साग़र ख़य्यामी के शेर
मुद्दत हुई है बिछड़े हुए अपने-आप से
देखा जो आज तुम को तो हम याद आ गए
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जान जाने को है और रक़्स में परवाना है
कितना रंगीन मोहब्बत तिरा अफ़्साना है
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आम तेरी ये ख़ुश-नसीबी है
वर्ना लंगड़ों पे कौन मरता है
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कितने चेहरे लगे हैं चेहरों पर
क्या हक़ीक़त है और सियासत क्या
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उस वक़्त मुझ को दावत-ए-जाम-ओ-सुबू मिली
जिस वक़्त मैं गुनाह के क़ाबिल नहीं रहा
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कौन कहता है बुलंदी पे नहीं हूँ 'साग़र'
मेरी मे'राज-ए-मोहब्बत मिरी रुस्वाई है
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आई सदा-ए-हक़ कि यही बंद-ओ-बस्त हैं
तेरे वतन के लोग तो मुर्दा-परस्त हैं
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कहते थे मैच देखने वाले पुकार के
उस्ताद जा रहे हैं शब-ए-ग़म गुज़ार के
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मेहंदी लगे वो हाथ वो मीना सी उँगलियाँ
हम को तबाह कर गईं दिल्ली की लड़कियाँ
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देखे जो क़ैस हुस्न तो लैला को भूल जाए
हम क्या हैं रीश-ए-हज़रत-मौलाना झूल जाए
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इशारा हो तो मैं रुख़ मोड़ दूँ ज़माने का
बना दूँ तुम को मैनेजर यतीम-ख़ाने का
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