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उर्दू ग़ज़ल के फ़िक्‍री सरमाए में हिन्दुस्तानी ज़ेह्​न की कार-फ़रमाई

गोपी चंद नारंग

उर्दू ग़ज़ल के फ़िक्‍री सरमाए में हिन्दुस्तानी ज़ेह्​न की कार-फ़रमाई

गोपी चंद नारंग

MORE BYगोपी चंद नारंग

    ज़बान का मज़हब नहीं होता, लेकिन ज़बान का समाज ज़रूर होता है। हर ज़बान किसी किसी मख़्सूस समाज में बोली जाती है। उस समाज के मानने वाले अगर एक मज़हब से तअ’ल्लुक़ रखते हैं तो तहज़ीबी ऐतबार से वो समाज एक सतही होता है। लेकिन अगर उस समाज के अफराद में कई मजहब राइज हों तो तहज़ीबी और सिकाफ़ती एतबार से वो समाज इतना ही मुतमव्वुल, तह-दर-तह और पेचीदा होता है। किसी भी समाज का तहजीबी और फ़िक्री सरमाया उसके अदब में झलकता है। हर ज़बान का अदब अपने समाज की धरती और उसमें उतरी हुई जड़ों को किसी किसी तरह से ज़रूर पेश करता है और इस तरह हर समाज का तहज़ीबी और तारीख़ी विरसा, उसकी इन्सानी क़द्रें, उसका नसब-उल-ऐन, उसकी ख्वाहिशें और आरज़ूएँ हत्ता कि उसकी कब्ल तारीख़ी मीरास और इसातीर भी अदब के तख़्लीक़ी अमल में बरसर-ए-कार रहते हैं। हिन्दुस्तानी समाज एक पेचीदा और तह-दर-तह समाज है। उर्दू ज़बान, जो ग्यारहवीं सदी के बा’द हिन्दुओं और मुसलमानों के साबके से तारीख़ के फ़ितरी दबाव के वुजूहों से वुजूद में आई, महज इस लिसानी मफ़ाहमे का नाम नहीं। इसके अदब के मज़ामीन मौज़ूआत को ग़ौर से देखा जाए तो मा’लूम होगा कि उसमें लिसानी मफ़ाहमे के साथ-साथ एक ज़बर्दस्त तहज़ीबी मफ़ाहमे की सूरत भी नज़र आती है, बल्कि उससे भी बढ कर एक वसीअ’-तर इन्सान दोस्ती (Humanism) पर मबनी एक हमागीर मिली जुली तहज़ीब की तलक़ीन भी मिलती है।

    यह मिली जुली तहज़ीब क्या थी? इसके बुनियादी फ़िक्री अरकान क्या थे? इस बात का जवाब देने से पहले ये अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जब कोई बाहर से आने वाली क़ौम किसी मफ़्तूह से मिलती है तो वो उसके रहन सहन और फ़िक्री तौर तरीक़ों को मुतासिर तो करती हैी है लेकिन बावजूद अपनी बरतरी और बाला दस्ती के वो ख़ुद भी मग़लूब क़ौम से मुतासिर होती है। हमलावर क़ौम के अफ़राद तादाद में कम होते हैं। उनकी बदौलत नई लिसानी तहजीबी क़दरों का नफूज़ तो होता ही है, लेकिन बुनियादें वही देसी रहती हैं। ज़बान हो या अदब का फ़िक्री सरमाया, दोनों में जहाँ मुतासिर करने वाली क़दरों की अहमियत है, वहाँ इन बुनियादों की भी अहमियत है, जिन पर ये क़दरें असर अंदाज़ हुईं। मिसाल के तौर पर उर्दू ज़बान को लिया जाए तो मा’लूम होगा कि उर्दू का इम्तियाज़ी वस्फ़ इसके मुस्तआ’र अल्फ़ाज़ का वो खज़ाना है जो अरबी फ़ारसी से आया है। लेकिन ये उर्दू ज़ख़ीरा-ए-अल्फ़ाज़ का कितना फ़ीसद है? मुश्किल से 15 फ़ीसद, बाक़ी 85 फ़ीसद वही देसी अल्फ़ाज़ हैं जो प्राकृतों से आए। बिल्कुल यही मुआ’मला हमारे ग़जल के फिक्री सरमाए का है। अगर ग़ौर से देखा जाए तो इस में भी अरबी और फ़रासी असरात की पत्ती तो ज़रूर लगी है और इसी से इम्तियाज़ी शान भी पैदा हुई है लेकिन बुनियादी फिक्री सरमाया वही है जिस में इन क़दरों की तरवीज हुई है, जो क़ब्ल-ए-आरयाई ज़माने से ले कर अब तक हिन्दुस्तानी ज़ेह्​न की खु़सूसियात का ख़ास्सा रही है।

    यहाँ बहस इससे नहीं कि उर्दू ग़ज़ल के लिखने वालों में से कितने किस मज़हब से तअ’ल्लुक़ रखते थे, और कितने किस से। अदब का मुताला इस तरह से किया ही नहीं जा सकता। मस्अला ये है कि जो ज़ेह्​न उर्दू ग़ज़ल की तख़्लीक़ में मसरूफ़ रहे, उन की साख़्त किया थी। ख़ालिस इस्लामी, या ख़ालिस हिन्दू या तह-दर-तह पेचीदा और मिली जुली हिन्दुस्तानी। यहाँ हम उर्दू ग़ज़ल के फ़िक्री सरमाए के सिर्फ़ एक पहलू को लेंगे या’नी ज़ात के तसव्वुर को। और सिर्फ़ इसी एक पहलू की बहस से अपनी गुफ़्तगू को इख़्तताम तक पहुँचाएंगे।

    इतनी बात मा’लूम है कि उर्दू ग़ज़ल ने अपने मज़ामीन मे’यार फ़ारसी ग़ज़ल से लिए। ज़ात का जो तसव्वुर फ़ारसी वालों ने अह्ल-ए-अरब से लिया था, ईरान में और खलीज फारस के साहिली इलाकों में इस में बा’ज़ बुनियादी तब्दीलियाँ हो गई। यूँ तो तसव्वुफ़ की इब्तिदा सातवीं सदी हिजरी ही से हो गई थी लेकिन तसव्वुफ़ की वो शक्ल जिस में इतना ज़ोर शरीअ’त पर नहीं जितना तरीक़त पर दिया जाता था और जो हिन्दुस्तान के तूल-ओ-अर्ज़ में अपने हमा-ओस्ती अंदाज़-ए-नज़र की वज्ह से बेहद मक़बूल हुई, वो पहले दौर के ज़ाहिदाना और राहबाना तसव्वुफ़ से बहुत मुख़्तलिफ़ थी। तसव्वुफ़ पर लिखने वाले कई मुफ़क्करीन ख़ास तौर पर निकोल्सन (NICHOLSON) ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि बा’द के तसव्वुफ़ में जो बाग़ियाना शान, मज़हब की सख़्त-गीरी से गुरेज़ और ख़ुदा की मावराईयत की जो तल्क़ीन मिलती है, उसकी कोई तशफ़्फ़ी-बख़्श तोजीह सिवाए इसके नहीं की जाती कि बा’द का तसव्वुफ़ सामी ज़ेह्​न के ख़िलाफ आरयाई ज़ेह्​न का रद्द-ए-अमल था। याद रहना चाहिए कि ख़ुरासान, ईरान और अफ़गानिस्तान से ले कर हिन्दुस्तान तक आर्या नस्ल ही फैली हुई थी। इस बात की तौसीक़ इस अमर से भी हो जाती है कि तसव्वुफ़ के हमाओस्ती ख़यालात जो इस्लामी मुल्कों में उलमा और सूफ़ियों के दर्मियान ज़बर्दस्त कशाकश का बाइस बने और मंसूर की ज़ात जिन का ऐनी नसब-उल-ऐन बन कर उभरी, वो ख़यालात मुसलमानों के साथ स्पेन से लेकर इंडोनेशिया तक बीसियों मुल्कों में पहुँचे, लेकिन जो मक़बूलियत और हर दिल अज़ीज़ी उन्हें हिन्दुस्तान में हासिल हुई और जिस तरह हिन्दुस्तान में ख़ास-ओ-आम ने उनकी पज़ीराई की और जिस तरह इसके असर से मुल्क भर में भक्ति तहरीक और इसकी मुख़्तलिफ़ शक्लों को फ़रोग़ हासिल हुआ, इसकी मिसाल दुनिया में कहीं नहीं मिलती। आख़िर ऐसा क्यों हुआ? जवाब साफ़ है। तसव्वुफ़ के इन हमा ओस्ती ख़यालात में आरयाई ज़ेह्​न को ख़ुद अपनी ही सूरत नज़र आती थी या’नी तसव्वुफ़ के हमाओस्ती अंदाज़-ए-नज़र में और वेदांत के बुनियादी फ़ल्सफ़े में या उपनिषदों के माया के नज़रिए में बाज़ बुनियादी चीज़ें मुश्तरिक थीं। ये है वो ज़ेह्​नी राब्ता-ओ-इश्तराक जो उर्दू ग़ज़ल के फ़िक्री सरमाए की बुनियादें फराहम करता है। उर्दू ग़ज़ल का ब-ग़ौर मुताला करने से ये हक़ीक़त खुल कर सामने आती है,

    दुनिया के अक्सर मज़हबों की तरह हिन्दू मज़हब और इस्लाम दोनों इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि अस्ल हस्ती या ज़ात वाजिब-अल-वुजूद सिर्फ़ एक है लेकिन जब इस ज़ात-ए-वाहिद की अमली इस्तिलाहों में ताबीर की जाती है और इसके और कायनात के बाहमी तअ’ल्लुक़ का पता चलाने की कोशिश की जाती है तो ज़ात-ए-बारी के मुख़्तलिफ़ तसव्वुरात हासिल होते हैं।

    उपनिषदों की रौ से अस्ल हस्ती ‘ब्रह्म’ या’नी ख़ुदा-ए-मुतलक़ है, जिस तक अक़्ल-ओ-वादराक की रसाई नहीं। ‘ब्रह्म’ हर क़िस्म की सिफ़ात से बालातर है। वो मौज़ू-ए-कुल्ली है। इसके दो पहलू हैं, आत्मा और कायनात। ‘ब्रह्म’, आत्मा और कायनात इन तीनों में एक ही बुनियादी रिश्ता है। इनका फर्क़ जो हमें आलम-ए-रंग-ओ-बू की कसरत में नज़र आता है महज़ ऐतबार है, अस्ल नहीं। हक़ीक़त एक ही है जो हर जगह और हर कहीं मौजूद है, सिवाए इस हक़ीक़त के जो कुछ नज़र आता है वो ‘माया’ फरेब-ए-हवास है और तिलिस्म-ए-ख़याल।

    इस्लाम भी ख़ुदा का तसव्वुर जात-ए-वाहिद की हैसियत से करता है। ख़ुदा को यहाँ भी तअ’ईनात से बरी करार दिया गया है, मगर इस हद तक नहीं कि इसका कोई तसव्वुर ही क़ायम हो सके। क़ुरआन शरीफ़ की रौ से ज़ात-ए-बारी और कायनात में ख़ालिक़ और मख़लूक़ की निस्बत है। ख़ुदा ने कायनात को अपने इरादा-ए-ख़ास से पैदा किया है। चुनाँचे कायनात ‘तिलिस्म-ए-ख़याल’, बल्कि ठोस असलियत है।

    ग़रज़ इस्लामी और हिन्दुस्तानी नज़रियों में कुछ फ़र्क़ है। एक ज़ात-ए-वाहिद को कायनात में जारी सारी बताता है। दूसरा इसके बर-अक्स सिफ़ात को ज़ात तस्लीम करने के लिए तैयार नहीं है। एक दुनिया को फरेब-ए-नज़र कहता है दूसरा इसे ठोस असलियत क़रार देता है और मक़्सदी बताता है। इस्लाम में रुहानी मावराईयत और कायनात के फ़रेब-ए-हवास होने के ख़यालात तसव्वुफ़ के ज़रिए दाख़िल हुए और तसव्वुफ़ के बारे में इतना इशारा पहले किया जा चुका है कि इस में और वेदांती फ़ल्सफ़े में गहरी मुशाबहत है।

    रुहानी मावराईयत के इस नज़रिए को तसव्वुफ़ की इस्तिलाह में ‘वहदत-ए-वुजूद’ या ‘हमाआस्त’ कहा जाता है। इसकी रौ से ज़ात-ए-बारी कायनात के बाहर ज़र्रे में जारी सारी है मगर ‘वहदत-ए-शुहूद’ या ‘हमाओस्त’ की रौ से कायनात मज़हर-ए-ज़ात है लेकिन ऐन ज़ात नहीं। जैसा कि पहले कहा गया, हिन्दुस्तान में ज़ियादा मक़बूलियत पहले नज़रिए या’नी वहदत-ए-वुजूद ही काे हासिल हुई क्योंकि इस में और हिन्दुस्तानी फ़ल्सफ़े में रुहानी मावराईयत के ख़यालात क़द्र-ए-मुश्तरिक की हैसियत रखते थे।

    अ’ह्​द-ए-वुस्ता में नज़रिया-ए-वहदत-ए-वुजूद के मक़बूल-ए-आम होने का ये आलम था कि मज़हब, इख़लाक़, इ’ल्मियत, क़ाबिलियत, शे’र-ओ-अदब, शायद ही ज़िन्दगी का कोई शोबा हो जाे इससे मुतअस्सिर हुआ हो। उर्दू ग़ज़ल में ‘रुहानी मावरिईयात’ के इन ख़यालात ने रफ़्ता-रफ़्ता एक बाक़ायदा मौज़ू की हैसियत

    इख़्तियार कर ली। ग़ज़ल में चूंकि अक़ली नज़रियात को भी तास्सुरात के पैराए में बयान किया जाता है, इस में वुजूदी तसव्वुरात बे-हद रंगा-रंग सूरतें इख़्तियार कर गए हैं। ता-हम बाज़ मज़ामीन और ख़यालात की तकरार-ओ-ता’मीम से ये साबित होता है कि उर्दू ग़ज़ल का मैलान वहदत-ए-वुजूद के उन्हीं नज़रियात की तरफ़ रहा है जो कसरत में वहदत देखने की हिन्दुस्तानी ज़ेह्​नी खूसुसियत से पूरी तरह हमआहंग हैं। ये चंद अश्आ’र मुलाहिज़ा हो,

    अ’याँ है हर तरफ़ आलम में हुस्न-ए-बेहिजाब उसका

    बग़ैर अज़ दीदा-ए-हैरां नहीं जग में निक़ाब उसका

    हुआ है मुझ पे शम-ए’-बज़्म-ए-यकरंगी सूँ यू रौशन

    कि हर ज़र्रे उपर ताबाँ है दायम आफ़ताब उसका

    वली

    वाहिद है लाशरीक तू सानी तेरा कहाँ

    आलिम है सब के हाल का तू ज़ाहिर निहाँ

    ज़ाहिर में तू अगर चह नज़र आता है नहीं

    देखा जो मैंने ग़ौर से तू है जहाँ तहां

    शाह आलम आफ़ताब

    इस क़दर सादा पुरकार कहीं देखा है

    बे-नुमूद इतना नुमूदार कहीं देखा है

    सौदा

    मीर का ये शेर देखिए। कोई वेदांती इतनी भी इससे बढ़ कर क्या कहेगा,

    आँखें जो हों तो ऐन है मक़्सूद हर जगह

    बिज़्ज़ात है जहाँ में वो मौजूद हर जगह

    मीर है के चन्द और शेर मुलाहिज़ा हो,

    था वो तो रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती हमीं में मीर

    समझे हम तो फ़ह्​म का अपनी क़ुसूर था

    आम है यार की तजल्ली मीर

    ख़ास मूसा-ओ-कोह-ए-तूर नहीं

    गुल-ओ-रंग-ओ-बहार पर्दे हैं

    हर अ’याँ में है वो निहाँ टुक सोच

    **

    जलवा किस जा पेे नहीं इस बुत-ए-हरजाई का

    परेशाँ नज़री जुर्म है बीनाई का

    क़ायम चाँदपुरी

    ख़्वाजा मीर दर्द के यहाँ भी मावराई तसव्वुरियत के यही ख़यालात मिलते हैं,

    जग में आकर इधर उधर देखा

    तू ही आया नज़र जिधर देखा

    दिल भी तेरा ही ढंग सीखा है

    आन में कुछ है, आन में कुछ है

    इन दिनों कुछ अजब है मेरा हाल

    देखता कुछ हूँ ध्यान में कुछ है

    एक और शेर में फरमाते हैं,

    ढूँढे है तुझे तमाम आलम

    हर चन्द कि तू कहाँ नहीं है

    शाह नियाज़ बरेलवी की ये पूरी ग़ज़ल हमाओस्त की तख़्लीक़ी तशरीह है,

    दीद अपने की थी उसे ख़्वाहिश

    उस को हर तरह से नया देखा

    सूरत-ए-गुल में खिल खिला के हँसा

    शक्ल-ए-बुलबुल में चहचहा देखा

    शम्अ’ हो कर के और पर्वाना

    आप को आप में जला देखा

    कर के दावा कहीं अनल-हक़ का

    बरसर-ए-दार वो खिचा देखा

    कहीं वो दर लिबास-ए-माशूक़ाँ

    बरसर-ए-नाज़ और अदा देखा

    कहीं आशिक़ नियाज़ की सूरत

    सीना बरयाँ-ओ-दिल जला देखा

    इसी सिलसिले में दो शेर ग़ालिब के भी मुलाहिज़ा फ़रमाएँ,

    दहर जुज़ जलवा-ए-यकताई-ए-मा’शूक़ नहीं

    हम कहाँ होते अगर हुस्न होता ख़ुदबीं

    है तजल्ली तिरी सामान-ए-वुजूद

    ज़र्रा बे-पर्तव-ए-ख़ुर्शीद नहीं

    उर्दू ग़ज़ल से ऐसे सैंकड़ों अश्आ’र पेश किए जा सकते हैं। जैसा कि ज़ाहिर है इन में बार-बार यही कहा गया है कि आलम-ए-रंग-ओ-बू मज़हर-ए-सिफ़ात-ए-इलाही है। उसकी अस्ल वही मसदर-ए-हस्ती और ज़ात-ए-बारी है। असमा और अश्काल की कसरत नज़र का धोका है। कायनात का बे-अस्ल है और अस्ल ज़ात-ए-मुतलक़ है। कसरत महज़ यार की तजल्ली से दिखाई देती है वरना अस्ल तो वही वहदत है जो कायनात के ज़र्रे-ज़र्रे में जारी-ओ-सारी है। उर्दू के ग़ज़ल गो की नज़र में कायनात ख़याल का चमन है या हलक़ा-ए-दाम-ए-ख़याल,

    हस्ती के मत फ़रेब में जाइयो असद

    आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है

    कायनात को ‘नहीं’ और सिर्फ़ ज़ात-ए-मुतलक़ को ‘हां’ समझना, नज़र आने वाली चीज़ को मनफ़ी और नज़र आने वाली को मुसबत जानना, कायनात को महज़ जल्वा-गाह-ए-सिफ़ात ही नहीं बल्कि ज़ात को इसमें जारी सारी देखा, इन ख़यालात में और वेदांत की मावराईयत और तसव्वुरियत में ज़र्रा बराबर भी फ़र्क़ नहीं। ये और ऐसे तमाम ख़यालात जिन का उर्दू ग़ज़ल में बार-बार इज़्हार हुआ है, हिन्दुस्तानी ज़ेह्​न के इस बुनियादी रवय्ए के ग़म्माज़ हैं जो खालिक़ को तख़लीक़ से अलग नहीं समझता, जो कसरत को तादाद का तिलिस्म और वहदत को कायनात में भी हाज़िर-ओ-नाज़िर देखता है। तसव्वुरात की इस तख़ईली दुनिया में खासी शे’री कशिश है, क़तअ नज़र इसके कि शेख़ क्या कहता है और बरहमन क्या कहता है, ये मौज़ूआ’त और मज़ामीन उर्दू ग़ज़ल के अपने हो कर रह गए, और हर क्लासिकी शाइ’र ख़्वाह वो मुसलमान हो या हिन्दू या कोई और इन्हें सीने से लगाए नज़र आता है, इन वुजूदी ख़यालात के बहुत से दूसरे रुख़ और पहलू हैं, मसलन मुआशरती इत्तिहाद पसंदी, आलमी मज़हबों की बराबरी, ज़ाहिरदारी और ख़ारिज परस्ती की मज़म्मत, बाहम इश्तिराक और रवादारी की तलक़ीन और अस्ल जौहर या वुजूदी माद्दे की तलाश-ओ-जुस्तजू। इन सब पर रौशनी डालने की इस मुख़्तसर मज़मून में गुंजाइश नहीं। अलबत्ता जैसा कि ऊपर वाज़ेह किया जा चुका है कि अगर इन में से सिर्फ़ एक पहलू या’नी तसव्वुर-ए-ज़ात ही को लिया जाए तो भी उर्दू ग़ज़ल के फ़िक्री सरमाए में हिन्दुस्तानी ज़ेह्​न की कारफ़रमाई देखने और दिखाने के ख़ास शवाहिद मिल जाते हैं।

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