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तरक़्क़ी याफ़ता क़ब्रिस्तान

सआदत हसन मंटो

तरक़्क़ी याफ़ता क़ब्रिस्तान

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

     

    अंग्रेज़ी तहज़ीब-ओ-तमद्दुन की खूबियां कहाँ तक गिनवाई जाएं। उसने हम ग़ैर मुहज़्ज़ब हिंदुस्तानियों को क्या कुछ अता नहीं किया। हमारी गँवार औरतों को अपने निस्वानी ख़ुतूत की नुमाइश के नित-नए तरीक़े बनाए। जिस्मानी ख़ूबियों का मुज़ाहरा करने के लिए बग़ैर 'आस्तीनों के ब्लाउज़ पहनने सिखाये। मस्ती का जल छीन कर उनके सिंगार दानों में लिपिस्टेक, रोज, पाउडर और अफ़्ज़ाइशे हुस्न की और चीज़ें भर दीं। पहले हमारे यहां मोचने सिर्फ़ नाक या मूछों के बाल चुनने के काम आते थे, मगर तहज़ीब फ़रंग ने हमारी औरतों को उनसे अपनी भवों के बाल चुनना सिखाया।


    ये तहज़ीब ही की बरकत है कि अब जो औरत चाहे लाईसेंस लेकर खुले बंदों अपने जिस्म की तिजारत कर सकती है, तरक़्क़ी याफ़ता मर्दों और औरतों के लिए सिवल मैरिज का क़ानून मौजूद है, जब चाहिए शादी कर लीजिए और जब चाहिए तलाक़ हासिल कर लीजिए। हींग लगती है ना फटकरी मगर रंग चौखा आता है। नाच घर मौजूद हैं, जहां आप औरतों के साथ सीने से सीना मिला कर कई किस्म के नाचों में शरीक हो सकते हैं। क्लब घर मौजूद हैं। जहां आप बड़े मुहज़्ज़ब तरीक़े से अपनी सारी दौलत जुए में हार सकते हैं। मजाल है कि आप कभी क़ानूनी गिरिफ़्त में आएं। शराब-ख़ाने मौजूद हैं जहां आप ग़म ग़लत कर सकते हैं।

    अंग्रेज़ी तहज़ीब-ओ-तमद्दुन ने हमारे वतन को बहुत तरक़्क़ी याफ़ता बना दिया है अब हमारी औरतें पतलूनें पहनकर बाज़ार में चलती फिरती हैं। कुछ ऐसी भी हैं, जो क़रीब क़रीब कुछ भी नहीं पहनतीं लेकिन फिर भी आज़ादाना घूम फिर सकती हैं... हमारा मुल़्क बहुत तरक़्क़ी याफ़ता हो गया है, क्योंकि अब यहां 'नंगा क्लब' खोलने की भी तजवीज़ हो रही है।

    वो लोग सिरफिरे हैं जो अपने मोहसिन अंग्रेज़ों से कहते हैं कि हिन्दुस्तान छोड़कर चले जाएं, अगर ये हिन्दुस्तान छोड़कर चले गए तो हमारे यहां 'नंगा क्लब' कौन जारी करेगा। ये जो रक़्स ख़ाने हैं, उनकी देख-भाल कौन करेगा। हम औरतों के साथ सीने से सीना मिलाकर कैसे नाच सकेंगे। हमारे चकले क्या वीरान नहीं हो जाएंगे। हमें एक दूसरे से लड़ना कौन सिखाएगा। मैनचेस्टर से जो कपड़े अब हमारी कपास से तैयार हो कर आते हैं फिर कौन तैयार करेगा। ये अच्छे अच्छे लज़ीज़ बिस्कुट जो हम खाते हैं हमें कौन देगा।

    जो तरक़्क़ी हमें और हमारे हिन्दुस्तान को अंग्रेज़ों के अहद में नसीब हुई है और किसी के अहद में नसीब नहीं हो सकती, अगर हम आज़ाद भी हो जाएं तो हमें हुकूमत करने की वो चालें नहीं आ सकतीं जो हमारे इन हाकिमों को आती हैं। इन हाकिमों की जिनके अहद में ना सिर्फ हमारे होटलों, क्लबों, रक़्स ख़ानों और सिनेमाओं को बल्कि हमारे क़ब्रिस्तानों को भी काफ़ी तरक़्क़ी हुई है।

    ग़ैर तरक़्क़ी याफ़ता क़ब्रिस्तानों में मुर्दे उठा कर गाड़ दिए जाते हैं। जैसे वो कोई क़दर-ओ-क़ीमत ही नहीं रखते, लेकिन तरक़्क़ी याफ़ता क़ब्रिस्तानों में ऐसा नहीं होता मुझे इस तरक़्क़ी का एहसास उस वक़्त हुआ जब बंबई में मेरी वालिदा का इंतिक़ाल हुवा मैं छोटे छोटे निस्बतन ग़ैर मुहज़्ज़ब शहरों में रहने का आदी था। मुझे क्या मालूम कि बड़े शहरों में मुर्दों पर भी हुकूमत की तरफ़ से पाबंदियां आइद हैं।

    वालिदा की लाश दूसरे कमरे में पड़ी थी। मैं गम का मारा सर नुड़ाए एक सोफ़े पर बैठा सोच रहा था कि इतने में एक साहिब ने जो अर्से से बंबई में रहते थे मुझसे कहा। 'भई अब तुम लोगों को कुछ कफ़न दफ़न की फ़िक्र करनी चाहिए।'

    मैंने कहा। ''सो ये आप ही करेंगे, क्योंकि मैं यहां नौ-वारिद हूँ।'

    उन्होंने जवाब दिया 'मैं सब कुछ कर दूंगा मगर पहले तुम्हें किसी के हाथ इत्तिला भिजवा देनी चाहिए कि तुम्हारी वालिदा का इंतिक़ाल हो गया है।'

    ’’किस को?'

    ’’यहां पास ही म्युनिसिपल्टी का दफ़्तर है उसको इत्तिला देनी बहुत ज़रूरी है क्योंकि जब तक वहां से सर्टिफ़िकेट नहीं मिलेगा क़ब्रिस्तान में दफ़नाने की इजाज़त नहीं मिलेगी।

    उस दफ़्तर को इत्तिला भेज दी गई। वहां से एक आदमी आया जिसने तरह तरह के सवाल करने शुरू किए। 'क्या बीमारी थी, कितने अर्से से मरहूम बीमार थी। किस डाक्टर का ईलाज हो रहा था?'

    हक़ीक़त ये थी कि मेरी अदमे मौजूदगी में हार्ट फ़ेल हो जाने की वजह से मेरी वालिदा का इंतिक़ाल हुआ था। ज़ाहिर है कि वो किसी की ज़ेर-ए-इलाज नहीं थीं और ना मुद्दत से बीमार ही थीं, चुनांचे मैंने उस आदमी से जो सच्ची बात थी कह दी, उसका इत्मिनान ना हुआ और कहने लगा। ''आपको डाक्टरी सर्टिफ़िकेट दिखाना पड़ेगा कि मौत वाक़ई हार्ट फ़ेल हो जाने की वजह से हुई है।

    मैं सिटपिटा गया कि डाक्टरी सर्टीफ़ेक्ट कहाँ से हासिल करूँ, चुनांचे कुछ सख़्त कलमे मेरे मुँह से निकल गए, लेकिन मेरे वो दोस्त जो एक अर्से से बंबई में क़ियाम पज़ीर थे उठे और उस आदमी को एक तरफ़ ले गए, कुछ देर उससे बातें करते रहे, फिर आए और मेरी तरफ़ इशारा कर के कहने लगे। ''ये तो बिलकुल बेवक़ूफ़ है, इसको यहां की बातों का कुछ इल्म नहीं।' फिर उन्होंने मेरी जेब से दो रुपये निकालकर उस आदमी को दिए जो एक दम ठीक हो गया और कहने लगा। ''अब आप ऐसा कीजिए कि दवाओं की चंद ख़ाली बोतलें मुझे दे दीजिए ताकि बीमारी का कुछ तो सबूत हो जाये पुराने नुस्खे़ वग़ैरा पड़े हों तो वो भी मुझे दे दीजिए।'

    उसने इस किस्म की और बातें कीं जिनको सुनकर मुझे थोड़ी देर के लिए ऐसा महसूस हुआ कि मैं अपनी वालिदा का क़ातिल हूँ और ये आदमी जो मेरे सामने बैठा है मुझ पर तरस खाकर इस राज़ को अपने तक ही रखना चाहता है और मुझे ऐसी तरकीबें बता रहा है जिससे क़त्ल के निशानात मिट जाएं। उस वक़्त जी में आई थी कि धक्के देकर उसको बाहर निकाल दूं और घर में जितनी ख़ाली बोतलें पड़ी हैं, उन सबको एक एक करके उसके बेमग़ज़ सर पर फ़ोड़ता चला जाऊं लेकिन इस तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का भला हो कि मैं ख़ामोश रहा और अंदर से कुछ बोतलें निकलवा कर उसके हवाले कर दीं।

    दो रुपये रिश्वत के तौर पर अदा करने के बाद म्युनिसिपल्टी का सर्टीफ़िकेट हासिल कर लिया गया था। अब क़ब्रिस्तान का दरवाज़ा हम पर खुला था। लोहे के बहुत बड़े दरवाज़े के पास एक छोटा सा कमरा था जैसा कि सिनेमा के साथ बुकिंग ऑफ़िस होता है, उसकी खिड़की में से एक आदमी ने झांक कर अंदर जाते हुए जनाज़े को देखा और कुछ कहने ही को था कि मेरे दोस्त ने वो पर्ची म्युनिसिपल्टी के दफ़्तर से मिली थी। इसके हवाले कर दी। क़ब्रिस्तान के मैनेजर को इत्मिनान हो गया कि जनाज़ा बग़ैर टिकट के अंदर दाख़िल नहीं हुआ।

    बड़ा ख़ूबसूरत क़ब्रिस्तान था। एक जगह दरख़्तों का झुण्ड था जिसके साय तले कई पुख़्ता क़ब्रें लेटी हुई थीं। उन क़ब्रों के आस-पास मोतिया, चम्बेली और गुलाब की झाड़ियाँ उग रही थीं। पूछने पर मालूम हुआ कि ये क़ब्रिस्तान का सबसे ऊंचा दर्जा है जहां हाई क्लास आदमी अपने अज़ीज़ों को दफ़न करते हैं। एक क़ब्र के दाम मबलग़ तीन सौ रुपये अदा करने पड़े हैं। ये रक़म देने के बाद क़ब्रिस्तान की इस ठंडी और हवादार जगह में आप अपनी या अपने किसी अज़ीज़ की पुख़्ता क़ब्र बना सकते हैं, उसकी देख-भाल करना हो तो आपको छः रुपये सालाना और देना पड़ेंगे, ये रक़म लेकर मैनेजर साहिब इस बात का ख़्याल रखेंगे कि क़ब्र ठीक हालत में रहे।

    वो लोग जो तीन सौ रुपये अदा करने की इस्तिताअत नहीं रखते। उनकी क़ब्रें तीन या चार साल के बाद खो खाद कर मिटा दी जाती हैं और उनकी जगह दूसरे मुर्दे गाड़ दिए जाते हैं। उन क़ब्रों को दरख़्तों की छाओं और मोतिया चम्बेली की ख़ुशबू नसीब नहीं होती। यहां दफ़नाते वक़्त मिट्टी के साथ एक ख़ास किस्म का मसाला मिला दिया जाता है ताकि लाश और उसकी हड्डियां जल्दी गल सड़ जाएं।

    चूँकि एक ही शक्ल सूरत की क़ब्रें क़तार अन्दर क़तार चली गई हैं। इसलिए हर क़ब्र पर नंबर लगा दिया गया है ताकि पहचानने में आसानी हो। ये नंबर चार आने में मिलता है। आज कल अच्छे सिनेमाओं में भी ऐसा ही किया जाता है। नंबर लगे टिकट दिए जाते हैं ताकि हाल में गड़बड़ ना हो और आदमी उस नंबर की सीट पर बैठे जिस नंबर का उसके पास टिकट है। जब मुर्दा दफ़न कर दिया जाता है तो क़ब्रिस्तान का मुहतमिम एक ख़ास नंबर जो लोहे की तख़्ती पर लिखा होता है, क़ब्र के पहलू में गाड़ देता है, ये उस वक़्त तक गड़ा रहता है जब तक क़ब्र किसी दूसरे मुर्दे के लिए ख़ाली नहीं की जाती।

    नंबर मिलने से कितनी आसानी हो जाती है यानी आप अपनी नोट बुक में अपने अज़ीज़ों की क़ब्रों का नंबर भी दर्ज कर सकते हैं।

    जूते का नंबर:- पाँच।

    जुराब का नंबर:- साढे नौ।

    टेलीफ़ोन का नंबर:- 4445।

    बीमा की पालिसी का नंबर:- 22568।

    वालिदा की क़ब्र का नंबर:- 481।

    और अगर ज़माना ज़्यादा तरक़्क़ी कर गया तो पैदा होते ही आपको अपनी क़ब्र का नंबर मिल जाया करेगा।

    क़ब्रिस्तान में दाख़िल होते ही एक ख़ूबसूरत मस्जिद दिखाई दी जिसके बाहर एक बहुत बड़े बोर्ड पर 'ज़रूरी इत्तिला' के उनवान से ये इबारत लिखी हुई थी।

    ’अगर कोई शख़्स अपने वारिस का कच्चा औटा बनाना चाहे तो वो गोरखो दो बना दें और कोई नहीं बना सकता। बड़ी क़ब्र बनाने के दो रुपये चार आने। जिसमें सवा रुपया गोरखों की मज़दूरी और एक रुपया क़ब्रिस्तान का हक़, छोटी क़ब्र का सवा रुपया जिसमें गोरखों की मज़दूरी बारह आने और क़ब्रिस्तान का हक़ आठ आने, अगर ना देंगे तो उनका औटा निकाल दिया जाएगा, क़ब्रिस्तान में किसी को रहने की इजाज़त नहीं। हाँ मय्यत के साथ आवें और अपना तोशा लेकर बाहर चले जावें। ख़ाह मर्द हो या औरत, अगर कोई मय्यत बाहर से बग़ैर ग़ुस्ल के आवे और उसके साथ ग़ुस्ल देने वाला भी हो तो इससे क़ब्रिस्तान का हक़ चार आने लिया जाएगा। जिस मय्यत को ग़ुस्ल रात को दिया जाएगा उससे दो आना रौशनी का लिया जाएगा। कोई शख़्स क़ब्रिस्तान में दंगा फ़साद ना करे, अगर करेगा तो उसको पुलिस के हवाले कर दिया जाएगा। क़ब्र के वारिस अपने औटे पर पानी डालने और दरख़्त लगाने का काम गोरखों के सुपुर्द कर दें तो उनको चार आना माहवार देना होगा जो साहिब ना देंगे उनकी क़ब्र पर गोरखों ना पानी डालेंगे और ना दरख़्त उगाएँगे।

    मैनेजिंग ट्रस्टी

    सिनेमाओं के इश्तिहार और क़ब्रिस्तान के इस ऐलान में एक गुना मुमासिलत है क्योंकि वहां भी लिखा होता है। ''शराब पीकर आने वालों और दंगा फ़साद करने वालों को हवाला पुलिस कर दिया जाएगा।’ बहुत मुमकिन है कि ज़माने की तरक़्क़ी के साथ इस ऐलान में तरमीमें होती जाएं और कभी ऐसे अल्फ़ाज़ का भी इज़ाफ़ा हो जाये।

    भूचाल आने या बमबारी की सूरत में मुंतज़िम क़ब्रों के दाम वापिस नहीं करेगा। जो साहिब अपने अज़ीज़-ओ-क़ारिब की क़ब्र पर रैड शेल्टर बनवाना चाहें, उन्हें ढाई सौ रुपया ज़ाइद अदा करना पड़ेगा, लेकिन इस सूरत में भी क़ब्र की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी मुंतज़िम पर आइद ना होगी। क़ब्र को एयर कंडिशनेड बनाने के लिए छोटे छोटे प्लांट दस्तियाब हो सकते हैं, हर माह जितनी बिजली ख़र्च होगी उसका बिल क़ब्र के वारिस को अदा करना होगा वग़ैरा वग़ैरा...

    एक बोर्ड और दिखाई दिया जिस पर ग़ुस्ल वग़ैरा के नर्ख़ मुंदरज थे। मुलाहिज़ा हो:

    नमाज़ जनाज़ा और तलक़ीन पढ़ाई।

    ग़ुस्ल बड़ी मय्यत एक रुपया

    ग़ुसल छोटी मय्यत एक रुपया

    मय्यत के लिए पानी गर्म करने की लकड़ी

    पानी भरने और गर्म करने की मज़दूरी

    बड़ी मय्यत के बर्गे, फ़ी बर्गा 2/1।

    छोटी मय्यत के बर्गे, फ़ी बर्गा 4/3।

    (नोट:- बर्गा लकड़ी के उस तख़्ते को कहते हैं जो क़ब्र के गढ़े में मय्यत के ऊपर रखे जाते हैं ताकि मिट्टी नीचे ना दब जाये।)

    किसी अच्छे सैलून में जाईए तो वहां भी गाहकों की सहूलियत के लिए इस किस्म के बोर्ड पर आपको मुख़्तलिफ़ चीज़ों के नर्ख़ नज़र आएँगे।

    मर्दों की बाल कटवाई 8

    बच्चों की 4

    औरतों की एक रुपया

    बच्चियों की 8

    डाढ़ी मुंडाई 2

    बाल कटवाई और डाढ़ी मुंडाई 9

    शैम्पू 2

    बाल कटवाई, दाढ़ी मुंडाई और शैम्पू 10

    अगर बाल कटवाए जाएं और साथ ही साथ दाढ़ी भी मुंडाई जाये, तो एक दो आने की रियायत हो जाती है। बहुत मुमकिन है आगे चलकर क़ब्रिस्तान वाले भी कुछ रियायत अपने गाहकों को दे दिया करें, कुछ इस किस्म का ऐलान कर दिया जाये। 'जो साहिब साल में दो बड़ी क़ब्रें खुदवाएंगे उनको एक छोटी क़ब्र मुफ़्त खोद कर दी जाएगी या 'जो हज़रत बैयक-वक़्त दो क़ब्रें खुदवाएंगे, उनको गुलाब की दो क़लमें मुफ़्त दी जाएँगी या 'जो साहब कफ़न दफ़न का सब सामान हमारे हाँ से ख़रीदेंगे उनको क़ब्र का नंबर एक ख़ूबसूरत बिल्ले पर जड़ा हुआ मुफ़्त मिलेगा।

    ये भी बहुत मुमकिन है कि आने वाले ज़माने में जब कि हमारे क़ब्रिस्तान और ज़्यादा तरक़्क़ी याफ़ता हो जाएंगे, क़ब्रों की एडवांस बुकिंग हुआ करेगी, यानी हम लोग अपने मुअम्मर अज़ीज़ों के लिए दो-दो तीन-तीन बरस पहले ही किसी अच्छे और फ़ैशने-बल क़ब्रिस्तान में सीट बुक करा लिया करेंगे ताकि ऐन वक़्त पर तरद्दुद का सामना ना करना पड़े, उस वक़्त मुर्दों को कफ़नाने और दफ़नाने का इंतिज़ाम भी जदीद तरीक़ों पर होगा, चुनांचे बहुत मुमकिन है कि गोरखों की तरफ़ से अख़बारों में इस किस्म के इश्तिहार छपा करें।

    ईसा जी मूसा जी ऐंड सन्ज़, कफ़न दफ़न के माहिरीन।

    मय्यतों को जदीद आलात की मदद से बग़ैर हाथ लगाए ग़ुस्ल दिया जाता है, और बग़ैर हाथ लगाए कफ़न पहनाया जाता है।

    क़ब्रिस्तानों की तरफ़ से भी ऐसे ही इश्तिहार शाया हों तो कोई ताज्जुब ना होगा:

    शहर का सबसे जदीद क़ब्रिस्तान

    जहां मुर्दे इसी तरह क़ब्रों में सोते हैं जिस तरह आप अपने पुर-तकल्लुफ़ बिस्तरों में सोते हैं।

    बंबई शहर में इस वक़्त ऐसी कई अंजुमनें मौजूद हैं जो मय्यतों के कफ़न दफ़न का इंतिज़ाम करती हैं। आपको तकलीफ़ करने की कोई ज़रूरत नहीं। इन अंजुमनों में से किसी एक को इत्तिला भेज दीजिए। मय्यत को ग़ुस्ल दे दिला कर, कफ़न वग़ैरा पहना कर इस अंजुमन के आदमी आपके घर से जनाज़े को उठाकर क़ब्रिस्तान ले जाएंगे और वहां दफ़न कर देंगे। कानों-कान ख़बर ना होगी, जब सारा काम आपके इत्मिनान के मुताबिक़ हो जाएगा तो ये अंजुमन आपको अपना बिल पेश कर देगी।

    आप बहुत मसरूफ़ आदमी हैं। इत्तिफ़ाक़ से आपके नौकर को मौत आ दबोचती है। आपको उसकी मौत का बहुत अफ़सोस है मगर आपको साहिल समुंद्र पर अपने चंद ऐसे दोस्तों के हमराह पिकनिक पर जाना है, जिनसे आपके कारोबारी मरासिम हैं। इसलिए आप फ़ौरन किसी अंजुमन के मुहतमिम को बुलाएँगे और फ़ीस वग़ैरा तै कर के उसके कफ़न दफ़न का इंतिज़ाम कर देंगे। जनाज़े के साथ अंजुमन के पेशावर कंधा देने वाले होंगे जो आपके मकान से लेकर बुलंद आवाज़ में क़ुरआन शरीफ़ की आयत पढ़ते जाएंगे। वहां नमाज़ जनाज़ा पढ़ी जाएगी। जिसकी उजरत बिल में शामिल होगी और एक बड़ी क़ब्र में जिसकी क़ीमत दो रुपया चार आने होती है, आपका वफ़ादार नौकर दफ़न कर दिया जाएगा। साहिल समुंद्र पर आप बड़े इत्मिनान से अपने दोस्तों के साथ हंसते खेलते रहेंगे और यहां भी हंसते खेलते आपके नौकर की क़ब्र तैयार हो जाएगी और अगर आपने इनाम देने का वाअदा किया होगा तो उसपर अंजुमन के आदमी फूलों की एक चादर भी चढ़ा देंगे।

    चंद रोज़ हुए मुझे फिर उसी क़ब्रिस्तान में जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। नोटिस बोर्ड पर एक ऐलान आम लिखा था।

    मौरख़ा 8 जून 1942 ई. से बावजाह गिरानी क़ब्र की खुदाई की मज़दूरी में इज़ाफ़ा कर दिया गया है। बड़ी क़ब्र की खुदाई एक रुपया चार आना। छोटी क़ब्र की खुदाई चौदह आने।' जंग ने क़ब्रें भी महंगी कर दी हैं।

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