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उर्दू की हिन्दुस्तानी बुनियाद

गोपी चंद नारंग

उर्दू की हिन्दुस्तानी बुनियाद

गोपी चंद नारंग

MORE BYगोपी चंद नारंग

    उर्दू का तअल्लुक़ हिंदुस्तान और हिंदुस्तान की ज़बानों से बहुत गहरा है। ये ज़बान यहीं पैदा हुई और यहीं पली बढ़ी। आर्याओं की क़दीम ज़बान संस्कृत या इंडक चार पुश्तों से इसकी जद्द-ए-अमजद क़रार पाती है। यूँ तो हिंदुस्तान में ज़बानों के कई ख़ानदान हैं लेकिन इनमें से दो ख़ानदान ख़ास हैं, एक द्रावड़ी दूसरा हिंद आर्याई। हिंद आर्याई ख़ानदान की ज़बानें पूरे शुमाली हिंदुस्तान में फैली हुई हैं। जुनूब में गुजरात और महाराष्ट्र तक इन्हीं का चलन है।

    मसीह की पैदाइश से तक़रीबन डेढ़ हज़ार साल पहले जब आर्या हिंदुस्तान में दाख़िल हुए तो जो अवामी बोलियाँ वो बोलते थे, उनके मजमुए को इंडक के नाम से पुकारा जाता है। चारों वेद उन्हीं अवामी बोलियों में तख़लीक़ किए गए थे। बाद में पाणिनी और पातंजलि के ज़माने तक उन्हीं बोलियों के मुनज़्ज़ह और शुस्ता रूप को संस्कृत के नाम से पुकारा जाने लगा। बौद्धों और जैनियों के दौर में यही बोलियाँ अपने इर्तिक़ा की दूसरी मंज़िल में दाख़िल हो गईं और प्राकृतें यानी फ़ित्री बोलियाँ कहलाईं और आगे चल कर पांचवें सदी ईस्वी के लगभग इनकी बिगड़ी हुई शक्लें जो अपभ्रंश कहलाती थीं, इस्तेमाल में आने लगीं। ये हिंद-आर्याई के इर्तिक़ा की तीसरी मंज़िल थी।

    बा'ज़ प्राकृतें शुरू से राइज थीं। अपभ्रंशों में सबसे ज़्यादा असर वाली मर्कज़ी अपभ्रंश शूरसेनी कहलाती थी। ये अपभ्रंश पंजाब के मशरिक़ी हिस्सों से लेकर अवध के मग़रिबी हिस्सों तक राइज थी और इसकी कई बोलियाँ थीं। दसवीं सदी ईस्वी के लगभग ये और दूसरी हिंद-आर्याई बोलियाँ अपने इर्तिक़ा की चौथी मंज़िल में दाख़िल हुईं जिसे जदीद हिंद-आर्याई ज़बानों का दौर कहा जाता है। यही ज़माना मुसलमानों के हिंदुस्तान आने का भी है, जब सियासी नक़्शे के साथ-साथ हिंदुस्तान के तहज़ीबी और लसानी नक़्शे में भी तेज़ी से तब्दीलियाँ होने लगीं। हिन्दी, उर्दू और पंजाबी उसी शूरसेनी अपभ्रंश की जानशीन हैं।

    ग्रियर्सन की तक़सीम के मुताबिक़ हिन्दी की दो शाख़ें हैं: मशरिक़ी हिन्दी और मग़रिबी हिन्दी। मशरिक़ी हिन्दी में अवधि, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मघई, मैथिली वग़ैरा बोलियाँ शामिल हैं और मग़रिबी हिन्दी में खड़ी, ब्रिज, हरियाणी वग़ैरा। जदीद मेयारी उर्दू और जदीद मेयारी हिन्दी दोनों का तअल्लुक़ उसी मग़रिबी हिन्दी से है। इस लिहाज़ से उर्दू और हिन्दी का रिश्ता सगी बहनों का है और इन दोनों की बुनियाद एक है।

    उर्दू के इर्तिक़ा की कहानी हिन्दी के इर्तिक़ा के साथ जुड़ी हुई है। ये दास्तान ख़ासी दिलचस्प है कि इन दोनों का इर्तिक़ा मग़रिबी हिन्दी की बोलियों के साथ मिल कर कैसे हुआ। उर्दू की साख़्त, डोल और कैंडे का तअय्युन दसवीं, ग्यारहवीं सदी से सत्रहवीं अठारहवीं सदी तक होता रहा है। ये वो ज़माना था कि हिन्दुओं और मुसलमानों के इश्तिराक और नई तारीख़ी और तहज़ीबी ज़रूरतों के तहत जो ज़बान पैदा हो रही थी वो कई नामों से पुकारी जाती थी, कभी वो हिन्द्वी कहलाती थी, कभी गुजरी, कभी रेख़्ता, कभी उर्दू, कभी हिन्दी और कभी दक्कनी। शाहजहाँ के ज़माने के बाद क़िल-ए-मुअल्ला की रिआयत से उसे उर्दूए मुअल्ला भी कहा जाने लगा। आम ज़बान हिंदुस्तानी के नाम से जानी जाती थी। बाज़ारों में जहाँ लेन-देन होता था और जहाँ तिजारत की मजबूरियों से एक मिली जुली ज़बान बोलनी पड़ती थी वहाँ तो इस नौ-ज़ाईदा ज़बान का इस्तेमाल होता ही था, इसके अलावा ये संतों और सूफ़ियों की ज़बान भी बन गई थी।

    अवाम के दिलों तक पहुँचने के लिए तो संस्कृत का इस्तेमाल किया जा सकता था, फ़ारसी का बल्कि किसी ऐसी ज़बान की ज़रूरत थी जो आम-फ़हम हो और जो सबकी समझ में सके और ये मन्सब उसी गिरी-पड़ी, मिली-जुली रेख़्ता ज़बान को नसीब हुआ। हिन्दी वाले इसकी इब्तिदा ब्रिज के आग़ाज़ से करते हैं और उर्दू वाले पंजाबी और खड़ी से। इसकी वजह ये है कि अहद-ए-वुस्ता में हिन्दू तहज़ीबी रिवायतों का लिसानी वसीला-ए-इज़हार ब्रिज थी और हिन्दू और मुसलमानों के पहले हमागीर तहज़ीबी और लिसानी साबिक़े की सरज़मीन पंजाब थी। ब्रिज तो शूरसेनी की सच्ची जानशीन थी ही और इसका इर्तिक़ा तो होना ही था, लेकिन ऐन मुम्किन है कि वो बोली जो आगे चल कर खड़ी कहलाई, बड़ी हद तक हिन्दुओं और मुसलमानों के लिसानी और तह्ज़ीबी इश्तिराक से अपनी नश्व-ओ-नुमा में बराह-ए-रास्त तौर पर मुतास्सिर हुई हो। वो यूँ कि पुरानी हिन्द्वी बोली के नमूनों का ज़िक्र बारहवीं और तेरहवीं सदी से मिलने लगता है।

    क़यास कहता है कि ये नौ-ज़ाईदा ज़बान एक तरफ़ तो पुरानी पंजाबी से मुख़्तलिफ़ होगी, दूसरी तरफ़ ब्रिज से। अफ़सोस कि मसऊद साद सलमान का, जो महमूद ग़ज़नवी के ज़माने में लाहौर के शायर थे, हिन्द्वी कलाम दस्तयाब नहीं। मोहम्मद औफ़ी ने अपने तज़किरा-ए-लुबाबउल-अल्बाब में तस्दीक़ की है कि मसऊद ने हिन्द्वी में शे'र कहे थे। अगर इस ज़बान की इब्तिदा ग्यारहवीं और बारहवीं में ग़ज़नवियों के ज़माने में तस्लीम भी की जाए तो भी इस बात से किसी को इंकार नहीं हो सकता कि अमीर ख़ुसरो के ज़माने तक ये ज़बान एक ख़ास हद तक तरक़्क़ी कर चुकी थी। अमीर ख़ुसरो ने अपने तीसरे फ़ारसी दीवान में हिन्द्वी में शे'र कहने का फ़ख़्रिया एतिराफ़ किया है। लुत्फ़ की बात है कि अमीर ख़ुसरो को उर्दू और हिन्दी वाले दोनों अपना पहला शायर तस्लीम करते हैं। अमीर ख़ुसरो का इंतिक़ाल 1324 में हुआ।

    ये बात भी ग़ौर तलब है कि इससे तक़रीबन एक सदी पहले ख़िलजियों की फ़ौजों ने दक्कन पर हमला किया था और अठहत्तर बरस पहले जब मोहम्मद तुग़्लक़ ने पाया-ए-तख़्त देवगीर, दौलत-आबाद मुंतक़िल किया तो यही ज़बान वहाँ जाकर गुजरी और दक्कनी के नाम से मौसूम हुई और निहायत तेज़ी से अदबी ज़बान का दर्जा हासिल कर गई। शुमाली हिंदुस्तान में अभी फ़ारसी का असर था, इसलिए शुमाल के मुक़ाबले में दक्कन में इस पर तवज्जो ज़्यादा थी मगर शुमाल में भी अवामी तहरीकों और सूफ़ियों और संतों ने इसकी मक़्बूलियत को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। अगर-चे कृष्ण भगति तहरीक और अकबर के आगरा को राजधानी बनाने से ब्रिज का सितारा फिर से चमक उठा लेकिन शाहजहाँ ने जब दिल्ली को दोबारा बसाया तो खड़ी उस वक़्त तक अपने आपको पहचान चुकी थी और दिल्ली की सियासी और तहज़ीबी मर्कज़ीयत की वजह से इसका असर नई रेख़्ता ज़बान पर ग़ालिब आने लगा और देखते-ही-देखते उर्दू, उर्दूए मुअल्ला के मन्सब पर फ़ाइज़ हो गई और औरंगज़ेब के बाद से तो इसमें जैसे शे'र-ओ-शायरी की शाहराह खुल गई और ज़बरदस्त अदबी सर-गर्मी शुरू हो गई।

    ये वो ज़माना था जब हिन्दी अदब अभी ब्रिज, अवधि और राजस्थानी बोलियों का रहीन-ए-मिन्नत था। ये सब बोलियाँ भी हिन्दी कहलाती थीं और उर्दू को भी हिन्दी कहने में कोई क़बाहत महसूस नहीं की जाती थी। दर-अस्ल उस वक़्त तक उर्दू और हिन्दी दो ज़बानें थीं ही नहीं वरना फ़ज़ल अली फ़ज़्ली अपनी कर्बल कथा की ज़बान को नस्र-ए-हिन्दी क्यों कहते या मोहम्मद हुसैन ख़ाँ अता तहसीन नौ-तर्ज़ए-मुरस्सा के सबब तालीफ़ में इबारत रंगीन ज़बान-ए-हिन्दी लिखने पर फ़ख़्र महसूस क्यों करते या ग़ालिब अपनी उर्दू नस्र के लिए लफ़्ज़ हिन्दी इस्तेमाल क्यों करते। फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में उर्दू और हिन्दी में अलग-अलग दर्सी किताबें लिखवाई गईं। यहाँ चंद हिन्दी मुंशियों को ख़ास उस ख़िदमत पर मामूर किया गया कि वो उस ज़माने की ज़रूरत के पेश-ए-नज़र हिन्दी नस्र की किताबें तैयार करें। उसके बाद के बर्तानवी तसल्लुत, साम्राजी हिक्मत-ए-अमली, सियासी दबाव और बाहमी शक-ओ-शुब्हा ने एक पेड़ की दो शाख़ों को अलग-अलग करके रख दिया और एक बड़े तने से दो दरख़्त अलग-अलग बनते चले गए।

    लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हिन्दी और उर्दू के अलग-अलग अदबी ज़बान बन जाने से इन दोनों का लिसानी रिश्ता ख़त्म हो गया। दोनों की अदबी रिवायतें, अदबी मेयार, अदबी मौज़ूआत और अदबी तारीख़ कितनी ही अलग-अलग क्यों सही, दोनों का लिसानी ढाँचा अब भी एक है। अव्वल तो दोनों की तक़रीबन चालीस आवाज़ों में सिर्फ़ पाँच छः को छोड़ कर बाक़ी सब की सब एक हैं। हिंद आर्याई ज़बानों की सबसे बड़ी पहचान हकार आवाज़ों भ, फ, थ, ध, छ, झ, ख, का पूरा सेट है जो उर्दू में पूरा का पूरा मौजूद है। इसके अलावा माकूसी आवाज़ें ट, ड, ड़, और ठ, ढ, ढ़ भी उर्दू में जूँ की तूँ मौजूद हैं। ये आवाज़ें अरबी में हैं फ़ारसी में। सिर्फ़ नह्व का मामला ये है कि अस्माए सिफ़त तो उर्दू ने बड़ी तादाद में अरबी-फ़ारसी से लिए, लेकिन उर्दू फे़'ल का सरमाया सारा का सारा देसी है। उठना, बैठना, खाना, पीना, सोना, आना, जाना सैकड़ों हज़ारों फे़'ल जो ज़बान की रीढ़ की हड्डी हैं, कुल्लियतन हिंद आर्याई हैं।

    यही मामला मुरक्कब अफ़आल मसलन जाना, गिर पड़ना, मार डालना, टूट जाना, सुन लेना, दे देना वग़ैरा जैसे हिन्दी में हैं वैसे उर्दू में। यही हाल फे़'ल से बनने वाले मुहावरों का है मसलन आँखें बिछाना, आँखें भर आना, आँखें ठंडी होना, आँखें रौशन होना वग़ैरा या फिर मुहावरे हैं जो दोनों ज़बान के मुख़्तलिफ़ सरमाये का बेश क़ीमत हिस्सा हैं। मसलन जैसा देस वैसा भेस, घर की मुर्ग़ी दाल बराबर, डूबते को तिनके का सहारा, बच्चा बग़ल में ढिंढोरा शहर में, मुफ़्त की शराब क़ाज़ी को भी हलाल, घर का भेदी लंका ढ़ाए। और तो और हिन्दी और उर्दू की बुनियादी लफ़्ज़ियात एक है। मस्दर एक हैं। इम्दादी अफ़्आल एक हैं। हुरूफ़-ए-जार में, से, पर, तक, का, के, की, को, सब एक हैं। उसी तरह ज़मीरें एक हैं। सवालिया माद्दे एक हैं। बुनियादी और तौसीफ़ी आदाद एक हैं। गिनती एक है। जिस्म के आज़ा के नाम एक हैं, और तो और रिश्तेदारियाँ एक हैं और गालियाँ एक हैं।

    ये वाक़िआ है कि उर्दू हिंदुस्तान की इंतिहाई तरक़्क़ी-याफ़्ता ज़बानों में से है। अगर एक तरफ़ इसका दामन सामी और ईरानी ज़बानों से बंधा हुआ है तो दूसरी तरफ़ इसकी बुनियाद आर्याई है। इसका रस्म-उल-ख़त हिंदुस्तान और पाकिस्तान के अलावा मशरिक़-ए-वुस्ता के बीसियों मुल्कों में क़दरे इख़तिलाफ़ के साथ इस्तेमाल होता है। उर्दू के तक़रीबन साठ हज़ार अल्फ़ाज़ में से दो-तिहाई अल्फ़ाज़ यानी चालीस हज़ार अलफ़ाज़ संस्कृत और प्राकृतों के माख़ज़ से आए हैं। जिस ज़बान की जड़ें अपने मुल्क के लिसानी ज़ख़ीरे और इसकी तहज़ीबी सरज़मीन में इतनी गहरी हों, जिसका दामन इतना वसीअ हो, जिसके लह्जे में एक ख़ास कशिश और खनक हो, जिसके अंदाज़ में एक ख़ास शुस्तगी और शाइस्तगी हो, जिसकी क़ौमी ख़िदमात ऐसी वक़ीअ हों और जिसका अदबी सरमाया ब-शुमूलए-मीर, नज़ीर, ग़ालिब, अनीस, इक़बाल, फ़िराक़, फ़ैज़ इतना शानदार हो, वह ज़बान कभी मिट नहीं सकती। इस ज़बान पर हिंदुस्तान का ऐसा हक़ है जो कभी ठुकराया नहीं जा सकता और उर्दू का भी हिंदुस्तान पर ऐसा हक़ है जो ज़रूर वसूल होना चाहिए।

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