शरीफ़ औरतें और फ़िल्मी दुनिया
जब से हिन्दुस्तानी सनअत-ए-फ़िल्म साज़ी ने कुछ वुसअत इख़्तियार की है, समाज के बेशतर हलक़ों में ये सवाल बहस का बाइस बना हुआ है कि शरीफ़ औरतों को इस मुल्की सनअत से इश्तिराक करना चाहिए या नहीं।
बाअज़ असहाब इस सनअत को कसबियों और बाज़ारी औरतों की 'नजासत' से पाक करने के पेश-ए-नज़र इस बात के हक़ में हैं कि शरीफ़ औरतें बेश अज़ बेश सिनेमा के नुक़रई पर्दे पर आने की कोशिश करें, लेकिन इसके साथ ही साथ बाअज़ हज़रात ऐसे भी हैं जो सिनेमा लाईन से शरीफ़ औरतों का इश्तिराक एक लम्हे के लिए गवारा नहीं करते और उसे एक गुनाह-ए-कबीरा समझते हैं।
मज़े की बात ये है कि अव्वल अलज़कर मुल्की सनअत को पाक करने के शानदार जज़्बे के ज़ेर-ए-असर ये भूल जाते हैं कि जिस नजासत को वो एक चेहरे से दूर करना चाहते हैं। दूसरे चेहरे पर वैसी की वैसी जमी रहती है। फ़िल्मी कारख़ानों से कसबियों को बाहर निकाल देने से वो बाज़ार बंद नहीं होते जहां ये औरतें मर्दों के पास अपनी अजनास फ़रोख़्त करती हैं।
मुअख़र-उज़-ज़िक्र जो स्टूडियो की गंदी फ़िज़ा में शरीफ़ औरतों को जाने की इजाज़त नहीं देते, इस मजल्ला व मुतहर्र जज़्बे की शिद्दत के बाइस ये हक़ीक़त बिल्कुल भूल जाते हैं कि वो बद-चलन औरतें जो सिनेमा के पर्दों पर आती हैं और जिनके गानों और ऐक्टिंग से वो अपने थके हुए दिमाग़ों को राहत बख़्शते हैं, जिनके आर्ट से वो इल्म हासिल करते हैं, किसी ज़माने में शरीफ़ औरतें ही थीं।
अगर चकले की कोई औरत अपना कारोबार छोड़कर किसी फ़िल्म कंपनी में दाख़िल हो जाती है और इस नई लाईन में अपना काम ब-तरीक़-ए-अहसन करती है तो हमें या आपको उसके इस इक़दाम पर एतराज़ करने का कोई हक़ हासिल नहीं। बाज़ारी औरतें समाज की पैदावार हैं और समाज के वज़अ कर्दा क़वानीन की खाद उनकी परवरिश करती है, फिर क्या वजह है कि उन्हें बेगाना तसव्वुर किया जाये और क्यों उनकी मौत की तदबीरें सोची जाएं जबकि वो समाज का एक हिस्सा हैं, उसके जिस्म का एक उज़्व हैं, अगर उनको अच्छा बनाना दरकार है तो सारे जिस्म के निज़ाम को दरुस्त करने की ज़रूरत है, जब तक समाज अपने क़वानीन पर अज सर-ए-नौ ग़ौर ना करेगा वो 'नजासत' दूर ना होगी जो तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के इस ज़माने में हर शहर और हर बस्ती के अंदर मौजूद है।
सांस का ज़ीरो बम क़ायम रखने के लिए दफ़्तर का बे-ज़रर कलर्क सारा दिन हिसाब की जांच हड़ताल करता है और सैंकड़ों काग़ज़ सियाह करता है। ठीक उसी तरह ज़िंदा रहने के लिए शहर काम-ए-फ़रोश दिन-भर क़ानून के साय तले शराब बेचता है। दोनों का मक़सद एक है। रास्ते जुदा-जुदा हैं बहुत मुम्किन है कि अगर हमारे दफ़्तर के बेज़रर कलर्क को ऐसे ज़राएअ मयस्सर आते या हालात कुछ इस किस्म के होते तो वो मय-फ़रोशी शुरू कर देता। क्या वजह है कि औरतों का जिस्म बेचना हैरत और नफ़रत से देखा जाता है। ऐसी औरतों का वजूद हरगिज़ हरगिज़ हैरत-ख़ेज़ या नफ़रत-अंगेज़ नहीं है।
हमारी शरीफ़ औरतों की शराफ़त इसलिए बरक़रार है कि उन्होंने बिलकुल जुदा किस्म के माहौल में परवरिश पाई। वालिदैन के साया-ए-आतिफ़त से निकल कर वो अपने कमाऊ शौहरों के पास चली आईं और ज़िंदगी के पुर-पेंच रास्तों से बिलकुल अलग थलग रहीं।
जिन 'शरीफ़ औरतों' को वालिदैन का साया आतिफ़त ना मिला। जो तालीम से बे-बहरा रहीं, जिनको ख़ुद अपना पेट भरने का सामान करना पड़ा वो सड़क के पत्थर की तरह जुदा हो गईं। उन्हें ला-मोहाला ठोकरें खाना पड़ी। कुछ मुक़ाबले की ताब ना ला कर मर गईं। कुछ सड़कों पर भीक मांगने लगीं, कुछ हस्पतालों में दाख़िल हो गईं। कुछ मेहनत मज़दूरी के ज़रिये से अपना पेट पालने लगीं और कुछ ज़िंदगी की एक आग से गुज़र कर एक ऐसे तंदूर में जा गिरीं जो हमेशा गर्म रहता है, यानी वो वैश्या बन गईं।
वैश्या पैदा नहीं होती, बनाई जाती हैं या ख़ुद बनती है। जिस चीज़ की मांग होगी मंडी में ज़रूर आएगी। मर्द की नफ़सानी ख़ाहिशात की मांग औरत है ख़्वाह वो किसी शक्ल में हो, चुनांचे इस मांग का असर ये है कि हर शहर में कोई ना कोई चकला मौजूद है, अगर आज ये मांग दूर हो जाये तो ये चकले ख़ुद-ब-ख़ुद ग़ायब हो जाएंगे। जो नज़रिया हमारे नाम निहाद वक़ार पसंद हज़रात ने वैश्याओं के मुताल्लिक़ क़ायम कर रखा है, बुनियादी तौर पर ग़लत है। इसमें अपने ज़ाती वक़ार, ज़ाती ताज़्ज़ुज़ और ज़ाती तशख़्ख़ुस बरक़रार रखने के जज़्बे के सिवा और कुछ भी नहीं। चूँकि मर्द के हाथ में अक्सर-ओ-बेशतर इख़्तियारात की बागडोर है, इसलिए वो उससे नाजायज़ फ़ायदा उठाता है। सोसाइटी के उसूलों के मुताबिक़ मर्द मर्द रहता है ख़्वाह उस की किताब-ए-ज़िंदगी के हर वरक़ पर गुनाहों की सियाही लिपि हो, मगर वो औरत जो सिर्फ एक मर्तबा जवानी के बेपनाह जज़्बे के ज़ेर-ए-असर किसी और लालच में आकर या किसी मर्द की ज़बरदस्ती का शिकार हो कर एक लम्हे के लिए अपने रास्ते से हट जाये, औरत नहीं रहती। उसे हक़ारत-ओ-नफ़रत की निगाहों से देखा जाता है। सोसाइटी उस पर वो तमाम दरवाज़े बंद कर देती है जो एक सियाह-पेशा मर्द के लिए खुले रहते हैं।
मैं पूछता हूँ अगर औरत की इस्मत है तो क्या मर्द इस गौहर से ख़ाली है? अगर औरत इस्मत बाख़्ता हो सकती है तो क्या मर्द नहीं होता? अगर इन सवालों का जवाब इस्बात में है तो क्या वजह है कि हमारे तीरों का रुख सिर्फ़ औरत की तरफ़ होता है।
कहा जाता है कि स्टूडियो में वैश्याओं का दाख़िला बंद कर दिया जाये। क्या ये कहना दबी ज़बान में इस बात का इक़रार नहीं कि मर्दों को अपने आप पर क़ाबू नहीं है और क्या ये इस हक़ीक़त का सबूत नहीं कि मर्द औरत के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा कमज़ोर और आसानी से बहक जाने वाला है।
स्टूडियो में औरतों और मर्दों का यकजा रहना ज़रूरी है। फ़रीक़ैन का बाहमी इख़्तिलात ख़ुशगवार नताइज का मूजिब हो सकता है, अगर जिस्मानी ख़ाहिशात की तकमील को फ़िल्म लाईन का एक लाज़िमी जुज़ ख़्याल ना किया जाये, अगर मर्द अपने जज़्बात क़ाबू में रखे तो औरत कोशिश के बावजूद फ़िज़ा मुक़द्दर नहीं कर सकती।
जो हज़रात शरीफ़ औरतों को फ़िल्म लाईन में शिरकत की दावत देते हैं। मैं उनसे दरयाफ़्त करना चाहता हूँ कि शराफ़त से उनकी क्या मुराद है। क्या वो औरत जो क़ानून की इस दुनिया में सर-ए-बाज़ार अपना माल बेचती है और कोई धोका नहीं देती, शरीफ़ नहीं है।
अगर शराफ़त के मअनी बा-इस्मत होने के लिए जाते हैं तो मैं उन लोगों से जो शरीफ़ औरतों को फ़िल्म स्टूडियो में दाख़िल होने की दावत देते हैं। ये पूछना चाहता हूँ कि वो ऐक्ट्रेस के लिए बा-इस्मत होना क्यो ज़रूरी ख़्याल करते हैं...? क्या जज़्बात-निगारी और तम्सील-निगारी के लिए औरत में इस्मत की बरक़रारी ज़रूरी है? अगर उनका यही ख़्याल है तो ये बिलकुल बातिल है और उनके इदराक की कमज़ोरी का बाइस है।
जज़्बात निगारी और ऐक्टिंग के लिए ऐक्टर और ऐक्ट्रेस को दुनिया के बेशतर नशेब-ओ-फ़राज़ से आगाह होना अज़-बस ज़रूरी है। कोई शरीफ़ औरत कैमरे के सामने अपने फ़र्ज़ी आशिक़ की जुदाई के असरात अपने चेहरे पर पैदा नहीं कर सकती जब तक वो इसी किस्म के हादिसे से पहले दो-चार ना हो चुकी हो, जो औरत ग़म से ना-आशना है वो ग़म के असरात ख़ुद पर किस तरह तारी कर सकती है।'
ऐक्ट्रेस बनने से पेशतर औरत को इश्क़-ओ-मुहब्बत की तल्ख़ियों और मिठासों के अलावा और बहुत सी चीज़ों से आश्ना होना चाहिए। इसलिए कि जब वो कैमरे के सामने आए तो अपने कैरेक्टर को अच्छी तरह अदा कर सके।
हक़ायक़ हमारे सामने हैं। इन पर पर्दापोशी नहीं की जा सकती, अगर हमें फ़िल्मी फ़न की तरक़्क़ी मक़सूद है, अगर हम इस फ़न को चमकाना चाहते हैं और उसे ग़लत ख़ुतूत पर चलाने के मुतमन्नी नहीं हैं तो हमें अपनी नज़र बुलंद रखना पड़ेगी। गुनाह या सवाब इन्सान की ज़ात से मुताल्लिक़ है, इससे फ़न का कोई वास्ता नहीं, फ़िल्म लाईन पर शरीफ़ औरतों का क़ब्ज़ा हो या ग़ैर शरीफ़ औरतों का। मतलब सिर्फ इससे है कि हमारी फिल्में ज़िंदगी की आईना-ए-दार हो।
मैं ये नहीं कहता कि हुस्न-फ़रोशी और जिस्- फरोशी अच्छी चीज़ है। मैं इस बात की वकालत भी नहीं करता कि इन वैश्याओं को फ़िल्म कंपनियों में जौक़ दर जौक़ दाख़िल होना चाहिए। मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ या जो कुछ मैं कह चुका हूँ निहायत वाज़िह और साफ़ है।
कामयाब ऐक्ट्रेस बनने के लिए हर औरत को आज़मूदा-ए-कार होना चाहिए। ये बहुत ज़रूरी है कि वो तस्वीर-ए-ज़िंदगी के रौशन-ओ-तारीक दोनों पहलूओं से आश्ना हो। उसके आबगीना दिल पर अगर हादिसात ने लकीरें नहीं खींचीं, अगर उसके हाफ़िज़े की तख़्ती पर मुतनव्वेअ हवादिस के नुक़ूश मौजूद नहीं तो वो किसी सूरत में अच्छी और कामयाब मुमासिला नहीं बन सकती। जैसा कि मैं इससे पेशतर लिख चुका हूँ। ऐक्ट्रेस बनने के लिए औरत को ज़िंदगी की सर्द और गर्म लहरों से वाक़िफ़ होना बेहद ज़रूरी है।
ऐक्ट्रेस चकले की वैश्या हो या किसी बा-इज़्ज़त और शरीफ़ घराने की औरत, मेरी नज़रों में वो सिर्फ़ ऐक्ट्रेस है। उसकी शराफ़त या राज़-ओ-इल्लत से मुझे कोई सरोकार नहीं। इसलिए कि फ़न इन ज़ाती उमूर से बहुत बालातर है।
चकले की वैश्या निहायत बुलंद पाया अदीब हो सकती है। उसके ख़्यालात-ओ-अफ़्क़ार से बनी नौअ-ए-इन्सान को फ़ायदा पहुंच सकता है और एक गैर हस्ती तालीम-याफ़ता औरत की शराफ़त निहायत ही मोहलिक नताइज का मूजिब हो सकती है।
बग़ावत फ़्रांस में पहली गोली पेरिस की एक वैश्या ने अपने सीने पर खाई थी। अमृतसर में जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे की इब्तिदा उस नौजवान के ख़ून से हुई थी जो एक वैश्या के बतन से था।
ख़ाकसाराँ जहां रा ब-हकारत मगर
तू चे दानी कि दरीं गर्द सवारे बाशद
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