जगत मोहन लाल रवाँ के शेर
वो ख़ुश हो के मुझ से ख़फ़ा हो गया
मुझे क्या उमीदें थीं क्या हो गया
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टैग : ख़फ़ा
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उस को ख़िज़ाँ के आने का क्या रंज क्या क़लक़
रोते कटा हो जिस को ज़माना बहार का
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टैग : बहार
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तोड़ा है दम अभी अभी बीमार-ए-हिज्र ने
आए मगर हुज़ूर को ताख़ीर हो गई
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टैग : हिज्र
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पेश तो होगा अदालत में मुक़दमा बे-शक
जुर्म क़ातिल ही के सर हो ये ज़रूरी तो नहीं
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सामने तारीफ़ ग़ीबत में गिला
आप के दिल की सफ़ाई देख ली
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अगर कुछ रोज़ ज़िंदा रह के मर जाना मुक़द्दर है
तो इस दुनिया में आख़िर बाइस-ए-तख़्लीक़-ए-जाँ क्या था
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हँसे भी रोए भी लेकिन न समझे
ख़ुशी क्या चीज़ है दुनिया में ग़म क्या
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यही हस्ती इसी हस्ती के कुछ टूटे हुए रिश्ते
वगरना ऐसा पर्दा मेरे उन के दरमियाँ क्या था
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कुछ इज़्तिराब-ए-इश्क़ का आलम न पूछिए
बिजली तड़प रही थी कि जान इस बदन में थी
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अभी तक फ़स्ल-ए-गुल में इक सदा-ए-दर्द आती है
वहाँ की ख़ाक से पहले जहाँ था आशियाँ मेरा
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वो बादा-नोश हक़ीक़त है इस जहाँ में 'रवाँ'
कि झूम जाए फ़लक गर उसे ख़ुमार आए
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आएँ पसंद क्या उसे दुनिया की राहतें
जो लज़्ज़त-आश्ना-ए-सितम-हा-ए-नाज़ था
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