र के वहाँ भी होते थे। हाँ अगर कोई अदीब कोई नज़्म, कहानी, ड्रामा या मज़्मून लिख कर लाता और पढ़ कर सुनाता तो उस पर बहस होती थी लेकिन उसकी कोई रिपोर्ट पेश नहीं की जाती थी। बा’द में जब कुछ नए अदीब जैसे हमीद अख़्तर, साहिर लुधियानवी, हाजरा मसरूर, ख़दीजा मसरूर वग़ैरह बम्बई आ गए तो उन जल्सों कि बाक़ायदा रुदाद हर हफ़्ते लिखी जाने लगी जो क़ुद्दूस सहबाई के हफ़्ता-वारा अख़बार ‘निज़ाम’ में शाया होती थी।
सज्जाद ज़हीर ने ख़ास अपने नज़रिए से तरक़्क़ी-पसन्द तहरीक कि बम्बई में तरवीज की वज्ह बयान की है। उन्होंने अपनी किताब “रोशनाई” में लिखा है कि बम्बई की अन्जुमन के आम जलसों में मुख़्तलिफ़ ज़बानें बोलने और लिखने वाले अदीब शामिल होते थे। लेकिन ज़ियादा तर हाज़रीन जो महज़ उर्दू ही जानते थे उन ज़बानों में लिखी हुई चीज़ों पर बहस में हिस्सा नहीं ले पाते थे। इसलिए जब उर्दू अदीबों का काफ़ी बड़ा गिरोह बम्बई में इक्ट्ठा हो गया तो ये बेहतर समझा गया कि हर ज़बान के अलग-अलग जल्से हों। लिहाज़ा उर्दू, हिन्दी और गुजराती के अदीब अपने-अपने अलाहिदा जल्से करने लगे। लेकिन उन सब ज़बानों में अन्जुमन के उर्दू-दान अदीबों ने पाँच आदमियों की एक कमेटी बना ली थी जिस के कन्वेनर हमीद अख़्तर थे। उन दिनों हमीद अख़्तर और साहिर लुधयानवी यक जान दो क़ालिब के मुतरादिफ़ रहते थे और एेसा कम इत्तेफ़ाक़ होता था कि हमीद अख़्तर या साहिर से कोई अलाहिदा मिल सके। बन्ने भाई कहते थे कि दो मुतवाज़ी ख़ुतूत की तरह ये दोनों हमेशा एक साथ दिखाई देते थे।
बन्ने भाई ने भी इस बात की ताईद की है कि बम्बई अन्जुमन के जल्से उनके ही फ़्लैट के एक बड़े कमरे में होते थे। जिसमें तीस चालीस आदमी सिमट-सिमटा कर फ़र्श पर बैठ सकते थे। हमीद अख़्तर हर जलसे के रोज़ आधा घंटा पहले ही पहुँच जाते थे और बन्ने भाई के बिस्तरों पर से गद्दे और चादरें उठा कर कमरे के फ़र्श पर बिछा देते थे और फिर रज़िया के साथ मुअज़्ज़िज़ हाज़िरीन का इस्तक़बाल करने के लिए तय्यार हो जाते थे। लेकिन रज़िया को ये शिकायत रहती थी कि तरक़्क़ी-पसन्द मुसन्निफ़ीन अपने सिगरेट की राख और उनके टुकड़े इधर-उधर फेंक देते थे और चादरों और तकियों को काफ़ी गन्दा कर देते थे। आख़िर ये फ़ैसला हुआ कि जलसे के इख़्तेताम पर सफ़ाई का काम हमीद अख़्तर ख़ुद करेंगे। उन हफ़्तावारी जलसों में दस-पन्द्रह आदमियों से तीस चालीस तक की हाज़िरी होती थी। कई बार एेसा हुआ कि जल्से में हाज़िरी सिर्फ़ पाँच आदमियों पर ही मुश्तमिल थी जिन में बन्ने भाई और हमीद अख़्तर के अलावा एक आध मज़्मून-निगार और उसका कोई साथी होता था।
उन जल्सों में जो चीज़ें पढ़ी जाती थीं वो निहायत अदबी नोइ’य्यत की होती थी। जोश मलीहाबादी कि चन्द बेहतरीन क़िस्म की नज़्में उन्हीं जल्सों में सुनी गई थीं। अगर किसी से मुहावरे, तलफ़्फ़ुज़ या ज़ेर ज़बर की भी ग़लती सरज़द हो जाती तो जोश साहब बिफर जाते थे। वो अदीबों को ज़बान के क़वाइद-ओ-ज़वाबित पर सख़्ती से कारबन्द रहने की तलक़ीन करते थे जो तरक़्क़ी-पसन्द मुसन्निफ़ीन के हक़ में बहुत मुफ़ीद साबित होती थी। लेकिन ज़ियादा-तर अदीबों को जोश साहब की तन्क़ीद में क़दामत-परस्ती का रंग नज़र आता था।
ज़॰ अंसारी के बारे में बन्ने कहते थे कि उन जल्सों में पढ़े जाने वाले कलाम पर वो तन्क़ीद किए बग़ैर नहीं रह सकते थे चाहे कुछ अदीबों को बुरा क्यों न महसूस हो। चुनाँचे जोश मलीहाबादी हों या कृष्ण चन्द्र, कैफ़ी आज़मी, मजाज़ या मजरूह ग़र्ज़ कि कोई भी हो ज़॰ अंसारी पर कोई न कोई एतराज़ कर ही देते थे। सरदार जाफ़री आम तौर पर ज़॰ अंसारी के नुक़्ता-ए-नज़र से इख़्तिलाफ़ रखते थे। इसलिए ज़॰ अंसारी के बा’द सरदार जाफ़री अपने इख़्तिलाफ़ात का इज़हार करते और फिर एक तवील मुबाहिसा शुरू’ हो जाता। लेकिन कई अदीब इस तन्क़ीदी बहस में बिल्कुल हिस्सा नहीं लेते थे और अपनी तख़्लीक़ पर एतराज़ात को ब-ख़ुशी क़ुबूल करते थे। एेसे अदीबों में कृष्ण चन्द्र पेश-पेश रहते थे और अपने अफ़साने पर नुक्ता-चीनियों को इस तरह क़ुबूल करते जैसे मोअतरिज़ीन उन पर एहसान कर रहे हों।
तरक़्क़ी-पसन्द मुसन्निफ़ीन के जलसों की रुदाद बड़ी तफ़्सील और ख़ूबी से हमीद अख़्तर ही क़लम-बन्द करते थे। हर जल्से में वो सब से पहले पिछले जल्से की रुदाद पढ़ते थे। चूँकि वो उन जलसों के सेक्रेट्री थे इसलिए ये ज़िम्मेदारी उनके सुपुर्द थी। इन रिर्पाटों में हमीद अख़्तर एक अदबी रंग भर देते थे जिस से वो बहुत दिलचस्प बन जाती थीं। क़ुद्दूस सहबाई का हफ़्ता-वार अख़बार ‘निज़ाम’ जिसमें तफ़सीली रुदादें शाया होती थीं एक बहुत मा’मूली क़िस्म का तिजारती अख़बार था लेकिन इन रिर्पाटों की वज्ह से उर्दू का सब से अच्छा हफ़्ता-वार माना जाने लगा। उनका मिनजुम्ला नतीजा ये रहा कि उस दौर में क़ाबिल-ए-तवज्जोह और अच्छे अदब की तख़्लीक़ हुई जिसकी चन्द मिसालें हैं कि कृष्ण चन्द्र की अफ़्साना-निगारी उरूज को पहुँची। उनके अफ़साने ‘अन्न&दाता’ ने उन्हें एक मुम्ताज़ अफ़्साना-निगार बना दिया। ख़्वाजा अहमद अब्बास ने भी चन्द ऐसे अफ़साने लिखे जिन में “ज़ाफ़रान के फूल” और “अजन्ता” ख़ास तौर पर क़ाबिले-ए-ज़िक्र हैं। इस्मत चुग़ताई का पहला नाविल “टेढ़ी लकीर” भी उसी ज़माने में लिखा गया। उसी ज़माने में साहिर की “तल्ख़ियाँ” और सरदार जाफ़री के कलाम का मजमूआ “परवाज़” भी शाया हुआ। ये उन दोनों के कलाम के सब से पहले मज्मूए’ हैं। जोश मलीहाबादी के कलाम का मजमूआ’ “रामिश-ओ-रंग” और फ़िराक़ गोरख़पूरी के नज़्म-ओ-नस्र के पहले मज्मूए भी उसी दौर में शाया हुए थे।
जूँ-जूँ वक़्त गुज़रता गया। अन्जुमन तरक़्क़ी पसन्द मुसन्निफ़ीन-ए-मुम्बई की शोहरत हिन्दुस्तान के कोने-कोने तक पहुँचने लगी और तरक़्क़ी-पसन्द अदीबों की अन्जुमन जगह-जगह से बम्बई की अन्जुमन से राब्ता क़ायम रखने लगी। जहाँ कहीं भी कॉन्फ़्रेंस होती थी उसका दा’वत-नामा बम्बई के लिए ज़रूर भेजा जाता था। 1997 ई॰ में एक ऐसी ही कॉन्फ़्रेंस रायपुर में मुनअक़िद हुई जिसका दा’वत-नामा वहाँ के नौजवान तरक़्क़ी-पसन्द हामिद अज़ीज़ मदनी ने भेजा था। बम्बई से उस कॉन्फ़्रेंस में सरदार जाफ़री, कुद्दूस सहबाई, साहिर लुधियानवी, ज़॰ अंसारी और रिफ़अत सरोश ने शिरकत की थी।
जब तक बन्ने भाई बम्बई में रहे बम्बई के तरक़्क़ी-पसन्द मुसन्निफ़ीन कि अन्जुमन की मक़बूलियत पूरे हिन्दुस्तान में फैल गई थी। इस कामयाबी की एक अहम वज्ह बन्ने भाई की ज़ाती शख़्सियत भी थी, उनकी फ़ितरत में ज़ाती मुफ़ाद का शायबा तक नहीं था। वो हर शख़्स से मोहब्बत करते थे। और हर शख़्स उनमें अपनाइयत महसूस करता था। हमीद अख़्तर का बन्ने भाई से बम्बई में काफ़ी अर्से तक साथ रहा। वो उनकी ज़िन्दगी से वाबस्ता ख़ुसूसियात को बयान करते वक़्त कहते हैं कि अपनी पाँच साला रिफ़ाक़त में उन्होंने बन्ने भाई को कभी ऊँचा बोलते हुए नहीं सुना। उन्होंने दूसरों पर अपनी मर्ज़ी मुसल्लत करने की कभी कोशिश नहीं की। हमीद अख़्तर लिखते हैं कि जिस जगह वो नौकरी करते थे किसी वज्ह उस कंपनी के मालिक से उनका इख़्तिलाफ़ हो गया और वो कम्पनी का दिया हुआ कमरा छोड़ कर अंधेरी में किसी दोस्त के तंग-ओ-तारीक कमरे में पड़े रहे। जब इस बात का बन्ने भाई को पता चला तो वो हमीद अख़्तर को अपने घर ले गए और उनकी ख़ूब तीमारदारी की। अपने बम्बई में क़याम का आख़िरी साल हमीद अख़्तर ने बन्ने भाई के घर में ही गुज़ारा।
तरक़्क़ी पसन्द तहरीक के ता’ल्लुक़ से हैदराबाद की कॉन्फ़्रेंस काफ़ी अहमियत की हामिल है। इसी कॉन्फ़्रेंस में शौकत ख़ानम कैफ़ी आज़मी पर आशिक़ हो गईं। चन्द रोज़ मुआश्क़े के बा’द कैफ़ी से शादी पर ब-ज़िद हो गईं। शौकत एक ख़ुशहाल घराने से ता’ल्लुक़ रखती थीं और कैफ़ी सिर्फ़ कम्युनिस्ट पार्टी के कुल वक़्ती रुक्न थे जहाँ से उन्हें चालीस रुपए माहाना मिलते थे। जिस में तीस रुपए खाने के कट जाते थे। रहने का कोई ठिकाना नहीं था। कम्यून में सब के साथ रहते थे। अपने बर्तन ख़ुद धोते थे और कपड़े वग़ैरह भी ख़ुद ही साफ़ करते थे। लाज़मी था कि शौकत कि ऐसे शख़्स की शादी पर उसके घर वाले रज़ामन्द न होते। इसलिए शौकत के वालिद उसे अपने साथ बम्बई ले आए जहाँ उसने कैफ़ी की हालत ख़ुद अपनी आँखों से देखी। उसके बा’द शौकत के वालिद ने शौकत से पूछा कि क्या अब भी वो कैफ़ी से शादी करना चाहेंगी। शौकत ने कहा कैफ़ी उसे जिस हाल में भी रखेंगे वो शादी उन्हीं से करेंगी। कैफ़ी कि तरफ़ से बन्ने भाई ने ही गुफ़्त-ओ-शनीद की और आख़िर ये तय हुआ कि दानों की शादी बन्ने भाई के घर पर ही होगी। निकाह के वकील ज़ेड. ए. बुख़ारी मुक़र्रर हुए। हमीद अख़्तर गवाह बने। भिंडी बाज़ार से ब-मुश्किल तमाम एक क़ाज़ी को पकड़ लाया गया और इस तरह शादी तकमील तक पहुँची। बा’द में जब कैफ़ी को फ़िल्मों में काम मिलने लगा तो उनके पास दौलत की इफ़रात हो गई मगर शादी के वक़्त कैफ़ी के पास अपना कहने लायक़ सिवाय शाइ’री के कोई असासा नहीं था।
आज़ादी के बा’द भी जब तक बन्ने भाई बम्बई में रहे तरक़्क़ी-पसन्द मुसन्निफ़ीन के जलसे उनके ही घर पर होते थे। जब बन्ने भाई बम्बई से पाकिस्तान रवाना हो गए तो उनके बा’द कुछ अर्से सरदार जाफ़री और कैफ़ी उनके घर पर रहते रहे और वहीं नशिस्तें करते थे। मुल्क के बटवारे से अदीबों में काफ़ी अदला-बदली हुई। साहिर, हमीद अख़्तर और इब्राहीम जलीस तो पाकिस्तान चले गए थे लेकिन पंजाब से कई अदीब आ गए थे। जिससे बम्बई की अदबी फ़िज़ा में काफ़ी गहमा-गहमी पैदा हो गई थी। उनमें एक रामानन्द सागर थे जिन्होंने “और इन्सान मर गया” नाविल लिखा था जिस की कई क़िस्तें उन्होंने अन्जुमन के जल्सों में पढ़ीं। और भी कई एेसे अदीब बम्बई में आए थे।
बम्बई का एक निहायत ख़ुशगवार वाक़्या 30 जनवरी 1948 ई॰ को अमल में आया क्योंकि इस रोज़ अली सरदार जाफ़री और सुल्ताना बेगम की शादी की तक़रीब थी। ये शादी बम्बई के रेड फ्लैग हॉल में हुई थी जिसमें पार्टी के अराकीन और तरक़्क़ी-पसन्द अदीब भारी ता’दाद में शामिल हुए थे। और लोगों के अलावा कैफ़ी ने एक मुख़्तसर मगर ख़ूबसूरत तक़रीर की जिस में कहा गया कि मैंने सरदार जाफ़री से बहुत कुछ सीखा है मगर शादी करना उन्होंने मुझसे सीखा है। इसी शाम गोडसे ने महात्मा गाँधी को गोली मारकर उनका ख़ून कर दिया था जिससे शह्र में दफ़ा 44 लागू हो गया और बसों और ट्रामों की आमद-ओ-रफ़्त बन्द कर दी गई। बेचारे नए जोड़े को रेड फ़्लैग हॉल से घर तक का सफ़र सुनसान सड़कों पर पैदल ही तय करना पड़ा।
बन्ने भाई के चले जाने के बा’द अन्जुमन कि सर-बराही की ज़िम्मेदारी अली सरदार जाफ़री को सौंपी गई। बन्ने भाई अपने ज़ाती मुफ़ाद कि कभी परवाह नहीं करते थे और वो सिर्फ़ अदीबों और मुआशरे की भलाई और बहबूदी के लिए ही काम करते थे। लेकिन सरदार जाफ़री की शख़्सियत क़दरे मुख़्तलिफ़ थी। रिफ़अत सरोश लिखते हैं कि अगरचे सरदार जाफ़री तरक़्क़ी-पसन्द तहरीक के बेहतरीन नुमाइन्दा थे। लेकिन वो ब-हैसियत शाइ’र अपना सिक्का मनवाने में कोशाँ रहते थे। उन्होंने बन्ने भाई के मकान 94 वालकेश्वर रोड को ख़ैरबाद कह दिया। उसके बा’द कुछ अर्से अन्जुमन के जल्से देवधर स्कूल ऑफ़ म्यूज़िक और पीरा हाऊस में होने लगे थे। अक्सर जलसों में हुकूमत की तन्क़ीद में तक़रीरें की जाती थीं और नज़्म-ओ-नस्र में हुकूमत के ख़िलाफ़ शरर-अंगेज़ ख़्यालात की वज़ाहत होती थी इसलिए हुकूमत ने भी एक कड़ा रवय्या इख़्तेयार कर लिया। यहाँ तक कि एक जलसे में लाउड-स्पीकर के अवक़ात की ख़िलाफ़-वर्ज़ी के जुर्म में नियाज़ हैदर और मजरूह सुल्तानपुरी की गिरफ़्तारी का हुक्म जारी किया गया। नियाज़ हैदर तो फ़ौरन पकड़े गए मगर मजरूह काफ़ी अर्से तक रू-पोश रहे। आख़िर एक शाम मस्तान तालाब में मुशाइ’रा हुआ जिस में मजरूह भी शरीक हुए और मुशाइ’रे के इख़्तेताम पर गिरफ़्तार कर लिए गए। कुछ अर्से बा’द बलराज साहनी और ज़॰ अंसारी भी गिरफ़्तार हुए मगर थोड़े दिनों बा’द ही रिहा हो गए।
देवधर हॉल के अलावा अन्जुमन कि कुछ नशिस्तें कोठारी फ़ैशन में भी हुईं जिन्हें यादगार नशिस्तें माना जाता है। एेसी ही एक मीटिंग का ज़िक्र रिफ़अत सरोश ने बड़े दिलचस्प अन्दाज़ में किया है। वो लिखते हैं कि साहिर और कैफ़ी में बहुत पुरानी दोस्ती थी। लेकिन दोनों में अचानक किसी बात पर इख़्तेलाफ़ पैदा हो गया। नतीजा ये हुआ कि साहिर ने निजी महफ़िलों और अन्जुमन के जलसों में कैफ़ी की बुराई करनी शुरू’ कर दी। एक जल्से में साहिर ने एक मज़्मून पढ़ा जिसमें कैफ़ी की शाइ’री के मआइब को बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया था। इस मज़्मून का मरकज़ी मुद्दा ये था कि अव्वल तो कैफ़ी शाइ’र ही नहीं और है तो घटिया दर्जे का शाइ’र है, इस ज़ोरदार मज़्मून ने साहिर को अपने मक़सद में कामयाब कर दिया। इस रवैय्ए से सरदार जाफ़री जो कैफ़ी के दोस्त थे बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने अन्जुमन की अगली मीटिंग में साहिर की शाइ’री के मुता’ल्लिक़ एक जवाबी मज़्मून पढ़ा जिसमें सरदार जाफ़री ने साहिर की मक़बूल नज़्म ‘ताज महल’ पर सख़्त तनक़ीद की और कहा इस नज़्म में हिन्दुस्तान की तहज़ीब और उसकी अज़्मत का मज़ाक़ उड़ाया गया है। जब मज़्मून ख़त्म हुआ तो साहिर पूरे इत्मीनान से अपनी जगह से उठे और खड़े होकर कहा “इस मज़्मून से आप ये साबित कर सकते हैं कि साहिर लुधियानवी घटिया शाइ’र है मगर इससे ये कहाँ साबित होता है कि कैफ़ी आज़मी अच्छा शाइ’र है” इस जुमले से साहिर ने सरदार जाफ़री की तक़रीर का असर ज़ाइल कर दिया और सरदार अपना सा मुंह लेकर रह गए।
बन्ने भाई की सरबराही के वक़्त बम्बई तरक़्क़ी-पसन्द अदीबों और शाइ’रों का सिफ़-ए-अव्वल का मरकज़ था मगर जब बा’द में अदीबों ने एक दूसरे कि टाँग खींचनी शुरू’ कर दी तो उनकी चश्मकों से अन्जुमन की तहरीक को बहुत नुक़सान पहुँचाया और अवाम में उसकी वुक़अत और मक़बूलियत कम होने लगी। रिफ़अत सरोश इस बारे में लिखते हैं कि मुख़्तलिफ़ अदीबों की शऊरी हम-आहंगी से अन्जुमन को फ़रोग़ हासिल हुआ था मगर अब उसके फ़ुक़दान से अन्जुमन तरक़्क़ी पसन्द मुसन्निफ़ीन का शिराज़ा बिखरने लगा। एक ज़माने में मुल्क के मायानाज़ अदीबों ने अपनी बे-लाग काविश से अन्जुमन को अदब में एक मुंफ़रिद रूत्बा दिलवाया था अब इस अन्जुमन में इन्तेशार पैदा हो गया। अदीबों ने अपने-अपने रास्ते अलग इख़्तेयार कर लिए थे। लिहाज़ा किसी ने फ़िल्मों में अपना करियर तलाश किया और कोई ग़ैर ममालिक जैसे रूस और चीन कि तरफ़ रूख़ कर गए। लागों में ये एहसास पैदा हो गया था कि अदब में जमूद आ गया है या’नी अदब की तख़्लीक़ की रफ़्तार रुक गई है।
सन 1950 ई॰ के आस पास या’नी बन्ने भाई की बम्बई से रुख़्सत के तक़रीबन दो साल बा’द ही तरक़्क़ी-पसन्द तहरीक का ये हाल होने लगा था कि उसके जल्सों में गिने-चुने दो-चार अदीब ही शामिल होते थे जो आपस में ही एक दूसरे के कलाम पर वाह-वाह करते थे। सरदार जाफ़री, कृष्ण चन्द्र के अफ़साने सुन कर उनकी दिल खोल कर ता’रीफ़ करते थे और जिन्हें वो ना-पसन्द करते थे उनके कलाम के बा’द या तो ख़ामोशी इख़्तेयार कर ली जाती थी या उसमें इस हद तक ऐब निकाले जाते थे कि वो लिखना ही छोड़ दे। फ़िराक़ गोरखपुरी और सरदार जाफ़री की आपसी तकरार इस बात का सुबूत है। फ़िराक़ साहब ने अमरद परस्ती पर एक मज़मून किसी जलसे में पढ़ा था जिसकी सरदार जाफ़री ने धज्जियाँ उड़ाइ थीं। उनके भी ज़ाती झगड़े ने अन्जुमन तरक़्क़ी-पसन्द मुसन्निफ़ीन को बहुत नुक़सान पहुँचाया। और रफ़्ता-रफ़्ता अन्जुमन कमज़ोर पड़ती गई और अब ये हालत है कि अन्जुमन तो अब क़ायम है मगर नाम-निहाद सी है। न कहीं जलसे होते हैं न कहीं कोई ख़ास-तौर पर तरक़्क़ी पसन्द अदब अपना कारनामा मुरत्तब करता है।
तरक़्क़ी पसन्द तहरीक और कम्युनिस्ट पार्टी से राब्ते कि वज्ह से सज्जाद ज़हीर को बहुत सी अज़िय्यतें बर्दाश्त करनी पड़ीं। हुकूमत-ए-बर्तानिया के ख़िलाफ़ शरर-अंगेज़ तक़ारीर करने कि वज्ह से उन्हें तक़रीबन दो साल के लिए लखनऊ सेन्ट्रल जेल में नज़रबन्द रहना पड़ा। इस दौरान उन्होंने जो ख़ुतूत अपनी अह्लिया रज़िया सज्जाद ज़हीर को लिखे वो किताबी सूरत में ‘नुक़ूश-ए-ज़िन्दाँ’ के उनवान से शाया हो चुके हैं। इन ख़ुतूत में सज्जाद ज़हीर ने अपनी बीवी के तईं बे-इन्तेहा मोहब्बत का इज़हार किया है। अलावा अज़ीं कहीं-कहीं जेल के हालात का ज़िक्र भी मिलता है। उन ख़ुतूत से ये बात साफ़ जान पड़ती है कि इस दो साल कि असीरी के दौरान उन्हें किसी ख़ास दुश्वारी या ज़हमत का सामना नहीं करना पड़ा। इसकि एक वज़ह तो ये थी कि वो सर्वज़ीर हसन के साहबज़ादे थे और सर्वज़ीर हसन उस वक़्त के बहुत मश्हूर और नामवर हस्तियों में गिने जाते थे। इस वज्ह से हुकूमत-ए-वक़्त सज्जाद ज़हीर के साथ कोई ज़्यादती या बदसुलूकी नहीं करना चाहती थी। दूसरी वज्ह ये भी कि ब-ज़ात-ए-ख़ुद सज्जाद ज़हीर कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े मक़बूल और हरदिल अज़ीज़ कुल वक़्ती रुक्न थे। इन वुजूहात से सज्जाद ज़हीर और उनके दीगर साथी क़ैदियों को वो तमाम सहूलियात मयस्सर थीं जो उन्हें दरकार थीं। वो अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से बाक़ायदा ख़त-ओ-किताबत कर सकते थे। खाने-पीने कि अशिया-ओ-दीगर अशिया-ए-ज़रूरी वो घर से तलब कर सकते थे।
सज्जाद ज़हीर 12 मार्च 1940 को गिरफ़्तार हुए थे। उस वक़्त घर में सिर्फ़ उनकी वालिदा मौजूद थीं जो उस वक़्त यूपी असेम्बली कि मेम्बर थीं और सियासी हल्क़ों में उनका काफ़ी दबदबा था। सज्जाद ज़हीर अपने एक मज़मून ‘सरगुज़िश्त’ में लिखते हैं कि उनकी गिरफ़्तरी के वारन्ट देखकर वो बहुत परेशान हुईं और अंग्रेज़ी अफ़्सर जो वारन्ट ले कर आया था उसे बहुत बुरा भला कहा। लेकिन अपना सब्र-ओ-तहम्मुल बरक़रार रखा। कहते हैं कि चलते वक़्त माँ ने उनके हाथ में एक सुर्ख़ गुलाब का फूल दिया और उन्हें ये देख कर बेहद ख़ुशी हुई कि जब वो माँ से गले मिल कर रुख़्सत होने लगे तो रो धो नहीं रहीं थीं हालाँकि उनके चेहरे से बहुत ग़ुस्सा टपक रहा था। ये सज्जाद ज़हीर कि तक़रीबन पहली असीरी थी। उससे पहले वो एक दो बार जेल जा चुके थे मगर वो बहुत मख़सूस अर्से कि नज़रबन्दी थी।
लखनऊ सेन्ट्रल जेल से पहला ख़त उन्होंने रज़िया को लिखा जो 16 मार्च 1940 ई॰ का है और आख़िरी ख़त 8 मार्च 1942 का है जो किंग जॉर्ज अस्पताल से लिखा हुआ है। इसके फ़ौरन बा’द या’नी 14 मार्च 1942 को उन्हें ग़ैर-मशरूती तौर पर रिहा कर दिया गया।
अपने तमाम ख़तों में वो ज़ाती तन्हाई से बहुत माज़ूर थे। वो अपनी बीवी के फ़िराक़ से बे इन्तेहा परेशान थे। सज्जाद ज़हीर ही क्या जेल में हर क़ैदी अपनी तन्हाई से परेशान रहता है। हर क़ैदी को उम्मीद लगी रहती है कि कोई मुलाक़ाती आ जाए ताकि चन्द लम्हे के लिए ही सही लेकिन तन्हाई कि कोफ़्त से राहत मिले।
असीरी से इन्सान में कई तरह के ज़ेह्नी तब्दीलियाँ पैदा होने लगती हैं जिन से एक ये भी है कि उनके मुशाहदे और एहसास कि क़ुव्वत में इज़ाफ़ा हो जाता है। वो अपनी क़ैद की कोठरी का अन्दर और बाहर से बहुत क़रीबी मुशाहिदा करता है और उसे हर वो चीज़ अहम लगने लगती है जिसे वो जेल के बाहर हमेशा नज़र-अन्दाज़ कर देता था जैसे कि अपने साथी क़ैदियों की बेमाना छोटी-छोटी बातें, मुस्कुराहट ये बेचैनी वग़ैरह। उनके एक ख़त में ज़ेल का इन्दराज इस बात की गवाही देता है,
“बहुत से लाेगों की दोस्ती और मोहब्बत, तमाम बहारें, सब बरसातें, सुब्हें और शामें, ग़ुरूब-ए-आफ़ताब और तुलुअ-ए-माहताब, अल्फ़ाज़, अम्वात, रंग-ओ-बू का हुस्न, लुत्फ़-ओ-इंबिसात की बे-अन्त वारदातें, उन सब से जेल की बे-रौनक़ी में दिल पर एेसी हसरत तारी होती है जिस से हम पहले आशना नहीं थे। जेल-ख़ाने की दुनिया बाक़ी दुनिया से अलग-थलग एक दुनिया है।”
इसमें कोई शक नहीं कि जेल की ज़िन्दगी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से बिल्कुल अलग थी, फिर भी सज्जाद ज़हीर ने अपने आपको उस नए माहौल में ढाल लिया था और अदबी तख़्लीक़ात में मसरूफ़ हो गए थे। फिर भी जो बात दिल ही दिल में उन्हें खाए जा रही थी वो ये कि रज़िया तन-ए-तन्हा घर और बच्चों की ज़िम्मेदारियों को निभाने में लगी हुइ थीं जिस से उन्हें बहुत कोफ़्त हो रही थी। रज़िया उन दिनों पेट से थीं और एम. ए. की ता’लीम भी हासिल कर रही थीं। इस लिहाज़ से सज्जाद ज़हीर महसूस करते थे कि वो रज़िया के लिए कितनी परेशानियों की वज्ह बन गए हैं।
जेल में बन्ने भाई ने अदब का दामन हाथ से जाने नहीं दिया। किताबें पढ़ने का नश्शा जेल में भी उन पर तारी रहा। जब भी कोई किताब मँगवाने का मौक़ा मिलता वो उसे हाथ से जाने नहीं देते थे। जब भी कोई अच्छी किताब शाया होती जो वो ज़रूर उसे तलब करते थे। ख़ुद ही रज़िया को लिखते हैं कि एक बहुत ही अच्छी किताब Social Funcation of Science हाल ही में ख़त्म की है। अलावा अज़ीं उसके फ़लसफ़े पर भी उन्होंने कई किताबें पढ़ीं और रज़िया को लिखा कि अगर काफ़ी किताबें दस्तयाब हो गईं तो फ़लसफ़ा-ए-माद्दियत इरतेक़ाबुल ज़दीं पर कुछ लिखेंगे। एक और ख़त में रज़िया को लिखा कि तारीख़ की कोई एक किताब ख़त्म की है और उसके साथ दो और किताबें भी पढ़ रहा हूँ। बिला शुबा जेल में भी उनका मुतालअ कुतुब-बीनी का मश्ग़ला बरक़रार था।
कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया की एक कॉन्फ़्रेंस फरवरी 1948 ई॰ में कलकत्ता में हुई थी। इसी कॉन्फ़्रेंस में ये फ़ैसला हुआ था कि पाकिस्तान में पार्टी की एक अलाहदा तन्ज़ीम बनाई जाए और इस नई पार्टी या’नी कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ पाकिस्तान के जनरल सेक्रेट्री सज्जाद ज़हीर ही हों। चुनाँचे पार्टी के हुक्म से और अपनी नई ज़िम्मेदारियाँ निभाने के वास्ते वो अप्रैल 1948 ई॰ में पाकिस्तान चले गए। इन दिनों चूँकि कम्यूनिस्ट पार्टी पर पाकिस्तान में पाबन्दी थी इसलिए उन्हें रू-पोशी की हालत में ही अपना काम अन्जाम देना पड़ रहा था। इस वज्ह से वो पार्टी कारकुनों से राब्ता क़ायम करने में मुश्किलात का सामना कर रहे थे। लेकिन हमीद अख़्तर लिखते हैं कि 1948 ई॰ के अवाइल से ले कर जब सज्जाद ज़हीर पाकिस्तान आए और 1951 ई॰ जब वो रावलपिन्डी साज़िश केस में गिरफ़्तार हुए वो तमाम ज़माना कम्यूनिस्ट पार्टी और उसके ज़ेर-ए-असर काम करने वाली तन्ज़ीमों के लिए इन्तेहाई फ़आल ज़माना था और ये सज्जाद ज़हीर की सलाहियतों का ही ए’जाज़ था कि तमाम तर जब्र और मुश्किलात के बावजूद पाकिस्तान के मेहनत-कश ख़ैबर से ले कर कराची तक कम्यूनिस्ट पार्टी के परचम तले जमा थे।
हिन्दुस्तान के बर-ख़िलाफ़ कश्मीर मुहिम में मेजर जनरल अकबर ख़ान जंग-बंदी के हक़ में नहीं थे। उनका ख़्याल था कि जब पाकिस्तानी फ़ौजें फ़त्ह के बिल्कुल क़रीब पहुँच चुकी थीं तो वज़ीर-ए-आज़म लियाक़त अली ख़ान ने अमरीकी दबाव में आकर जंग बंदी का ऐलान करके पाकिस्तानी फ़ौजों के फ़त्ह-याबी मंसूबों पर पानी फेर दिया। इस वज्ह से मेजर जनरल अकबर ख़ान सख़्त नाराज़ थे और हुकूमत का तख़्ता उलटने की कोशिश में लगे हुए थे। इस ग़र्ज़ से 23 फरवरी 1951 ई॰ में उन्होंने अपनी रिहाइश-गाह पर एक मीटिंग मुनअ’क़िद की जिसमें हुकूमत का तख़्ता उलटने पर ग़ौर किया गया। इस मीटिंग का ऐ’तिराफ़ ख़ुद अकबर ख़ान ने भी किया है अगरचे इसका मक़्सद अलग बताया है। इस इज्लास का राज़ फ़ाश हो गया और इस साज़िश से मलूस कोई पन्द्रह अश्ख़ास की गिरफ़्तारी अमल में लाई गई जिन में ग्यारह फ़ौजी अफ़सर थे और चार ग़ैर-फ़ौजी थे। इस मुक़दमे के लिए एक अलाहदा क़ानून मुरत्तब किया गया जिसका नाम Rawalpindi Conspiracy Case (Special Act 1951 Tribunal) रखा गया। इस ख़ास ट्रिब्यूनल के तीन मेम्बर मुक़र्रर हुए जिनके नाम ज़ैल दर्ज हैं,
1. सदरः फ़ेडरल कोर्ट के जस्टिस अब्दुर्रहमान
2. मेम्बरः पंजाब हाई कोर्ट के जस्टिस मोहम्मद शरीफ़
3. मेम्बरः ढाका हाई कोर्ट के जस्टिस अमीरुद्दीन
चूँकि सज्जाद ज़हीर इस साज़िश में मुलव्विस माने गए थे इसलिए वो भी अप्रैल 1951 ई॰ को गिरफ़्तार कर लिए गए। ये उनकी दूसरी तवील असीरी थी। रावलपिंडी साज़िश की मीटिंग में ग्यारह लागों ने हिस्सा लिया था जिन में आठ फ़ौजी अफ़्सरों के अलावा तीन सुलीन भी थे। जिनमें सज्जाद ज़हीर का नाम भी शामिल था। बा’द में बेगम अकबर ख़ान को भी शामिल कर लिया गया। सज्जाद ज़हीर कुछ अर्से लाहौर सेन्ट्रल जेल में रहे। बा’द अज़ाँ सिन्ध (हैदराबाद) जेल मुन्तक़िल कर दिए गए जहाँ दीगर साज़िशियों के साथ उन पर भी मुक़द्दमा चलाया गया। ये मुक़द्दमा तक़रीबन पौने दो साल तक चला। आख़िर 5 जनवरी 1953 ई॰ को इस मुक़दमे का फ़ैसला सुनाया गया जिसके मुताबिक़ सिवाय बेगम नसीम अकबर ख़ान के सब को मुजरिम क़रार दिया गया और उन्हें सज़ाएँ दी गईं। सज्जाद ज़हीर को चार साल क़ैद-ए-बा-मशक़्क़त और 500 रुपए जुर्माना की सज़ा मिली। मुक़द्दमा के फ़ैसले के बा’द मुजरिमों को हैदराबाद जेल और दीगर कई जेलों में मुंतक़िल कर दिया गया। सज्जाद ज़हीर के हिस्से में मच्छ जेल (ब्लोचिस्तान) आई। कर्नल मिर्ज़ा हसन ख़ान जो उस साज़िश में शरीक थे और उन्हें ट्रिब्युनल ने सज़ा भी दी थी लिखते हैं कि बद-क़िस्मत सज्जाद ज़हीर तन-ए-तन्हा मच्छ जेल भेज दिए गए जो अपनी तनहाई, उदासी और वीरानी के लिए ख़ास-तौर पर मश्हूर है। कहते हैं कि पाकिस्तान में अगर हुकूमत को किसी को ख़ास अज़िय्यतें पहुँचाना चाहती तो उसे मच्छ जेल भेज देती थी। सज्जाद ज़हीर को भी मच्छ जेल भेजने के पीछे शायद यही मक़्सद रहा होगा।
मच्छ जेल से सज्जाद ज़हीर ने ज़ियादा ख़त-ओ-किताबत नहीं की थी। दीगर भी किसी ज़राय से इस जेल के हालात के बारे में किसी को कोई ख़ातिर-ख़्वाह मा’लूमात हासिल नहीं है। लेकिन ख़्याल किया जाता है कि उन्हें वहाँ कोई ना-क़ाबिले-ए-बर्दाश्त अज़िय्यत नहीं पहुँचाइ गई थी इसलिए वो अपना ज़ियादा वक़्त अदबी मुतालअ’ और तख़्लीक़ात में सर्फ़ करते थे। मच्छ जेल से उन्होंने दो मुहर्रिकतुल-आरा कारनामे तख़्लीक़ किए। एक ‘रौशनाई’ और दूसरी ‘ज़िक्र-ए-हाफ़िज़’। रोशनाई तो तरक़्क़ी-पसन्द तहरीक कह सवानेह है जिसमें इब्तेदा से 1947 ई॰ के हालात दर्ज हैं और दूसरी किताब मश्हूर फ़ारसी शाइ’र हाफ़िज़ की शाइ’री पर एक सेर-ए-हासिल तन्क़ीद जो ज़ाहिर करती है कि सज्जाद ज़हीर को तन्क़ीद की सिन्फ़ पर कितना उबूर हासिल था।
सज्जाद ज़हीर ने उन दो किताबों के अलावा भी बहुत कुछ लिखा है। उनका एक शे’री मजमूआ ‘पिघला नीलम’ के नाम से शाया हुआ है जो शाइ’री में एक ख़ास मक़ाम का हामिल है। लेकिन ये भी एक हक़ीक़ी उ’म्र है कि अगर वो सिर्फ़ मन्दरिजा-बाला दो किताबें ही लिखते जो उनकी मच्छ जेल की तख़्लीक़-कर्दा हैं, तो अब मैं उनका वाहिद मुरत्तिबा रहता।
मच्छ जेल से रिहाई के बा’द वो सीधे लाहौर पहुँचे ताकि वीज़ा हासिल कर के हिन्दुस्तान जाएँ क्योंकि वो अपने अह्ल-ओ-अयाल से एक तवील जुदाई की वज्ह से बहुत परेशान थे। उसके अलावा उनकी वालिदा सख़्त परेशान थीं और बार-बार सज्जाद ज़हीर को याद कर रही थीं। उनका ये इरादा कि पाकिस्तानी पासपोर्ट हासिल करके हिन्दुस्तान जाएँ इस बात का हामिल है कि ज़ाती तौर पर वो पाकिस्तान में ही रहना चाहते थे और वहीं का शह्री बनना चाहते थे। लेकिन उनकी ये ख़्वाहिश पूरी न हो सकी क्योंकि पाकिस्तानी हुकूमत ने उन्हें पासपोर्ट ही नहीं दिया बल्कि उन्हें फ़ौरी तौर पर पाकिस्तान छोड़ने को मज्बूर किया गया। हुकूमत ने हुक्काम को हिदायत दी थी कि किसी तरह वो सज्जाद ज़हीर को सरहद पार करवाएँ और हिन्दुस्तान पहुँचा दें। ये बड़ी ग़ैर-अमली हिदायत थी क्योंकि पासपोर्ट और दीगर मुतअ’ल्लिक़ा काग़ज़ात के बग़ैर सरहद पार करना ग़ैर-क़ानूनी था। आख़िर यही हुआ। हिन्दुस्तानी हुक्काम ने उन्हें सरहद पर रोक लिया और हिन्दुस्तान की हद में दाख़िल होने से मना’ कर दिया। सज्जाद ज़हीर की बेटियों से मा’लूम हुआ कि पंडित जवाहर लाल नेहरू जो उस ज़माने में हिन्दुस्तान के वज़ीर-ए-आज़म थे और सज्जाद ज़हीर के दोस्त भी थे उनकी मुदाख़लत से सज्जाद ज़हीर को हिन्दुस्तान आने की इजाज़त मिल गई। बहरहाल काफ़ी अर्सा उन्हें हिन्दुस्तान की शह्रीयत नहीं मिली बा’द में उन्हें 1957 ई॰ में फिर से पंडित नेहरू की मुदाख़लत से उन्हें हिन्दुस्तान की शह्रीयत हासिल हो गई।
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