अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल 62
नज़्म 39
अशआर 64
इतने ख़दशे नहीं हैं रस्तों में
जिस क़दर ख़्वाहिश-ए-सफ़र में हैं
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कहाँ आ के रुकने थे रास्ते कहाँ मोड़ था उसे भूल जा
वो जो मिल गया उसे याद रख जो नहीं मिला उसे भूल जा
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बात तो कुछ भी नहीं थीं लेकिन उस का एक दम
हाथ को होंटों पे रख कर रोकना अच्छा लगा
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शबनमी आँखों के जुगनू काँपते होंटों के फूल
एक लम्हा था जो 'अमजद' आज तक गुज़रा नहीं
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सवाल ये है कि आपस में हम मिलें कैसे
हमेशा साथ तो चलते हैं दो किनारे भी
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क़ितआ 3
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