इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी के शेर
इक मुसलसल दौड़ में हैं मंज़िलें और फ़ासले
पाँव तो अपनी जगह हैं रास्ता अपनी जगह
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वो अपनी नफ़रतों को कहाँ जा के बाँटता
उस के लिए तो शहर में आसान मैं ही था
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फिर उस के ब'अद तअल्लुक़ में फ़ासले होंगे
मुझे सँभाल के रखना बिछड़ न जाऊँ मैं
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जो चुप रहा तो वो समझेगा बद-गुमान मुझे
बुरा भला ही सही कुछ तो बोल आऊँ मैं
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टैग : ख़ामोशी
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दर्द की सारी तहें और सारे गुज़रे हादसे
सब धुआँ हो जाएँगे इक वाक़िआ रह जाएगा
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वो ख़्वाब था बिखर गया ख़याल था मिला नहीं
मगर ये दिल को क्या हुआ क्यूँ बुझ गया पता नहीं
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