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आल-ए-अहमद सुरूर

1911 - 2002 | अलीगढ़, भारत

आधुनिक उर्दू आलोचना के संस्थापकों में शामिल हैं।

आधुनिक उर्दू आलोचना के संस्थापकों में शामिल हैं।

आल-ए-अहमद सुरूर

लेख 39

उद्धरण 30

अदब इंक़लाब नहीं लाता बल्कि इंक़लाब के लिए ज़हन को बेदार करता है।

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ग़ज़ल हमारी सारी शायरी नहीं है, मगर हमारी शायरी का इत्र ज़रूर है।

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शायरी में वाक़िया जब तक तजरबा बने उसकी अहमियत नहीं है। ख़्याल जब तक तख़य्युल के सहारे रंगा-रंग और पहलूदार हो, बेकार है। और एहसास जब तक आम और सत्ही एहसास से बुलंद हो कर दिल की धड़कन, लहू की तरंग, रूह की पुकार बन जाये उस वक़्त तक इसमें वो थरथराहट, गूंज, लपक, कैफ़ियत, तासीर-ओ-दिल-गुदाज़ी और दिलनवाज़ी नहीं आती, जो फ़न की पहचान है।

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ग़ज़ल इबारत, इशारत और अदा का आर्ट है।

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फ़न की वजह से फ़न्कार अज़ीज़ और मोहतरम होना चाहिए। फ़न्कार की वजह से फ़न नहीं।

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तंज़-ओ-मज़ाह 1

 

अशआर 20

साहिल के सुकूँ से किसे इंकार है लेकिन

तूफ़ान से लड़ने में मज़ा और ही कुछ है

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हम जिस के हो गए वो हमारा हो सका

यूँ भी हुआ हिसाब बराबर कभी कभी

तुम्हारी मस्लहत अच्छी कि अपना ये जुनूँ बेहतर

सँभल कर गिरने वालो हम तो गिर गिर कर सँभले हैं

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बस्तियाँ कुछ हुईं वीरान तो मातम कैसा

कुछ ख़राबे भी तो आबाद हुआ करते हैं

हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं

और तो सब कुछ था लेकिन रस्म-ए-दिलदारी थी

ग़ज़ल 31

नज़्म 6

पुस्तकें 1493

ऑडियो 11

आज से पहले तिरे मस्तों की ये ख़्वारी न थी

कुछ लोग तग़य्युर से अभी काँप रहे हैं

ख़ुदा-परस्त मिले और न बुत-परस्त मिले

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