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शाद लखनवी

1805 - 1899

शाद लखनवी

ग़ज़ल 58

अशआर 21

विसाल-ए-यार से दूना हुआ इश्क़

मरज़ बढ़ता गया जूँ जूँ दवा की

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तड़पने की इजाज़त है फ़रियाद की है

घुट के मर जाऊँ ये मर्ज़ी मिरे सय्याद की है

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जवानी से ज़ियादा वक़्त-ए-पीरी जोश होता है

भड़कता है चराग़-ए-सुब्ह जब ख़ामोश होता है

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हम बिगड़ेंगे अगर चश्म-नुमाई होगी

फिर कहीं आँख लड़ाई तो लड़ाई होगी

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इश्क़-ए-मिज़्गाँ में हज़ारों ने गले कटवाए

ईद-ए-क़ुर्बां में जो वो ले के छुरी बैठ गया

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