अबरार किरतपुरी
ग़ज़ल 20
नज़्म 13
अशआर 4
कहीं भी राह-नुमा अब नज़र नहीं आता
मैं क्या बताऊँ कि हूँ कौन सी जिहात में गुम
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ग़म से निस्बत है जिन्हें ज़ब्त-ए-अलम करते हैं
अश्क को ज़ीनत-ए-दामाँ नहीं होने देते
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वसवसे दिल में न रख ख़ौफ़-ए-रसन ले के न चल
अज़्म-ए-मंज़िल है तो हम-राह थकन ले के न चल
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हर इक इंसान के आमाल भी यकसाँ नहीं होते
कोई घर तोड़ देता है कोई तामीर करता है
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