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Abr Ahsani Ganauri's Photo'

अब्र अहसनी गनौरी

1898 - 1973 | सोनीपत, भारत

अब्र अहसनी गनौरी का परिचय

उपनाम : 'अब्र'

मूल नाम : अहमद बख्श

जन्म :गनौर, हरयाना

निधन : 07 Nov 1973 | गनौर, हरयाना

सहाब-ए-सुख़न और जगत उस्ताद

अब्र अहसनी गन्नौरी क्लासिकी शायर और नौ मश्क़ शायरों के पसंदीदा उस्ताद थे। शागिर्द बनाने के मुआमले में उन्होंने अपने दादा उस्ताद की परंपरा को ज़िंदा रखा था। वो दाग़ के नामवर शिष्य अहसन मारहरवी के शागिर्द थे और इसी सम्बंध से ख़ुद को अहसनी लिखते थे। अब्र अहसनी गन्नौरी का अरसा-ए-हयात वो ज़माना था जब शायरों ने आम तौर पर माँ के पेट से ख़ुद उस्ताद हो कर पैदा होना नहीं शुरू किया था और अपने कलात्मक प्रशिक्षण के लिए किसी उस्ताद की ज़रूरत महसूस करते थे। दूसरी तरफ़ अब्र को भी शागिर्द बनाने का चसका था ये उनकी आर्थिक ज़रूरत भी थी क्योंकि वो उजरत लेकर इस्लाह दिया करते थे। यही ग़नीमत था कि वो मुसहफ़ी की तरह शे’र फ़रोख़्त करने से बच गए। उनके शागिर्दों की तादाद हज़ारों में थी जो सारे मुल्क में फैले हुए थे। शागिर्द बनने के लिए उतनी ही शर्त काफ़ी थी कि वो तुक बंदी कर लेता हो। इस उस्तादी ने उनसे वो तमाम आज़ादियां छीन ली थीं जिनका प्रायः शायरी तक़ाज़ा करती है। उनके नज़दीक तक़ती में किसी हर्फ़ का गिरना तो जुर्म था ही उसका दबना भी ऐब था।

अब्र अहसनी गन्नौरी का नाम अहमद बख़्श और उनके वालिद का नाम नबी बख़्श था। वो 1898 ई. में उतर प्रदेश के ज़िला बदायूंयों के क़स्बा गन्नौर में पैदा हुए। आरंभिक शिक्षा मकतब में पाई। उर्दू और फ़ारसी की आरंभिक किताबें पढ़ने के बाद गन्नौर के स्कूल में दाख़िला ले लिया जहां से उन्होंने सन् 1916 में मिडल (आठवीं जमात) का इम्तिहान पास किया। आर्थिक परेशानियों की वजह से वो उच्च शिक्षा नहीं हासिल कर सके लेकिन ख़ुद अपने तौर पर उन्होंने ज्ञान प्राप्ति का सिलसिला जारी रखा। उन्होंने मुंशी फ़ाज़िल और मुंशी कामिल के अलावा बी.टी. सी. (मुअल्लिमी) की परीक्षाओं को भी पास किया। मुंशी और कामिल के फ़ारसी कोर्स उन्होंने मौलवी रफ़ी उद्दीन आली से पढ़े जो गन्नौर में ही वकालत करते थे। अरबी में उनके उस्ताद हकीम हकीम उद्दीन गन्नौरी थे। पैतृक पेशा ज़मींदारी था जो ज़मींदारी की समाप्ति के बाद बहुत थोड़ी सी ज़मीन पर काशतकारी में तबदील हो गया था। शिक्षा समाप्ति के बाद अब्र कानपुर चले गए जहां एक शूगर फ़ैक्ट्री में ट्रेनिंग हासिल करने के बाद अलीगढ़ में एक शूगर फ़ैक्ट्री क़ायम कर ली लेकिन उस काम में उनको नुकसान हुआ और फ़ैक्ट्री बंद करनी पड़ी। फिर सन् 1920 में शिक्षण का पेशा अपनाया और कुछ ही अरसे में नवादा के मुक़ाम पर एक स्कूल के हेडमास्टर बन गए। 1947 ई. के देशव्यापी फ़सादात का बदायूं पर ख़ास असर हुआ था। मौलाना अब्र को भी जान बचा कर भागना पड़ा और वो रामपुर चले गए जहां उनके एक शागिर्द सय्यद मुहसिन अली हश्र रामपुरी ने सिफ़ारिश कर के उनको ओरिएंटल कॉलेज (मदर्सा-ए-आलिया) में नौकरी दिला दी, जहां से वो 1953 ई. में रिटायर हो कर गन्नौर वापस आगए।

मौलाना अब्र का बयान है कि उन्होंने 9 साल की उम्र से शायरी शुरू कर दी थी लेकिन इसका बाक़ायदा आग़ाज़ 1916 ई. से हुआ जब उन्होंने मुंशी सख़ावत हुसैन सख़ा शाहजहांपुरी से इस्लाह लेनी शुरू की। लेकिन कुछ ही अरसे बाद सख़ा उनसे नाराज़ हो गए और इस्लाह बंद कर दी। पाँच साल तक वो उस्ताद को राज़ी करने की कोशिश करते रहे लेकिन जब वो किसी तरह राज़ी नहीं हुए तो सन् 1922 में शागिर्द दाग़ अहसन मारहरवी से इस्लाह लेने लगे और सन् 1940 में उनकी मौत तक उनसे इस्लाह लेते रहे। अहसन मारहरवी से उनको बहुत फ़ैज़ पहुंचा। उस्ताद से श्रद्धा सुमन के रूप में उन्होंने 1948 ई. में मासिक “अहसन” जारी किया। मौलाना के शागिर्दों ने 1969 ई. में उनकी 70 वीं वर्षगांठ का जश्न धूम धाम से मनाया। उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उतर प्रदेश सरकार ने 600 रुपये सालाना उनका वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया था।  सन् 1930 तक वो बिला उजरत इस्लाह देते थे लेकिन उसके बाद उन्होंने अख़बारात में इश्तिहार देकर उजरत पर इस्लाह देने का ऐलान कर दिया। उनका सम्बंध बहाई फ़िर्क़ा से था लेकिन उनके कलाम में सच्चा मुसलमान होने की तमन्ना का इज़हार भी पाया जाता है। नहीं मालूम कि उन्होंने बहाई मज़हब कब और क्यों इख़्तियार किया।

मौलाना अब्र का सीमाब अकबराबादी के साथ पाँच साल तक नोक-झोंक चला। सीमाब ने दस्तूर उल इस्लाह में कई गुरुजनों के सुधारों को ग़लत बताते हुए सम्बंधित अशआर पर अपनी सुधार दी थी। मौलाना अब्र ने उनकी हर पकड़ और हर सुधार को ग़लत क़रार दिया। उनके उन आलेखों को इस्लाह उल इस्लाह के नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया।

उस्ताद अब्र अहसनी गन्नौरी शागिर्दों के अशआर पर इस्लाह देते हुए शे’र के ख़्याल को नहीं बदलते थे और न सारे मिसरों को निरस्त करके अपना शे’र उसके हवाले करते थे। बस शायर के अपने ख़्याल को शब्दों के मामूली बदलाव के साथ दुरुस्त कर देते थे कि इसमें कोई भाषायी या छंदशास्त्री ख़राबी बाक़ी न रहे। अदबी नज़रियात के हवाले से वो बहुत कट्टर थे। परम्परावाद उनके व्यक्तित्व का ख़ास हिस्सा था। वक़्त के शिद्दत से पाबंद थे। नफ़ीस इत्र, उम्दा डायरी, ख़ूबसूरत और रंगीन काग़ज़ और अच्छा क़लम मौलाना की पसंदीदा चीज़ें थीं। स्वभावतः निहायत ख़ुशअख़लाक़, बेतकल्लुफ़, सरल और ज़िंदा दिल इंसान थे। उनका देहांत सन् 1973 में हुआ। उनकी रचनाओं में इस्लाह उल इस्लाह, सफ़ीने, नगीने, मेरी इस्लाहें, क़रीने और शबीने ख़ास तौर पर उल्लेखनीय हैं। अपनी शायरी के बारे में अपने दीवान में इज़हार-ए-ख़याल करते हुए मौलाना ने लिखा कि “इस संग्रह में आपको सिर्फ मुहब्बत की ही रागिनी न मिलेगी बल्कि बहुत से अशआर ऐसे मिलेंगे जो वक़्त के तक़ाज़ों को पूरा करने वाले हों। मैंने अपनी ग़ज़लियात को कंघी-चोटी, मिलन व विरह और रक़ीब तक ही नहीं सीमित रखा बल्कि एक हद तक उनसे बचाव किया है, और ज़माने के साथ चलने की कोशिश की है। मैं गुरुजनों की प्रवृत पाबंदीयों का सम्मान करता हूँ। फ़न की तोड़ फोड़ पर मेरा ईमान नहीं बल्कि इस कृत्य को मैं जहालत से ताबीर करता हूँ।” अब्र की शायरी पर अपने विचार प्रकट करते हुए जोश मलसियानी ने कहा, “अब्र साहब ज़बान की सफ़ाई के साथ माअनवियत का दामन थामे हुए हैं और नाज़ुक से नाज़ुक विषय को बड़ी सफ़ाई से बयान कर जाते हैं। पुराने रंग और क्लासिकी शायरी के दिलदादा हैं मगर ज़माना-ए-हाल के पाकीज़ा तग़ज़्ज़ुल पर भी अनुभवी और मित्रवत दृष्टि रखते हैं। उर्यानी की कोई मिसाल ढ़ूढ़ने से भी नहीं मिलती। विषयों की पाकीज़गी को हमेशा अपना आशय जानते हैं।''

 

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